Sunday, October 25, 2009

बेगम कुदसिया के बाग का बिगड़ा साज



दिल्ली में कश्मीरी गेट के ठीक उत्तरी छोर पर मुगल काल की एक निशानी नवाब बेगम कुदसिया का बाग इस समय भी मौजूद है, लेकिन उसकी वर्तमान स्थिति को देखकर उसकी प्राचीन स्थिति का अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है। क्योंकि अब न तो बेगम का महल उस हाल में है न बाग। दिल्ली सरकार ने उसके रख-रखाव की थोड़ी जिम्मेदारी ली है लेकिन बेगम द्वारा बनवाई गई मस्जिद पर अब भी दो इमामों का कब्जा है और मस्जिद में बकायदा रोज नमाज भी अदा की जाती है।
दरअसल यह बाग मुगल काल में बेगम कुदसिया कि आराम करने की पंसदीदा जगह थी।
इतिहासकारों का मानना है कि इसका निर्माण नवाब बेगम कुदसिया ने लगभग 1748 में करवाया था। नवाब बेगम कुदसिया के बारे इंडियन आर्कियोलॉजिकल सर्वे द्वारा जारी किताब उन्हें एक प्रसिद्ध नर्तकी और मुहम्मद शाह (1719-48) की चहेती बेगम बताती है। जबकि प्रसिद्ध इतिहासकार कासिम औरंगाबादी ने ‘अहवाल-उल ख्वाकीन,(एफ 42 बी)ज् और खफी खान ने ‘मुखाब-उल लुबाब,(पेज 689)ज् में कुदसिया फख्र-उन-निशा बेगम को जहान शाह की पत्नी और मुगल शासक मोहम्मद शाह रंगीला की मां बताया है।
इतिहासकारों का मानना है कि 27 मार्च 1712 में जहांदार शाह से लाहौर में युद्ध के दौरान जहान शाह की मृत्यु के बाद नवाब कुदसिया बेगम का प्रभाव उनके बेटे अहमद शाह पर पड़ा वह किसी तरह के निर्णय लेने के पूर्व अपनी मां से परामर्श लेता था।
दिल्ली में यमुना के किनारे कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस बाग में बेगम ने महल, झरना, मस्जिद और गर्मी में हवा के लिए लॉज सहित फूलों और फलों का बागीचा भी लगाया था। कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह बाग इरानी चारबाग की पद्धति का बना है।
ऐसा कहा जाता है कि लाल किले में सुल्तान के हरम में रहने वाली महिलाएं यहां आती थीं। यही नहीं संगीतकारों के रियाज के लिए भी यह पसंदीदा जगह थी। गर्मी के दिनों में यह बाग शाम को ठंडक के लिए और जाड़े की दोपहर में यहां लोग गुनगुनी धूप लेने आते थे।
ऐसा कहा जाता है कि इस बगीचे के चारो तरफ दीवार थी लेकिन 1857 में गदर में यहां का कुछ हिस्सा टूट गया।
वर्तमान में एएसआई ने इसके रख-रखाव के लिए काम शुरू किया है लेकिन यहां पर हुए अधिग्रहण के बारे में अभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
उधर अधिग्रहण करने वाले इमाम शकील अहमद का कहना है कि ‘इस मस्जिद पर हमारा हक है क्योंकि इससे पहले मेरे वालिद मुहम्मद असगर 40 साल से इसमें नमाज अदा करा रहे थे और इसकी देख-रेख भी वही करते थे।ज् यही नहीं इस मस्जिद के एक हिस्से पर शकील अहमद के चाचा नसीर ने भी कब्जा जमाया हुआ है। शकील का कहना है कि ‘इस मस्जिद के संबंध में 1974 से केस चल रहा है और हम वाजिब हक के लिए केस लड़ भी रहे हैं। इसमे पहले मदरसा चलता था लेकिन 1999 में वालिद के इंतकाल के बाद अब मस्जिद की देख-रेख और साज-सज्जा मैं ही करता हूं।ज् अपनी खूबसूरती के लिए महशहूर इस बाग में आज भी दीवारों पर बच्चों की लिखावट और सरकारी उपेक्षा से यहां टूटे शिलाखंड देखे जा सकते हैं।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...