Monday, September 28, 2009

एक थे बनारसी प्रिंसेप






जेम्स प्रिंसेप गजब के प्रतिभाशाली व्यक्ति। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी था। इस सब से अलग एक खास बात यह थी कि बनारस से उनको अगाध प्रेम था। बनारस ही नहीं, बल्कि गंगा को भी वे ‘हमारी गंगाज् कहते थे। बनारस के लिए जितना जेम्स प्रिंसेप ने किया वह अतुलनीय है। शायद ही किसी एक शहर के लिए एक व्यक्ति ने इतना किया होगा। ओपी केजरीवाल ने पिं्रसेप की इस काम को लेकर और उनके परिवार से मिली सामग्री के आधार पर एक पुस्तक तैयार की है जिसे पिलग्रिम्स पब्लिशिंग ने हाल ही में प्रकाशित किया है। केजरीवाल जेम्स की बायोग्राफी और भारत में प्रिंसेप परिवार के इतिहास पर भी काम कर रहे हैं। उनसे इस किताब और इसके अद्भुत नायक पर यह बातचीत अभिनव उपाध्याय ने की है।



प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप के लिए ‘बहुमुखी प्रतिभावानज् शब्द भी शायद कम पड़ेगा? आप जेम्स की प्रतिभा को कैसे व्याख्यायित करेंगे? उनका कौन सा रूप आपको सबसे अधिक आकर्षित करता है?

उत्तर- बहुत से प्रतिभाशाली व्यक्ति हुए हैं लेकिन उनका किसी एक विशेष विषय में ही नाम हुआ है। जसे सुकरात को हम एक दार्शनिक के रूप में ही जानते हैं, मोजार्ट को एक श्रेष्ठ संगीतज्ञ के रूप में। लेकिन उसका व्यक्तित्व बहुमुखी था। मुङो लगता है कि वह लियोनाडरे द विंची के करीब था। लेकिन लियोनाडरे द विंची और उसमें फर्क है, जेम्स प्रिंसेप जो करता था उसके बारे में लिखता था। उसके लेख विभिन्न विधाओं में हैं। उसने ब्राह्मी लिपि पढ़कर भारत को अशोक का उपहार दिया। हमारे भारतीय इतिहास का बहुत बड़ा प्रतिशत या तो उसने खोजा है या उसमें हिस्सा लिया है। उसने कनिष्क, गुप्त वंश आदि अनेक वंशों को पढ़ा। प्राचीन राजवंशों की खोज में भी उसका योगदान है। वह बांसुरी बजाता था, नाटक करता था और भी बहुत कुछ..

प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप की ‘बनारस की खोज और बनारस निर्माणज् की मुख्य बातें क्या थीं, जो इस किताब में आई हैं?

उत्तर-जेम्स ने बनारस की खोज नहीं की इसका निर्माण किया। बनारस का पहला नक्शा जेम्स ने बनाया। वहां के लोगों की प्रामाणिक जनगणना, सबसे पहले भूमिगत नाली प्रणाली उसने बनवाई जो आज भी काम कर रही है। किसी ने उसके बारे में कहा है कि वह आधुनिक बनारस का निर्माता था, जिससे मैं पूर्णत: सहमत हूं। वहां पर उसने कर्मनाशा नदी का पुल बनवाया। उसका निर्माण कार्य देखने वह रोज 30 किमी घोड़े से जाता था। उस पुल पर आज भी गाड़ियां चलती हैं। अब तक कोई भी व्यक्ति बनारस के लिए इतना काम नहीं किया है। उसने बनारस के हर घर का नक्शा बनाया। बनारस के प्रति उसका प्रेम आदरणीय था, क्योंकि वह गंगा नदी को अपने लेखों में ‘हमारी गंगा जीज् कहकर संबोधित करता है।

प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप को बनारस पर जारी सामग्री में से इस पुस्तक को जारी करने में किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

उत्तर- जेम्स प्रिंसेप के बारे में भारत में कुछ खास नहीं मिला। मैं लंदन में प्रिंसेप खानदान के बारे में खोज कर रहा था कि वहां से कुछ मिल जाए। इसके लिए वहां की फोन डायरेक्ट्री में प्रिंसेप परिवार से संबंधित नम्बर लिया।
उनसे मिलने गया लेकिन वे लोग भी जेम्स के बारे में अधिक नहीं जानते थे। उन्होंने अन्य लोगों के नम्बर दिए लेकिन कुछ बात नहीं बनी। कुछ दिन बाद उन्होंने कहा कि उनके पास एक पुराना बक्सा है शायद उसमें उसकी जरूरत की कुछ चीजें हों। उस बक्से को खोलने पर उसमें अद्भुत सामग्री मिली। मैं उसे भारत लाना चाहता था लेकिन वे लोग भारत के लोगों को लापरवाह मानते हैं। मैं लगातार उनके संपर्क में रहा। एक दिन उन्होंने बताया कि वह घर खाली कर रहे हैं और मैं वह सामग्री ले आया। उसके बाद मैंने अपनी किताब एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल में एक अध्याय जेम्स प्रिंसेप पर लिखा।


प्रश्न-इस किताब को तैयार करने में कितना समय लगा?

