Tuesday, March 28, 2017

बज्जू भाई



राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक राम गोपाल बजाज (बज्जू जी) के जीवन के छुए और अनछुए पहलुओं के बारे में उनके मित्र वरिष्ठ नाट्य एवं कला समीक्षक रवींद्र त्रिपाठी का लेख...


 राम गोपाल बजाज का बचपन घोर अभाव में बीता। उनके नाम में बजाज जरूर जुड़ा हुआ है लेकिन वे बजाज परिवार में नहीं जन्में। एक ऐसे मारवाड़ी बनिया परिवार में उनका जन्म हुआ जो घोर दारिद्य में जी रहा था। उस परिवार में जन्मे सभी बच्चे दूसरे मारवाड़ी परिवार में गोद लिए गए। बज्जू भाई बजाज परिवार में गोद लिए गए इसलिए उनका सरनेम बजाज है। उनके दूसरे सहोदर भाइयों के सरनेम अलग अलग हैं क्योंकि वे अलग अलग परिवारों में पले और गोद लिए गए। इस हिसाब से देखें तो बज्जू भाई का जीवन एक उपन्यास की मांग करता है। कोई चाहे तो उस पर एक बड़ा टीवी धारावाहिक भी बना सकता है। बहुत कम जिंदगियां ऐसी होती हैं जिनमें इतने घुमाव गलियां होती हैं।

बज्जू भाई। यानी राम गोपाल बजाज। कुछ लोगों के लिए बजाज साहब। देश और हिंदी के बहुचर्चित नाट्य निर्देशक और अभिनेता।
बात 1989 की है। मैं फ्रीलांसिग करता था और `दिनमान’ (जो अब बंद हो गया है) के लिए रंगमंच पर लिखता था। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (जिसे आम बोलचाल में एनएसडी या स्कूल भी कहते हैं) में उन दिनों कुछ मुद्दों को लेकर छात्रों और नाट्य विद्यालय प्रशासन में मतभेद हुए। इनमें एक मुद्दा खैरुद्दीन नाम के एक छात्र का वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना भी था। (खैरुद्दीन भी आजकल नाट्य निर्देशक बन चुके हैं और दिल्ली में ही रहते हैं।) कुछ और मामले भी इसमें जोड़े गए। नाट्य विद्यालय में छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ। इस सब में बज्जू भाई को भी लपेटा गया शायद इसलिए कि वे उन दिनों निर्देशक का कार्यभार संभाले हुए थे। वैसे चर्चा ये भी थी कि नाट्य विद्यालय की फैकल्टी की आंतरिक राजनीति की वजह से ही ये आंदोलन चला। बहरहाल, मामला गरमाने लगा। मीडिया में भी इसकी चर्चा हुई। तब कवि-कलासमीक्षक विनोद भारद्वाज `दिनमानमें संस्कृति संबंधी लेखों के प्रभारी थे। उन्होंने मुझसे कहा कि नाट्य विद्यालय में चल रहे आंदोलन को लेकर एक लेख दे दीजिए। मैं तब बजाज साहब के नाटक देखे थे। और रंजीत कपूर द्वारा निर्देशिक `एक रूका हुआ फैसलामें उनका अभिनय भी देखा था। किंतु उनसे परिचय नहीं था। 
जब मैं इस `दिनमानवाले लेख के सिलसिले में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बहावलपुर हाउस वाले परिसर में पहुंचा तो देखा कि एक आदमी अपनी ही एक आदमकद कैनवास पर रेखांकन-पेंटिग जैसी बनी आकृति के सामने खड़ा हुआ है। वह रेखांकन-पेंटिंग आंदोलनकारी छात्रों ने बनाई थी। उस पेंटिग के सामने मझोले कद वाला व्यक्ति खड़ा था। न मोटा और न दुबला पतला। गंजा होता सिर। जींस का जैकेट और पैंट पहने हुए। ये भी नोट किया वह शख्स साथ में खड़े दो तीन लोगों को मजे लेकर उस रेखांकन-पेंटिंग बारे में कुछ बता रहा है। यदा कदा हंसते हुए । साथ वाले भी कभी कभी हंस रहे थे। एक तरह से ठिठोली का वातावरण था। ऐसा लग रहा था कि पेंटिंग का कोई अध्यापक अपने विद्यार्थियों या सहयोगियों को अपने को केंद्र में रखकर बने किसी पोर्ट्रेट या कलाकृति की बारीकियां समझा रहा हो या उसकी कमियां निकाल रहा हो। ये राम गोपाल बजाज थे जो अपने ही खिलाफ चल रहे आंदोलन का मजा ले रहे थे। 
