Tuesday, May 10, 2011

कब रुकेगी जमीन की लड़ाई

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के किसान संघर्ष ने इक्कीसवीं सदी में नया रूप धारण कर लिया है। अंग्रेजी जमान के भूमिअधिग्रहण कानून के तहत पिछले 11 सालों में 27 लाख हेक्टेयर जमीन हथिया ली गई है। इतनी ही जमीन अगले तीन सालों में ली जानी है। सवाल यह है कि क्या हम एक लोकतांत्रिक देश में किसानों को विकास का दुश्मन बताकर इसी तरह उन पर लाठी भांजते रहेंगे और उनकी फसलें जलाते रहेंगे? या उनके भविष्य के साथ देश के भविष्य को जोड़ेंगे? किसान देश और दुनिया की बड़ी आबादी हैं उनके बारे में उदारीकरण की फौरी योजनाएं नहीं चलने वालीं। उसे दीर्घकालिक योजना बनानी ही होगी।
प्रस्तुत है इस संदर्भ में अरुण कुमार त्रिपाठी का लेख.

महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जतापुर से लेकर उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा के भट्टा परसौला तक देश के व्यापक इलाके में जमीन की लड़ाई छिड़ी हुई है। हर जगह पुलिस-प्रशासन देश हित में लाठी भांज रहा है और किसानों को विकास विरोधी बताकर खदेड़ने पर लगा है। सवाल उठता है कि क्या सचमुच देश के सत्ताधारी वर्ग के भीतर देशप्रेम उमड़ आया है और इस देश का किसान, ग्रामीण देश्रोही हो गया है? या यह विकास के नजरिए का ऐसा भ्रम और टकराव है जिसका निकट भविष्य में समाधान होता नहीं दिखता?
इस समस्या को गौर से देखिए तो साफ लगता है कि जो जमीन कभी ग्रामीण समाज के लिए जीविकोपार्जन का साधन हुआ करती थी आज वह लाखों करोड़ों का वारा न्यारा करने वाली सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हो गई है। एक तरफ किसान को उस मुर्गी का पेट फाड़ने की सलाह जी जा रही है वहीं बिल्डर, उद्योगपति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उसे पालने की सलाह दी जा रही है। जमीन की इस लड़ाई में किसानों की दो धाराएं चल रही हैं।