उत्तर- इस किताब को तैयार करने में तीन साल लग गए। लेकिन इस परिवार पर मैं पिछले 15 सालों से काम कर रहा हूं। मेरा मानना है कि आधुनिक भारत का इतिहास प्रिंसेप के बिना नहीं लिखा जा सकता। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इसके नाम को बनारस के अधिकतर लोग नहीं जानते। उसने वहां पर सोसायटी फार दी सेप्रेशन आफ द वायस नामक संस्था बनाई।

प्रश्न- बनारस पर बहुत लिखा जा चुका है। आपका काम इससे किस तरह से अलग है?

उत्तर- इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। उन्नीसवीं शताब्दी का सही इतिहास इस किताब में मिलता है। सबका दृष्टिकोण अलग है। इसमें जेम्स प्रिंसेप के योगदान को लेकर उस समय के दृश्य उपस्थित किए गए हैं। अब तक बनारस को लेकर जेम्स प्रिंसेप पर कुछ नहीं लिखा गया है। काशी का एकमात्र इतिहास डा. मोतीचन्द ने ‘काशी का इतिहासज् लिखा लेकिन जेम्स प्रिंसेप के बारे में कुछ नहीं था। इसके नए संस्करण में मैंने एक लेख जेम्स प्रिंसेप लिखा। यह दुखद है कि अभी तक इस बुद्धिजीवी पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया।

प्रश्न-बनारस को लेकर हमेशा से एक सम्मोहन रहा है। क्या आपमें भी किसी तरह का सम्मोहन था? इसे यह किताब किस तरह तृप्त कर पाती है?

उत्तर- बनारस के प्रति मेरे मन में एक समर्पण की भावना है। जब सेवानिवृत्ति के बाद बनारस गया तो वहां ‘वाराणसी जागृति मंचज् से जुड़ा लेकिन मुङो बतौर केंद्रीय सूचना आयुक्त बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। इसके बाद फिर बनारस गया। वहां गंगा के बचाव के लिए ‘गंगा महासभाज् में भाग लिया। यह गौर करने वाली बात है कि विश्व के लोग भारत के और किसी शहर को इतना नहीं जानते जितना बनारस को जानते हैं। यह किताब भी इसी समर्पण का प्रतिफल है। अगले साल तक दो और किताबें बनारस पर आ जाएंगी।

प्रश्न- इस किताब के पृष्ठों में रेखांकनों, चित्रों में जो बनारस उभरता है, उसके बरक्स आज का बनारस अपने तमाम सम्मोहन के बावजूद, कहां ठहरता है? इस किताब पर काम करते हुए यह बात भी आपके दिमाग में जरूर आई होगी?

उत्तर- काश! वह बनारस अब होता, वह माहौल वापस आ सकता। अब बनारस भीड़, गंदगी, प्रदूषण से पटा है। वहां की संस्कृति भी लुप्त हो रही है। बनारस के पक्का महल में, जो पुराने बनारस के नाम से जाना जाता है के एक सज्जन ने जेम्स प्रिंसेप के बारे में बताया कि वह हम लोगों से अधिक बनारसी था। उसे लोग ‘बनारसी प्रिंसेपज् कहते थे। मुङो कोई विदेशी ऐसा नहीं मिला जो किसी शहर के निर्माण उसकी संस्कृति में इतना रच-बस गया हो। कुछ हद तक डेविड हेयर को कह सकते हैं क्योंकि कोलकाता के प्रति उसके मन में अगाध प्रेम था। लेकिन फिर भी इतना नहीं जितना जेम्स का बनारस के प्रति था।

प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप की बायोग्राफी पर भी आप काम कर रहे हैं? साथ ही भारत में प्रिंसेप परिवार के इतिहास पर भी, अपने इस काम के बारे में बताएं?

