Monday, December 26, 2016

वर्षांत: कहीं सम्मान तो कहीं धूमिल हुई छवि





अभिनव उपाध्याय,  नई दिल्ली


राजधानी में वर्ष भर साहित्य कला और संगीत के क्षेत्र में गहमा गहमी बनी रही। वर्ष के शुरूआत में विश्व पुस्तक मेला, साहित्य अकादमी पुरस्कार, विभिन्न किताबों के आगमन पर चर्चा और संगोष्ठियों का आयोजन किया गया। लेकिन वर्ष भर सबसे अधिक चर्चा इस वर्ष दिल्ली सरकार के हिंदी अकादमी में पुरस्कार को लेकर रही। हिंदी दिवस पर राजधानी में मनाए जाने वाले कार्यक्रम में आयोजित सम्मान समारोह से पहले ही यहां साहित्यकार अपमानित हुए। यह विवाद दिल्ली सरकार के अधीन हिंदी अकादमी का यह ताजा विवाद लेखकों के भाषा दूत सम्मान को लेकर था। अकादमी ने पहले तीन लेखकों को डिजिटल माध्यम में हिंदी संगोष्ठी एवं भाषा दूत सम्मान ग्रहण के लिए आमंत्रित किया लेकिन बाद में ये कहकर खेद जता दिया कि उन्हें गलती से आमंत्रण चला गया था और इसे मानवीय भूल समझा जाए। 
 इसमें दिल्ली के लेखक अशोक कुमार पांडेय,उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद से अरुण देव और इलाहाबाद से संतोष चतुर्वेदी सहित कुछ और लेखक थे। 
दिलचस्प यह था कि अकादमी ने 10 सितंबर को पत्र और फोन के जरिये सूचना भेजी गई थी और सम्मान के लिए सहमति ली गई थी लेकिन 12 सितंबर को हिंदी अकादमी ने मानवीय भूल माना। 
हिंदी अकादमी के इस कृत्य की चौतरफा निंदा हुई और सोशल मीडिया पर भी लोगों ने अपनी टिप्पणी दी। 
साहित्यकार मंगलमूर्ति ने लिखा कि हिंदी अकादमी को जिस कैंची से फीता काटना था उसी से अपनी नाक काट ली,अच्छा है।
पहली हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष ने अपनी विवशता दिखाई और मीडिया से दर्द साझा करते हुए कहा कि मुझे कुर्सी मेज़ की सुविधा के लिये भी सचिव से पूछना पड़ता है। उपाध्यक्ष के लिये न कोई कमरा होता है न गाड़ी। हां मैंने कुछ हस्तक्षेप किया है। पुराने ढर्रे को तोडऩे की कोशिश की है अब जितना भी हो जाये। 
भाषा दूत सम्मान के लिए मुझसे नाम मांगे गए थे जो मैंने दिए, लेकिन मैं न तो चयनकर्ताओं में शामिल हूं और न ही चयन में मेरी किसी तरह की भूमिका रही है। जो नाम मैंने दिए थे उन नामों का चयन ही नहीं किया गया है।
अदीबों का सम्मान करने के लिए जानी जाने वाली अकादमी की छवि इस घटना के बाद धूमिल हुई।
 
विगत वर्ष पुरस्कार वापसी के लिए चर्चा रही साहित्य अकादमी 2016 में विवादों से दूर रही। वयोवृद्ध साहित्यकार रामदरश मिश्र को उनके कविता संग्रह आग की हंसी के लिए, उर्दू में शमीम तारिक को उनकी समालोचना तसव्वुफ और भक्ति के लिए 16 फरवरी को राजधानी में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्यकार रामदरश मिश्र को पुरस्कार देने में देरी के लिए साहित्य अकादमी की कुछ लोगों ने आलोचना भी की। स्वयं रामदरश मिश्र ने कहा कि लोग कह रहे हैं कि काफी देर बाद यह सम्मान आपकी कृति को मिला लेेकिन मैं इसमें क्या कर सकता हूं। मुझे खुशी है। मेरी ही एक कविता है कि जहंा आप पहुंचे छलांगे लगाकर मगर मैं भी पहुंचा वहां धीरे धीरे। 

