Wednesday, April 28, 2010

जरूरत है, अच्छी फिल्में

दिल्ली में असम का मशहूर कोहिनूर मोबाइल थिएटर अपनी प्रस्तुति देने आया है। फिल्म, थिएटर से जुड़े
और दूरदर्शन पर आने वाला लोकप्रिय धारावाहिक जासूस विजय में मुख्य किरदार में दर्शकों के बीच अपनी पहचान बनाने वाले आदिल हुसैन से फिल्म, नाटक और उत्तर-पूर्व में सिनेमा के हालात पर उनके की गई लंबी बातचीत के कुछ अंश-


प्रश्न- कमर्शियल फिल्में दर्शकों तक तेजी से पहुंच जा रही हैं लेकि न कला फिल्में नहीं पहुंच पा रही हैं, इसकी क्या वजह मानते हैं?
उत्तर-
दर्शकों को एजुकेट करना या उन तक एक सकारात्मक संदेश पहुंचाने का काम थिएटर कर रहा है। लेकिन फिल्मों का अंदरूनी बड़ा दोष यह है कि इसके लिए अधिक पैसे की जरुरत होती है। अब जो पैसा लगाएगा जो वह पैसा वापस भी चाहता है लेकिन पैसा लगाकर वापस पाने की चाह रखने वाले कम हैं। इसलिए भारतीय दर्शक मसाला टाइप फिल्म ही देखते हैं आएं हैं। उसे ही वे थोड़ा-बहुत अच्छा समझते हैं। लेकिन जब उन्हे अच्छी फिल्में दिखाई ही न जाएं तो उन्हे पता ही नहीं चलेगा कि अच्छी फि ल्में क्या हैं। लेकिन यह प्रोड्यूसर की जिम्मेदारी है कि वह इस कमर्शियलिज्म से हट कर फायदा देखते हुए कुछ बनाने की संभावना है तो उन्हे क रना चाहिए।
प्रश्न- एक बांग्ला फिल्म में सोहा अली के साथ काम किया और इश्कि या में विद्या बालन के साथ दोनों थिएटर से नहीं जुड़ी हैं कैसा अनुभव रहा?
उत्तर- सोहा की वो पहली फिल्म थी। वे काफी एलर्ट थी। डायरेक्टर के साथ उसका अच्छा संबंध था। मेरे साथ भी अच्छे संबंध थे। मैं जब आज भी फिल्म देखता हूं तो लगता है कि सोहा ने अच्छा काम किया है। विद्या बालन एक स्टार है। मुङो एक बार लगा कि मेरा कोई उतना बड़ा नाम नहीं है। मेरे साथ ये कैसा बर्ताव करेंगी लेकिन उन्होने बड़े सम्मान के साथ काम किया।
प्रश्न- इश्किया में नसीरुद्दीन शाह के साथ काम करना कैसा रहा?
उत्तर-
नसीरुद्दीन शाह एनएसडी में मेरे गुरु रहे हैं। 17 साल पहले उन्होने मुङो पढ़ाया था। उनके साथ काम करना बहुत अच्छा लगा। वह बड़े और गुणी कलाकार हैं। मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है।
प्रश्न- आप की फिल्म फार रियल आ रही है? इसके बारे में कुछ बताइए? किस तरह की फिल्म है यह?
उत्तर-
यह एक पांच साल के बच्चे की नजर से अपने मां-बाप को देखने की कोशिश है। एक अंदरूनी तनाव या पारिवारिक तनाव का बच्चे पर क्या असर होता है बच्चों की मानसिकता और उनके आवेग पर उसका क्या असर होता है। उनके मां-बाप उनके आदर्श होते हैं और उनके तनाव का बच्चे पर क्या असर होता है इस पर आधारित है वह फिल्म। इसे सोहा जन ने बड़ी संवेदनशीलता के साथ बनाया है। जोया हसन को सिंगापुर में बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला है काफी अच्छी कलाकार है वे।
प्रश्न-आपकी आगामी फिल्म कौन सी है?
उत्तर-
एक फिल्म आने वाली है गंगो। महाश्वेता देवी की कहानी पर आधारित है। इसमें एक फोटोग्राफर की भूमिका है मेरी, लीड रोल मे हूं। यह शायद जून-जुलाई में आ जाए।
प्रश्न- आप मूलत: असम से हैं क्या कारण है कि नार्थ ईस्ट के लोग पूरे भारत से पूरी तरह से जुड़ा हुआ नहीं मानते?
उत्तर-
मैं ऐसा नहीं मानता। इस पर मैं टिप्पणी नहीं कर पाऊंगा कि नगा और मणिपुर के लोगों को क्या लग रहा है। नागालैंड के लोग भी मुझसे ऐसा नहीं कहते लेकिन प्रशासन या मीडिया के लोग भी बहुत कम नार्थ इस्ट के लोगों पर ध्यान देते हैं। अगर बम विस्फोट में तीन लोग दिल्ली या गुजरात में मरते हैं तो बड़ी खबर बनती है लेकिन असम में ऐसा हुआ तो कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती और ऐसा मैं बचपन से देख रहा हूं।
दक्षिण भारत के साथ भी ऐसा ही है। कुछ लोगों के साथ ऐसे बर्ताव पर प्रभाव पड़ता है और इससे गलत मनोभाव पैदा होता है। इससे लोग आसानी से बंदूक उठा लेते हैं। अवसरवादी संगठन भी आम लोगों को इस्तेमाल करते हैं इसका असर असम, नगालैंड आदि में हुआ है। विदेशों में ऐसा नहीं है वहां लोग भी जागरूक हैं। विदेश में मुद्दों पर राजनीति और चुनाव होते हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि हम अपने वोट को लेकर जागरूक नहीं हैं।
प्रश्न- असमियां फिल्में अपनी पहचान खोती जा रही हैं क्या वजह है?
उत्तर-
फिल्म निर्माण के लिए पैसे की जरूरत है। पहले लोगों ने फिल्में बनाई लेकिन अब कोई पैसा नहीं लगा रहा है। एक समय असम में 120 हाल थे। अब काफी लोगों ने हाल को गोदाम बना दिया। डीवीडी और सीडी ने भी असर डाला है। लेकिन जो सचमुच सिनेमा से प्यार करते हैं काम कर रहे हैं लेकिन जो बिजनेस करना चाहते हैं वे नहीं बना रहे हैं।
कला को अगर केवल व्यापार मानते हैं तो उसका उद्देश्य अलग हो जाता है । दोनों साथ-साथ रह सकते हैं लेकिन अगर व्यापार कला को प्रभावित करता है तो वह कला नहीं एक प्रोडक्ट हो जाता है। जो आप बालीवुड में देखते हैं। यह आज की बात नहीं है बहुत पहले से हो रहा है।
प्रश्न- डायरेक्शन में आना है कि केवल एक्टिंग करेंगे?
उत्तर-
नाटक में कोई ऐसी कहानी या मुद्दा जो एकदम से छू जाए और मेरे दिल में एक ऐसी खलबली कर पैदा कर दे तो शायद ऐसा करूं। लेकिन कभी -कभी जब फिल्में देखता हूं तो लगता है कि अरे ये क्या हो रहा है।
प्रश्न- मोबाइल थिएटर से जुड़ने का अनुभव कैसा रहा?
उत्तर-
एक्टर के हैसियत से जो काम आप बार-बार कर रहे हैं तो एक ताजगी महसूस करनी चाहिए। इस तरह से जब आप काम करते हैं तो ऐसा लगेगा कि ये चीज मैं दुहरा नहीं रहा हूं। थिएटर में आप लम्बे समय के रिहर्सल के बाद 200-250 शो करते हैं तो उसमें काम को नए तरह से करने की गुंजाइश रहती है।

