Wednesday, January 27, 2010

पसंदीदा लोगों की पसंदीदा पुस्तकें


साहित्य से प्रेम मानवीय स्वभाव है और पढ़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया आइए जानते हैं विगत वर्ष विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को कौन-कौन सी पुस्तकें पसंद आई। बात तो बहुत लोगों से करनी थी लेकिन उपलब्ध इतने लोग ही हो सके-

राजेन्द्र यादव- वैसे तो इस वर्ष मैंेने कई किताबें पढ़ी हैं लेकिन हिन्दी भाषा की बात है तो लता शर्मा का उपन्यास ‘उसकी नाप के कपड़ेज् पढ़ा। इसमें एक स्वतंत्र लड़की की कहानी है जो खूबसूरत है और अपनी मेहनत से एक मशहूर अभिनेत्री बनती है। उसके पास करोड़ों रुपए आते हैं लेकिन उसे अपने ही लोगों द्वारा धोखा मिलता है। उसका अपना भाई ही उसकी प्रापर्टी बेंच देता है। वह बीमार पड़ जाती है पैसे के अभाव में उसे अस्पताल से बाहर निकाल दिया जाता है। और वह अपने गहने और कुछ सामान लेकर एक छोटा सा घर लेती है और फिल्मों में छोटे-मोटे रोल करती है और अंत में अभाव में मर जाती है। इस उपन्यास ने यह सवाल खड़ा किया है कि किस तरह पूंजीवाद स्त्रियों को स्वतंत्र करता है और फेंक देता है। यहां अब लड़कियों को इससे आगे सोचना होगा कि शरीर उनकी है और इसका इस्तेमाल वह स्वयं करती हैं। क्या वह ऐसे ही शोषित होती रहेंगी? उन्हे इसके बारे में सोचना होगा।

अनामिका- पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर आई पुस्तक बिल्कुल कबीर के अंदाज में लिखी गई है। कत्थ्य और भंगिमा में लिखी गई अच्छी पुस्तक है। यह आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई है। निधि और संवेद अनुभव में लिखी गई यह पुस्तक कोमल कोलाहल मन से शांति की बात करती है। हालांकि आलोचना की पुस्तक एकेडमिक भाषा में लिखी जाती है लेखक ने इसमें अपनी ही स्टाइल को तोड़ा है। यह ऐसे समय में आई है जब हमें कबीर की जरुरत है।

उदय प्रकाश- इस वर्ष जब मैं जर्मनी में था तो वहां जहांआरा बेगम की जीवनी पढ़ी जो उन्होंने लिखी थी उसका अंग्रेजी में अनुवाद आया है। उस किताब में मुगलकाल की स्थिति को काफी सही तरीके से दर्शाया गया है। उसमें दारा शिकोह और औरंगजेब की स्थिति को भी बताया गया है। उसमें बताया गया है कि औरंगजेब कितना क्रूर और चालबाज था। जहांआरा बेगम दाराशिकोह को ही दिल्ली की सल्तनत पर बैठा हुआ देखना चाहती थी। उनका राजस्थान के एक राजपूत से प्रेम भी करती थी। अगर दाराशिकोह सुल्तान बनता तो उनकी यह आरजू शायद पूरी हो जाती। इस जीवनी को एक बहन ने बड़ी सच्चाई के साथ लिखा है। यह उनका उस समय का व्यक्तिगत अनुभव है।

विश्वनाथ त्रिपाठी- हमने इस साल जो किताबें पढ़ी उनमें दो कि चर्चा करना चाहूंगा। पहली तो कृष्णा सोबती की पुस्तक मित्रों मरजानी कहानी है जो अब नए कलेवर में आई है। नरेन्द्र श्रीवास्तव ने इसे टाइपोग्राफिकल व्याख्या के साथ छापा है। इसमें जो टेक्स्ट दिया गया है उसके दूसरी तरफ उसके चित्र दिए गए हैं। हिन्दी में संभवत: यह पहला प्रयोग है।
दूसरी पुस्तक बिहार के लेखक राकेश रंजन का कविता संग्रह ‘चांद पर अटकी पतंग ज् है। यह कविता की बेहतरीन पुस्तक है। इसमें देशज और भदेश शब्दों से सजी एकदम नए ढंग की कविताएं हैं। इस कविता में शब्दों का जीवन सुरक्षित है और जीवन के साक्षात अनुभव हैं। लेखक में राजनीतिक और आंचलिक समझ भी है।

