Friday, December 26, 2008

कला फिल्मों पर बाजार का दबाव

कला फिल्मों पर बाजार का दबाव
फिल्म अभिव्यक्ति की वह विधा है जो वर्तमान समय में शायद सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रभावी है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से इक्सवीं सदी के पूर्वार्ध के बीच भारत ही नहीं विश्व सिनेमा ने एक पूरे सौ साल का सुनहरा दौर देखा है। मूक फिल्मों से लेकर वाचाल फिल्मों की लम्बी यात्रा तय की है। उन मानवीय संवेदनाओं को छुआ है जो मार्मिक ही नहीं जीवंत भी हैं। आलमआरा से बोलती फिल्मों की जो शुरूआत हुई वह आज चिल्ला रही है लेकिन वह चीख किसी संवेदना कि नहीं बल्कि उपभोक्तावाद की है। शायद इसी तरह के किसी वाद ने फिल्मों को दो भागों में बांट दिया, कला फिल्में और व्यावसायिक फिल्में। इसी के साथ फिल्म निर्माण की कला भी बाजार देखकर उभरने लगी। और आज विश्व में सबसे अधिक फिल्में हमारे देश में बनाए जाने लगी हैं। लेकिन वहीं एक प्रश्नचिह्न भी खड़ा हो गया कि जो फिल्में बन रही है क्या वह समाज के लिए सार्थक सिनेमा कि उपज मानी जा सकती हैं? प्राय: निर्माता निर्देशकों के बीच यह बहस का मुद्दा रहा है कि सार्थक सिनेमा क्या है? इस पर आज भी एक राय नहीं है। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी हैं जो समाज की कसक, पीड़ा, संवेदना और कुंठा को पर्दे पर लाती हैं और दर्शक उसे देखते ही उससे आत्मसात् कर लेता है। इस तरह की फिल्में अधिकतर कला फिल्मों के दायरे में आती हैं। लेकिन वर्तमान में कला फिल्मों का निर्माण करने से निर्देशक कतरा रहे हैं या कला फिल्में बनाने वाले निर्देशक अब व्यावसायिक फिल्मों की ओर रुख करनें लगे हैं।
जब कला फिल्मों की बात आती है तो सत्यजीत रे का नाम पहले लिया जाता है। ‘पाथेर पांचालीज् को देखकर कौन प्रभावित नहीं हुआ है उसे आज भी एक कालजयी कला फिल्म का दर्जा प्राप्त है। इसी तरह विमल दा कि ‘दो आंखे बारह हाथज् हो या ‘दो बीघा जमीनज् या फिर ‘बंदिनीज् इन फिल्मों में कला फिल्मों का संपूर्ण समन्वय देखने को मिल जाएगा। यही कला गुरूदत्त की फिल्मों में भी देखने को मिल जाती है। इसके बाद तो कला फिल्मों कि एक लम्बी श्रृंखला है जो उस दौर में बहुत प्रभावी तो नहीं रही लेकिन हां उसने अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज करा दी। षिकेश मुखर्जी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, महेश भट्ट या फिर प्रकाश झा ऐसे निर्देशक आए जिन्होंने कला फिल्मों से ही अपनी शुरुआत की लेकिन समय के साथ साथ उन पर बाजार का बुखार चढ़ने लगा और देखते ही देखते वह भूमंडलीकरण के दबाव को ङोल नहीं सके।
गोविंद निहलानी ने जिस शिद्दत से आक्रोश, अर्धसत्य, गांधी या दृष्टि बनाई थी उसके बाद देव जसी कमार्शियल फिल्म का निर्माण इन फिल्मों से कमाई न होने की परिणति ही है। यही नहीं महेश भट्ट जिनकी शुरुआत ही कला फिल्म सारांश और अर्थ से हुई वह जल्द ही बाजार की समझ जान गए और आशिकी, क्रिमिनल, नाम, दिल है कि मानता नहीं जसी फिल्मों के निर्माण की फैक्ट्री ही खोल ली, जिसमें साल में कई फिल्मों का निर्माण होता है। कुछ इस तरह की बात प्रकाश झा के बारे में भी कही जा सकती है जिन्होनें दामुल, मृत्युदंड, परिणति जसी कला फिल्में तो दीं लेकिन स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया कि अब बिना पैसों के काम नहीं चलेगा और अपहरण, गंगाजल जसी फिल्मों का निर्माण किया, परन्तु श्याम बेनेगल ने जिस लगन से अंकुर, निशांत, मंथन, कलयुग या सरदारी बेगम बनाई उसी लगन से मंडी और आरोहण भी बनाया। लेकिन इक्कीसवीं सदी में हरी-भरी और जुबैदा शायद उस अनुरूप नहीं बन पाई।
आज यदि देखा जाए तो कला फिल्मों का निर्माण अब मॉस को ध्यान में रखकर किया जा रहा है न कि क्लास को। क्योंकि फिल्म का निर्माण महज एक जुनून नहीं रह गया है बल्कि यह एक विशुद्ध लाभ का व्यवसाय बन गया है जिसमें कोई निर्माता घाटा सहना नहीं चाहता। इसीलिए इन फिल्मों के प्रमोशन में भी कोई कमी नहीं की जा रही है। आज के निर्माता निर्देशक कला और कमर्शियल फिल्मों में कोई अंतर भी नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि जो फिल्में बिजनेस दें वो कमर्शियल फि ल्म हैं, फिर चाहे वो किसी गंभीर विषय पर ही क्यूं न बनी हों। चांदनी बार को ही ले लीजिए। यह परिभाषा बाजार ने दी है। फिर भी आजकल निर्देशकों की एक नई पीढ़ी आई है जिसमें सुधीर मिश्र नें चमेली, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, मैं जिंदा हूं या ये वो मंजिल नहीं जसी फिल्में दी। जो एक नई पीढ़ी की शुरुआत मानी गई। इसी तरह अनुराग बसु की फिल्में हैं जो केवल अलग पृष्ठभूमि पर ही नहीं बनी बल्कि एक सामाजिक संक्रमण को बखूबी दर्शाती हैं। इसी तरह रितुपर्णो घोष की चोखेर बाली, रेनकोट या तितली सामाजिक संरचना और मानवीय स्वभाव की अभिव्यक्ति को जिस तरह उद्घाटित किया है, उससे फिल्म जगत में एक नई संभावना देखने को मिली है। कुछ इसी तरह की उम्मीद मधुर भंडारकर से भी जागी है, जब उन्होंने चांदनी बार, पेज थ्री और सत्ता जसी फिल्में समाज और राजनीति के नए समीकरणों परिभाषित किया। नागेश कुकनूर ने जिस बारीकी से डोर का निर्माण किया है उसमे महिला सशक्तीकरण की छाप दिखाई देती है।
सवाल यह है कि ये प्रतिभाशाली निर्देशक अब लीक से हट कर फिल्में तो बना रहे हैं, लेकिन क्या वो बाजार के दबाव का मुकाबला कर पाएंगे? प्रश्न यह उठता है कि जब बाजार कला को नियंत्रित करेगा, तो क्या अभिव्यक्ति का वह रूप सामने आ पाएगा जो दर्शकों के मनोभावों तक पहुंच पाए या उनकी संवेदनाओं को झकझोर दे। या फिर कला फिल्म कही जाने वाली फिल्में भी बाजार के दबाव में मसाले की चाशनी में लग कर आएंगी।
अभिनव उपाध्याय