ये मेरी उनसे पहली मुलाकात थी।
वह परिचय धीरे धीरे प्रगाढ़ होता गया और आज वे या तो मेरे परिवार के सदस्य हैं या ये भी कह सकते हैं कि मैं उनके परिवार का सदस्य हूं। आज उस आंदोलन वाले वाकये के अठाईस साल हो चुके हैं। इस दौरान बज्जू भाई राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक (1995-2001) बने और वहां से सेवा निवृत्त भी हो गए। और उनसे मेरी प्रगाढ़ता कुछ ऐसी हुई कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय मेरा, कुछ लोगों की निगाह में, एक अस्थायी पता बन गया। वैसे रंगमंच में मेरी रुचि तो पहले भी थी लेकिन दिल्ली रंगमंच के अंत:पुर में मेरा प्रवेश बजाज साहब ने ही कराया। एक तो होता है कि आप नाटक देखते हैं और फिर उस पर लिखते हैं। दूसरा ये होता है कि रंगमंच के संसार के अंदरुनी संसार के भीतर जाते हैं और जो चीजें सार्वजनिक जानकारी में नहीं आतीं उनसे भी बावस्ता होते हैं। ये सब मेरे साथ बज्जू भाई से नजदीकी संबंध के कारण ही हुआ। उनसे मेरा रिश्ता इतना करीबी हो गया कि मेरे अनुरोध पर उन्होंने उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में वंसुधरा स्थित जनसत्ता हाउसिंग सोसाइटी की सदस्यता ली और मेरे पड़ोसी होकर बारह-तेरह साल रहे। अब पिछले कुछ साल से वे महाराष्ट्र में लोनावाला के करीब रह रहे हैं। लेकिन कोई हफ्ता नहीं जाता जब उनका फोन न आता हो और लंबी बात न होती हो। कई मर्तबे तो हफ्ते में तीन-चार दिन। उनके साथ मेरी यादों का एक विशाल कोष है, जिनके आधार पर पूरी किताब बन सकती है। फिलहाल कुछ ही यहां पेश कर रहा हूं। 
बज्जू भाई को मुद्दा बनाकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में कभी आंदोलन हुआ, ये एक छोटा-सा तथ्य है। बड़ा ये है कि उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कई पूर्व छात्रों की जितनी सहायता की उतना वहां के किसी और शिक्षक या निदेशक ने किया हो इसकी मुझे जानकारी नहीं। आज मुंबई फिल्मी दुनिया में कई ऐसी नामी हस्तियां हैं जिनको अगर वक्त पर बज्जू भाई ने आर्थिक मदद न की होती तो वे शायद उस मुकाम पर नहीं पहुंच पाते। संभवत: उन लोगों को आज अच्छा न लगे इसलिए उनके नाम नहीं ले रहा हूं लेकिन एक वाकया जरूर सबके साथ बांटना चाहूंगा जो मुझे अमिताभ श्रीवास्तव उर्फ बॉबी जी ने सुनाया था और आज भी अक्सर सुनाते रहते हैं। वे इसके सहभागी रहे हैं। 


