Tuesday, December 29, 2009

सजनी हमहूं राज कुमार

नए साल की मुबारकबाद, ईद बीत गई लेकिन मियां वह मजा नहीं आया जो छन्नू हलवाई की दुकान की सेवइंयों में आता था, मियां सेवइयां ऐसी की बस मुंह में डाला और गले के नीचे उतर गई। बनारसी दास की पान की दुकान पर गिलोरी मुंंह में डालते मियां गुमसुम बोल बड़े अंदाज में बोल रहे थे। बाबू बनारसी ने चुटकी लेते हुए कहा, मियां तब सिवइयां अठन्नी की भरपेट आती थीं, आज तो महंगाई ने सेंवइयों का स्वाद ही बिगाड़ दिया है, गुमसुम ने कहा, जनाब मिले भी कैसे अठन्नी तो बाजार से ऐसे गायब हो गई जसे गधे के सर से सींग। एक वाकया बताता हूं, मियां जुम्मन के बेटे को मरने के लिए जहर नहीं मिला तो फुन्नन के बेटे ने कहा कि अठन्नी निगल लो, उसे यह सस्ते का उपाय लगा लेकिन वह आज तक खोज रहा है न अठन्नी मिली ना ही उसकी तमन्ना पूरी हुई।
बनारसी बोले महंगाई की महिमा से तो सभी दबे हैं। मियां मनमोहन सिंह देश के ही मोहन नहीं ऐसा लगता है मंहगाई के भी मोहन हैं, मिंया की मोहब्बत जितनी गद्दी से है उतनी ही महंगाई से भी है। अब राम जाने नए साल में इन दोनों से उनकी मोहब्बत कितनी परवान चढ़ती है। वैसे साठ के बाद पढ़ाए जाना वाला पाठ लोगों को समझ कहां आता है। चढ़ती मंहगाई के कारण अब तो दुकानदार के सामने, होने वाले दूल्हे को भी लुगाई की तरह शर्माना पड़ता है।
मियां गुमसुम को अपनी शादी की याद आ गई। बोल पड़े, मियां बेगम को लाने में कुल चालीस रुपए बारह आने खर्च हुए थे। वहीं बेटे की शादी में चालीस हजार में भी जरुरत पूरी नहीं हुई। ये सब बातें युवा नेता चतुर लाल सुन रहे थे। उन्होनें बाबू बनारसी से जर्दा, चूना और कच्ची सुपारी की मांग करते हुए बोले, अब देखिए न ऊंचे ओहदों पर साठ के पार लोगों को बैठाते हैं इसीलिए मंहगाई भी ऊंचे-ऊं चे चल रही है। अब कम्युनिस्ट पार्टी में देख लीजिए देर से ही सही मांग तो उठ ही गई कि सफेद बाल वालों को बाहर कीजिए। जनाब मैं तो कहता हूं कि सफेद बाल वाले ही नहीं खिजाब लगाने वालों के बारे में भी पार्टी के आला कमान सोचना चाहिए। क्योंकि सत्तासुख लेते-लेते ये लोग जनता का दुख भूल जाते हैं। खुद तो काजू-बादाम की ख्वाहिश रखते हैं लेकिन जनता के लिए रोटी पानी की फिक्र इन्हे जरा भी नहीं है। उस युवा नेता की यह व्यथा मियां गुमसुम बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उनसे रहा नहीं गया और बोल पड़े भावी कर्णधार जी कथा तो सभी कहते हैं लेकिन व्यथा का समाधान कहां लोग करते हैं। मियां कुर्सी पर बैठने के लिए तो सभी लोग कहते हैं.. सजनी हमहूं राजकुमार। अब झारखंड में देखिए ना कोड़ा पर कोड़ा चला कि गुरु शुरु हो गए।
अभिनव उपाध्याय

Friday, December 18, 2009

पुनर्जन्म की लीला

जब आप मुस्कुराते हैं तो खुल कर नहीं मुस्कुराते, इसका भी पैसा लगता है। क्या बात है कोई संकोच है ? ये बात मियां लल्लन ने पड़ोसी फुन्नन से पूछा। इस पर फुन्नन थोड़ा और गंभीर हो गये और कहा हम सिने तारिका नहीं है जो पैसा लेकर मुस्क राएं। अगर मुस्कुराने के पैसे मिलने लगे तो मैं परिवार समेत मुस्क राऊं। लेकिन भाई मंहगाई बौराये गधे जसे दुलत्ती झाड़ रही है, दाल चावल को बिना चूल्हे पर चढ़ाए आग लगी है, हरी सब्जी के बिना बच्चों के चेहरे पीले पड़ रहे हैं और लाल टमाटर अच्छे नहीं लगते। कुछ जुगाड़ बता दो कि हमारे घर भी गीला आटा तबे पर चढ़ जाए?
