उत्तर प्रदेश जमीन का एक टुकड़ा भर होता तो उसे उसी तरह बांट देने में कोई हर्ज नहीं था जिस तरह संयुक्त परिवार की जमीनें कई भाइयों में बंट जाती हैं। लेकिन वह एक राजनीतिक और सांस्कृतिक विचार है, जिस पर भारत की राष्ट्रीयता टिकी हुई है। इसलिए उसे बांटने से पहले यह सोचना होगा कि कहीं वह विचार टुकड़े-टुकड़े न हो जाए।
सैद्धांतिक तौर पर वह राजनीति विभाजन का विरोध नहीं कर सकती जो विकें्रीकरण का समर्थन करती है और मानती है कि प्रशासन की छोटी इकाइयों के मार्फत जनता की बातें ज्यादा ध्यान से सुनी जाती हैं और विकास तेजी से होता है। उस लिहाज से मुख्यमंत्री मायावती ने अपने मंत्रिमंडल से प्रदेश के विभाजन का प्रस्ताव पास कर एक ठोस राजनीतिक पहल की है और उसका ठीक-ठीक जवाब कोई राजनीतिक दल नहीं दे पा रहा है। लेकिन सिद्धांत और व्यवहार के अलावा उत्तर प्रदेश में कहीं कुछ एेसा है जो उसके लोगों को भावनात्मक तौर पर विभाजन के साथ नहीं खड़ा होने देता। यही कारण है कि समाजवादी पार्टी ने इस विभाजन के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया है और कांग्रेस व भाजपा दोनों परोक्ष तौर पर इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। हालांकि मुजफ्फरनगर से बलिया तक फैला उत्तर प्रदेश भावनात्मक तौर पर एक नहीं है यह बात प्रदेश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक यात्रा करने वाला कोई भी महसूस कर सकता है। बलिया का व्यक्ति अपने को भावनात्मक तौर पर बिहार के ज्यादा करीब पाता है और मुजफ्फरनगर का व्यक्ति हरियाणा और दिल्ली के। मुजफ्फरनगर और मेरठ का व्यक्ति लखनऊ के आगे बिहार मानता है। लेकिन पिछले बीस सालों में हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश के बिहारीकरण के अलावा उसका एक और चरित्र रहा है। उसका एक चरित्र अवध का भी है और वही दरअसल उत्तर प्रदेश का असली चरित्र है। अवध का बागी चरित्र, उसकी गंगा जमुनी तहजीब, उसकी रचनात्मकता और उसका शहरी और गंवई चरित्र ही दरअसल उत्तर प्रदेश की पहचान है। उसके पास इलाहाबाद है जहां पूरब का आक्सफोर्ड कहा जाने वाला विश्वविद्यालय है तो बनारस(और सारनाथ) जसा सांस्कृतिक कें्र है जिसका दुनिया में कोई सानी नहीं। फिर सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक लखनऊ तो है ही। यहां हिंदू संस्कृति का कें र तो रहा ही है इस्लामी शिक्षा का दुनिया में सबसे बड़ा कें्र देवबंद भी मौजूद है। उन सभी को उदारता के साथ जोड़ता रहा है अवध।
अवध को कें्र में रखकर ही उत्तर प्रदेश बनता और बिगड़ता रहा है। देश के जिस भी राजनेता ने देश की आजादी में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और बाद में राष्ट्र निर्माण का सपना देखा उसके मन में अवध की आजादी पसंद व्रिोही भावना और जाति, धर्म की मेलमिलाप की संस्कृति रही है। वह भावना पूर्वी उत्तर प्रदेश , बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को एक सूत्र में पिरोती रही है। यह महज संयोग नहीं है कि इस देश में समाजवाद का सपना देखने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू ही नहीं आचार्य नरें्र देव और डा राममनोहर लोहिया का अवध से संबंध रहा है। अवध की भूमि में एेसे आंदोलन और विचार पैदा हुए हैं जो इस देश को उस मध्यमार्ग की ओर ले जाते हैं जहां लोकतांत्रिक समाजवाद को जाना चाहिए। अंग्रेजों के प्रचार के विपरीत अवध न तो कायर रहा है न ही विलासी। वह 1857 से लेकर देश के तमाम बड़े किसान आंदोलन की भूमि रहा है और उसके प्रशासकों ने अपनी जनता के साथ क्रूरता नहीं की, इसी से साम्राज्यवादी नाराज रहे हैं।