एक धारा तो यह चाहती है कि जो जमीन उसके पुरखों की विरासत है और हर स्थिति में उसकी आजीविका चलाती है उसे किसी भी तरह से उसके पास रहने दिया जाए। दूसरी धारा व्यावहारिक तरीके से इस समस्या को देखती है। उसका मानना है कि सोने की मुर्गी उद्योगपति ही पाले लेकिन उसके अंडे उसे भी मिलते रहें। जतापुर और ग्रेटर नोएडा के किसानों की मांगों में यही फर्क है। जहां जतापुर के किसान पूरी तरह से परमाणु परियोजना का विरोध कर रहे हैं और अपनी जमीन देने को नहीं तैयार हैं वहीं भट्टा परसौला के किसान अपनी जमीन का ज्यादा मुआवजा चाहते हैं और लंबे समय तक मुआवजा चाहते हैं। ध्यान देने की बात है कि अनिल अंबानी के विद्युत संयंत्र के लिए अधिग्रहीत की गई दादरी की जमीन का मामला भी जतापुर की ही तरह का था। वे किसान जमीन बिल्कुल नहीं देना चाहते थे। इसीलिए बाद में वे कानूनी लड़ाई भी जीते और उन्हें जमीन वापस मिली।
जमीन न देने की राय सिंगुर और नंदीग्राम के किसानों की भी थी और इसीलिए वहां आंदोलन लंबा चला।
अलग-अलग इलाके के किसानों की आर्थिक सुरक्षा और भावी संभावनाएं अलग-अलग है इसलिए उनकी प्रतिक्रिया भी अलग है, लेकिन एक बात साफ है कि अपनी जमीन और आजीविका बचाने के लिए वे मौजूदा सरकारों और कारपोरेट जगत से एक तरह की जंग लड़ रहे हैं। जहां वे कमजोर पड़ते हैं वहां औने-पौने दामों में दबाव डालकर उनकी जमीन ले ली जाती है और जहां ताकतवर पड़ते हैं वहां भयानक संघर्ष छिड़ता है और खून खराबा होता है। यहां यह बात गौरतलब है कि जमीन अधिग्रहण के ज्यादातर मामलों में सरकारी दमन अनिवार्य है। इस दमन के खिलाफ जो किसानों का नेतृत्व करता है उसे या तो ग्रेटर नोएडा के तेबतिया की तरह अपराधी घोषित कर दिया जाता है या नंदीग्राम के आंदोलनकारियों की तरह से माओवादी। संभव है इस संघर्ष में उतरने के बाद वे हिंसक और माओवादी बन जाते हों क्योंकि अगर वे पहले से अपराधी थे तो बाहर कैसे घूम रहे थे और सरकार ने उन पर पहले क्यों नहीं हाथ डाला था। फिर सवाल यह भी है कि जो अपराधी होगा उसे समाज के लिए लड़ने से क्या फायदा मिलेगा? उसे तो कारपोरेट जगत, सरकार और जमीन माफिया से सहयोग कर धन कमाने में अपना उद्धार दिखेगा?
इतिहास गवाह है कि सत्ता के खिलाफ किसानों और आदिवासियों की तरफ से जो भी लड़ने खड़ा होता है उसे सरकार इन्हीं विशेषणों से विभूषित करती है। कभी उसे डाकू बना देती है तो कभी उसके सिर पर ईनाम घोषित कर देती है। अंग्रेजी सरकारें यही करती रही हैं और हमारे लोकतांत्रिक देश की सरकार भी थोड़ी बहुत सहानुभूति का नाटक करने के साथ लगभग यही व्यवहार कर रही है।
पश्चिम बंगाल की जिस वाममोर्चा सरकार को जनता ने किसानों और मजदूरों की सरकार समझा था उसी ने भूमि अधिग्रहण के नाम पर किसानों और मजदूरों पर भयंकर अत्याचार किया। आज अगर मौजूदा चुनाव में उसकी हार होती है तो उसमें सिंगुर और नंदीग्राम कांड का बड़ा योगदान होगा। अगर वह जीतता है तो भी जमीन अधिग्रहण के सवाल पर नए सिरे से विचार करेगा।
दरअसल जमीन अधिग्रहण के सवाल को लोकतांत्रिक देश में न तो स्तालिन की तरह से देखा जाना चाहिए न ही 18 वी सदी के यूरोप की तरह से। इस सवाल को औपनिवेशिक शासन की तरह से भी नहीं देखना चाहिए। उसे एक संवेदनशील लोकतांत्रिक व्यवस्था के चश्मे से देखना चाहिए जिसमें अगर पूंजीपति की संपत्ति का अधिग्रहण न करने का सिद्धांत चलता है तो फिर किसानों को क्यों सताया जाए।
दिक्कत यह है कि हमारी सरकारें आज भी जमीन अधिग्रहण की 1894 की अंग्रेजी जमाने की नीतियों पर चल रही हैं। वह नीति जिसने हमारे किसानों को असामी, रैयत और रियाया बना दिया था और खुद मालकिन बन बैठी थी। आज भी भूमि सुधार के तमाम कानून यही कहते हैं कि सारी जमीन की मूल मालिक सरकार है। संविधान के तीसरे अध्याय के 31 वें अनुच्छेद में दर्ज निजी संपत्ति के मौलिक अधिकार को खत्म किए जाने के बाद भी किसानों के साथ दिक्कतें शुरू हुईं और उसके बाद विस्थापन की समस्या ने जोर पकड़ा।
आज चारों तरफ से जमीन अधिग्रहण की अंग्रेजी जमाने की नीति बदलने की मांग ने जोर पकड़ रखा है। सरकार के पास एनसी सक्सेना समिति का मसौदा रखा भी हुआ है। उस मसौदे में सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा पर कई संगठनों को आपत्ति है। जाहिर सी बात है कारपोरेट या निजी हित को पहले सार्वजनिक हित बताकर जमीन लेने की रणनीति एक धोखाधड़ी है। जो सरकारें अपने को जनता का प्रतिनिधि बताती हैं उन्हें किसी बड़ी कंपनी की तरफ से ऐसा काम करने से परहेज करना चाहिए।
इस समय भूमि अधिग्रहण नीति को ममता बनर्जी की हर झंडी का इंतजार है। ममता बनर्जी की सहमति पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगी। अगर उन्हें पूर्ण बहुमत मिलता है तो वे इस कानून में बंगाल की जनता के मुताबिक संशोधन करवाएंगी। अगर उन्हें अपनी सरकार बनाने के लिए कांग्रेस की मदद लेनी पड़ी को इस नीति में कांग्रेस की चलेगी। स्थितियां जो भी हों पर जमीन के मौजूदा संघर्ष में एक तरफ तो वह गरीब-भूमिहीन समाज है जिसे या तो कभी जमीन मिली नहीं और उसने जो थोड़ा बहुत कब्जा किया उसे भी अब छीना जा रहा है। दूसरी तरफ वे खेतिहर और मध्य जातियां हैं जिनकी ताकत अभी भी जमीन है। देश में पिछले 11 सालों में 27 लाख हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण बिना किसी विधिवत नीति के कर लिया गया। अगले तीन सालों में इतनी ही जमीन अधिग्रहीत की जानी है। जाहिर है अब संघर्ष कठिन होगा और वह बिना किसी उदार नीति के संभव नहीं हो पाएगा।