लल्लन जो खुद कई दिनों से नौकरी की तलाश में घूम रहे थे बोल पड़े आजकल टीवी पर पुनर्जन्म वाला कार्यक्रम आ रहा है सुना है सब कुछ सच सच बता दे रहे हैं। मैंने 111 रुपए देकर एक बार पंडित जी से पूछा था कि पिछले जन्म में मैं क्या था वह बोले गधा था मुङो यकीन नहीं हो रहा है इसलिए सोच रहा हूं अब उस टीवी वाले से पूछ लूं क्या पता किसी रईस या नेता का बेटा निकल जाऊं तो जनता कुछ तो तरस खाएगी। क्या पता सत्ताधारी पार्टी में किसी का रिश्तेदार ही निकल जाऊं तो कोई तो रिश्तेदारी निभाएगा.. फु न्नन तुम भी चलो क्या पता किसी एक का मामला बैठ गया तो दोनों की चांदी हो जाएगी। यह बात लल्लन का बेटा सुन रहा था बोला पिता जी जब लौट कर आना तो जुगाड़ सीख कर आना, यहां पर हम लोग दूसरों के पुनर्जन्म की बात बताएंगे। मंगरू प्रधान पक्का उस जन्म में चार सौ बीस या ठग रहा होगा सब नरेगा का पैसा भकोस जाता है। इस पर लल्लन ने उसे डांट दिया। मामला फिट कर लोग मुम्बई जा पहुंचे। जितने लोगों का पुनर्जन्म के बारे में देखा गया सब ऊंचे आदमी थे या नीचे भी थे तो पक्के इमानदार। लल्लन ने सबके बारे में अटकलें लगाई कि कौन पिछले जन्म में क्या हो सकता है, फुन्नन से बोला मल्लिका जरूर उर्वशी या मेनका रही होगी, अमिताभ तो जरुर पा पा के पापा रहे होगें। फुन्नन ने सकु चाते हुए पूछा कि राखी सावंत क्या थी..इस पर लल्लन ने कहा एकदम से बकलोल ही हो, अपने बारे में नहीं सोच रहे। किसी तरह मामला फिट बैठा लेकिन पता चला कि लल्लन हलवाहा और फुन्नन जमादार थे। मुंह लटकाए लल्लन लौट आए उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब तक किसी आत्महत्या करने वाला किसान, दहेज के लिए जली बहू और भूख से मरा गरीब इस जन्म में कोई बड़ा आदमी क्यों नहीं बनता। फुन्नन बोला अब समझ में आया कि हम गरीब क्यों हैं ये ससुरी पिछले जनम से ही पीछे पड़ी है......

अभिनव उपाध्याय

Sunday, December 13, 2009

न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में...