उन दिनों बज्जू भाई मंडी हाउस के पास ही रेलवे क्वार्टर में किराए पर रहते थे। अमिताभ जी भी एनएसडी पास करने के बाद उनके साथ ही रहते थे। एक दिन सुबह पांच- साढ़े पांच बजे बज्जू भाई ने अमिताभ जी को जगाया और कहा –`चल केके के यहां चलते हैं। मुझे आभास हो रहा है कि वो किसी आर्थिक संकट में है।केके यानी केके रैना, जो आज मुबंई रंगमंच के चर्चित व्यक्ति हैं। रैना उन दिनों दिल्ली में कालीबाड़ी इलाके में रहते हैं। बज्जू भाई और अमिताभ श्रीवास्तव ने मंडी हाउस से टैक्सी ली और कालीबाड़ी पहुंच गए। रैना को जगाया। वो भी भौंचक कि इतनी सुबह दोनों वहां कैसे? पूछा कि बात क्या है? बज्जू भाई ने कुछ नहीं कहा किंतु उनके हाथ में पांच सौ रूपए रखे और टैक्सी से वापस। रैना ने उस समय तो कुछ नहीं कहा मगर दोपहर में मंडी हाउस पहुंचे। फिर बज्जू भाई को ढूंढा और पूछा कि माजरा क्या है? पैसे क्यों दिए? बज्जू भाई ने बताया कि `यार मुझे लगा कि तू किसी आर्थिक संकट में है। रैना ने कहा कि नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है और उन्होंने पांच सौ रूपए लौटाने चाहे। लेकिन बज्जू भाई ने लिए नहीं। 
बज्जू भाई की ये आदत रही कि जिसे मदद के लिए पैसे दिए उससे ये अपेक्षा कभी नहीं कि पैसा वापस दे। पर इसी तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। ऐसा नहीं है कि वे बड़े पैसे वाले हों या उनको कभी पैसे का संकट नहीं रहा हो। अमिताभ श्रीवास्तव इसी सिलसिले में दूसरा किस्सा बताते हैं। घटना 1981-82 की है। बज्जू भाई तब पाटियाला में पढ़ा रहे थे। एक दिन अमिताभ श्रीवास्तव ने देखा कि मंडी हाउस के गोलंबर (जो अब नहीं है क्योंकि मेट्रो स्टेशन बनने के बाद उस जगह को नए तरीके से सजाया संवारा गया है।) पर बज्जू भाई अकेले बैठे हैं। अमिताभ श्रीवास्तव ने पूछा - `बात क्या है, आपको को पाटियाला में होना चाहिए।उनको जवाब मिला- `यार पाटियाला जाने के लिए बस के पैसे तो हैं लेकिन उतने भर ही हैं। रिक्शे-स्कूटर के लिए भी कुछ चाहिए। रास्ते में चायपानी भी करनी होगी। और वहां रिजू (बज्जू भाई का पुत्र) अकेला है। समझ में नहीं आता हूं कि क्या करू?’। अमिताभ श्रीवास्तव भी उन दिनों फ्रीलांसर थे और उनके पास भी पैसे नहीं थे। इसलिए वे भी मदद करने की स्थिति में नहीं थे। पता नहीं, बाद में क्या हुआ और बज्जू भाई कैसे पाटियाला पहुंचे। पर ये घटना दिखाती है बज्जू भाई खुद मुफलिसी में रहे हैं लेकिन दूसरों की सहायता करने की उनकी भावना कभी दबी नहीं।
ऐसा नहीं है कि बज्जू भाई सिर्फ आर्थिक मदद ही करते रहे हों। अपने कई पूर्व छात्रों के निर्देशकीय व्यक्तित्व को बनाने में बज्जू बाई ने जो साहस दिखाया वो बतौर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय निदेशक कोई और नहीं दिखा सका। चार नाम लेना चाहूंगा। एक तो रायस्टन एबल, दूसरा निखिलेश शर्मा, तीसरा रविजिता गोगोई और चौथा चितंरजन त्रिपाठी। इन चारों को बज्जू भाई ने एनएसडी पास करने के कुछ ही दिनों के बाद रंगमंडल यानी रेपटरटरी में नाटक निर्देशित करने करने को कहा था। अमूमन एनएसडी ग्रेजुएट को रंगमंडल के नाटक का निर्देशन का मौका मिलने में कई साल लग जाते हैं। कई तो आज तक नहीं कर पाए हैं। लेकिन बज्जू भाई ने इन चारों को बहुत जल्द वो मौका दिया। रॉयस्टन एबल आज देश विदेश में इवेंट करने के लिए मशहूर हैं। निखिलेश शर्मा मुंबई में हैं और शायद फिल्म-टीवी लेखन कर रहे हैं। रविजिता गोगोई असम में हैं और वहां की चर्चित रंग निर्देशक हैं। चितरंजन भी बॉलीवुड में सक्रिय हैं और नाटकों का निर्देशन भी करते रहते हैं। चारों का अपना व्यक्तित्व बन गया है। रायस्टन और निखिलेश एक ही बैच में थे। रविजिता और चितरंजन अलग अलग बैच में।