कैनवस पर आस्था


‘कैनवस पर आस्था
अभिव्यक्ति के अनेक माध्यम है लेकिन जब तूलिका अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है तो कैनवस पर उभरी आकृति कलाकार की मनोवृत्ति स्वयं स्पष्ट कर देती हैं।
डा. निशा जायसवाल एक ऐसी ही कलाकार हैं। जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम तूलिका है और उससे चित्र बनाना एक साधना।
यूं तो वह दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं लेकिन कला के प्रति उनका समर्पण देखते ही बनता है। 32 वर्ष से अध्ययन और अध्यापन से समय निकालकर कला की जो साधना वह करती हैं, वह जब लोगों के सामने आई तो कला के पारखियों ने इनकी कृतियों को उत्कृष्ट कृतियों का दर्जा दिया।
दिल्ली के इंडिया हेबिटेट सेंटर में आयोजित इनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में आए सोमनाथ चटर्जी, उस्ताद अमजद अली खां, नामवर सिंह, नफीसा अली जसे कद्रदानों ने उनकी कृतियों को देखकर काफी सराहना की। अपनी पेंटिंग्स की पहली प्रदर्शनी पर इस तरह की प्रतिक्रिया को लेकर उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। उनका कहना है कि ‘यह मेरे चित्रों की पहली प्रदर्शनी थी और लोग इसे इतना पसंद करेंगे, मुङो ऐसी उम्मीद नहीं
कला की यह यात्रा कबसे शुरू हुई? पूछने पर वह बताती हैं कि ‘मैं मूलत: पूर्वी उत्तर प्रदेश में पड़रौना के मारवाड़ी परिवार से हूं। इस परिवार की लड़कियां बहुत खूबसूरत मेंहदी अपने हथेलियों पर सजाती थीं। एक दिन उन्होंने भी झाड़ से एक सींक खींचकर अपनी हथेली को मेंहदी से सजा लिया। यह एक छोटा सा प्रयास था लेकिन जिसने भी इसे देखा उसने काफी सराहना की। यहीं से कला के प्रति प्रतिबद्धता जागी और इसके बाद बारीक आकृतियों और रेखाओं को कैनवस पर उतारने लगी। 16 वर्ष की आयु से शुरू कला की यात्रा यह अविराम जारी है।ज्
वह बताती हैं कि ग्रेजुएशन से पहले तो वह कवि बिहारी की नायिकाओं, खजुराहो की मूर्तियों, मयूर पक्षी और सौंदर्य प्रधान अनुकृतियों को अपनी रचना का केंद्र बनाती रही लेकिन ग्रेजुएशन के बाद देवी-देवताओं और मयूर पक्षी पर ही अपनी कला को केंद्रित किया। यह पूछे जाने पर कि आपने देवी-देवताओं और मयूर पर ही अपनी अनुकृतियां क्यों केंद्रित की? उनका कहना है कि ‘ईश्वर में अटूट आस्था के कारण हमने देवी-देवता को चुना। जब मैं ईश्वर की कृतियों को बनाती हूं तो ऐसा लगता है कि ईश्वर स्वयं अपने को बना रहा है। मेरा हाथ तो केवल माध्यम है। मोर पंक्षी के बारे में वह बताती हैं कि, वह उमंग का द्योतक है। वर्तमान समय में भागती-दौड़ती जिंदगी में आदमी के पास बहुत तनाव है। लेकिन एक मोर मदमस्त अपनी धुन में नाचता है और उसे देखकर मन खुश हो जाता है।ज्
डा. निशा की पेंटिंग्स में राजस्थानी लोक कला, विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र, ड्रेगन आदि के चित्र भी मोर की पेंटिंग्स में दिख जाते हैं। इसी तरह उनके ‘सूरजज् की कृति में उससे संबंधित बादल, घोड़े आदि उससे संबंधित कई चित्र दिख जाते हैं। डा. निशा ने श्रीनाथ, लक्ष्मी-गणेश और मयूर समेत कुल 19 कृतियां बना चुकी हैं।
लगभग 25 वर्षो में मात्र 19 कृतियां ही बनाए जाने पर उन्होंने बताया कि ‘इस तरह की कृतियां बनाना एक कठिन कार्य है और मैं पेशे से प्रवक्ता हूं इसलिए चित्रकारी के लिए पूरे वर्ष में मुङो मुश्किल से एक से डेढ़ महीने ही मिलते है। गर्मी की छुट्टियों में जब में पड़रौना जाती हूं तभी ये संभव हो पाता है। इसके लिए प्रतिदिन एक बार छ: से सात घंटे तक काम करती हूं। फिर भी कभी-कभी किसी चित्र को पूरा करने में दो से तीन गर्मी की छुट्टियां निकल जाती हैं।
वह बताती हैं, ‘दरअसल चित्रकारी मेरे लिए एक साधना है, एक तपस्या है, एक श्रद्धा है। कभी-कभी लगता है कि ये तनाव मुङो परोक्ष रूप से ऊर्जा देता है। जिसके फलस्वरूप एक सुंदर कृति का सृजन होता है।ज् डा. निशा के चित्र देखने के बाद लगता है कि यह आपसे संवाद करते हैं। यूं तो इन चित्रों की एक नई शैली है लेकिन इस पर लोक कला, तिब्बत की थंकाव व मधुबनी चित्रकारी का प्रभाव देखा जा सकता है। वह बताती है कि ‘मैं यामिनी राय के स्क्रेच से काफी प्रभावित हूं।ज्
इन चित्रों को किस तरह बनाती हैं? पूछने पर वह बताती हैं कि देवी-देवताओं को मैं ब्लैक एंड व्हाइट में बनाती हूं। जिसके लिए मैं ग्राफ पेन का इस्तेमाल करती हूं और मोर के लिए जल रंगों व दो नंबर के ब्रश का सहारा लेती हूं। चित्र चाहे ब्लैक एण्ड व्हाइट हो या रंगीन, दोनों को बनाना एक कठिन साधना जसा है क्योंकि कोई भी लाइन खींचने से पहले मैं सांस रोक लेती हूं, क्योंकि एक गहरी या सामान्य सी सांस भी सारी मेहनत पर पानी फेर सकती है। रंगीन चित्र बनाते समय ब्रश को चूसकर उसे नुकीला बना लेती हूं और फिर उस पर रंग लगाती हूं।ज् अपनी कृतियों के बारे में वह बताती हैं कि ‘मैंने कभी नहीं चाहा कि मेरी कृति केवल बुद्धिजीवी वर्ग की आलोचना तक सीमित रहे। शायद इसीलिए मुङो अमूर्त कला ने कभी आकर्षित नहीं किया। मेरे जीवन से जुड़ा हर व्यक्ति मेरा गुरु है। मेरा प्रशिक्षक है और मेरा समीक्षक है। इन्हीं की प्रतिक्रियाओं ने मुङो अपनी शैली को विकसित करने में सहयोग दिया है। वह कहती हैं कि मैं इस कला को घर-घर तक पहुंचाना चाहती हूं।ज्
-अभिनव उपाध्याय

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