Sunday, May 8, 2011

गाने पचास साल पुराने

मनोहर नायक
कोई बहुत पुराना गाना सुनकर कभी-कभी ताज्जुब होता है कि पचास-साठ साल बीत चुके पर यह अब भी ताजातरीन कैसे बना हुआ है। जाहिर है यह गीत-संगीत-गायकी का मिला-जुला कारनामा है। उन अदाकारों का करिश्मा भी इससे जुड़कर इस जादू को कालातीत बना देता है। ताज्जुब यह भी है कि इन गानों के दीवाने अधेड़ और बूढ़े हो चुके लोग ही नहीं बल्कि दीवानी अभी जवान हो रही पीढ़ी भी है। भले ही जितने भदेस हों इन गानों के रीमिक्स भी उनकी लोकप्रियता ही बताते हैं। फिर टीवी चैनलों, खासतौर पर म्युजिक चैनलों पर चलने वाले पुराने गानों के कार्यक्रम और सुबह से शाम तक एफएम रेडियो पर चलते फिल्म संगीत के सुनहरे दौर के गाने यही बताते हैं कि उनकी मांग और बाजार में कमी नहीं आयी है। उन्नीस सौ इकसठ को ही मिसाल के तौर पर लें तो पाएंगे कि पचास साल पहले इस वर्ष रिलीज हुई कुछ फिल्मों के गाने आज भी चाव से सुने जा रहे हैं और आगे न जाने कब तक सुने जाते रहेंगे।
वैसे सबकी अपनी-अपनी पसंद होती है। अपने प्रिय संगीतकार और गायक/गायिका होते हैं पर तब भी यह कहा जा सकता है कि लोकप्रियता के लिहाज से इस साल जयदेव सबसे आगे नजर आते हैं। नवकेतन की ‘हम दोनों, जिसका इसी साल देव आनंद ने रंगीन संस्करण जारी किया, वह फिल्म जो थी उनकी प्रतिभा को पूरी तरह सामने लायी। अविवाहित जयदेव जीवनभर मुंबई में पेइंग गेस्ट की तरह रहे। नवकेतन से वे अपने गुरु अली अकबर खान के साथ बतौर उनके असिस्टेंट उस समय जुड़े जब खान साहब ‘आंधियां और ‘हमसफर में संगीत दे रहे थे। जयदेव तब दो सौ रुपये माहवार पाते थे। बाद में वे नवकेतन में ही सचिनदेव बर्मन के असिस्टेंट हुए। ‘हम दोनों में उन्हें पहली बार मौका मिला। ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया और ‘अभी न जाओ छोड़कर आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने पहले थे। जयदेव लुधियाना के थे और इस फिल्म के गीतकार साहिर भी वहीं के थे। पहले से एक दूसरे से परिचित थे, पर साहिर मूडी थे। इसी फिल्म के एक और गाने ‘कभी खुद पर कभी हालात पर रोना आया के लिए जयदेव साहिर से एक अंतरा और लिखने के लिए कहते रहे पर उन्होंने नहीं लिखा तो नहीं लिखा। पर एक गाना और था ‘अल्ला तेरो नाम। 1967 में लता ने इसे अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में रखा था। यह एक सदाबहार गीत है। रायचंद बोराल को फिल्म संगीत का पिता और खुद को चाचा कहने वाले अनिल विश्वास, जिनके साठ से ज्यादा साल पुराने गीत आज भी रोमांचित कर देते हैं, से जब यह पूछा कि किसी दूसरे कंपोजर का कोई गीत जो लगता हो कि काश, इसे मैंने बताया होता! अनिलदा ने फौरन कहा था, ‘हां जयदेव का, ‘अल्ला तेरो नाम।
लेकिन इकसठ के लिए फि ल्म फेयर अवार्ड न जयदेव को मिला, न साहिर को न रफी को। देव आनंद भी वंचित रहे। गीतकार का अवार्ड ‘घराना फिल्म के ‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं के लिए शकील को मिला और ‘ससुराल के ‘तेरी प्यारी प्यारी सूरत को गाने के लिये रफी को मिला। यह गाना आज भी जब बजता है तो लोग साथ-साथ गाने लग जाते हैं। ‘ससुराल, ‘घराना उस दौर में एवीएम, जमनी जसी दक्षिण की कंपनियों की वे पारिवारिक फिल्में थीं जिनकी परिवार के एलबमनुमा शॉट के साथ हैपी एंडिंग हुआ करती थी। फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का अवार्ड ‘घराना के लिए रवि को मिला था। इस फिल्म का एक गीत ‘दादी अम्मा, दादी अम्मा आज भी बच्चों के लिए बना पसंदीदा गाना है। उस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी ‘जिस देश में गंगा बहती है। सर्वश्रेष्ठ अभिनेता भी इसी फिल्म के लिए राजकपूर थे। इसके सभी गाने लाजवाब थे। शंकर जयकिशन, शैलेन्द्र, लता, मुकेश का जलवा इनमें बिखरा हुआ था : ‘हम उस देश के वासी हैं, ‘मेरा नाम राजू, ‘ओ बसंती पवन पागल, ‘बेगानी शादी में, ‘हम भी हैं, तुम भी हो और ‘आ अब लौट चलें।
इसी साल दिलीप कुमार की अपनी फिल्म ‘गंगा जमुनाज् आयी थी और वैजयंतीमाला भर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का अवार्ड मिला था। ‘नैन लड़ जहैं, ‘ढूंढ़ो, ढूंढ़ो रे साजना, ‘दो हंसों का जोड़ा और ‘इंसाफ की डगर पर इसके ये गाने आज भी फीके नहीं पड़े हैं। सुधीर फड़के मराठी फिल्मों की बड़ी हस्ती थे पर हिंदी फिल्में भी उन्होंने कई कीं। जिस एक फिल्म और एक गाने ने उन्हें अपार लोकप्रियता दी वह फिल्म थी ‘भाभी की चूड़ियां और पंडित नरेन्द्र शर्मा का लिखा, लता का गाया गाना था ‘ज्योति कलश झलके। यह जब भी बजता है तो एक मांगलिक भावना जसे आसपास घिर आती है। किसी के एक सर्वश्रेष्ठ गाने की याद करें तो केदार शर्मा निर्देशित ‘हमारी याद आयेगी फिल्म में मुबारक बेगम का गाना याद आता है, ‘कभी तनहाइयों में हमारी याद आएगी। स्नेहल भाटकर के संगीत से सजी इस फिल्म में मुबारक-मुकेश का गाना ‘फरिश्तों की नगरी में आ गया हूं भी एक उम्दा गीत है।
यह साल फिल्मों, गानों और डांस को एक नई शैली देने वाली फिल्म ‘जंगली का भी साल है। जिसकी ‘याहू की गूंज बाद तक सुनाई देती रही। रफी का गाया, हसरत का लिखा एक बेहद मधुर गीत इस फिल्म में था : ‘एहसान तेरा होगा मुझ पर। देव आनंद की ‘जब प्यार किसी से होता है के ‘जिया हो जिया, ‘ये आंखे उफ युम्मा, ‘सौ साल पहले अब भी बार-बार सुनाई पड़ते हैं। थोड़े कम बजने पर अपनी गिरफ्त में लेने वाले गाने भी कम नहीं हैं : ‘दिल मेरा एक आस का पंछी, ‘तुम रूठी रहो (आस का पंछी), ‘इतना न मुझसे तू प्यार जता, ‘आंसू समझ के क्यूं आंख से मुझको गिरा दिया (छाया, संगीत सलित चौधरी), ‘तेरी दुनिया से दूर चले होके मजबूर (जबक), ‘भूली हुई यादों मुङो इतना न सताओ (संजोग), ‘तुम तो दिल के तार छेड़कर सो गए (रूप की रानी चोरों का राजा), ‘वफा जिनसे की बेवफा हो गए (प्यार का सागर), ‘साथ हो तुम और रात जवां (कांच की गुड़िया)।
‘झुमरू फिल्म किशोर कुमार ने बनायी थी। संगीत भी उन्हीं का था। इसके टाइटिल गीत के अलावा ‘कोई हमदम न रहा गीत बेहद संजीदा था। सभी बड़े संगीतकारों, गीतकारों, गायक, गायिकाओं ने अपने हुनर से इस साल को संवारा। पद्मनी ने इस साल ‘जिस देश में गंगा बहती के बाद हिंदी फिल्मोंे से विदा ले ली, वहीं एक दशक की गुमनामी के बाद सुरैया ‘शमा में लौटीं और गुलाम मोहम्मद की धुनों में सजे कैफी के दो मधुर गीत गाये : ‘आपसे प्यार हुआ जाता है, ‘धड़कते दिल की तमन्ना। इतने सुरीले सदाबहार गानों वाले इस साल में एक बिना गानों वाली फिल्म भी आयी, ‘कानून। बीआर चोपड़ा को इसके लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर अवार्ड मिला था।