नौ अक्टूबर को भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारक दीन दयाल उपाध्याय के जन्म शताब्दी वर्ष पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके दर्शन को समर्पित कार्यों की एक श्रृंखला दीनदयाल उपाध्याय संपूर्ण वाङ्मय का विमोचन किया। जिसमें पंडित दीन दयाल उपाध्याय के बौद्धिक संवादों, उपदेशों, लेखों, भाषणों और उनके जीवन से जुडी घटनाओं को शामिल किया गया है जिनमें उनके एकात्म मानववाद के दर्शन के बारे में बताया गया है। यह श्रृंखला प्रभात प्रकाशन से आई है। 

साहित्यिक जगत में विशुद्ध साहित्यिक सामग्री इस वर्ष कम आई है। कोई ऐसा कविता संग्रह भी नहीं आया जिस पर चर्चा हो। हालांकि इस बीच पारंपरिक प्रकाशन विधा से हटकर ऑनलाइन प्रकाशन और वेबपोर्टल तथा साहित्यिक ब्लागों पर लिखी गई सामग्रियों की चर्चा रही। ऐसा भी देखा गया कि हिंदी प्रकाशकों की किताबें पहले अंग्रेजी में अनुदित कर फिर उसे हिंदी में लाया गया। जगरनॉट प्रकाशन से प्रियदर्शन और अन्य लेखकों की किताबें इसका उदाहरण है। डिजिटल माध्यम में यह किताबें अधिक बिकी हैं। 
साहित्य अकादमी ने 21 दिसंबर को 2016 के साहित्य अकादमी पुरस्कार की घोषणा भी कर दी और यह पुरस्कार हिंदी के लिए नासिरा शर्मा को उनकी कृति पारिजात के लिए पुरस्कृत किया गया।
अंग्रेजी के प्रतिष्ठित प्रकाशक आक्सफोर्ड प्रेस ने हिंदी में प्रकाशन के शुरूआत की घोषणा भी इसी वर्ष की है। यह साहित्य जगत  के ऐसे बदलाव हैं जो समय के साथ अपने को बदले हैं। 
वर्ष में दो पुस्तक मेला देखने वाला यह शहर किताबों की बिक्री के मामले में उदास रहा। विश्व पुस्तक मेला में जहंा दर्शकों की संख्या बढी और बिक्री कम रही वहीं दिल्ली पुस्तक मेला न अपेक्षित दर्शक आए और न ही बिक्री ही हुई। 
राष्ट्रीय नाट््य विद्यालय में पहली बार हर दो वर्ष पर होने वाला नाटकों का मेला जश्न ए बचपन अब अंतरराष्ट्रीय हो गया यही नहीं आने वाले समय में यहां नाटकों के ओलंपिक करने की घोषणा भी की गई। 

Thursday, December 22, 2016

पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति एक जैसी: नासिरा शर्मा



महिलाओं के सामाजिक,राजनीति व उनके जीवन के अन्य पहलुओं पर अपनी निगाह रखकर भौगोलिक सीमा से परे जाकर उनके मन की टोह लेने में माहिर और अपने साक्षात्कार, कहानी, उपन्यासों के लिए विख्यात लेखिका नासिरा शर्मा को इस वर्ष हिंदी के लिए उनकी रचना पारिजात के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। प्रस्तुत है वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा से अभिनव उपाध्याय की बातचीत-



प्रश्न- यह उपन्यास आपकी अन्य कृतियों से कैसे भिन्न है?

उत्तर- इसके बारे में मैं क्या कह सकती हूं।  मेरे हर उपन्यास का विषय अलग रहता है। इसमें मैंने लखनऊ और इलाहाबाद की पृष्ठभूमि को लिया है कि कैसे अवध की तहजीब बनी उसने लोगों को प्रभावित किया लेकिन अब वो चीज गायब हो गई है। इसमें मैं कर्बला, हुसैनी ब्राह्मण और आधुनिक जमाने की कोशिश को लेकर चली हूं।

प्रश्न-आपके और भी उपन्यास हैं लेकिन लेकिन पारिजात उपन्यास पर आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, आप क्या कहना चाहेंगी?

उत्तर- मुझे तो पता भी नहीं था कि इस पर पुरस्कार मिलेगा। मेरे लिए ये ताज्जुब की बात हुई लेकिन मुझे किसी भी उपन्यास पर मिलता तो ऐसा ही लगता।

प्रश्न-आपका लेखन महिलाओं की दशा दिशा को लेकर भी है चाहे वह खाडी देश की हों या भारत की। आप दोनों देशों की महिलाओं की स्थिति में कितनी समानता या विभिन्नता देखती हैं?