Wednesday, April 21, 2010

रिश्ते सुधरते हैं तो खूब हों शादियां : डॉ. फातिमा हसन

पाकिस्तान की जानी-मानी शायरा डॉ. फातिमा हसन पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय मुशायरा ‘जश्ने-बहार में शिरकत करने दिल्ली आई हुई थी। इस मौके पर उनसे शायरी और दोनों मुल्कों के रिश्तों पर किये गए कुछ सवाल-जवाब
सवाल : पाकिस्तान एक अरसे लोकतांत्रिक व्यवस्था को ठीक करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अब तक उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली है?
जवाब : लोकतांत्रित व्यवस्था सुचारु तरीके से काम करे यह प्रत्येक पाकिस्तानी चाहता है। लेकिन एक तबका है जो राज कर रहा है। ये वो लोग हैं जो संभ्रांत परिवारों से आते हैं। जब तक इनसे निजात नहीं मिलेगी तब तक लोकतंत्र सही मायने में नहीं आएगा। व्यवस्था बदलने में हो सकता है एक या दो पीढ़ी बीत जाए। व्यवस्था बदलने के लिए मध्यम वर्ग और निचले तबके के लोगों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है।
सवाल : वहां के नागरिक क्या चाहते हैं?
जवाब : पाकिस्तानी नागरिक अपने मत को लेकर जागरूक नहीं है। वह अपने जागीरदार को वोट देकर चला आता है। उसे अपने वोट का मूल्य नहीं पता।
सवाल : हिन्दुस्तान में किन शायरों को पढ़ती हैं?
जवाब : मैं यहां के तकरीबन सभी नामचीन शायरों को पढ़ती हूं। शहरयार, जावेद अख्तर, शायरा शहनाज नबी मुङो बहुत भाते हैं। जाहिदा जदी, दाराबानो वफा का इंतकाल हो गया। इनकी शायरी भी बहुत अच्छी है।
सवाल : पाकिस्तान में शायरी के क्या हालात हैं? वहां संजीदा शायरी को तरन्नुम में पढ़े जाने पर लोगों की कैसी प्रतिक्रिया है?
जवाब : भारत की कोई शायरा पाकिस्तान में जब तरन्नुम में शायरी सुनाती थी तो एक लहर पाकिस्तान में भी आई थी, लेकिन पाकिस्तानी बड़े शायरों ने उनकी कोई हौसलाअफजाई नहीं की। मैंने भी उन मुशायरों में जाने से इनकार कर दिया। अब वहां दो तरह की शायरी है। एक वह जो छप रही है, दूसरी जो मुशायरों में तरन्नुम में सुनाई जा रही है। वैसे, पाकिस्तान में जो लोग तरन्नुम में पढ़ते हैं, उन्हें अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। लेकिन भारत से कुछ दिनों पहले शहनाज नबी और तरन्नुम रियाज पाकिस्तान आईं तो उन्हें काफी सराहना मिली।
सवाल : भारत आना कितना आसान रहा?