करिश्मा बिन जवाहिरी

अरुण कुमार त्रिपाठी

अल जाहिरी लादेन की तरह से करिश्माई नेता नहीं हैं। हाल में उन पर यह भी आरोप लग रहा है कि ओसामा बिन लादेन के मराने में उनका हाथ है। यह आरोप सऊदी अरब के अखबार अल तन ने अरब सूत्रों के हाले से लगाया है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी भी इसी तरह की बात कर रही है। अल तन का कहना है कि vaजीरिस्तान के कबीलाई इलाकों से एबटाबाद के शहरी इलाकों में लादेन के जाने का फैसला अल जाहिरी ने एक साजिश के तहत कराया था। इस बीच जिस संदेशाहक यानी कुरियर के माध्यम से लादेन का सुराग मिला है ह भी जाहिरी का ही आदमी बताया जाता है। यह भी कहा जा रहा है कि आम धारणा के पिरीत ह कुैती नहीं पाकिस्तानी था। साजिश के इस सिद्धांत के तहत जाहिरी ने ओसामा का सफाया कर संगठन पर कब्जा करने की नीयत से यह सब किया था और आखिर में उसमें कामयाब भी हो गया। पर अल कायदा के इन दो करीबी नेताओं में झगड़े और इस हद तक साजिश होने की बात को अमेरिकी एजेंसियां स्ीकार नहीं कर पा रही हैं। यहां यह साल भी उठता है कि सन 2004 में बीमार हुए ओसामा बिन लादेन को एबटाबाद भेजने की योजना अगर जाहिरी ने बनाई थी तो यह कबीलाई इलाके के मुकाबले उसे सुरक्षित जगह पर भेजने की कोशिश कैसे नहीं कही जाएगी?
लेकिन अल जाहिरी के प्रति अश्विास ही उन्हें अल कायदा का प्रमुख बनने से रोक सकता है, रना उनमें े सारी योग्यताएं हैं जो उन्हें इस जिम्मेदारी का स्त: उत्तराधिकारी बना देती हैं। आमतौर पर संगठन का उसूल नंबर दो के व्यक्ति पर ही यकीन करने का है। ह करिश्माई भले न हों लेकिन एक आतंकादी संगठन के नेता के तौर पर उनकी योग्यता और कुशलता का बार-बार प्रमाण मिल चुका है। ह आतंकादी हमलों के शेिषज्ञ ही नहीं इस्लाम के धर्मशास्त्र के द्विान भी हैं। एक डिग्री धारी सर्जन के तौर पर अपना कैरियर शुरू करनेोले जाहिरी अमेरिका सहित दुनिया के बड़े हिस्से में घूम चुके हैं और उन तमाम इलाकों के मुसलमानों से उनका संपर्क है, जहां पर किसी तरह का टकरा और समस्याएं हैं। बल्कि धार्मिक चिारों के मामले में े लादेन से ज्यादा कट्टर और स्पष्ट बताए जाते हैं।
हिंसक तरीकों में उनकी क्रूरता और आस्था लादेन से भी ज्यादा है। कहा जाता है कि पिछले छह सालों से लगभग निष्क्रिय जीन जी रहे ओसामा बिन लादेन की जगह पर संगठन के पीछे असली दिमाग उन्हीं का है। हमलों की रणनीतियां बनाना, लोगों को संगठित करना और संगठन को ैचारिक आधार देने का काम उन्हीं के जिम्मे था। बीच-बीच में उनके भी टेप जारी होते रहे हैं। जाहिरी के सामने चुनौती यह है कि अमेरिका की नजरों से बचते हुए कैसे े अपने अलकायदा में नई जान फूंकते हैं और कैसे क्रांति के उन हिंसक और कट्टर सिद्धांतों को प्रासंगिक बनाते हैं जिनको उन्हीं के मूल देश की जनता नामंजूर कर चुकी है। मिस्र की राजधानी काहिरा के उपनगरीय इलाके में एक पढ़े-लिखे परिार में 1951 में जन्मे अयमन अल जाहिरी को बचपन से ही पढ़ने-लिखने का अच्छा माहौल मिला और उन्होंने उसका लाभ भी उठाया। उनके पिता फार्माकालोजिस्ट और रसायन शास्त्र के प्रोफेसर थे। उनके पिता के परिार में ज्यादातर द्विान थे और मां के परिार में राजनेता और संपन्न व्यापारी। लेकिन मिस्र की स्थितियों ने बहुत जल्दी ही उन्हें राजनीति की तरफ ठेल दिया। े 14 साल की उम्र में ही मुस्लिम ब्रदरहुड के सदस्य बन गए और पढ़ाई लिखाई के साथ अमेरिका और इजराइल के प्रति नरम रुख रखनेोली सरकार का तख्ता पलटने की तैयारी में लग गए थे। उन्हें इस काम के लिए उनके चाचा और एक शिक्षक ने प्रेरणा दी। उसके बाद कुत्ब नाम के एक नेता को जब मिस्र की सरकार ने 1970 के दशक में फांसी दी तो जाहिरी ने तय किया कि े उनके संदेश को ही आगे बढ़ाएंगे।
अपने देश और दुनिया की समस्याओं का समाधान इस्लामिक शुद्धता और उसके शासन की स्थापना में देखनेोले जाहिरी के जीन में असली बदला तब आया जब 1984 में हज करने गए सऊदी अरब गए और हां उनकी भेंट ओसामा बिन लादेन से हुई। फिर े हीं रुक कर डाक्टरी करने लगे। इससे पहले े इजिप्ट इस्लामी जेहाद में सRिय हो चुके थे और उन्हें तीन साल की सजा हो चुकी थी। इस मुलाकात में लादेन ने उन्हें प्रभाति किया और उनकी अगली मुलाकात 1986 में पेशार में उस समय हुई जब े हां सोयित फौजों से लड़ते हुए घायल अफगानी शरणार्थियों का इलाज करने में जुटे थे। उस समय लादेन हां जेहादी शिरि चला रहे थे। उन्होंने नब्बे के दशक में अपने संगठन ईआईजे का लादेन के संगठन अल कायदा में लिय कर दिया।

