Sunday, December 18, 2016

बेकल साहब की श्रद्धांजलि सभा


अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी

“भासा ऐसी जनमन बिन पुस्तक के बांचै।
आलोचक बिन सूझ-बूझ के जेहिक जाँचै।।
कविता के लिए इस तरह की सहजता के हिमायती 88 वर्षीय सुप्रसिद्ध कवि बेकल उत्साही का विगत 3 दिसंबर को दिल्ली मे निधन हो गया। शायरी में अपनी ख़ास पहचान बनाने वाले बेकल उत्साही राज्यसभा में 1986 से 1992 तक उत्तर प्रदेश से सांसद की भूमिका में रहे। अदब के कई महत्वपूर्ण सम्मानों से सम्मानित बेकल उत्साही को 1976 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अवध, उत्तर-प्रदेश के बलरामपुर जिले से ताल्लुक़ रखने वाले बेकल साहब ने पूरी दुनिया में अवध और अवधी का परचम लहराया। ‘साझी संस्कृति’ या गंगा-जमनी तहजीब उनकी रचना में रची बसी है। गुरुवार की शाम, दिनांक 15 दिसंबर’16 को, दिल्ली विश्वाविद्यालय के स्पिक मैके लाॅन में ‘दिल्ली परिछेत्र अवधी समाज’ की तरफ़ से बेकल जी की याद में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया जिसमें अवधी के लिखने वाले लेखको, अध्यापकों शोधाथियों और कविता प्रेमियों ने हिस्सा लिया।
आरंभ में दिवंगत कवि की याद में एक मिनट का मौन रखा गया। इसके बाद अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने उनका संक्षेप में परिचय बताया। उन्होंने बेकल जी के साथ हुई मुलाकातो एवं बातचीत से कुछ प्रसंगों को साझा किया। उन्होनें बताया कि अवधी बेकल साहब की शायरी की बुनियाद है। अवधी में तो उन्होंने क़ाफी कविताएँ लिखी है, और जब अवधी के अलवा हिंन्दी-उर्दू में लिखा तो वहाँ भी अवध और अवधी का रंग क़ायम रहा। उन्होंने एलीटियत और मानकीकरण से भरी शायरी की दुनिया से बग़ावत की। इस बग़ावत के जरिये उन्होने उर्दू कविता के ‘फाॅर्म’ में गीत को शामिल कराया तो दूसरी तरफ़ गाँव की संवेदना को भी दर्ज़ कराया।
इस बग़ावत का मूल्य सही रूप से तब समझा जाता जब उन पर ‘गंवार’ और ‘गवैया’ जैसे जुमलों से हट कर सोचा जाता। यह कविता का कुलीनतावाद था। बुद्धिनाथ मिश्र की आपत्ति ठीक है कि ‘अपनी गांव की संवेदना और गीतों से बेकल उत्साही ने उर्दू के भंडार में बेशकीमती रचनाएँ दी लेकिन उर्दू के ठेकेदारों ने उन्हे ‘बाबा’ कहकर खारिज कर दिया।’ इन हालात से बेअसर हो कर बेकल जी ने अपने ‘मै/मेरे’ को बग़ावत का हथियार बनाते हुए अपने रास्ते का आत्मविश्वास दिखाया-
“ग़ज़ल के शहर में गीतों के गांव बसने लगे
मेरे सफ़र के हैं ये रास्ते निकाले हुए।”
अपनी अवधी बुनियाद को लेकर कोई दोचितापन उनमें नही है-
हमका रस्ता ना बताओ हम देहाती मनई
अवधी हमरी नस नस मा है, हम अवधी का जानेन
अवधी हमका आपन मानिस हम अवधी का मानेन
औरौ भासा न पढ़ाओ हम देहाती मनई।
निराला ने बेकल जैसे लोकभाषा के कवियों को आरंभ में कितना प्रोत्साहित किया था, इसकी भी चर्चा हुई। उन्होनें श्याम नारायण पाण्डेय के देहाती भाषा के विरोध का विरोध करते हुए कहा था कि ‘हल्दी घाटी, चित्तौड़’ बचे, न बचे, लेकिन इनकी कविताएँ रहेंगी। ये माटी के शायर हैं।'
इस मौके पर बेकल उत्साही की कई कविताओं का पाठ भी किया गया। डा. बजरंग बिहारी ‘बजरू’ ने, यह कार्यकम्र उन्हीं की संकल्पना से संभव हुआ, बेकल उत्साही की ‘पुरबही गजल’ का पाठ किया- ‘जेकर ईमान नीमन बा बेकल / बोली बानी मा वहिके असर बा।’ ‘हुड़ुक गीत’,’गीत हमारे सबके लिए हैं’,‘बलम बंबैया न जायौ’,‘भुइदान’,’अवध में आज मचा कोहराम’,’गुलरी कै फूल’.... आदि कविताओं का पाठ किया गया। कविता प्रेमियों ने ‘जुमई खां आजाद’ की ‘कथरी’, रफीक शादनी की ‘जियौ बहादुर खद्दर धारी’, ’धत्त तोरी ऐसी की तैसी’ व ‘उल्लू हौ’ प्रकाश गिरी की ‘साहेब किहे रहौ सुलतानी’ व कृष्णकांत की ‘का हो लड्डन लड्डू खाबो’ का भी पाठ किया।
आज के समय में सांझा संस्कृति के नुमाइंदे कवि के न रहने से सबका मन दुखी था। इस कार्यकम्र की खासियत यह भी थी कि लगभग पूरा ही कार्यक्रम अवधी भाषा में किया गया। 