कैलाश वाजपेयी- इस साल कुं वर नारायण की पुस्तक पढ़ी लेकिन हिमांशु जोशी के संपादन में प्रतिनिधि अप्रवासी हिन्दी कहांनियां बहुत ही अच्छी किताब है। संग्रह बहुत ही रोचक है। इसमें भारत में न रहने वालों भारतीयों के दर्द और समस्या के साथ पारिवारिक र्दुव्‍यवस्था को भी बताया गया है। इसमें उनकी सूक्ष्म पीड़ा भी दिखाई देती है। कीर्ति चौधरी की कहानी जहांआरा, दिव्या माथुर की फिर कभी सही, नार्वे में रहने वाले अमित जोशी की वीजा कहानी विशेष रूप से अच्छी लगी। इसमें जो घुटन है वह भारत में रहकर महसूस नहीं की जा सकती। हिमांशु जोशी का चुनाव भारतीय परिवेश के बाहर का है। लेकिन यह वहां के समाज की पेंचदार सहमतियां और असहमतियां दर्शाता है। ये हिन्दी साहित्य में नए क्षितिज की कहानियां हैं।

अर्चना वर्मा- पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक कबीर पर अकथ कहानी प्रेम की एक बेहतरीन पुस्तक है। यह हिन्दी समीक्षा और मध्य कालीन समीक्षा एवं समकालीन समीक्षा के भीतरी परिवर्तन को दिखाने वाली किताब है। यह हिन्दी में उत्तर औपनिवेशिक दृष्टिकोण हिन्दी में दिखाई देता है। यह पुस्तक पश्चिमी दर्शन से लोहा लेते हुए भारतीय दर्शन को दर्शाती है कि हमें खुद की पहचान करनी चाहिए। इसमें स्पष्ट रूप से दिखता है कि लेखक ने कई पांडुलिपियां पढ़ी हैं। यह पुस्तक हिन्दी के हर पाठक के पास होनी चाहिए।

जावेद अख्तर- इस वर्ष मैंने कई किताबें पढ़ी लेकिन जो सबसे अधिक पसंद आई या जिसकी मैं चर्चा करना चाहता हूूं वह किताब, रिचर्ड डाकिं स की गॉड डिलजन। लेखक ने इतिहास, विज्ञान और अन्य तत्थ्यों से जानकारियां जुटा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि ईश्वर नहीं है जबकि बहुत सारे लोगों को यह विश्वास है कि ईश्वर है। ईश्वर इंसान का भ्रम है। यह पुस्तक भगवान की अवधारणा को खंडित करती है।

शोभना नारायण- इस बार साल के अंत में सुजाता विश्वनाथन की पुस्तक द कोकोनट वाटर पढ़ा। यह पुस्तक एक सामाजिक समस्या को दर्शाती हुई साधारण कहानी है। इसमें प्रवासी भारतीय की कहानी और एक आम परिवार में होने वाली समस्या को दर्शाया गया है जो मानव जीवन के काफी करीब है। लेकिन अंतत: एक मानव द्वारा परेशानियों से जूझते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करना अच्छा लगा। यह उपन्यास यह सीख देता है कि यदि आपने दृढ़ इच्छा शक्ति है तो आप अवश्य सफलता प्राप्त करेंगे।

मंगलेश डबराल- इस साल कविता संग्रह में वीरेन्द्र डंगवाल का कविता संग्रह स्याही ताल पढ़ा। इसे कुंवर नारायण के कविता संग्रह हाशिए का आदमी के बाद पढ़ना सुखद रहा। इसमें वीरेन्द्र एक समर्थ कवि के रूप में आते है। इसमें उनकी काव्यात्मक ऊंचाई दिखाई देती है। इस संग्रह को पढ़ते हुए लगता है कि कविता कहीं से भी शुरु हो सकती है। अनुभव का कोई टुकड़ा कविता बन सकता है। यह कविता संग्रह नए तत्थ्य और नए विन्यास के लिए जाना जाएगा। इसमें छोटे-छोटे अनुभव को बड़े यथार्थ से चीड़-फाड़ करते हुए दिखाई देते हैं।