उत्तर- प्रिंसेप परिवार की चार पीढ़ियों के 17 सदस्य भारत आए थे। दूसरी पीढ़ी के सात भाई एक साथ भारत में कार्यरत रहे। उसके भाई एडवोकेट जनरल, चीफ सेक्रेटरी, द्वारका नाथ टैगोर के बिजनेस पार्टनर, आर्किटेक्ट, जिसने बिस्टेल में राजा राम मोहन राय की समाधि डिजाइन की थी और सुन्दरवन का नक्शा बनाया था। एक भाई अर्थशास्त्री था जिसने बैलेंस आफ ट्रेड पर काम किया।
एक भाई उपन्यासकार था। उसने ‘द बाबूज् नामक उपन्यास लिखा जो संभवत: पहला विदेशी उपन्यासकार है जिसने भारतीय चरित्रों को प्रमुखता दी।
लेकिन इन सबमें जेम्स प्रिंसेप विलक्षण था। उसके पिता जॉन प्रिंसेप नील की खेती करने वाले पहले विदेशी थे। इंग्लैंड में उसने ‘गरीबदासज् नाम से वहां के अखबार में कई लेख लिखे। उसमें उसने भारतीयों की वकालत की है। इंग्लैड की संसद में भारतीय किसानों की स्थिति का दुखद वर्णन किया है। जेम्स प्रिंसेप के भाई एच.टी. प्रिंसेप ने उस समय मैकाले की शिक्षा प्रणाली का विरोध किया था। उसने मैकाले के खिलाफ एक साक्षरता अभियान भी चलाया था।

प्रश्न- प्रिंसेप के प्रेम या विवाह के बारे में कुछ बताएं?

उत्तर-उसकी बायोग्राफी पर काम करते समय एक बात सामने आती है कि 1826 में अपने परिवार के साथ वह कोलकाता गया। वहां उसे एक लड़की पसंद आई। लेकिन उसने देखा कि वह उसके छोटे भाई के प्रति आकर्षित है। इससे उसका मन खिन्न हो गया और वह भारी मन से बनारस लौट आया। यह बात उसके भाई विलियम जोन्स की डायरी में है। बाद में उसकी शादी हैरियट से हुई। जेम्स अंतिम दिनों में अपनी स्मृति खो बैठा था। उसकी पत्नी ने उसकी काफी सेवा की थी। अंतत: जेम्स 1840 में चल बसा।

प्रश्न- इस किताब पर काम करते हुए आप किन अनुभवों से गुजरे?

उत्तर- अच्छा अनुभव रहा लेकिन काम आसान नहीं था। हमारी पहली किताब में जेम्स पर एक अध्याय है। उसके बाद उसके परिवार के बारे में जानने में और ललक जागी और लिखना शुरू किया। प्रिंसेप खानदान बहुत ही प्रतिभाशाली खानदान था। उसके हर सदस्य पर एक किताब लिखी जा सकती है। हमने किताब लिखने के सिलसिले में बिखरे हुए प्रिंसेप खानदान के कई लोगों को मिलाया।

प्रश्न-अपना कोई रोचक अनुभव?

उत्तर- 2003 में एक स्कालरशिप मिलने पर मैं अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड गया था वहां पर एक सज्जन फ्रे ड पिल मिला जो भारत में 10 वर्ष रह चुके थे। इसलिए वे भारत से जुड़ी हर छोटी-बड़ी जानकारी अपने पास रखते थे। यहां की पेंटिंग्स, लेख, किताबें आदि। उन्हें जब पता चला कि एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल मैंने लिखी है तो वह खुश हो गए। उन्होंने हमें लंच पर बुलाया काफी दिलचस्प बातें हुईं। उनके परिवार में कोई नहीं था। मैं चाहता था कि वह अपनी किताबें मुङो दे दें। फिर उन्होंने हमें डिनर पर भी बुलाया। बात धीरे-धीरे आगे बढ़ी जब उन्हें पता चला कि हम यहां रिसर्च के लिए आए हैं और हास्टल में रह रहे हैं तो उन्होंने यूरोप टूर पर जाने से पहले अपने पांच कमरों के मकान में हमें रहने के लिए कहा। यह हमारे लिए अच्छा था। मैं जब वापस आया तो उनसे संपर्क में बना रहा। जब उन्हें पता चला कि उन्हे कैंसर है और वह कम दिनों के मेहमान हैं तो उन्होंने अपनी किताबों और पुराने सामानों का संग्रह ब्रिटिश म्यूजियम के नाम अपनी वसीयत में कर दिया। और हमें सूचित किया कि अगर वह बचा हुआ कुछ चाहते हैं तो संपर्क कर सकते हैं। मैं इंग्लैंड गया उनसे बात की और उनके इस संग्रह के महत्व को भारत के लिए महत्वपूर्ण बताया। फिर उन्होंने अपनी वसीयत निरस्त करके मेरे नाम की। लगभग 100 से अधिक बक्सों में वह सामान उनके मरने के बाद भारत आया। ऐसा पहली बार हुआ था कि विदेश से कोई धरोहर भारत आई हो। यह अमूल्य धरोहर है। हमने उसे बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी के भारत कला भवन में रखवाया और उसके नाम से यह गैलरी जिसे भारी संख्या में लोग देखने आते हैं।

प्रश्न- क्या इस पुस्तक की कीमत इसके बहुत से इच्छुक पाठकों तक पहुंचने में बाधक नहीं होती?