रॉयस्टन ने जो नाटक रंगमंडल के लिए निर्देशित किया था वो था मिखाइल बुल्गाकोव द्वारा लिखित `मोलियर। पीयूष मिश्र ने उसका हिंदी अनुवाद किया था। निखिलेश शर्मा ने धर्मवीर भारती की काव्य रचना `कनुप्रियाका निर्देशन किया था जिसमें आज `बैंडित क्वीनके लिए चर्चित अभिनेत्री सीमा विश्वास ने मुख्य भूमिका निभाई थी। रविजिता ने जयशंकर प्रसाद के `ध्रुवस्वामिनीका निर्देशन किया था। चितरंजन त्रिपाठी ने अजय शुक्ला द्वारा लिखित `ताज महल का टेंडरनिर्देशित किया था जो एक जबर्दस्त कॉमेडी रहा। हाल के वर्षों की सबसे सफल कॉमेडी। इसकी सफलता ऐसी रही है कि एक साल पहले चितरंजन को फिर से इसी नाटक का निर्देशन करने के लिए रंगमंडल में बुलाया गया ।
अजय़ शुक्ला की बात चली तो लगे हाथ ये भी बता दिया जाए कि बज्जू भाई हिंदी में मौलिक नाटकों की खोज में वे हमेशा लगे रहे और कई मौलिक हिंदी नाटक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उनके कारण हुए। अजय शुक्ला के अलावा कई ऐसे नाम हैं जिनके नाटक पहली बार या तो बज्जू भाई ने किए या उनके कारण हुए। सुरेंद्र वर्मा के दो नाटक `सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तकऔर `कैद ए हयातपहली बार राम गोपाल बजाज ने ही रंगमंडल के लिए किए। सुरेंद्र वर्मा की बतौर नाटककार की जो उपबल्धियां रहीं उनके पीछे इन प्रस्तुतियों की बड़ी भूमिका है। भानु भारती ने दूधनाथ सिंह का लिखा `यमगाथारंगमंडल के लिए तब किया था जब बज्जू भाई रंगमंडल के प्रभारी थे। रंजीत कपूर ने जब `खबसूरत बहू’ ( लेखक-नाग बोडस) किया, जिसमें भी सीमा विश्वास ने ही केंद्रीय भूमिका अदा की थी, तो उसके पीछे भी बज्जू भाई थी। वो स्क्रिप्ट भी उनकी ही खोज थी। बोडस नाटक लिखते थे परंतु उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहीं थी। बज्जू भाई ने उनको भारतीय रंगमंच के क्षितिज पर लाया। उनकी वजह से ही बोडस का दूसरा नाटक `थैंकू बाबा लोचनदासभी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल ने किया जिसका निर्देशन बीएम शाह ने किया था। बज्जू भाई ही तब रंगमंडल के प्रभारी थे।
कथाकार महेंद्र भल्ला की परवर्ती दिनों में नाटककार की छवि बनी तो उसकी वजह भी बज्जू भाई द्वारा निर्देशित उनका पहला नाटक `दिमागे हस्ती दिल की बस्ती है कहां है कहांहै। हालांकि तब बज्जू भाई एनएसडी के निर्देशक नहीं रह गए थे और इस पद पर देवेंद्र राज अंकुर आ गए थे। पर इस नाटक को करने की तैयारी उन्होंने निर्देशक रहते ही शुरू कर दी थी पर अतिव्यस्तता के कारण उसे कर नहीं पाए थे। भल्ला के दूसरे नाटक `ठीक ऐन उस चीज के आमने सामनेका निर्देशन देवेंद्र राज अंकुर ने किया। कृष्ण बलदेव वैद के नाटक `भूख आग हैभी मंचन बजाज साहब के निर्देशन में हुआ। 
ये सही है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की बुनियाद खड़ी करने में इब्राहीम अल्काजी की बड़ी भूमिका रही। ये भी असंदिग्ध है कि उन्होंने नाट्य प्रशिक्षण की जो आधारशिला रखी उसकी वजह से कई अच्छे अभिनेता और निर्देशक रंगमंच के क्षितिज पर आए। अल्काजी अपनी तरह के अद्वितीय रंग व्यक्तित्व हैं और उनका कोई मुकाबला नहीं। किंतु उसके बाद एनएसडी के सबसे कल्पनाशील निदेशक बज्जू भाई ही हुए और इस संस्था की परिधि का विस्तार जितना उन्होंने किया वह कोई और नहीं कर सका। उनके चलाए कुछ कार्यक्रम तो अब बंद ही हो गए। जैसे `श्रुति। बज्जू भाई द्वारा बनाई गई परिधि अब छोटी पड़ती जा रही है।