मैनेजर पांडेय- इस साल मुङो एक लघु उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवताज् पढ़ी जिसके लेखक झारखंड के रणेन्द्र हैं। आदिवासी समुदाय पर आधारित यह पुस्तक यह बताती है कि किस तरह भारतीय समाज में सदियों से आदिवासियों का दमन, शोषण और अपमान किया जा रहा है। यह उपन्यास उसी की कहानी है। इस उपन्यास से ही मुङो मालुम हुआ कि असुर नाम की एक जनजाति भी है। असुर नाम आते ही प्राचीन भारत असुरों के संघर्ष की कथाएं सामने आने लगती हैं। भूमंडलीकरण के दौर में भी आदिवासियों के दमन का चित्रण किया गया है। यह बहुत ही संवेदनशील और प्रभावशाली उपन्यास है।
सुधीश पचौरी- इस साल नंद किशोर आचार्य का कविता संकलन ‘उड़ना संभव करता आकाशज् पढ़ी। अच्छा संकलन है। इसमें छोटी-छोटी नए ढंग से लिखी गई कविताएं हैं। जिसमें कोई चीख पुकार नहीं है जसा प्राय: आजकल की कविताओं में देखने को मिलती है। सहज अनुभवों को समेटती यह कविता संकलन अच्छा लगा। इसमें मुख्यत: स्थितियों की विद्रुपताओं और विडम्बनाओं का चित्रण है।

दिन का पता नहीं लेकिन, इस दिन झंडा खूब बिकता है ......



भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां लोक मत से चुनाव होता है। 61 वां गणतंत्र दिवस लोग धूमधाम से मना रहे हैं। यह बात भारत का बुद्धिजीवी वर्ग भले ही जानता हो लेकिन आज भी झुग्गियों में रहने वाले लोग इस दिन को नहीं जानते। संवाददाता जब इस दिन झुग्गियों के लोगों से इस संबंध में बातें करने निकला तो इस दिन का सबके लिए अलग-अलग मतलब था।
मसलन दिल्ली के दिलशाद गार्डेन के कलंदर कालोनी झुग्गी में बंदर नचाने वाला असलम खुश था। क्योंकि छुट्टी का दिन होने के कारण उसका तमाशा देखने वाले अधिक लोग थे और उसे इस बात की खुशी थी उसे गणतंत्र दिवस की कोई जानकारी नहीं थी हां लोगों को देखकर वह अपनी साइकिल में झंडा लगाना नहीं भूला था।
नंद नगरी झुग्गी के बाहर झंडो की दुकान लगाए 10 वर्षीय रसूल की खुशी ग्राहकों के आने से दुगनी हो रही थी। उससे यह पूछने पर, कि क्या उसे पता है कि लोग झंडा क्यों खरीद रहे हैं, क्या कोई विशेष दिन है? उसका कहना था कि उसे यह नहीं मालूम लेकिन इस दिन झंडा खूब बिकता है।
झुग्गी के बच्चों में इस दिन को लेकर खास उत्साह था इसकी वजह स्कूल का बंद होना भी था क्योंकि गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले ही स्कूलों में ध्वजारोहण हो चुका था।
बच्चों के अलावा युवा और बुजुर्ग भी इस मामले में पूरी तरह स्पष्ट नहीं थे कि वास्तव में यह दिन कौन सा है। क्योंकि झिलमिल कालोनी झुग्गी निवासी 65 वर्षीय रामसूरत का कहना था कि हमें दिन का पता नहीं लेकिन 26 जनवरी बचपन से मनाते आ रहे हैं पिता जी बताते थे कि इस दिन गांधी बाबा ने देश को आजाद किया था। लोगों को इस दिन का पता नहीं था लेकिन लोगों ने अपने घरों के बाहर झंडा लगा रखा था और देश भक्ति गाने बजाए जा रहे थे।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...