े लादेन के सहयोगी ही नहीं निजी फिजीशियन के तौर पर भी रहे और 9/11 के बाद जब अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला हुआ तो लादेन के परिार को सुरक्षित ईरान पहुंचाया। एक दौर में अल जाहिरी ईरान के एजेंट के तौर पर भी काम करते रहे हैं और उसे यह बताते रहे हैं कि उसके किन द्वीपों पर मिस्र कब्जा करने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए ईरान ने उन्हें 20 लाख डॉलर दिया था। लेकिन जाहिरी र्साजनिक तौर पर ईरान की कड़ी निंदा करते रहे हैं।
अल जाहिरी को करीब एक दर्जन नामों से जाना जाता है। उसमें अबू मोहम्मद, अबू फातिमा, मोहम्मद इब्राहीम, अबू अबदालेह, अबू अल मुइज, द डाक्टर , द टीचर, नूर, अबू मोहम्मद, नूर अलदीन, अब्दुल मुआज प्रमुख हैं। उसकी एक ही शादी हुई है और पत्नी अब नहीं हैं। उससे पांच बच्चे हैं जिनमें एक बेटा और चार बेटियां हैं। बेटा बेहद शिष्ट और शालीन है और लड़कियों को जेहाद में शामिल करने के पक्ष में जाहिरी खुद भी नहीं हैं। जाहिरी मुख्य तौर पर 9/11 के बाद जब चर्चा में आए और अमेरिका ने दुनिया के 22 प्रमुख आतंकियों की सूची में उनका नाम जारी किया, तो उनकी पत्नी ने हैरानी जताते हुए कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भनक तक नहीं थी कि उनके पति जेहादी हैं। अल जाहिरी पाकिस्तान की लाल मस्जिद पर हुए हमले के पीछे भी रहे हैं और उससे पहले अमेरिकी दूताासों पर हुए हमलों में भी उनकी योजना रही है।
अल जाहिरी के साथ एक ही बात सही है कि उन्होंने इस्लामी दुनिया की तकलीफों को देखकर अपना जीन जोखिम में डाल लिया। लेकिन इजिप्ट इस्लामी जेहाद, अलकायदा तो आजकल अलकायदा इन द इस्लामी मगरिब के सहारे मुसलमानों की आजादी और अमन की तलाश कर रहे जाहिरी एक आत्मघाती नजरिए के साथ मौत के पीछे भटक रहे हैं। लादेन की तरह ही उनका अंत तय हो चुका है बस उसे े कब तक टाल पाते हैं यही उनकी कुशलता है।