शारदा पाठक एक अजब शख्सियत थे। फक्कड़-फकीर। मस्तमौला कबीर। वे पत्रकार थे लेकिन रोजमर्रा की पत्रकारिता से हटकर सतत पढ़ने-लिखने वाले पत्रकार। वे गहन जिज्ञासु व्यक्ति थे और उनकी जिज्ञासा के क्षेत्र भी एक-दो नहीं अनेक थे। उसमें उनकी गहरी पकड़ थी। इतिहास से लेकर फिल्मों तक और बााार से लेकर सभ्यता-संस्कृति तक वे सहज आवाजाही करते थे। बातों का एक बड़ा बाजार वे जहां-तहां खोल के बैठ जाते। आज समाज के वे नियमित लेखक थे। अफसोस यह कि उन जसी प्रतिमा के जीवन का बड़ा हिस्सा अभावों और संकटों में गुजरा। उनको याद करते आज समाज के सीनियर एसोसिएट एडीटर मनोहर नायक
शारदा पाठक घनघोर मिलनोत्सुक जीव थे। मित्रों, परिचितों के बीच परम-प्रसन्न। बातें और बातें। मिलने की चाह उन्हें सुबह से ही सड़क पर ला देती। और फिर मिलते-जुलते बातों-बातों और बातों से दिन का जंगल काटते रहते। जबलपुर हो या दिल्ली उनके परिचित और प्रशंसक बड़ी तादाद में थे। उनका यह दायरा काफी बड़ा था। उससे बहुत-बहुत बड़ा दायरा स्मृति में बसे लोगों का था। कभी का भी कुछ पढ़ा-सुना उनके कबाड़खाने में हमेशा जीवंत रहता और बाहर निकलने को कुलबुलाता रहता। इस सबसे उनकी बातों का दायरा अत्यंत विशाल था। लेकिन अपनी इस अटूट मिलनसारिता के बावजूद वे नितांत एकाकी थे। वे एक चिर-परिचित अजनबी की तरह ही थे-एक आगंतुक! जो अचानक आता और फिर एकाएक चला जाता है। हर दिन हर किसी के साथ उनका मिलना ऐसा ही था।
आगंतुक 1991 में आई सत्यजीत राय की अंतिम फिल्म थी। इसके केन्द्रीय पात्र मनमोहन मित्रा का चरित्र पाठकजी से मेल खाता-सा था। नृतत्वशास्त्री मित्रा ज्ञानी और मूर्तिभंजक हैं। वे दिल्ली से पत्र द्वारा कोलकाता में अपनी भतीजी बेबी यानी अनिला को सूचित करते हैं कि कुछ दिन आकर उनके पास रहना चाहते हैं। ये वे चाचा हैं जिनका पैंतीस वर्ष से कोई अता-पता नहीं था। चाचा दुनियाभर घूमे हुए घुम्मकड़ व्यक्ति हैं अनिला खुश भी है और पति सुधीन्द्र की इस सोच के कारण सशंकित भी जो उन्हें फरेबी मानते हुए शक कर रहे थे कि हो सकता है कि ये पुश्तैनी जायदाद में अपना हिस्सा वसूलने की चाल हो। मित्रा साहब ने आते-आते ही अपने अद्भुत बखानों का रंगारंग पिटारा ही खोल दिया। अनिला का बेटा सत्याकि की उनसे गहरी पटने लगी, लेकिन वयस्क परिवार आशंकित ही रहा और कई भद्रलोक के महाशयों ने उनसे बात की कि भेद खुले। एक वकील दोस्त आया। लेकिन चाचा ने एक सधे वकील की तरह उससे जिरह की। गर्मागर्मी में दोस्त ने कहा ‘साफ-साफ बताओ या दफा हो जाओ। अगले दिन चाचा का कोई पता नहीं था। दरअसल राय ने इस फिल्म के जरिए अपनी चिंताओं का इजहार किया है। वे लगातार आधुनिक और अनौपचारिक होती जा रही दुनिया में मनमोहन मित्रा के जरिए मानवीयता और सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने का संदेश देते हैं। मित्रा के साथ परिवार और मित्रों का व्यवहार और उनकी सोच के पीछे हम मानवीय मन और सामाजिक अंर्तसबंधों की सूक्ष्म पड़ताल पाते हैं। वकील जब मित्रा से पूछता है आपने कभी मानव मांस खाया है जोकि एक बेहद जघन्य काम है तो मित्रा कहते हैं कि मैंने खाया नहीं पर उसके खास स्वाद के बारे में सुना है। यह बर्बर है पर इससे भी सौ गुनी क्रूर और जुगुप्सापूर्ण चीजें हैं। बेघर लोगों और नशीली दवाओं से ग्रस्त लोगों को देखना और एक बटन दबाकर एक सभ्यता को नष्ट कर देना ज्यादा क्रूरता भरा कारनामा है। मित्रा साहब अंतत: मानव प्रकृति और सभ्यता पर लोगों का ज्ञान बढ़ाकर चले जाते हैं।
पाठकजी बहुतों के लिए ऐसे ही कक्काजी थे। ज्ञानी और मूर्तिभंजक। सरस, विनोदी और कई अर्थो में करिश्माई। उनकी उपस्थिति फिल्म की ही तरह शास्त्रीय शैली में मनोभावों की गरिमामय कामेडी की तरह ही थी। भतीजे उनके कई हैं पर दूरदराज और कभी-कभार वाले। एक बड़ी बहन थीं पर पहले ही नहीं रहीं। वे नितांत अकेले थे। जबलपुर विश्वविद्यालय से एनसियेन्ट हिस्ट्री एंड कल्चर व इकानामिक्स में एमए थे। राजबली पांडे के निरीक्षण में डाक्टरेट कर रहे थे पर उनकी स्थापनाएं गले नहीं उतरीं तो छोड़ दिया। व्याख्याता बनना चाहते थे पर नहीं बन पाए। अंतत: पत्रकार बने। पर तमाम योग्यताओं के बावजूद दुनियावी अर्थो में घोर असफल हुए कि फिर नौकरी नहीं की। प्रेम किया था विवाह नहीं कर पाए। पिता के अनुचित दबावों में कराहते रहे। फिर विवाह हुआ ही नहीं। बहत्तर में दिल्ली आए, यहां-वहां काम किया पर कुछ जमा नहीं। दिल्ली में उन्होंने कई साल फाकामस्ती में गुजारे। लेखों का पैसा मिला तब उधारी चुकाई वरना पूछो तो कहते कर्ज पर पैसा उठाया है। एक्सप्रेस में विज्ञापन में हजारों रुपए का काम किया पर हिसाब में मिलान न हुआ तो सब डूब गया। जबलपुर लौटे खाली हाथ और वे खाली ही रहे। न रहने को मकान न कोई करीबी। गो उनके चाहने वाले बहुत थे। एक ने उन्हें कमरा दिया तो कुछ खाने की व्यवस्था करते। लेकिन दिल्ली हो या जबलपुर उनका शोषण ही किया गया। एक्सप्रेस विल्डिंग में तो वे अर्जीनवीस ही हो गए थे। कोई अंग्रेजी में तो कोई हिन्दी में अर्जी लिखवाता रहता। वे प्रेमपूर्वक लिखते रहते। दिल्ली में मकान मालकिन की बाल मनोविज्ञान पर पूरी थीसिस लिख दी। उन्हें नौकरी में तरक्की मिली और पाठकजी को अंतत: वह मकान छोड़ना पड़ा। किसी भतीजी को इतिहास में डाक्टरेट करा दी। किसी मित्र ने लेख लिखवा लिया। किसी ने किताब ही अनुवाद करा ली। एवज में खाना खिला दिया। एक अखबार में बैठने लगे। लिखना और तमाम काम! लेकिन महीने के शुरू में संपादक जेब में दो सौ रुपए डाल देता, ‘पाठकजी चाय-पान के लिए।