Monday, April 25, 2011

भारतीय इतिहास का एक अंश है मैकलुस्की गंज

उपन्यास ‘मैकलुस्की गंज के लिए यूके के इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित पत्रकार और साहित्यकार विकास कुमार झा से अभिनव उपाध्याय की खास बातचीत-


- इंदु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित उपन्यास मैकलुस्की गंज को आप किस रूप में देखते हैं?

यह उपन्यास एंग्लो इंडियन समुदाय के बारे में है। वास्कोडिगामा जब कश्ती पर सवार होकर भारत आया तो अपने साथ कई संताप भी लेकर आया था। क्योंकि वास्कोडिगामा के आने के बाद पुर्तगालियों ने जब व्यवसाय शुरू किया और उनके मुलाजिमों के शारीरिक भूख के लिए पुर्तगाल से महिलाएं आती थी लेकिन धीरे धीरे पुर्तगाली अधिकारियों को जब यह लगा कि यह खर्चीला है तो उन्होंने भारत में ही इसका बंदोबस्त करने का आदेश दिया। सुनियोजित ढंग से यह कहा गया कि पुर्तगाली भारतीय स्त्रियों से संबंध बनाएं और बच्चे पैदा करें। इसके संदर्भ को इसमें रेखांकित किया गया है इसलिए इस उपन्यास को भारतीय इतिहास का एक अंश भी माना जा सकता है क्योंकि उसके बाद डचों और बाद में पुर्तगालियों का भी यही सिलसिला जारी रहाा। और उन्होंने भी संकर संतानों को पैदा किया। यही काम अंग्रेजों ने किया। अंग्रेजों के समय में यह सिलसिला और भी चल पड़ा। लार्ड कर्जन ने एक बार यह भी कहा था कि, ईश्वर ने अंग्रेज बनाए और उन्होंने ही इंडियन बनाए लेकिन हम लोगों ने एंग्लो इंडियन्स बनाए। उनका कहना था कि भारत में वर्ण संकर हम लोगों की देन है। इस समुदाय को शुरू में पिता का गर्व रहा। यह कहते भी थे कि हम साहबों की संतानें हैं। लेकिन अंग्रेजों ने जब चाहा इनका इस्तेमाल किया और जब चाहा इन्हें छोड़ दिया। ये अंग्रेजों के हिमायती रहे। 1934 में साइमन रिपोर्ट में कहा गया कि एंग्लो इंडियन समुदाय की जिम्मेदारी अंग्रेजों की नहीं होगी और बाद में संवैधानिक प्रावधान के अनुसार भारतीय लोक सभा में दो मेम्बर इस समुदाय से नामित किए जाते हैं और प्रदेश की राज्य सभाओं में एक मेंबर नामित किए जाते हैं।

- आप पत्रकार और साहित्यकार दोनों हैं, ये रूप एक दूसरे के लिए सहयोगी हैं या विपरीत?

पत्रकारिता हमें कांटेंट देती है। पत्रकारिता का सुभाषित है कि ‘कांटेंट इज किं गज् अगर मैटर में दम है तो आपकी खबर जोरदार है। साहित्य और पत्रकारिता को हाथ में हाथ मिलाकर चलना चाहिए और गुजरे दौर में अ™ोय, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा पत्रकार और साहित्यकार भी रहे। इन दोनों का संबंध बड़ा गहरा रहा है। पत्रकारिता का कांटेंट और साहित्य की सरलता जरूरी है। पत्रकारिता को साहित्य से संवेदना मिलती थी और साहित्य को पत्रकारिता से क च्चा माल मिलता था। जब से यह दोनों धाराएं अलग हुईं उससे पत्रकारिता और साहित्य दोनों का नुकसान हुआ। लेकिन पत्रकार होते हुए मैंने जो साहित्य की सेवा की है उससे मुङो संतोष है।
मैकलुस्की गंज उपन्यास के पात्र आपको वहां जाने पर मिल जाएंगे और वहां जाकर आप इन पात्रों से मिलकर एक सजीवता का अनुभव करेंगे। यह रीयल लाइफ नावेल है। साहित्य का काम यह है कि वह स्वप्न और सत्य को मिलाकर चले। और वही सार्थक साहित्य होगा। क्योंकि स्वप्न और सत्य जब तक एक नहीं होगा तब तक एक अच्छा साहित्य रचा नहीं जा सकता।
लेकिन पत्रकार को वर्तमान में मुख्य धारा का साहित्यकार नहीं माना जाता है?
हाशिए में फिट करने वाली जो परंपरा रही है उसे बाजारवाद ने उछाला है। अन्यथा बहुत से पत्रकार साहित्यकार हुए हैं। आज बाजारवादी दौर में जब ब्रैंडिंग हो रही है तो यह सवाल खड़े कर रही है। लैटिन अमेरिकी लेखक गैबियल गार्सिया मारकेज जिसने ‘100 इयर्स ऑफ सालिट्युड नामक किताब लिखी वह भी पहले अपने को पत्रकार बाद में साहित्यकार मानते हैं।

लेकिन आपके निकट क्या है, साहित्य या पत्रकारिता?