उत्तर- पूरी दुनिया में भावनात्मक रूप से देखें तो महिलाओं की स्थिति एक जैसी ही है। आप चाहे जितने बहादुर हो जाएं लेकिन आपकी भावनाएं तो बहादुर नहीं हो सकती। आप औरत बनके मर्द की तमन्ना करते हैं और मर्द बनके ही औरत की तमन्ना करते हैं। अगर इस्लाम के नजरिए से देखिए तो खाडी के देशों महिलाओं को सब कुछ मिला है लेकिन आजादी नहीं मिली है जिसे हम आजादी कहते हैं। लेकिन हम सारी आजादी पाने के बाद भी दुखी हैं देश में दुष्कर्म उसी रूप में हो रहा है,धर्म की खेती उसी अंदाज से होती है। लेकिन यह भी सच है कि 20 फीसद औरतों ने जो चाहा वो हासिल किया है। ज्यादातर औरतें परेशान हैं। कहीं समाज, राजनीति और अन्य बंदिशें महिलाओं के लिए है। उनकी तकलीफों को समझना मुश्किल है।

प्रश्न- आपने विभिन्न विधाओं में लिखा है, किस विधा में अपने को सहज पाती हैं?
उत्तर- इधर दस बारह सालों में मैंने एक या दो कहानियां लिखी हैं ज्यादातर मेरा समय उपन्यास लेखन में जा रहा है। अगर मैं ये कहूं कि कहानी लिखने में तत्काल आनंद मिलता है लेकिन उपन्यास में अपने आप को उसमें डालना पड़ता। उसके किरदारों के नाम याद रखता आदि काफी मुश्किल काम है।

प्रश्न- पूरे विश्व में आतंकवाद की चर्चा है, एक समूह इसे इस्लामिक आतंकवाद का नाम देता है इसमें महिलाओं की संलिप्तता भी सामने आई है? इसे किस तरह से देखती हैं?

उत्तर- महिलाएं तो खुद समझ रही हैं कि जहां पर अंकुश ज्यादा है वहां भी वह शामिल हैं। मामला सियासी हो या धार्मिक वह पीछे नहीं रह गई है। वह घर में भी भागीदार थी और बाहर भी लेकिन पुरुषों से दुगनी हालत में महिलाएं परेशान हैं। क्योंकि उसके साथ परिवार जुडा है समस्याएं जुडी हैं। यह समय दुख के गीत का समय है।

प्रश्न- यह दुख के गीत का समय है?किस संदर्भ में यह कह रही हैं?

उत्तर- यदि आपका नजरिया वहां जाता है जहां जंग ज्यादा है फसाद हो रहा है तो आपको लगेगा कि बाकी कुछ नहीं है केवल जंग है। मैं ज्यादातर उनके बीच उठती बैठती हूं जहां दुख के साए मंडराते हैं इसलिए मैं ऐसा कह रही हूं और वही मेरे लेखन भी आता है।

प्रश्न- आपने आजाद भारत को बढते हुए देखा लेकिन भूमंडलीकरण के बाद एक अलग तरह का भारत दिख रहा है? इसमें महिलाएं कहां है?

उत्तर- पहले सादगी थी,रिश्तों को लेकर पुरानी कैफियत ज्यादा लोगों में थी। लेकिन बाद में बाजार के पनपने का असर लोगों ने तेजी से लिया और इससे चीजें बहुत रंगीन और शोर शराबे वाली हो गई। धीरे धीरे जब सियासत रंग दिखा रही है तो वह आम आदमी के फायदे में नहीं जा रही है। आम आदमी भयभीत भी है, परेशान भी है और उसको इंसाफ नहीं मिल रहा है। अगर सफाई है तो कूडा आपके घर के सामने रख देते हैं, यदि सरकारी पानी आपके घर के ऊपर गिर रहा है तो एक बोरी सीमेंट की व्यवस्था नहीं हो पा रही है।
पुल,सिनेमाहाल, मॉल बनने से क्या होता है। दूसरा पक्ष भी ऐसे भी कैसे संतुलित हो यह भी देखा जाना जरूरी है। दो रोटी खाकर लोग सकून से जी तो सकें। यह सिलसिला किसी एक सरकार से जुडा नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति का एक अजीब सा अंग बनता जा रहा है। सब सहो और चुप रहो। हमारे समाज का नैतिक पतन बहुत हुआ है। मानवता धीरे धीरे कम हो गई है।
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कौन हैं नासिरा शर्मा