लेकिन उत्तर प्रदेश में पिछले 25 सालों से जो राजनीति रही है वह अवध से अलग कहीं सोमनाथ से लाई गई थी तो कहीं महाराष्ट्र से। जाति और धर्म के तनावों को ढीला करना और वर्णव्यवस्था की असमानताओं को कम करना एक बात है, लेकिन उसके आधार पर समाज में विखंडन पैदा करना दूसरी बात है। यह महज संयोग नहीं है कि लंबे समय से विकास के नाम पर अलग होने की मांग करने वाला उत्तराखंड तभी अलग हुआ जब मुलायम सिंह यादव ने वहां मंडल आयोग लागू करने की कोशिश की। यह भी संयोग नहीं है कि उत्तर प्रदेश के विभाजन का आरंभिक प्रस्ताव देने वाले चौधरी चरण सिंह मूल रूप से समाजवादी नहीं थे और न ही अवध की विरासत के वाहक। वे पूंजीवाद के समर्थक थे। आज भी जो लोग प्रदेश को विभाजित करने की मांग कर रहे हैं उनमें पूंजीवाद के लिए गहरा आकर्षण है। वे उदारीकरण की बयार में बहने वाले हैं।
भारतीय जनता पार्टी के मंदिर आंदोलन ने मंडल से पैदा हुए जातिगत विभाजन को दूर करने के नाम पर प्रदेश को इस तरह से झकझोरा कि वह सारी मजबूती के बावजूद भीतर से टूट गया। रही सही कसर उन मंडल और आंबेडकरवादी आंदोलनों ने कर दी जो मूलत: उत्तर प्रदेश की भूमि से नहीं उपजे थे। हालांकि डा राममनोहर लोहिया भी लखनऊ की ब्राह्मण बनिया राजनीति को तोड़ने की बात करते थे और वह जरूरी भी था। उसे तोड़ने में मंडल और आंबेडरवादी आंदोलनों ने महान भूमिका निभाई। उसके लिए उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है। लेकिन उनकी यह तारीफ वहीं तक होनी चाहिए जहां तक वे समतावादी मूल्यों में यकीन करते हैं। उनकी दिक्कत यह हुई कि वे जातिगत समता के सूत्र को तो लेकर चलना चाहते थे लेकिन उन्होंने आर्थिक समता और राजनीतिक लोकतंत्र की किसी अवधारणा में विश्वास नहीं किया। वे लोगों से महज वोट के लिए जुड़े और टूटे समाज को नए सिरे से जोड़ने का उन्होंने कोई उपक्रम नहीं किया। यही वजह है कि वे समता और भाईचारा सम्मेलन करने के बजाय ब्राह्मण सम्मेलन कर रहे हैं।
लेकिन उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि देश के नवनिर्माण के मॉडल पर चर्चा करते करते उत्तर प्रदेश के राजनेता अचानक इतने बौने होते गए कि उनके पास प्रदेश के विखंडन की ही चर्चा का एजेंडा बचा। वे यह भूल गए कि उत्तर प्रदेश इसीलिए पिछड़ा क्योंकि वहां विखंडन की राजनीति की प्रयोगशाला का बर्नर बीस सालों तक जलता रहा। उसने आर्थिक विकास की उन सभी योजनाओं को जला डाला जिन्हें बहुत पहले बुंदेलखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश जसे पिछड़े इलाकों में पहुंच जाना चाहिए था। उसने लोगों की वर्गीय और इलाकाई असमानता पर ध्यान ही नहीं दिया। उसने पहले प्रतिक्रिया की राजनीति की और बाद में उस पर स्वार्थ के मेलमिलाप का लेप चढ़ाने की कोशिश। लेकिन 1977, 1993 और अन्य दूसरे मौकों पर उत्तर प्रदेश ने दमन, तानाशाही और विखंडन की राजनीति का करारा जवाब भी दिया है। क्या 2012 में भी वह अपने लिए कोई नया विकल्प लेकर आएगा?