जवाब : अभी पिछले छह महीने में दो बार आई हूं। अब आना आसान है। जश्न-ए-बहार में पहली दफा आई हूं।
सवाल : आपको क्या लगता है, एक-दूसरे देशों के बीच आवाजाही कितनी होनी चाहिए?
जवाब : खूब होनी चाहिए। खासकर युवाओं की। जो बुजुर्ग यहां से पाकिस्तान गए। वे बच्चों को बताते हैं कि मेरा भाई या मामू हिंदुस्तान में है। लेकिन हमारे बाद वाले बच्चों को कोई बताने वाला नहीं है। युवा यहां आएंगे तो पाएंगे कि दोनों मुल्कों में सदियों के रिश्ते हैं। तहजीब, रस्म और रिवाज एक जसे हैं, जुबान एक है, संबंधों और समस्याओं पर फिक्र एक जसी है। इसका बढ़ावा देशों के युवाओं के बीच मेल-जोल होने से और बढ़ेगा।
सवाल : अभी हाल ही में शोएब मलिक और सानिया की शादी हुई है। पाकिस्तान में इस शादी को लेकर कैसी चर्चा है?
जवाब : पाकिस्तान में लोग बहुत खुश हैं। लोग नाच रहे हैं, मिठाइयां बांट रहे हैं। टीवी चैनलों ने इस बारे में इतना दिखाया कि लोगों को शिकायत हो गई कि क्या देश में और कोई समस्या नहीं है। लेकिन एक बात है कि अगर ऐसी शादियों से रिश्ते सुधरते हैं, तो शादियां खूब होनी चाहिए।

कभी ये तैराकों कि बावली थी .....



नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के लोग जहां कभी तैराकी सीखने के लिए आते थे। और जो कभी तपती गर्मी से झुलस रहे राहगीरों के लिए कुछ पल आराम का स्थल हुआ करती थी वह अग्रसेन की बावली आज उपेक्षा का दंश ङोल रही है। 14 वीं शताब्दी में बनी यह बावली अब सूख चुकी है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली के हृदय कनॉट प्लेस के समीप हेली रोड के हेली लेन स्थित यह बावली चारो तरफ से मकानों से घिरी है जिससे किसी बाहरी व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि यहां कोई बावली है। बावली की दीवारों से सटे मकान उस कानून की धज्जियां उड़ाते हैं जिसमें यह कहा गया है कि किसी ऐतिहासिक इमारत के दो सौ मीटर के दायरे में निर्माण कराना कानूनी अपराध है।
60 मीटर लम्बी, 15 मीटर चौड़ी और 103 सीढ़ियों वाली यह बावली तैराकी के लिए विशेष
के लिए विशेष रूप से जानी जाती थी। यहां पर विशेष रूप से उस्ताद होते थे जो लोगों को तैरना सिखाते थे। कभी यह गद्दी फैज खानदान के पास हुआ करती थी। जिसने कई तैराकी के कई शागिर्द तैयार किए। इस खानदान के अखलाक अहमद फै ज का कहना है कि इस बावली की आखिरी गद्दी उन्ही के पास थी। यह गद्दी कई पीढ़ियों से उनके खानदान के पास थी लेकिन अब जब बावली सूखी है तो वहां कोई नहीं आता।
बावली की हालत भी बदहाल है। वहां इसके संरक्षण में रखे गए युवक ने बताया कि इसके ऊपर बने मस्जिद का एक सिरा सन 78 मे बिजली गिरने से टूट गया था। इसके कुछ छज्जे भी गिर चुके हैं। यह बावली स्थानीय लोगों की घोर उपेक्षा की शिकार है। यहां पर फेंके गए कूड़े प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। बावली के पीछे का लगभग 57 मीटर बड़ा कू आं भी सूख चुका है। लाल बलुए पत्थर से बनी बावली की वास्तु संबंधी विशेषताएं तुगलक और लोदी काल की तरफ संकेत कर रहे हैं लेकिन परंपरा के अनुसार इसे अग्रवाल समाज के पूर्वज अग्रसेन ने बनवाया था। इसलिए इसे अग्रसेन की बावली कहते हैं।
इसक संरक्षण के संबंध में भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई) के वरिष्ठ पुरातत्वविद ने बताया कि इसकी स्थिति पहले और भी खराब थी लेकिन एएसआई इसके संरक्षण का कार्य कर रहा है। जल्द ही इसके संरक्षण का कार्य पूरा कर लिया लाएगा।