नासिरा शर्मा का जन्म 1948 में इलाहाबाद में हुआ। उन्होंने फारसी भाषा और साहित्य से एमए किया। हिंदी, उर्दू,पश्तो एवं फारसी पर उनकी गहरी पकड है। वह ईरानी समाज और राजनीति के अतिरिक्त साहित्य, कला  व संस्कृति विषयों की विशेषज्ञ हैं। इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान व भारत के राजनीतिज्ञों तथा प्रसिद्ध बुद्धिजीवियों के साथ उन्होंने साक्षात्कार किए जो बहुत चर्चित हुए। सर्जनात्मक लेखन में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता में भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया है।
2008 में अपने उपन्यास कुइयाँजान के लिए यूके कथा सम्मान से सम्मानित किया गया। अब तक दस कहानी संकलन, छह उपन्यास, तीन लेख-संकलन, सात पुस्तकों के फ़ारसी से अनुवाद हो चुका है।

नासिरा शर्मा को साहित्य अकादमी पुरस्कार


फरवरी में आयोजित समारोह में दिया जाएगा पुरस्कार
-भाषा सम्मान की घोषणा भी अकादमी ने की


 साहित्य अकादमी ने बुधवार को 24 भाषाओं में अपने वार्षिक साहित्य अकादमी पुरस्कार की घोषणा की। आठ कविता संग्रह, सात कहानी संग्रह,पांच उपन्यास, दो समालोचना, एक निबंध संग्रह और एक नाटक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार घोषित किए गए। हिंदी भाषा में प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा को उनकी कृति पारिजात के लिए उन्हें पुरस्कार देने की घोषणा की गई। जेरी पिंटो को उनके उपन्यास एम एंउ द बिग हूम तथा उर्दू में निजाम सिद्दिकी को उनकी समालोचना माबाद ए जदिदिआत से नये अहेद की तखलिकियात तक के लिए दिया जाएगा।
नासिरा शर्मा ने इस पुरस्कार पर खुशी जताई और कहा कि यह मेरे लिए चौंकाने वाला समाचार है।
पुरस्कारों की अनुशंसा 24 भारतीय भाषाओं की निर्णायक समितियों द्वारा की गई तथा साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में आयोजित अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक में बुधवार को इन्हें अनुमोदित किया गया।
 पुरस्कार 1 जनवरी 2010 से 31 दिसम्बर 2014 के दौरान पहली बार प्रकाशित पुस्तकों पर दिया गया है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार के रूप में एक उत्कीर्ण ताम्रफलक, शॉल और एक लाख रुपये की राशि प्रदान करेगी। घोषित पुरस्कार 22 फरवरी 2017 को राजधानी में आयोजित एक विशेष समारोह में दिया जाएगा।
इन पुस्कारों की घोषणा साहित्य अकादमी के सचिव डा.के श्रीनिवास राव ने की।
 कविता संग्रह के लिए पुरस्कृत 8 कवि हैं  ज्ञान पुजारी (असमिया), अंजु (अंजलि नार्जारी) (बोडो), कमल वोरा (गुजराती), प्रभा वर्मा (मलयालम), सीतानाथ आचार्य शास्त्री (संस्कृत), गोबिन्दचन्द्र माझी (संताली), नन्द जावेरी (सिन्धी) और पापिनेनि शिवशंकर (तेलुगु)
जबकि
अपने कहानी-संग्रहों के लिए पुरस्कृत सात कहानीकार हैं छत्रपाल (डोगरी), श्याम दरिहरे (मैथिली), मोइराङ्थेम राजेन (मणिपुरी), आसाराम लोमटे (मराठी), पारमिता सत्पथी (ओडिय़ा), बुलाकी शर्मा (राजस्थानी) और वन्नदासन (तमिल)।
जेरी पिंटो (अंग्रेज़ी), नासिरा शर्मा (हिन्दी), बोलवार महमद कुं (कन्नड), एडविन जे.एफ़. डिसोजा (कोंकणी) और गीता उपाध्याय (नेपाली) को उनके उपन्यास हेतु पुरस्कृत किया जाएगा।