बजाज साहब ने अपने कार्यकाल में हिंदी की नाट्य पत्रिका `रंग प्रसंगकी शुरुआत की। उनके कार्यकाल के दौरान ही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में `श्रुतिकार्यक्रम शुरू हुआ जिसमें हिंदी के वरिष्ठ या युवा, लेकिन चर्चित कथाकार या कवि आकर रचना पाठ करते थे। इस कारण हिंदी भाषी समाज और नाट्य विद्यालय का एक गहरा जीवंत रिश्ता बन गया था। बज्जू भाई ने ही बहावलपुर हाउस परिसर में `सम्मुखथिएटर बनवाया और फिर `अभिमंचबनाना शुरू किया जो अंकुर जी के कार्यकाल में पूरा हुआ। 1996 में बज्जू भाई ने बतौर निदेशक स्कूल के दीक्षांत समारोह के अवसर पर `एकल अभिनय नाट्य समारोह करायाजिसमें लक्ष्मण देशपांडे, वीणापाणि चावला से लेकर नसीरुद्दीन शाह जैसे अभिनेताओं ने शिरकत की। उस दीक्षांत समारोह में धर्मवीर भारती मुख्य अतिथि थे। बज्जू भाई की पहल से और उनके निदेशकीय कार्यकाल में एनएसडी ने बच्चों के लिए `जश्ने बचपनऔर `बाल संगमजैसे वार्षिक कार्यक्रम शुरू किए जो बाल रंगमंच को देश भर में आगे बढ़ाने में उत्प्रेरक साबित हुए। आज भी ये दोनों समारोह होते हैं।


और सबसे बढ़कर तो ये कि उनके कार्यकाल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने `भारत रंग महोत्सव’ (भारंगम) शुरू किया। ये 1999 की बात है। जहां तक मेरी जानकारी है `भारंगमशुरू करने का आरंभिक विरोध एनएसडी की फैकल्टी में था। ये बज्जू भाई के व्यक्तित्व का दबाव था कि `भारंगमशुरू हुआ और आज ये आयोजन सिर्फ एनएसडी ही नहीं भारतीय रंगमंच का सबसे बड़ा ब्रांड बन गया है। स्थिति ऐसी हो गई है कि जिस निर्देशक या ग्रूप के नाटक का चयन भारंगम में नही हुआ उसे लगता है कि या तो उसके नाटक करने का कोई अर्थ नहीं है या वो ये आरोप लगाता है कि `भारंगममें चयन की प्रक्रिया में कोई गड़बड़ है। यहां याद रखनेवाली बात ये भी है कि बज्जू भाई के निर्देशक रहते भारंगम में एक साल 100 से अधिक नाटक हुए। इस रिकार्ड बाद में दुहराया नहीं जा सका। उनकी संगठन क्षमता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके कार्यकाल में `भारंगमके आयोजन के लिए उतना बड़ा लश्कर भी नहीं था जितना आज होता है। चंद लोगों के सहारे ही वे ये काम करते थे। तब वे मयूर विहार वे ` कला विहार अपार्टमेंटमें रहते थे और यहां रात में कई बार गोष्ठियां जमती थीं जिनमें मैं भी यदा कदा रहता था। फिर रात भी वहीं बीतती थी। बजाज साबह बहुत अच्छे मेहमानबाज हैं और चाहे वे कला विहार में रहे हों या जनसत्ता अपार्टमेंट में उनके फ्लैट पर दोस्तों का जमावड़ा होता था।
`
भारंगमके आरंभिक दिनों की चर्चा कर रहा था। तब मैं देखता था कि सुबह छह बजे के करीब जागने के बाद वे अक्सर फोन से ही आयोजन की तैयारी के लिए लग जाते थे। `भारंगमजब शुरू हुआ था तो मोबाइल का चलन नहीं था। इससे भी अनुमान लगाया जा सकता है वे इसे किस चुनौतीपूर्ण समय में करते थे और कैसे करते थे। कुछ लोगों को उन्होंने वायरलेस सेट खरीद कर दिए थे जो रेलवे स्टेशन और एयरपोर्ट पर अतिथियों को लाने के काम में लगे थे।