पत्रकारिता और साहित्य मेरे शरीर के दो फेफड़े हैं जो आवश्यक हैं। यह दो आंख, पांव की तरह है जो सहयोगी हैं इसलिए यह तय करना मुश्किल है।

आप पत्रकारिता और साहित्य में आ रहे बदलाव को किस तरह से देखते हैं?

आज पत्रकारिता और साहित्य दोनों ही बहुत दुर्भाग्यपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। कभी पत्रकार जंगल के शेर की तरह गरजता था आज वह सर्कस के शेर की तरह रिंग मार्स्टर के चाबुक के इशारे पर स्टूल पर जाकर बैठ जाता है। पहले साहित्यकार एक से एक अदभुत रचनाएं देते थे कि समाज में किस तरह से बदलाव होगा। लेकिन आज वह यह देखते हैं कि उन्हें किस तरह से लिखने पर अधिक कमाई होगी। अब दौर बदल रहा है। द गॉड ऑफ स्माल थिंग के लिए अरुधंती राय को करोड़ो रुपए मिले इसलिए वह पढ़ा जाय न कि वह एक अच्छा उपन्यास है इसलिए। इसी तरह मैकलुस्की गंज को इसलिए पढ़ा जाय कि उसे यूके का सम्मान मिला है इसलिए नहीं कि लेखक ने 15 वर्षो की मेहनत इसके लिए की है। यह बाजार वाद का प्रभाव है उसने साहित्य और पत्रकारिता को बुरी तरह से कुचला है। जिस देश या समाज में साहित्य और पत्रकारिता का पतन कराया जाएगा उसे बंदी और बिकाऊ बनाया जाएगा तो उस देश का और समाज का बहुत अहित होगा। उस देश का भविष्य अंधकारमय है।

Sunday, April 10, 2011

आईपीएल नहीं अन्ना चाहिए

अभिनव उपाध्याय
भारत में क्रिकेट एक चस्का है लेकिन कब तक? इस सवाल का जबाब आपको जंतर मंतर पर अन्ना के समर्थन में उतरे युवाओं से मिला। क्रिकेट के बुखार से तपता युवा अब अन्ना के समर्थन में अप्रैल की धूप में तपता रहा। वह गला फाड़-फाड़ कर कहता रहा- ‘अन्ना तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं। अन्ना के सर्मथन में युवाओं ने अलग-अलग रूप से अपने को अभिव्यक्त किया। कोई नाचा, कोई ताली बजाता रहा और कुछ लोग झंडा लहराते रहे। ऐसा लगता रहा कि देश का युवा अन्ना के इस यज्ञ में अपनी आहुति देना चाहता है।

जामिया मिलिया इस्लामिया में बीबीए द्वितीय वर्ष का छात्र हेनरी अपनी बांह पर ‘नो टाइम फार आईपीएल, इट्स अन्ना टाइमज् लिखकर अन्ना के समर्थन में जंतर-मंतर पर घूम-घूम कर लोगों को प्रोत्साहित किया। भ्रष्टाचार के खिलाफ, अपने अधिकार के लिए। उसका कहना है कि अन्ना के लिए यह केवल उसकी अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उसका और उसके साथ कुछ और लोग हैं जिन्हे आज आईपीएल से अधिक अन्ना की जरूरत है। क्योंकि क्रिकेट से पहले देश है। जब भारत वर्ल्ड कप जीतता है तो पचास हजार लोग इंडिया गेट पर आ सकते हैं तो देश के लिए क्यों नहीं? क्या युवाओं में यह बदलाव जेपी के आंदोलन जसा नहीं लगता? अब युवा आगे आ रहा है, देश का भावी कर्णधार आगे आ रहा है, और बदलाव के लिए हमेशा युवा ही आगे आया है। हां, माध्यम गांधी, जेपी या अन्ना हो सकते हैं।

शुक्रिया अन्ना हजारे

अन्ना हजारे ने जिस तरह केंद्र सरकार को जन लोकपाल विधेयक के मसले पर रक्षात्मक तेवर अपनाने पर मजबूर कर दिया है ह उतनी बड़ी बात नहीं है। उससे बड़ी बात है कि अन्ना ने देश की जनता के दिल
में एक जज्बा पैदा कर दिया। और यह भी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नई राष्ट्रीय चेतना जगी है।
रविन्द्र त्रिपाठी की रिपोर्ट