नृसिंह प्रसाद भादुड़ी (बाङ्ला) को उनके निबंध के लिए और स्वराजबीर (पंजाबी) को नाटक के लिए तथा अज़ीज़ हाजिनी (कश्मीरी) और निज़ाम सिद्दिक़ी (उर्दू) को समालोचना के लिए पुरस्कृत किया जाएगा।

साहित्य अकादमी ने भाषा सम्मान की भी घोषणा की

साहित्य अकादमी वर्ष 2015 के लिए उत्तरी तथा दक्षिणी क्षेत्रों से कालजयी एवं मध्यकालीन साहित्य में योगदान हेतु दो लेखकों व विद्वानों तथा अकादमी द्वारा ग़ैर-मान्यताप्रदत्त भाषाओं कुडुख, लद्दाखी, हल्बी एवं सौराष्ट्र में योगदान हेतु छह विद्वानों अथवा लेखकों को भाषा सम्मान प्रदान करने की घोषणा की।
साहित्य अकादमी कालजयी एवं मध्यकालीन साहित्य
डा.आनंद प्रकाश दीक्षित को कालजयी एवं मध्यकालीन साहित्य (उत्तरी) में उनके महत्वपूर्ण योगदान हेतु के लिए तथा नागल्ला गुरुप्रसाद राव को कालजयी एवं मध्यकालीन साहित्य ( दक्षिणी) में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए यह सम्मान देगी।
गैर मान्यताप्रदत्त भाषाओं में उनके योगदान हेतु भाषा सम्मान प्रदान किया जाएगा। डा. निर्मल मिंज कुडुख भाषा तथा साहित्य की समृद्धि के लिए दिए गए उनके बहुमूल्य योगदान हेतु उनको भाषा सम्मान दिया जाएगा। प्रो. लोजांग जम्सपाल तथा गिलोंग थुपस्तान पलदान संयुक्त रूप से लद्दाकी भाषा तथा साहित्य की समृद्धि के लिए दिए गए उनके बहुमूल्य योगदान हेतु भाषा सम्मान दिया जाएगा। हरिहर वैष्णव को हल्बी भाषा, डा. टी. आर. दामोदरन तथा टी.एस. सरोजा सुंदराराजन संयुक्त रूप से सौराष्ट्र भाषा तथा साहित्य की समृद्धि के लिए दिए गए उनके बहुमूल्य योगदान हेतु यह सम्मान दिया गया है।
प्रत्येक भाषा सम्मान के अंतर्गत एक लाख रुपए की राशि, एक ताम्र फ लक तथा प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाएगा। संयुक्त विजेताओं के मामले में सम्मान राशि दोनों विजेताओं द्वारा समान रूप से साझा की जाएगी। यह सम्मान विशेष समारोह में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष द्वारा प्रदान किया जाएगा।