उत्तर- यह सही है, लेकिन प्रकाशक का अपना दृष्टिकोण है, वे इसे एक संग्रहणीय पुस्तक बनाना चाहते हैं। इसके निर्माण में लागत भी अधिक आई है। लेकिन जेम्स प्रिंसेप की जीवनी आने पर यह शिकायत दूर हो जाएगी।

प्रश्न- अंत में आप जेम्स प्रिंसेप के बारे में क्या कहना चाहते हैं?

उत्तर- अगर मानव इतिहास में कुछ प्रतिभाशाली व्यक्तियों की सूची बनाई जाए उसमें मेरे अनुसार जेम्स प्रिंसेप का स्थान सबसे ऊपर आएगा।

Saturday, September 26, 2009

नानी की कहानी में जोड़ो पानी



गौहर रजा
चंद्रमा पर पानी होने की पुष्टि होना निश्चित रूप से धीरज बधाने वाली बात है। मनुष्य पहली बार 1969 में चंद्रमा पर कदम रखा। तभी से चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पता लगाने के लिए खोज शुरू हो गई। अमेरिका, रूस और भारत के खगोल वैज्ञानिकों ने पानी की मौजूदगी को लेकर तमाम शोध किए। अमेरिका और रूस ने मिशन भेजे। लेकिन यहां मैं एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि चंद्रयान -1 के इस खुलासे के पहले अब तक चंद्रमा से प्राप्त आंकड़ों और जानकारियों पर दुनिया के वैज्ञानिकों में मतैक्य नहीं था। वैज्ञानिकों का एक धड़ा चंद्रमा पर पानी होने के पक्ष में था, जबकि एक तबका पानी होने के तर्क को खारिज करता आया है। लेकिन चंद्रयान-1 पर गए नासा के ‘मून मैपरज् ने चंद्रमा पर पानी होने की ताकीद कर दी है। यही नहीं बहुत पहले अपोलो-9 द्वारा लाए गए चट्टान भी इस बात की जानकारी देते हैं कि चंद्रमा पर पानी की संभावना है। लेकिन वैज्ञानिकों का एक समूह उस डाटा पर विश्वास नहीं करता था। आज 40 साल बाद यह बात साबित हो गई। सन 1998-99, 2007 और अब 2009 में चंद्रमा पर पानी होने की बात स्वीकारी गई है। सिर्फ निश्चित सिद्धांत न होने के कारण इतना समय निकल गया।
चंद्रयान-1 के कारण पहली बार हमारे पास आंकड़े भी हैं और एक निश्चित सिद्धांत भी। यह सिद्धांत सूर्य से आने वाली हवाओं पर आधारित है, जिससे हाइड्रोजन आयन समृद्ध होता है। सूर्य की किरणें जब किसी भी चीज से टकराती हैं, तो उससे वे संपृक्त हो जाती हैं। इसी कारण यह ओएच बांड बनाती हैं और आक्सीजन के साथ आसानी से जुड़ती हैं। पहली बार हमारे पास यह सिद्धांत मौजूद है। जहां तापमान कम होता है, वहां पानी का बनना सामान्य प्रक्रिया है। इससे यह माना जाता है कि चंद्रमा के निचली सतहों पर पानी हो सकता है। यह सिद्धांत है कि जहां सूरज ढल रहा होता है, वहां पानी अधिक होता है, जिस तरह ध्रुवों पर पानी अधिक है। यहां पर एेसा सूर्य के तिरछी किरणों के आने के कारण है। लेकिन जहां पर सूर्य की सीधी किरणें पड़ती हैं, वहां पर यह संभावना कम होने लगती है। भारत को मार्च 2009 में ही चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पता चल गया था। इसे चंद्रयान ने साबित किया है। निश्चित रूप से यह दुनिया के लिए बड़ी उपलब्धि है। और इस उपलब्धि पर भारत को सौ प्रतिशत गर्व है। निश्चित रूप से विकासशील देशों में यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत पहला देश है। आज अगर गैलीलियो जिंदा होता तो वह शायद धरती का सबसे खुश इंसान होता। उसने जो बात पहले कही, आज सही साबित हो रही है।
चांद पर पानी किस रूप में है। यह कहना कठिन है, क्योंकि इसे लेकर अभी केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं। प्रामाणित तथ्यों का अभाव है। लेकिन यह खुशी की बात है कि चंद्रमा पर जीवन संभव है। थोड़ी मुश्किलें आ सकती हैं। लेकिन चंद्रमा पर जीवन बनाया जा सकता है। लेकिन इससे पहले अभी यह पता लगाना जरूरी है कि वहां पानी कितना और किस रूप में है। अभी चंद्रमा पर पानी की मात्रा को लेकर स्थितियां साफ नहीं हो पाई हैं। अब चंद्रयान के इस खुलासे के बाद निश्चित तौर पर अमेरिका, रूस और चीन चंद्रमा पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। चंद्रमा पर पानी होने की पुष्टि से अन्य ग्रहों पर भी पानी, जीवन की संभावना तलाशने में मदद मिलेगी। यदि आने वाले दिनों में वैज्ञानिक चंद्रमा पर आधार शिविर बनाने में सफल हो जाते हैं तो अन्य ग्रहों और आकाश गंगा को खंगालने में काफी मदद मिल सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चंद्रयान-1 की इस सफलता से इसरो ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक बड़ी छलांग लगाई है। उसने इतिहास रचा है। लेकिन चंद्रमा पर पानी होने की खोज का श्रेय हम केवल इसरो या केवल नासा को नहीं दे सकते। यह विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में जुटे दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मिला जुला प्रयास है। इसमें सभी का योगदान है। लेकिन भारत के लिए यह विशिष्ट उपलब्धि है। और प्रत्येक भारतीय इस उपलब्धि पर गौरवान्वित और फख्र महसूस कर सकता है। अब चंद्रमा पर पानी होने की पुष्टि ने उसकी खूबसूरती में और इजाफा कर दिया है। चांद पहले से और शीतल होगा। शायरों के लिए चांद अब पहले वाला चांद नहीं रहेगा।

(अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित)

Friday, September 25, 2009

सादगी भी एक अदा ठहरी

भई, अपनी तो सरकार वही जो अदा रखती हो। सादगी के हो-हल्ले में लगा कि ये बेनाज-बेअदा बला कहां से आयी! अब मुतमइन हुए कि अरे यह सादगी भी एक अदा ही ठहरी। आज के खुल्लम-खुल्ला खुलेपन में लाज की गठरी बनी न जाने कहां सिमटी-सिकुड़ी बैठी थी। उसे उठाकर सरेबाजार फिर ले आयी सरकार तो शायद इस ख्याल से कि दुनिया देखे कि हमारी यह भी है कि एक अदा और! बेहद जतन से इसकी मिजाजपुर्सी चली। जरा सी ठेस जिससे लगी उस पर लानत भेजी। इसलिए ही तो शशि थरूर की, अब के जो लौटे सफर से खूब मेहमानी हुई। सोनियाजी, प्रणब दा और एंटनी साहब के दर-दर भटके। समझ में आ गया न हम सादगी समङो, न राजनीति समङो!
असल में गलती न थरूर की है न कृष्णा की, न उन किसी की भी जो घोर गरीबी और अंधेरों में रह रहे इस महादेश के करोड़ों लोगों से बेखबर, चमक-दमक के दिलदादा हैं। अब उनसे अपने बहिश्त को जनता के दोजख में डाल देने की उम्मीद करना मासूमियत ही है। देश की फिजां ही बदली हुई है। जलवों की लूट है। जश्नों की धूम है। कमाने-धमाने-खर्चने की छूट है। उदारीकरण में जीवन ही जीवन है। मरण तो उसके बाहर है। ऐसे में उल्टी गंगा बहाना अकारथ ही जाएगा। चील से मांस की रखवाली और घोड़े से घास से यारी की गुजारिश बेजा है। हफीज जलंधरी की ‘अभी तो मैं जवान हूंज् नज्म याद आती है- ‘सुनो जरा शेखजी/अजीब शै हैं आप भी/ हवाएं इत्रबेश हों/ अदाएं फित्नाखेज हों / तो जोश क्यों न तेज हो/सुगंध ही सुगंध और बाजारू मारक अदाएं! मोह मन मोहे, लोभ ललचाये इसमें नाजायज क्या!
कोई भी चीज, फिर चाहे वह सादगी हो या संयम, संकल्प के बिना बेमानी हैं। और जब तक कोई विचार, उद्देश्य और लक्ष्य न हो, तब तक संकल्प काहे का? बात सन् 1930 की है। मेरे पिता सोलह के होंगे। दुर्गावती की समाधि पर संकल्प लिया। खादी पहनेंगे। आंदोलन में शामिल होंगे। घर में घोर गरीबी। घरवालों की चाहत, कि नौकरी करें। तब आंदोलन के साथ पढ़ाई और पढ़ाई के लिए ट्यूशन करने लगे। 32-33 में खादी की कीमत दोगुनी हो गयी। क्या करें। बापू को चिट्ठी लिखी। अपना हाल बताया। पूछा, संकल्प कैसे पूरा हो? गांधीजी का जवाब आया। ‘डियर गणेश प्रसाद, ‘वेयर देयर इज ए विल, देयर इज ए वे। कट शॉर्ट युअर एक्सपेंसेज। खर, पिता ने आजीवन संकल्प साधा। लेकिन बात गांधीजी की है। उनका एक उद्देश्य था। और खादी उसका एक औजार। इसीलिए एक गरीब छात्र को भी वे सलाह देते हुए निर्मोही थे। अब सोनियाजी ने खुद इकोनॉमी क्लास में यात्रा कर एक संदेश देने की कोशिश की। राहुल और उनकी मजबूरी है सुरक्षा। लेकिन संदेश कौन ले? उल्टे शाही खर्चो और शौक के दफ्तरों की खबरें खुलने लगीं। अगर सादगी योजना है तो उसे वैसे ही लागू होना चाहिए। लेकिन तब फिर सरकारी योजनाओं की तरह सद्गति सादगी को मिलनी ही है।
दरअसल सादगी-संयम सभी सापेक्ष चीजें हैं। आज की सादगी पहले से अलग ही होगी। मुख्य चीज है सार्वजनिक शोभनीयता। उसी में से निकलती या उसके ही बरक्स दिखती है सादगी। और जब आप उसके सामने इसे रखते हैं तो सादगी भी बहुत बड़ी चीज हो जाती है। वह ज्यादा ध्यान, ज्यादा एकाग्रता और प्रयत्न मांगती है। सार्वजनिक शोभनीयता के ख्याल से जो भी असंगत है, हेच-पोच है वहां सादगी, संयम की दरकार है। बोलने-चालने, बर्ताव में। जीवन के सभी अंगों में। समाज-राजनीति-शिक्षा सभी क्षेत्रों में। इनमें जो भी फूहड़ है वहां सादगी की जरूरत है। भाजपा खुद मानती है कि चुनाव में अनाप-शनाप बोलना महंगा पड़ा। पता नहीं वह और उसके परिवारी कब समङोंगे कि हुसैन के साथ सलूक भी उनका बेजा और फूहड़ है। फिर एक अदद अनुपात और संतुलन भी चाहिए। ताजा मिसाल महाराष्ट्र के होने वाले चुनाव की है। कांग्रेस हो या भाजपा सभी के नेता पुत्र-पुत्रियों के लिए टिकटार्थी हैं। राष्ट्रपति के पुत्र भी। सोचिए सार्वजनिक शोभा के लिए यह सब कितना भदेस और त्रासद है। कांग्रेस की सरकार है इसलिए उसकी भूमिका बड़ी, नेतृत्वकारी है। यह कहना दूर की कौड़ी नहीं है कि महाराष्ट्र और अन्य जगहों का यह परिवारवाद आपकी सादगी के परखचे भी उड़ाता है। राहुल की युवा संगठनों में लोकतंत्र लाने की कोशिश को तो यह मजाक बनाता ही है। चुनाव महत्वपूर्ण है, चयन भी उतना ही और शोभनीयता भी उतनी ही। अफसोस यह है कि कोई भी चीज यहां मुद्दा या बहस नहीं बन पाती। गुजरात के दंगों पर बहस शुरू करो तो 84 की बात छेड़ दी जाती है। उस पर करो तो कोई बात और अधबीच शुरू हो जाती है। सादगी पर भी यही हुआ। फिजूलखर्ची के किस्सों में और दिखावा-छलावा के आरोप में वह धंस गयी। अजब हाल है मंत्री और मीडिया सादगी नहीं समझते। एक मुख्यमंत्री, सरकार-संगठन मजाक नहीं समझते। मुख्य विपक्षी दल कला नहीं समझता। थरूर बच गए पर हुसैन तो यहां के निकाले हुए ही हैं।
मनोहर नायक