ज् लेकिन खाना! किसी ने बताया कि कुछ दिनों से किसी मंदिर से खिचड़ी ले आते थे। जिसके यहां रहते बच्चों को पढ़ाते। परीक्षा की तैयारी कराते और मजे-मजे में नई-नई जानकारियां देते। दूसरों की मदद का यह सिलसिला पुराना था। उनके मित्र बंसू मास्साब प्राइमरी में मास्टरी की परीक्षा देने वाले थे। उनके बदले परीक्षा पाठकजी ने दी और बंसू मास्साब हो गए। प्रसंगवश बंसू मास्साब अब्बू मास्टर और शारदा पाठक अपने युवा दिनों में गजब के पतंगबाज थे।
पाठकजी सब जानते थे। हर छल-कपट पर उनकी निगाह रहती। वे परम संकोची थे। उनका इस्तेमाल करने वाला हाल ही का परिचित हो या चालीस साल पुराना वे सहजता से काम कर देते। खाने-वाने के लिए यह सब करते थे यह कहना गलत है। उन्हें भूखे रहने का जबर्दस्त अभ्यास था। पोहा-मट्ठी मिली तो ठीक, नहीं मिली तो ठीक। कइयों से उन्हें उम्मीद थी इसलिए चक्कर लगाते पर निराश ही लौटते। सालों से वे अपने जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश करते रहे। उसी तरह जसे सालों वे घर बसाने, विवाह करने की कोशिश में लगे रहे थे। सुना है युवा दिनों में काफी फैशनेबल थे। गले में मफलर, गॉगल और लेम्ब्रेटा। वह भी भतीजे को दे दिया। दिल्ली-जबलपुर में कई संगी-साथी बड़े आदमी हो गए। ज्ञानी-ध्यानी पाठकजी हैरत करते। गुस्से में कभी-कभार तीक्ष्ण कटाक्ष। उनसे किसी की असलियत छिपी न थी। कई लेखक-पत्रकार भी थे जिनके वे प्रशंसक थे पर आज के दौर की पत्रकारिता के घोर आलोचक। उनकी शास्त्रीयता पुरातनपंथी-दकियानूस हरगिज नहीं थी। उनकी दृष्टि बेहद आधुनिक थी। सारे उतार-चढ़ावों पर पैनी नजर। उदारीकरण के साथ ही वे कहने लगे थे कि अब अखबार इश्तहार हो जाएंगे। जब हो गए तो कहते कि अब तो लेख नहीं चाहिए। शब्दों का गुटका मांगते हैं। कफन देखकर मुर्दे की मांग करते हैं। यानी अच्छी फोटो है तो थोड़ा कुछ लिख दीजिए। कुछ साल से कहते कि यार अब नंबर एक भगवान सांई बाबा हैं। गणेश-कृष्ण-हनुमान पिछड़ गए। अभी कुछ ही रोज पहले एक ऐसा ही सर्वेक्षण कहीं पढ़ा।
कक्काजी बेहद भावुक व्यक्ति थे। वे एक ठीक-ठाक जिंदगी चाहते थे। उसका शोध जीवन भर चला। वे लोगों के बीच के व्यक्ति थे। आसपास मित्र-मंडल अच्छा लगता और उसमें वे हजार जबां से नग्माजन होते। लेकिन उन्हें जसे अकेलेपन की सजा मिली थी। पूरा जीवन अकेले छोटे कमरे में गुजार दिया। वे कुछ किताबें लिखना चाहते थे। लोग कहेंगे-किसने रोका! पर खाने का जुगाड़ ही न हो। पैसा ही न हो ऐसी कोई जगह भी न हो जहां जाकर आत्मीय, भावपूर्ण परिवेश मिले तो कोई क्या कर सकता है! बाहर की दुनिया बातें सुनने को उत्सुक पर अंतत: बेपरवाह। फिर भी अपने मन के घाव कभी नहीं दिखाते। पूछो तो कहते, ‘न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में।