आज देश के अकादमिक संस्थानों में जेंडर जस्टिस की चर्चा होती है और इसी कारण उनमें लड़कियों का प्रवेश भी बढ़ रहा है। ये सब अब सहज तरीके से हो रहा है। पर बीस साल पहले ये उतना सहज नहीं था। ऐसे में कोई ये सोच सकता है कि अगर किसी सत्र में सिर्फ बीस छात्र-छात्राओं का चयन होना है तो उनमें से दस छात्राएं हो सकती हैं? बज्जू भाई ने ये किया। वो भी बिना किसी आरक्षण के। 1995 में वे निदेशक बने और 1996 वाले सत्र में कुल बीस छात्र-छात्राओं में दस लड़कियों का चयन हुआ। ये शायद इत्तफाक था कि उन दस में आठ या नौ मुसलिम लड़कियां थीं। उस समय के लिहाज के एक बड़ा कदम था जो एनएसडी में ही फिर से दुहराया नहीं जा सका। वो करने में कैसे कैसे पेंच फंसे थे इसका बयान एनएसडी के एक अध्यापक अब्दुल लतीफ खटाना से कोई सुन सकता है। 
नाटक के अलावा बज्जू भाई का दूसरा प्रेम हिंदी कविता है। वैसे तो दिनकर और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी उनके प्रिय हैं पर उनके सर्वाधिक तीन प्रिय कवि हैं- अज्ञेय, कुंवर नारायण और कुमार अंबुज। उनके पास अगर कोई झोला या बैग है तो तय मानिए कि उसमें इन तीन से किसी न किसी एक का कोई काव्य-संग्रह जरूर होगा। हो सकता है कि तीनों के हों। यदि आप उनके करीबी हैं, जिनकी संख्या काफी है, और आपकी मुलाकात ऐसे समय में हो गई है जब उनके पास समय हो, तो आपको वे इनमें से किसी कवि की दो-तीन कविताएं पढ़कर जरूर सुनाएंगे। ये संख्या ज्यादा भी हो सकती है। संभावना इसकी भी है कि आपको वे कहें कि- `आज घर चलो, अज्ञेय की कविताएं सुनाऊंगाँ। ये भी हो सकता है कि उनको किसी की नई कविता बेहद पसंद आए तो आपको फोन पर ही सुनाने लगें।
2016 के `भारंगममें भाग लेने जब वे दिल्ली आए तो अशोक होटल में ठहरे थे। एक दिन बाथरूम में गिर पड़े और गंभीर रूप से घायल हो गए है। चार-पांच दिनों तक अस्पताल में रहे और फिर बंगाली मार्केट वाले एनएसडी के गेस्ट हाऊस में। उस समय, `भारंगमखत्म होने के बाद, विनोद भारद्वाज की पहल से एनएसडी में कुंवर नारायण की कविताओं के पाठ का एक आयोजन रखा गया था। इसकी रूपरेखा पहले से बन गई थी और तय था कि बज्जू भाई कुंवर नारायण की कुछ कविताओं का वाचन करेंगे। उस सिलसिले में आरंभिक बातचीत करने मैं, बज्जू भाई और विनोद भारद्वाज कुंवर नारायण के घर भी गए थे। कुंवरजी के यहां हम सबका जिस आत्मीय ढंग से स्वागत हुआ वो एक अलग स्मृतिलेख का विषय है। खैर, उस मुलाकात के बाद बज्जू भाई दुर्घटनाग्रस्त हो गए। अब मेरे मन में भी तथा विनोद जी के मन में भी संशय था कि इस हालत में बज्जू भाई का कार्यक्रम में भाग लेना और कविताओं का वाचन करना संभव नहीं होगा। बल्कि मैंने तो सुझाव भी दिया कि बज्जू भाई, जोखम मत मोल लीजिए। लेकिन कविता और कुंवर नारायण की कविताओं के प्रति उनका लगाव ऐसा है कि उस अस्वस्थ हालत में भी वे ह्वील चेयर पर आए और अपने उसी उत्साह और ऊर्जा के साथ उन्होंने कुंवर जी की कविताएं सार्वजनिक रूप से पढ़ीं जो पहले के वाचनों में दिखती रही हैं।