Wednesday, April 14, 2010

पथिक को तरसती राजों कि बावली

दोस्तों, सूरज आग उगल रहा है, और हम बूँद-बूँद को तरस रहे हैं. लेकिन पहले ऐसा नहीं था. शायद आज हमारी प्यास कुछ ज्यादा बढ़ गई है. अगर आज हम दिल्ली कि बात करें तो कभी यमुना में इतना पानी हुआ करता था कि जिसे लोग केवल पीते नहीं थे बल्कि दिल कि प्यास बुझाते थे. नहाकर, तैर कर,दुबकी लगाकर. लेकिन आज कि यमुना देखकर शायद कृष्ण भी बंशी बजने में संकोच करें. दोस्तों दिल्ली में मुग़ल काल में पानी को लोंगों कि जरुरत मानकर बादशाहों और राजाओं ने बावलियों का निर्माण करवाया था, कुछ बावलियां आज भी मौजूद हैं. हमारी कोशिश है कि दिल्ली कि कुछ बावलियों कि स्थिति से हम आपको रू-ब-रू कराएँगे. उम्मीद है आपके सुझाव हमें प्रेरणा देंगे.



गुजरे जमाने की बात है जब बावलियां जीवन के लिए उतनी ही जरुरी थी जितना घर। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। दिल्ली में मुगल काल में बनी कुछ बावलियां अभी अस्तित्व में हैं। लेकिन इन्हे देख कर यह कहना मुश्किल है कि कभी यह लोगों के लिए जल के बड़े स्रोत के रूप में जानी जाती थी। दिलचस्प यह है कि आज भी भारतीय पुरातत्व विभाग के पास दिल्ली की बावलियों की स्पष्ट जानकारी नहीं है। दिल्ली की बहुत सी बावलियां अब अपना अस्तित्व खो चुकी हैं जो बची हैं वह कूड़े के ढेर में तब्दील हो चुकी हैं और जिन बावलियों में अभी पानी दिखता है वह इतना बदबूदार है कि पर्यटक क्या आम आदमी भी इनके पास फटकना पसंद नहीं करता।
दक्षिण दिल्ली में मेहरौली के पास मेहरौली आर्कियोजिकल पार्क में अधम खां गुम्बद से थोड़ी दूर चार स्तरों वाली राजों की बावली है जिसे राजों की बैन भी कहते हैं। इसके बारे में कहा जाता है संभवत: यह नाम कारीगरों द्वारा इस्तेमाल किये जाने के कारण मिला है। इसकी ऊपरी दीवार के भीतर की सीढ़ियां उसे एक मस्जिद से जोड़ती हैं जिसकी छतरी में 912 हिजरी लिखा है। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह सिकंदर लोदी के शासनकाल (1498-1517) में बनवाया गया था। लेकिन स्थानीय लोगों की और ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्थाओं द्वारा उपेक्षित यह बावली आज बस असामाजिक तत्वों का अड्डा बनी है। यहां खुलेआम शराब की बोतलें और अन्य चीजें बिखरी पड़ीं हैं। कूड़े करकट का ढेर भी यहां देखा जा सकता है।
इस ऐतिहासिक बावली की ऐसी उपेक्षा पर भारतीय पुरातत्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा पूछे जाने पर उनका कहना है कि मई तक इसके सौंदर्यीकरण का कार्य शुरु कर दिया जाएगा। जहां तक गंदगी की बात है, इसके लिए स्थानीय लोंगो से भी सहयोग की अपेक्षा की जाती है यदि वह जागरुक रहेंगे तो कोई असामाजिक तत्व वहां नहीं आएगा।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...