Tuesday, September 22, 2009

गंगा- जमुनी तहजीब का कलावा




शेराज अहमद, अनारू, जुबैर, इसरार अहमद और ऐसे ही करीब 100 से भी ज्यादा लोग हर सुबह हिंदू धर्म के सबसे पवित्र धागे को अपनी मेहनत से तैयार करते हैं। यह दिलचस्प है कि जो धागा हिंदू धर्म में सबसे पवित्र व अहम माना जाता है उसे मुस्लिम धर्म के 22 घरों के करीब सौ से भी ज्यादा लोग तैयार करते हैं। जी हां हिंदू धर्म में सबसे पवित्र माने जाने वाले कलावा, कलाई नारा या रक्षा सूत्र को पूरे विश्व में एक ही जगह बनाया जाता है। संगम की पावन धरती प्रयाग (इलाहाबाद) से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर लालगोपाल गंज कस्बा पड़ता है और यही पर स्थित दो गांव अल्हादगंज व खंजानपुर में दिन रात कलावे (रक्षा सूत्र) बनाने का काम किया जाता है। नवरात्रि के समय कलावे की मांग बढ़ जाने पर यहां पर दिन रात कलावे व माता की चुनरी बनाने का काम तेजी से होते देखा जा सकता है। अल्हादपुर गांव के नफीस अहमद बताते हैं कि उनके दादा-परदादा इस काम को करते आ रहे हैं। यह काम पुश्तैनी हो चुका है नफीस अपने बच्चों को भी इस काम में लगा चुके हैं। नफीस ने बताया कि करीब 100 साल से यह काम पूरी दुनिया में सिर्फ इन्हीं दो गावों में किया जाता है। मुस्लिमों में रंगरेज बिरदारी ही इस काम को अंजाम दिया करती है। नफीस के यहां कलावे बनाने का काम प्रत्येक सुबह तीन बजे से शुरू हो जाता है। कच्चा माल भिवंडी से आता है जिसे लाछा या नारा कहा जाता है। यह 40 से 45 रुपए प्रति किलो के हिसाब से मिलता है। इसको घर की महिलाएं धागे के रूप में कई लच्छों में बांटतीं हैं। इसके बाद काम होता है रंगाई का। लाल व पीले रंगों को क्रमश: कांगो लाल व खपाची पीला कहा जाता है जिसे कानपुर से मंगाया जाता है। लच्छों को गर्म रंगीन पानी में डालकर सुखाने के लिए रखा जाता है। और फिर तैयार होता है रक्षासूत्र। रोजा रह रहे अफरोज रंगरेज ने बताया कि हर दिन उसे 40 से 60 किलो लच्छे को रंगना होता है। बीस किलो को एक नग या ताव कहा जाता है। एक ताव को तैयार करने के लिए यहां के लोगों को सत्तर रुपए मिलते हैं। प्रतिदिन 100 से ज्यादा लोग रंगाई के इस काम को करते हैं और तैयार करते हैं 20 से 30 कुंतल कलावा। मार्केट में कलावे की सप्लाई 55 से 60 रुपए प्रति किलो के रेट पर की जाती है। 15 रुपए के इस मुनाफे में 22 घर व सैकड़ों लोग अपनी जीविका चलाते हैं। 19 साल के रहमान कहते हैं कि जिसने जितना काम किया होता है उसे उसकी मजदूरी का पैसा तुरंत मिल जाता है। इसी गांव में आदिल सलाम उर्फ दलाल चुनरी बनाने का काम करते हैं। चुनरी के लिए कच्चा माल अहमदाबाद से लाया जाता है जिसमें नमकी कलर का प्रयोग कर विभिन्न डिजाइन देने के बाद चुनरी तैयार की जाती है। छोटी और बड़ी साइज की चुनरी तैयार करने के बाद इनमें इंटरलाकिंग का काम गांव की महिलाएं घरों में करतीं हैं। 