Sunday, December 18, 2016

बेकल साहब की श्रद्धांजलि सभा


अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी

“भासा ऐसी जनमन बिन पुस्तक के बांचै।
आलोचक बिन सूझ-बूझ के जेहिक जाँचै।।
कविता के लिए इस तरह की सहजता के हिमायती 88 वर्षीय सुप्रसिद्ध कवि बेकल उत्साही का विगत 3 दिसंबर को दिल्ली मे निधन हो गया। शायरी में अपनी ख़ास पहचान बनाने वाले बेकल उत्साही राज्यसभा में 1986 से 1992 तक उत्तर प्रदेश से सांसद की भूमिका में रहे। अदब के कई महत्वपूर्ण सम्मानों से सम्मानित बेकल उत्साही को 1976 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अवध, उत्तर-प्रदेश के बलरामपुर जिले से ताल्लुक़ रखने वाले बेकल साहब ने पूरी दुनिया में अवध और अवधी का परचम लहराया। ‘साझी संस्कृति’ या गंगा-जमनी तहजीब उनकी रचना में रची बसी है। गुरुवार की शाम, दिनांक 15 दिसंबर’16 को, दिल्ली विश्वाविद्यालय के स्पिक मैके लाॅन में ‘दिल्ली परिछेत्र अवधी समाज’ की तरफ़ से बेकल जी की याद में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया जिसमें अवधी के लिखने वाले लेखको, अध्यापकों शोधाथियों और कविता प्रेमियों ने हिस्सा लिया।
आरंभ में दिवंगत कवि की याद में एक मिनट का मौन रखा गया। इसके बाद अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने उनका संक्षेप में परिचय बताया। उन्होंने बेकल जी के साथ हुई मुलाकातो एवं बातचीत से कुछ प्रसंगों को साझा किया। उन्होनें बताया कि अवधी बेकल साहब की शायरी की बुनियाद है। अवधी में तो उन्होंने क़ाफी कविताएँ लिखी है, और जब अवधी के अलवा हिंन्दी-उर्दू में लिखा तो वहाँ भी अवध और अवधी का रंग क़ायम रहा। उन्होंने एलीटियत और मानकीकरण से भरी शायरी की दुनिया से बग़ावत की। इस बग़ावत के जरिये उन्होने उर्दू कविता के ‘फाॅर्म’ में गीत को शामिल कराया तो दूसरी तरफ़ गाँव की संवेदना को भी दर्ज़ कराया।
इस बग़ावत का मूल्य सही रूप से तब समझा जाता जब उन पर ‘गंवार’ और ‘गवैया’ जैसे जुमलों से हट कर सोचा जाता। यह कविता का कुलीनतावाद था। बुद्धिनाथ मिश्र की आपत्ति ठीक है कि ‘अपनी गांव की संवेदना और गीतों से बेकल उत्साही ने उर्दू के भंडार में बेशकीमती रचनाएँ दी लेकिन उर्दू के ठेकेदारों ने उन्हे ‘बाबा’ कहकर खारिज कर दिया।’ इन हालात से बेअसर हो कर बेकल जी ने अपने ‘मै/मेरे’ को बग़ावत का हथियार बनाते हुए अपने रास्ते का आत्मविश्वास दिखाया-
“ग़ज़ल के शहर में गीतों के गांव बसने लगे
मेरे सफ़र के हैं ये रास्ते निकाले हुए।”
अपनी अवधी बुनियाद को लेकर कोई दोचितापन उनमें नही है-
हमका रस्ता ना बताओ हम देहाती मनई
अवधी हमरी नस नस मा है, हम अवधी का जानेन
अवधी हमका आपन मानिस हम अवधी का मानेन
औरौ भासा न पढ़ाओ हम देहाती मनई।
निराला ने बेकल जैसे लोकभाषा के कवियों को आरंभ में कितना प्रोत्साहित किया था, इसकी भी चर्चा हुई। उन्होनें श्याम नारायण पाण्डेय के देहाती भाषा के विरोध का विरोध करते हुए कहा था कि ‘हल्दी घाटी, चित्तौड़’ बचे, न बचे, लेकिन इनकी कविताएँ रहेंगी। ये माटी के शायर हैं।'
इस मौके पर बेकल उत्साही की कई कविताओं का पाठ भी किया गया। डा. बजरंग बिहारी ‘बजरू’ ने, यह कार्यकम्र उन्हीं की संकल्पना से संभव हुआ, बेकल उत्साही की ‘पुरबही गजल’ का पाठ किया- ‘जेकर ईमान नीमन बा बेकल / बोली बानी मा वहिके असर बा।’ ‘हुड़ुक गीत’,’गीत हमारे सबके लिए हैं’,‘बलम बंबैया न जायौ’,‘भुइदान’,’अवध में आज मचा कोहराम’,’गुलरी कै फूल’.... आदि कविताओं का पाठ किया गया। कविता प्रेमियों ने ‘जुमई खां आजाद’ की ‘कथरी’, रफीक शादनी की ‘जियौ बहादुर खद्दर धारी’, ’धत्त तोरी ऐसी की तैसी’ व ‘उल्लू हौ’ प्रकाश गिरी की ‘साहेब किहे रहौ सुलतानी’ व कृष्णकांत की ‘का हो लड्डन लड्डू खाबो’ का भी पाठ किया।
आज के समय में सांझा संस्कृति के नुमाइंदे कवि के न रहने से सबका मन दुखी था। इस कार्यकम्र की खासियत यह भी थी कि लगभग पूरा ही कार्यक्रम अवधी भाषा में किया गया। 