बतौर नाट्य निर्देशक भी उनकी कई स्मृतियां मेरे मानस पटल हैं। एक बार वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लिए विद्याधर पुंडलीक के नाटक `चार्वाकका निर्देशन कर रहे थे। इसका रिहर्सल वे रात में करते थे। तब मैं `जनसत्ताअखबार में काम करता था। कई बार वे मुझे रात में ही रिहर्सल देखने के लिए बुला लिया करते थे। जिस स्थान पर रिहर्सल चल रहा था उसका डिजाइन कुछ ऐसा था कि उसे गड्ढा नुमा बनाया गया। एक रात जब मैं रिहर्सल देख रहा था तब बज्जू भाई किसी अभिनेता को कुछ बताने के लिए इतनी तेजी से नीचे उतरे कि शरीर अंसुतलित हो गया। जहां तक मुझे याद है उनके पैर में हेयरलाइन फ्रैक्चर हो गया था। 
वे बतौर नाट्य निर्देशक अपने अभिनेतों की सुख सुविधा का काफी खयाल रखते हैं। ये भी मैंने बहुत कम निर्देशकों में देखा है। अपने अभिनेता और दूसरे साथी सही समय पर खा रहे हैं या नहीं, उनको चाय मिली या नहीं या उनके रात में घर जाने का क्या इंतजाम है- इन सब पर उनकी पैनी नजर रहती है। एक दम परफेक्ट। इसलिए उनके नाटकों में अभिनेताओं या तकनीशिनों को किसी तरह का तनाव नहीं होता और नाटक भी बड़े आराम से तैयार होता है। 
मैंने उनके द्वारा निर्देशित कई नाटक देखे हैं। लेकिन उनका जो नाटक मेरे दिल में खुबा हुआ है वह है `कैद ए हयात।ये मिर्जा गालिब की जिदंगी पर आधारित है। श्रीवल्लभ व्यास ने इसमें केंद्रीय भूमिका निभाई थी। यानी गालिब की। और गालिब की प्रेमिका की भूमिका सीमा विश्वास ने निभाई थी। शुरुआती प्रदर्शनों मे हिमानी शिवपुरी गालिब की पत्नी की भूमिका में थीं। इसका प्रारंभिक प्रदर्शन एनएसडी के उस स्टूडियो थिएटर में हुआ था जो तब साहित्य अकादेमी की तीसरी मंजिल पर था। वह स्टूडियो थिएटर अब नहीं है। उस जगह पर आज अकादेमी का एक सभागार बन गया है।
कई ऐसे लोग मिल जाएंगे जो कहेंगे कि बज्जू भाई रंगमंच की राजनीति भी करते हैं। कुछ चर्चित नाट्य निर्देशक अपने साथ हुए वाकये सुनाएंगे और कहेंगे- `मेरे साथ बज्जू ने ये किया।या वे किसी और के साथ हुए वाकये सुनाएंगे कि `बज्जू ने निर्देशक रहते फलां का नाटक कुछ शो के बाद बंद कर दिया। यही नहीं, एनएसडी में आज भी कई ऐसे कर्मचारी और कुछ अध्यापक भी मिल जाएंगे जो उनकी तनी हुई भृकुटि और एक जगह जमी निगाह को देखकर सहम जाएंगे। बाज वक्त बज्जू भाई एक जगह खड़े हो जाते हैं, आंखों को उस आदमी पर जमाते हैं जिसके साथ कोई मामला हो, उसको घूरते हैं और सिर को थोड़ा हिलाते हैं। हालांकि ये एक अभिनेता की अदा है, मगर इसे बज्जू भाई ने एनएसडी के भीतर एक पॉलिटिशयन का अंदाज भी बना दिया है। सामने वाला सोचता है कि मेरे खिलाफ कुछ पक रहा है। वो एक मनोवैज्ञानिक खौफ की मन:स्थिति में चला जाता है और परेशान हो जाता है। कुछ मर्तबा तो बज्जू भाई भी ये सुनाते मिल जाएंगे – `मैंने फलां को ठीक कर दिया 