100 चुनरी की इंटरलाकिंग 20 से 25 रुपए के रेट पर की जाती है। रेहाना खातून 70 साल की हैं और सुबह घर के काम काज से खाली होकर दिन भर इसी काम में मशगूल हो जातीं हैं। रेहाना ने बताया कि नवरात्रि और मेले में चुनरी की मांग तेज हो जाती है। रेहाना के शौहर का इंतकाल 20 साल पहले हो गया था और तब से वह अपनी दो बेटियों और तीन बेटों की पढ़ाई का खर्चा इसी से निकाल रही हैं। इस धंधे में मंदी का कोई असर पड़ने के बारे में आदिल उर्फ दलाल ने बताया कि पूरी दुनिया में वास्तविक कलावा लालगोपालगंज में ही बनाया जाता है और इसी कारण भारत ही नहीं बल्कि मलेशिया, नेपाल, ब्रिटेन, अमेरिका, लंदन पाकिस्तान जसे देशों में भी इसकी सप्लाई की जाती है। भारत के सभी प्रसिद्ध मंदिरों में कई महीनों पहले से ही आर्डर देकर थोक के भाव कलावे व चुनरी बनवाई जातीं हैं। मैहर, मुंबा देवी, विंध्याचल, वैष्णो देवी, कालका जी, ज्वाला देवी, बालाजी मंदिर, सिद्धीविनायक जसे तमाम बड़े धार्मिक स्थलों के आर्डर महीनों पहले यहां पर आ चुके हैं। आदिल बताते हैं कि वर्तमान में आदमी कम पड़ जाते हैं लेकिन सप्लाई पूरी नहीं हो पाती है। आज के दिन में अल्हादपुर व खंजान पुर के लोगों के पास इतना काम है कि वह 24 घंटे भी काम करें तो भी डिमांड पूरी नहीं की जा सकती है। प्राइवेट कंपनियों के कलाई नारा बनाने के काम में कूदने पर यहां का रंगरेज समुदाय खासा नाखुश है इनका मानना है कि सरकार को इस काम को बढ़ावा देना चाहिए। सरकार की ओर से एक रुपए की भी मदद न मिलने से गांव वाले खासे नाराज हैं। लेकिन काम इतना ज्यादा है कि किसी को गिला तक करने की फुर्सत नहीं हैं। बिजली समय पर आ जाती है तो चुनरी में डिजाइन व प्रेसिंग का काम समय पर हो जाता है वरना रंगाई व धुलाई के लिए कुएं व हैंडपंप के पानी पर ही आश्रित रहना पड़ता है। गांव की दो मस्जिदों के इर्द-गिर्द रहने वाले इन लोगों की दिनचर्या पांचो वक्त नमाज अदा कर इस धागे में रंग घोलने तक सीमित है। इनके बच्चे इन धागों व चुनरियों को सुखाने के लिए खेतों में ले जाया करते हैं। खेतों में फैले रंगीन धागे व चुनरयिां सुबह के वक्त किसी मनोरम दृश्य से कम नहीं होते हैं। 12 साल के सादिक उर्फ सोनू को इन लाल रंग के धागों से खेलना अच्छा लगता है, उसे नहीं पता कि इन धागों की अहमियत क्या है, वह तो बस इतना जानता है कि उसके अब्बू व भाईजान सुबह तीन बजे से ही इन धागों व चुनरियों को रंगने में व्यस्त थे और अब उसकी जिम्मेदारी है कि जब ये सूख जाएं तो करीने से इनको घर ले जाकर अम्मी को देना है। गांव के ही एक मस्जिद के मौलवी अश्फाक अहमद ने नमाज अदा करने के बाद बातचीत में बताया कि यह एकता का जीता जागता प्रमाण ही है कि हिंदू धर्म के सबसे बुनियादी व अनिवार्य वस्तु से मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा अपनी रोजी रोटी चला रहा है। सरकार को इस छोटे लेकिन महत्वपूर्ण व्यवसाय को व्यवस्थित करने के लिए कुछ मदद करनी चाहिए।
सर्वेश उपाध्याय
चित्र- अभिषेक शुक्ल