आज भी उपेक्षित है हिंदी का संन्यासी फादर कामिल बुल्के



बेल्जियम में जन्मे और झारखंड से लेकर उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्से में अपनी हिंदी सेवा के लिए विख्यात रहे फादर कामिल बुल्के राजधानी में जन्मदिवस और पुण्य तिथि तो दूर हिंदी के प्रचार प्रसार की रस्म अदायगी करने के लिए आयोजित  सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्रमों में याद नहीं किए जाते हैं।
उनकी क़ब्र कश्मीरी गेट स्थित निकल्सन क्रिश्चियन कब्रगाह में है। लेकिन कई लोगों  को पता भी नहीं है कि 17 अगस्त 1982 को एम्स में गैंग्रीन से हुई उनकी मृत्यु के बाद उनको यहीं दफनाया गया है।
वरिष्ठ साहित्यकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा.नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के और मैं
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डा.माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया। वह मेरे गुरुभाई थे। दिल्ली और इलाहाबाद में उनसे कई मुलाकातें हुई। उन्होंने हिंदी के विस्तार, वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के लिए काफी काम किया। वह हिंदी को लेकर इमानदार और साहित्य के बारे में सटीक थे।
बेल्जियम के पश्चिमी फ़्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले गांव में 1 सितंबर 1909 को जन्मे फादर कामिल बुल्के मृयुपर्यंत तक हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे।
भारतीय संदर्भ में बुल्के कहते थे 'संस्कृत महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी है।
 एक विदेशी होने के बावजूद बुल्के ने हिन्दी की सम्मान वृद्धि, इसके विकास, प्रचार-प्रसार और शोध के लिये गहन कार्य कर हिन्दीके उत्थान का जो मार्ग प्रशस्त किया और हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने की अपने स्तर पर हर संभव कोशिश की।
पिछले कुछ वर्षों से उनकी कब्र पर जाने वाले साहित्यकार और प्रकाशक गौरी नाथ बताते हैं
छब्बीस वर्ष की उम्र में वे इंजीनियरिंग करके भारत आए और यहीं के हो के रह गए। गुमला, सीतागढ़/हजारीबाग, और राँची परिक्षेत्र में वे रहे-- यूँ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय उन्होंने राँची में गुजारा। जैसे उनका हिंदी-प्रेम था, कुछ कुछ राँची-प्रेम भी। लेकिन चिर-निद्रा के लिए उन जैसे कोमल-हृदय वाले विद्वान को जगह मिली निर्मम नगर दिल्ली में जहाँ उनकी क़ब्र की तरफ़ झाँकने वाले भूले-भटके ही आते।
संस्कृत और हिंदी के प्रोफेसर बुल्के का शोध-ग्रंथ रामकथा: उत्पत्ति और विकास ख़ूब प्रसिद्ध और चर्चित रहा है और रामायण प्रसंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। प्रोफेसर बुल्के का हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश और अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश छात्रों और अध्येताओं के बीच आज भी ख़ूब लोकप्रिय हैं। लेकिन दिल्ली के दिल में ऐसे विद्वान को चाहने और याद करने की जगह नहीं।
आज लोग राम राज्य और राम मंदिर की बात करते हैं लेकिन फादर का राम के ऊपर जो काम है वैसा काम किसी का नहीं है। उन्होंने पहली बार भारत के बाहर अन्य देशों की भाषाओं में राम के चरित्र को खोजा और इसकी व्यापकता की बात की। आज यह एक बड़ा सवाल है कि विदेश में जन्मा व्यक्ति भारत आकर यहां की संस्कृति में रच बस गया लेकिन आज वह यहीं के लोगों द्वारा उपेक्षित है।
रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में वह हिंदी और संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे और विज्ञान सहित अन्य विषयों के छात्र उनसे पढऩे आते थे। वह सच्चे अर्थों में सन्यासी और हिंदी सेवक थे। फादर की कब्र पर पत्थर रांची की ही एक संस्था के लोगों ने लगवाया है अन्यथा यह उपेक्षित ही है।
एक अन्य साहित्यकार का कहना है कि 1951 में भारत की नागरिकता प्राप्त करने के बाद स्वयं को बिहारी कहकर करते से संबोधित करते थे। 1974 में भारत सरकार ने इनको पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
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जब डा.नगेंद्र को फादर ने टोका

वरिष्ठ साहित्यकार नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में फादर कामिल बुल्के आए औैर प्रसिद्ध साहित्यकार डा.नगेंद्र के मेज पर टाइम टेबल अंग्रेजी में देखा तो उनको टोकते हुए कहा, नगेंद्र जी ये मैं क्या देख रहा हूं आपके मेज पर शीशे के नीचे समय सारिणी अंग्रेजी में बनी है। हिंदी के प्रति इस तरह उनकी प्र्रतिबद्धता थी।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...