इन सबके बावजूद ये भी कहना पड़ेगा कि बज्जू भाई ठोंक के चुनौती देते हैं और कोई ये नहीं कह सकता कि उसके साथ दगा किया गया। किसी को चुनौती दी तो खुल्लमखुल्ला। मुझे याद है आज के वरिष्ठ रंगकर्मी प्रसन्ना ने एनएसडी के लिए गिरीश कार्नाड का नाटक `अग्नि और बरखाकिया था। प्रसन्ना और बज्जू भाई की काफी दोस्ती रही। किसी बात पर प्रसन्ना से उनकी ठन गई। मैं तब `जनसत्तामें ही था और रात में आईटीओ पर हनुमान मंदिर के पीछे एक ढाबे पर खाना खा रहा था। हमउम्र रंगकर्मी अविनाश देशपांडे भी साथ थे। कुछ देर बाद बज्जू भाई भी आ गए। वे कुछ ढाबों के मुरीद रहे हैं जिनमें एक ये भी है। मुझे देखा तो बोले- `अग्नि और बरखादेखा कि नहीं। मैंने कहा- `अभी नहीं देखा। बोले, `दो-तीन दिनों में देख लो क्योंकि उसे बंद कर रहा हूं।दिलचस्प ये है कि उस नाटक की प्रस्तुति आगे न हो इसके लिए चिट्ठी उन्होने गिरीश कार्नाड से लिखवा ली। आज भी ये रहस्य है कि गिरीश को उन्होंने क्या पाठ पढ़ाया था? मेरी प्रसन्ना से भी गहरी दोस्ती रही और आज भी कायम हैं। और दोनों, ये जानते हुए कि मेरी दूसरे से गहरी दोस्ती है, मुझसे संबंध बनाए रखते हैं। ये उन दोनों की खूबी है।
मेरा अपना मानना है कि बज्जू भाई के भीतर एक हठी व्यक्तित्व उस समय जाग जाता है जब उनको लगता है कि कोई लंगड़ी मारने का प्रयास कर रहा है। फिर वे समझौता नहीं करते। एक तरफ तो वे दानवीर हैं और कोई चीज उनके पास है या उनके सामर्थ्य में है तो उसे मांगने पर अस्वीकार नहीं करेंगे। परंतु अगर सामनेवाले ने किसी तरह का दबाव बनाया तो फिर बज्जू भाई दबंग हो जाते हैं। उन्होंने झुकना नहीं सीखा है भले ही उनको जाती नुकसान हो। 
राम गोपाल बजाज का बचपन घोर अभाव में बीता। उनके नाम में बजाज जरूर जुड़ा हुआ है लेकिन वे बजाज परिवार में नहीं जन्में। एक ऐसे मारवाड़ी बनिया परिवार में उनका जन्म हुआ जो घोर दारिद्य में जी रहा था। उस परिवार में जन्मे सभी बच्चे दूसरे मारवाड़ी परिवार में गोद लिए गए। बज्जू भाई बजाज परिवार में गोद लिए गए इसलिए उनका सरनेम बजाज है। उनके दूसरे सहोदर भाइयों के सरनेम अलग अलग हैं क्योंकि वे अलग अलग परिवारों में पले और गोद लिए गए। इस हिसाब से देखें तो बज्जू भाई का जीवन एक उपन्यास की मांग करता है। कोई चाहे तो उस पर एक बड़ा टीवी धारावाहिक भी बना सकता है। बहुत कम जिंदगियां ऐसी होती हैं जिनमें इतने घुमाव गलियां होती हैं। 
बज्जू भाई आजकल दिल्ली में नहीं रहते पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मानसिक रूप से अभी भी वे दिल्ली में ही रहते हैं। खासकर एनएसडी और मंडी हाउस के परिसर में उनका मन रमता है। उनसे जब भी, बातें होती हैं, इस इलाके का जिक्र जरूर आता है। `बंटी और बबलीफिल्म में `कजरारे कजरारेवाला गाना है। उसमें एक जगह ये पंक्तियां आती हैं- `तुझसे मिलना पुरानी दिल्ली में/ छोड़ आए निशानी दिल्ली में/ बल्लीमारां से दरीबे तलक/ तेरी मेरी कहानी दिल्ली में।बज्जू भाई के पुराने मित्र, चाहे वे पुरुष हो या स्त्री, इस गीत को गाते हुए अगर `बल्लीमारां से दलीबे तलककी जगह `रवींद्र भवन से बहावलपुर हाउस तलककर दें तो ये उनके संबंधों को याद दिलानेवाली पंक्तियां होंगी। ऐसे पुरुषों और स्त्रियों की काफी बड़ी संख्या है।


पता- ई- 102, जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर -9, वसुंधरा, गाजियाबाद-201012
मोबाईल-9873196343



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