आज भी उपेक्षित है हिंदी का संन्यासी फादर कामिल बुल्के



बेल्जियम में जन्मे और झारखंड से लेकर उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्से में अपनी हिंदी सेवा के लिए विख्यात रहे फादर कामिल बुल्के राजधानी में जन्मदिवस और पुण्य तिथि तो दूर हिंदी के प्रचार प्रसार की रस्म अदायगी करने के लिए आयोजित  सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्रमों में याद नहीं किए जाते हैं।
उनकी क़ब्र कश्मीरी गेट स्थित निकल्सन क्रिश्चियन कब्रगाह में है। लेकिन कई लोगों  को पता भी नहीं है कि 17 अगस्त 1982 को एम्स में गैंग्रीन से हुई उनकी मृत्यु के बाद उनको यहीं दफनाया गया है।
वरिष्ठ साहित्यकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा.नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के और मैं
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डा.माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया। वह मेरे गुरुभाई थे। दिल्ली और इलाहाबाद में उनसे कई मुलाकातें हुई। उन्होंने हिंदी के विस्तार, वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के लिए काफी काम किया। वह हिंदी को लेकर इमानदार और साहित्य के बारे में सटीक थे।
बेल्जियम के पश्चिमी फ़्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले गांव में 1 सितंबर 1909 को जन्मे फादर कामिल बुल्के मृयुपर्यंत तक हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे।
भारतीय संदर्भ में बुल्के कहते थे 'संस्कृत महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी है।
 एक विदेशी होने के बावजूद बुल्के ने हिन्दी की सम्मान वृद्धि, इसके विकास, प्रचार-प्रसार और शोध के लिये गहन कार्य कर हिन्दीके उत्थान का जो मार्ग प्रशस्त किया और हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने की अपने स्तर पर हर संभव कोशिश की।
पिछले कुछ वर्षों से उनकी कब्र पर जाने वाले साहित्यकार और प्रकाशक गौरी नाथ बताते हैं
छब्बीस वर्ष की उम्र में वे इंजीनियरिंग करके भारत आए और यहीं के हो के रह गए। गुमला, सीतागढ़/हजारीबाग, और राँची परिक्षेत्र में वे रहे-- यूँ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय उन्होंने राँची में गुजारा। जैसे उनका हिंदी-प्रेम था, कुछ कुछ राँची-प्रेम भी। लेकिन चिर-निद्रा के लिए उन जैसे कोमल-हृदय वाले विद्वान को जगह मिली निर्मम नगर दिल्ली में जहाँ उनकी क़ब्र की तरफ़ झाँकने वाले भूले-भटके ही आते।
संस्कृत और हिंदी के प्रोफेसर बुल्के का शोध-ग्रंथ रामकथा: उत्पत्ति और विकास ख़ूब प्रसिद्ध और चर्चित रहा है और रामायण प्रसंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। प्रोफेसर बुल्के का हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश और अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश छात्रों और अध्येताओं के बीच आज भी ख़ूब लोकप्रिय हैं। लेकिन दिल्ली के दिल में ऐसे विद्वान को चाहने और याद करने की जगह नहीं।
आज लोग राम राज्य और राम मंदिर की बात करते हैं लेकिन फादर का राम के ऊपर जो काम है वैसा काम किसी का नहीं है। उन्होंने पहली बार भारत के बाहर अन्य देशों की भाषाओं में राम के चरित्र को खोजा और इसकी व्यापकता की बात की। आज यह एक बड़ा सवाल है कि विदेश में जन्मा व्यक्ति भारत आकर यहां की संस्कृति में रच बस गया लेकिन आज वह यहीं के लोगों द्वारा उपेक्षित है।
रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में वह हिंदी और संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे और विज्ञान सहित अन्य विषयों के छात्र उनसे पढऩे आते थे। वह सच्चे अर्थों में सन्यासी और हिंदी सेवक थे। फादर की कब्र पर पत्थर रांची की ही एक संस्था के लोगों ने लगवाया है अन्यथा यह उपेक्षित ही है।
एक अन्य साहित्यकार का कहना है कि 1951 में भारत की नागरिकता प्राप्त करने के बाद स्वयं को बिहारी कहकर करते से संबोधित करते थे। 1974 में भारत सरकार ने इनको पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
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जब डा.नगेंद्र को फादर ने टोका

वरिष्ठ साहित्यकार नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में फादर कामिल बुल्के आए औैर प्रसिद्ध साहित्यकार डा.नगेंद्र के मेज पर टाइम टेबल अंग्रेजी में देखा तो उनको टोकते हुए कहा, नगेंद्र जी ये मैं क्या देख रहा हूं आपके मेज पर शीशे के नीचे समय सारिणी अंग्रेजी में बनी है। हिंदी के प्रति इस तरह उनकी प्र्रतिबद्धता थी।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...