Wednesday, September 9, 2009

मंहगाई में प्रेम पत्र

हे मन प्रिये, मैं सच कहता हूं चाहो तो वित्तमंत्री की कसम खिला लो। जब मैंने पत्र लिखना शुरू किया तभी कलम रुक-रुक कर चलने लगी। मैं जान गया कि इसे भी पैसेंजर ट्रेन वाली आदत पड़ गई है। लेकिन कलम की स्याही जवाब दे गई। मध्य रात्रि को घनघोर गर्मी में जूझते हुए जब पड़ोसी से कलम के लिए दरवाजा खटखटाया तो उसे लगा कि यह फिर चाय पत्ती मांगने आ गया। बहुत मनुहार के बाद जब उसे विश्वास हुआ कि मैं वास्तव में कलम पिपासू हूं तो उसने दरवाजा खोला और फिर कलम देकर झट से बंद कर दिया। सच मानो तुम्हे पत्र लिखते समय कलेजा सेंसेक्स की तरह ऊपर नीचे हो रहा है। मेरे हृदय में तुम्हारा जो स्थान है वह निश्चित रूप से सोने के भाव की तरह है जो नीचे होने वाला नहीं है।
यह सत्य है कि हमारे-तुम्हारे बीच पक्ष-विपक्ष की तरह वार्तालाप नहीं हुआ लेकिन प्रेम के राज्य में मुख की अपेक्षा नेत्र अधिक बोलते हैं। आजकल प्रेम राज्य में सूखा है सरकारी घोषणा के बावजूद भी मेरे मन के रेगिस्तान में किसी जलबोर्ड का पानी नहीं आया है। सच कहूं तो जल बोर्ड का पानी घर पर भी नहीं है। इसलिए सूखा दो तरफा है। हां एकाध बार बारिश हुई लेकिन कम्बख्त छत भी सरकारी व्यवस्था की तरह कमजोर निकली और बस भीग गया कागज। बहरहाल तुम चिंता मत करो।
कल कबीर को पढ़ रहा था। प्रेम गली अति सांकरी, यामे दुई न समाय। यह बिल्कुल सच है। प्रेम की गली में मंहगाई और मैं एक साथ नहीं रह सकते। मंहगाई के कारण मेरा प्रवेश लगभग वर्जित है। मन रोटी दाल के भाव देखकर चिहुंक जाता है। प्रणय, परिणय और प्रीत के बीच मंहगाई की घोड़ी दुलत्ती झाड़ रही है। प्रेम का मुहावरा प्रचलित है ‘लव मी एंड लव माई डागज् मतलब, हे प्रिये तुम मुङो चाहो तो मेरे चाहने वालों को भी चाहो। मुङो पता है शायद तुम यह कहो लेकिन, इस मंहगाई में एक ही भारी पड़ रहा है अत: उम्मीद है कि भावनाओं को समझोगी। अब दूसरी कलम भी जवाब दे रही है अत: हे.. पत्र का उत्तर शीघ्र पाने की आकांक्षा के साथ आपका गरीब नाथ।
शीघ्र पत्र आया.. हे गरीब नाथ, मैं आपकी भावनाओं को समझ रही हूं अत: जब आर्थिक मंदी बीत जाए तब ट्राई करना। अभी मेरे पास भी वक्त नहीं है आजकल रोज शॉपिंग में व्यस्त रहती हूं। तुम्हारी..सुखहरणी
अभिनव उपाध्याय

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...