Monday, May 2, 2011

पापा कहते थे बड़ा नाम करेगी

अरुण कुमार त्रिपाठी


जून सन 2007 में जब एम के कनिमोझी ने चेन्नई में

संगमम का आयोजन किया तो मुख्यमंत्री, पिता और

द्रमुक प्रमुख मुत्तुअल करुणानिधि ने उन्हें अपना

साहित्यक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। तब किसी को

इस बात का अहसास नहीं था कि साहित्यिक प्रतिभा

की धनी यह शमीर्ली बेटी एक दिन देश के इतिहास

के सबसे बड़े घोटाले की अभियुक्त बनेगी। जाहिर है

पिता की साहित्यिक विरासत को ढोने वाले लोग देश

और दुनिया में कई बार विवादों में आते हैं। लेकिन

महज साहित्यिक प्रतिभा के आधार पर कोई इतना बड़ा

घोटाला नहीं कर सकता। उसके लिए जरूर दूसरे तरह

की प्रतिभा होनी चाहिए। वह प्रतिभा राजनीतिक और

आर्थिक दोनों तरह की चाहिए। इसलिए कनिमोझी ने

पिता की साहित्यिक विरासत से ज्यादा आर्थिक विरासत

को ढोने में ज्यादा रुचि दिखाई और वही वजह है कि

आज सीबीआई उनके दरवाजे तक पहुंच गई है।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की