जंतर-मंतर रोड कोई बड़ा मैदान नहीं है। अन्ना हजारे जहां बैठे और जहां लोगों का काफिला आता जाता रहा, एक छोटी सी जगह है। एक चौड़ी सड़क और उसके दोनों तरफ फुटपाथ। एक फुटपाथ पर अन्ना और उनके सहयोगी अनशनकारी बैठे और सामने सड़क पर जनता का हुजूम। दिल्ली और देश के अलग-अलग इलाकों के लोग। बच्चे भी, युवा भी। हिंदू भी, मुस्लिम भी, ईसाई भी। जंतर-मंतर नाम की यह सड़क एक ऐतिहासिक लम्हे की साक्षी बन गई। यहां से सत्ता को चुनौती दी गई। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक छोटे से गांव रालेगन सिद्धि का एक तपस्वी सिर्फ मनमोहन सिंह की सरकार के सामने प्रश्न चिन्ह बनकर नहीं खड़ा हो गया बल्कि देश की जनता की इच्छाओं का प्रतीक भी
बन गया।
सात नंबर की जिस जंतर-मंतर की कोठी के सामने अन्ना ने आमरण अनशन किया, ह कभी सत्ता का प्रतीक भी हुआ करता था। आजादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस का दफ्तर था। 1969 में जब यह कांग्रेस का विभाजन हुआ तो यह संगठन कांग्रेस का दफ्तर बना जिसके नेता मोरारजी देसाई और निजलिंगप्पा थे। आठ साल तक एक पिक्षी पार्टी का दफ्तर रहने के दौरान इसके पेड़ों के पत्ते सूख गए। लेकिन सन् 1977 में फिर से यहां सत्ता की हरियाली लौटी, जब यह जनता पार्टी का दफ्तर बना। 1977 में संगठन कांग्रेस का जनता पार्टी में लिय हो गया। आजकल यहां इसी कोठी में जनता दल (एकीकृत) का दफ्तर है। इस नाते थोड़ी राजनैतिक पहल यहां रहती थी। पर पिछले चार दिन से यह सड़क और स्थान राष्ट्रीय जनउभार का केंद्र बन गया।
आंदोलन में कई ऐसे लोग शामिल हुए जिनको 1974 की याद होगी। जय प्रकाश नारायण के नेतृत् में जब बिहार के छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई थी तो पटना का गांधी मैदान भरा था। उसी आंदोलन की चिनगारी ने ऐसा रूप धारण किया कि 1975 में देश में आपातकाल लगा और 1977 में इंदिरा गांधी की पराजय हुई और केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। आज की तारीख में बहुतों के मन में यह प्रश्न हैं कि क्या अन्ना के नेतत्व में इतिहास फिर दुहराने जा रहा है? उत्तर अभी नहीं मिलेगा। वह भविष्य के गर्भ में है।
इसमें तो कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि आज देश में भ्रष्टाचार 1974 से भी ज्यादा फैल चुका है। राजनैतिक भ्रष्टाचार भी बढ़ा है और नौकरशाही सरकारी दफ्तरों में भी भ्रष्टाचार कम नहीं है। यही नहीं बीस-तीस साल तक जो भ्रष्टाचार अधिकतम लाखों का होता था, अब अरबों का होने लगा है। हर राज्य में और केंद्र में भी भ्रष्टाचार के नए-नए किस्से सामने आ रहे हैं। पहले भ्रष्टाचार के आरोपों से सिर्फ कांग्रेसी सरकारें घिरी रहती थीं। आज लगभग हर पार्टी की सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आदमी अपने आप को बेबस महसूस कर रहा है। आकस्मिक नहीं कि देश के कोने-कोने में अन्ना के समर्थन में जलूस निकले, सभाएं हुई और लोग धरने पर बैठे। जंतर-मंतर गांधी मैदान की तुलना में छोटा है। लेकिन, अन्ना का संदेश जय प्रकाश नारायण आंदोलन से ज्यादा तेजी से फैला। सिर्फ चार दिन के भीतर देश के बाल, वृद्ध नारी युवा इससे जुड़े।
यह ठीक कि आज का समय 1974 से काफी अलग है। आज टी चैनलों की जह से किसी आंदोलन के प्रसार में तेजी आ जाती है। इसके अलावा फेसबुक, ट्टिर और दूसरे सोशल नेटर्किंग साइट हैं, जो संदेश को तेजी से फैलाते हैं। अन्ना के अनशन की खबर भी इस कारण अनपेक्षित तीव्रता से फैली। लेकिन इसी का दूसरा पहलू ये भी हैं कि नया मीडिया सबको उपलब्ध है, सिर्फ अन्ना के समर्थकों को नहीं। राजनैतिक पार्टियां भी नए मीडिया का भरपूर उपयोग करती हैं। अगर टेलीजिन नहीं होता तो, क्या क्रिकेट का इस तरह प्रसार-प्रचार होता? क्या टेलीजिन और मीडिया के दूसरे माध्यमों का सामाजिक दायित् नहीं है? अगर नया मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभा रहा है तो फिर इस पर सालिया निशान क्यों लगाया जा रहा है?
अब देखें कि अन्ना का संघर्ष यहीं थमता है कि आगे बढ़ता है। अगर यह आंदोलन समझौते के बाद थम जाता है तो उस जनउभार का क्या होगा, जो पूरे देश में फैला। यह सवाल अन्ना के मन में भी उठ रहा होगा।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...