तरह कनिमोझी ने साहित्यिक प्रसिद्धि ओढ़ नहीं रखी

है। वे सचमुच प्रतिभाशाली हैं और राजनीति में आने से

पहले बेहद सामान्य ढंग से जीने में यकीन करती थीं। वे

मुख्यमंत्री की बेटी होते हुए आटोरिक्शा में सहज होकर

आती जाती थीं। तैंतालीस वर्षीय कनिमोझी तमिल की

एक प्रतिष्ठित कवयित्री हैं और उनकी कम से कम

पांच किताबें आ चुकी हैं। वे एक गायिका भी हैं और

उन्होंने एक प्रोडक्शन के लिए अपना कैसेट भी तैयार

करवाया है। वे एक पत्रकार रही हैं और उन्होंने पहले

द हिंदू अखबार के चेन्नई कार्यालय में एक उपसंपादक

का प्रशिक्षण भी लिया है। उसके बाद वे दो तमिल

प्रकाशनों की प्रभारी भी रही हैं। कनिमोझी की इन्हीं

रचनात्मक प्रतिभाओं को देखते हुए उन्हें द्रमुक की

कला, साहित्य और रैशनल्टी विंग का प्रभारी भी बनाया

गया है और तभी पिता करुणानिधि ने उन्हें अपना

साहित्यिक उत्तराधिकारी घोषित किया था। कनिमोझी ने

पहले शिवकाशी के एक व्यापारी से विवाह किया था। पर

वह विवाह चल नहीं पाया। उन्होंने दूसरी बार सिंगापुर के

एक तमिल साहित्यकार से शादी की है।

कनिमोझी का नाम टू-जी घोटाले में कलैगार टीवी की

हिस्सेदारी के कारण आया है। हालांकि इस टीवी समूह

में उनका हिस्सा महज 20 प्रतिशत है और करुणानिधि

की एक अन्य पत्नी दयालुअम्माल का 60 प्रतिशत।

लेकिन सीबीआई की चार्जशीट में दयालुअम्माल के

बजाय कनिमोझी का नाम आने से सभी को हैरानी हुई

है। सीबीआई का कहना है कि कलैगार टीवी में शाहिद

बलवा की कंपनी डीबी रियल्टी ने टू-जी घोटाले से कमाए

गए 200 करोड़ रुपए लगाए हैं, लेकिन चूंकि कनिमोझी

उसके संचालन में सक्रिय थीं, इसलिए उन्हें इस मामले

में अभियुक्त बनाया गया है। यह पूछे जाने पर कि

अब तक कनिमोझी को क्यों नहीं आरोपी बनाया गया,

सीबीआई का कहना था कि वह चार्जशीट के माध्यम से

विधानसभा चुनाव पर असर डालते नहीं दिखना चाहती

थी। जबकि थोड़े दिन देर करने से कोई फर्क नहीं पड़ने

वाला था। लेकिन द्रमुक और करुणानिधि के परिवार

जिसमें वैसे कोई विशेष अंतर नहीं है, उसकी यही राय है

कि दयालु अम्माल को आरोपी बनाए जाने का मतलब

कुछ और होता। तब यह सीधे करुणानिधि पर हमला

होता। जहां तक कनिमोझी को अभियुक्त बनाए जाने

का सवाल है तो उस पर पार्टी पदाधिकारियों के साथ

करुणानिधि के बेटों एमके अझगिरी और एमके स्टालिन

दोनों ने संयम बरतने की सलाह दी है।


दरअसल सन 2007 में जब कनिमोझी राज्यसभा की

सदस्य बनाई गईं तभी से वे पार्टी और परिवार की

आंखों की किरकिरी बनी हुई हैं।उन्हें विरासत की जंग का

एक पक्ष माना जाने लगा था। उनके राजनीतिक उभार

के साथ ही करुणानिधि के परिवार का एक राजनीतिक

सितारा दयानिधि मारन गर्दिश में जाने लगा। उन्हीं

दिनों उनसे दूरसंचार मंत्रालय ले लिया गया और उसका

जिम्मा कनिमोझी के करीबी समझे जाने वाले ए राजा

को दे दिया गया। तेज तर्रार तो दयानिधि मारन भी

काफी माने जाते थे, लेकिन कनिमोझी की निगाह में ए

राजा ज्यादा कुशल थे। कनिमोझी और ए राजा की इस

नजदीकी ने दिल्ली से लेकर चेन्नई तक जो गुल खिलाए

वह अब जगजाहिर है। लेकिन इस दौरान दयानिधि मारन

से उसकी प्रतिस्पर्धा के चलते भी उन्हें साहित्य के

बजाय आर्थिक विरासत संभालने पर मजबूर होना पड़ा।

वह होड़ थी सन टीवी और कलैगार टीवी की। सन टीवी

को दयानिधि मारन संभाल रहे थे और उसी की होड़ में

कलैगार टीवी शुरू किया गया। हालांकि कलैगार टीवी

कभी भी सन टीवी का मुकाबला नहीं कर पाया लेकिन

इस कोशिश में वह लगा जरूर रहा। टू-जी घोटाले का एक

सबक यह भी है कि किस तरह से राजनीति और मीडिया

की होड़ में अच्छी खबरें निकलने और अच्छा काम

होने के बजाय बड़े-बड़े घोटाले हो जाया करते हैं। डीबी

रियल्टी के 200 करोड़ रुपए लगाए जाने के तथ्य को तो

कनिमोझी स्वीकार करती हैं, लेकिन वे उसे कर्ज के तौर

पर मानती हैं।
वे उस पर आयकर भी दिखा रही हैं और

यह भी दावा कर रही हैं कि उसे वापस कर दिया गया है।

कनिमोझी करुणानिधि की तीसरे नंबर की पत्नी

रजतिअम्माल की बेटी हैं। आज परिवार में वे अकेली

पड़ती जा रही हैं। भले ही करुणानिधि उनका कानूनी

तौर पर बचाव करने का दावा कर रहे हैं लेकिन उनके

राजनीतिक बचाव के लिए न तो पार्टी आगे आ रही है

न ही परिवार। उधर कनिमोझी के प्रतिव्दंव्दीं दयानिधि

मारन इस कार्रवाई से बहुत खुश हैं।

राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और घोटाले ने कनिमोझी के

राजनीतिक व्यक्तित्व और छवि को काफी नुकसान

पहुंचाया है। जिस दिन देश के प्रमुख टीवी चैनलों में

उनका नाम चार्जशीट में शामिल किए जाने की खबर

चल रही थी और तमिलनाडु में भी उनके विरोधी चैनल

उसे चिल्ला चिल्ला कर बता रहे थे, उस दिन उनका

कलैगार चैनल मौसम की खबरें बता रहा था। उसका

कहना था कि अगले तीन दिनों तक बादल छाए रहेंगे

और बारिश होती रहेगी। निश्चित तौर पर कनिमोझी

को राजनीतिक बादलों ने घेर रखा है। देखना है कि 13

मई के बाद वे छंटते हैं या और घिरते हैं। इसी के साथ

यह भी सोचना है कि एक रचनात्मक प्रतिभा की धनी

कनिमोझी अपनी कविता और साहित्य से इस नुकसान

की कितनी भरपाई करती हैं ?

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...