ज् यह जरूर है कि बेहद सख्त पसंद-नापसंद वाले थे। फिर परिश्रम से इतना ज्ञानार्जित किया कि मझौले किस्म के लोगों से तालमेल नहीं बिठा पाए। एक तरह से उन्हें उजले-साफ-सूफ, धुली-पुछी पर अंदर से पनाले ढोती दुनिया से चिढ़ हो गई थी। दुनिया की अनौपचारिकता भांप चुके थे। खान-पान-स्नान से मोहभंग का मामला था। कभी यह भी लगता है कि उनका यह मटमैलापन भी जसे पाखंडी दुनिया का सांकेतिक विरोध हो। वे आलू के शौकीन थे पर उसके छिलके से घृणा करते थे। परवल आदि के छिलके भी नागवार थे। अरहर की दाल भी नहीं। साकिब का एक शेर है : मलबूस खुशनुमा हैं मगर खोखले हैं जिस्म/ छिलके सजे हुए हैं फलों की दुकान में।ज् पाठकजी सत्व-तत्व वाले आदमी थे, छिलकों के रंगीन संसार के शत्रु। गजब यह है कि इतने साल विपदाओं से घिरे रहकर भी उन्होंने अपनी ईमानदारी, निश्छलता, संजीदगी और स्वाभिमान नहीं खोया। आराम की जिंदगी में ये सब चीजें भी अपेक्षया आसान होती हैं पर विपरीत और विलोम परिस्थितियों में निष्कलुष रहना कठिन काम है।
कक्काजी का दिमाग अजब-गजब ही था। कहां-कहां की जानकारियां, वंशावलियां, तारीखें, संख्याएं, विवरण उसमें जमा थे। पैंसठ साल पुरानी स्मृतियां उनके अंदर सजीव थीं। एक बड़ा स्मृति-आलय था उनका दिमाग। जहां शायद बड़े-बड़े कक्ष थे : इतिहास, पुरातत्व, राजनीति, भाषा, संस्कृति, वेद-पुराण, महाभारत का अलग। देशों, शहरों, स्त्रियों-पुरुषों का अलग। मंदिरों, स्थापत्य का अलग। व्यापार, शेयर बाजार का अलग। वनस्पतियों और सब्जी मंडी और विविध जायकों का अलग। भूत-प्रेत-जासूसी किस्सों, कहानियों का अलग। और एक बहुत बड़ा कक्ष फिल्मों और फिल्म संगीत का। ऐसा ही एक किताबों, अखबारों, पत्रिकाओं, विशेषांकों का। हां एक तहखाना भी था, जहां निजी जीवन की फाइलें, कुछ सत्यकथाएं और गुत्थियां थीं जिनकी सूची भूले-भटके कभी एकाध लाइन में पता चल जाए तो ठीक, वरना वहां प्रवेश निषिद्ध था। फिल्मों के तो वे चलते-फिरते कोष थे। मेरे जानने में विष्णु खरे और शरद दत्त ही वैसी फिल्मों के वैसे जानकार हैं। कभी-कभी झल्लाहट होती थी उनकी जानकारियों से कि क्या-क्या भरा पड़ा है। उन्हें शायद ही संदर्भ के लिए कुछ देखना पड़ता हो। एक बार जो पढ़ लिया वो याद हो गया। उनकी स्मृति अगाध थी।
धार्मिकता, पूजा-पाठ से वे बहुत दूर थे। धार्मिक उन्माद, पाखंड और ढकोसले के खिलाफ। छोटेपन से उन्हें चिढ़ थी। भाजपा-संघ के तो वे परम शत्रु थे और बाबरी ध्वंस के बाद जब एक दिन मेरे घर में कुछ लोग आए तो उन्हें बैठाया लेकिन जसे ही पता चला कि ये राममंदिर बनाने के समर्थन फार्म पर दस्तखत लेने आए हैं तो आग-बबूला हो गए और उन्हें तुरंत घर से बाहर होने के लिए लगभग चिल्लाने लगे। वे रघुपति राघव को आर आर राजाराम, पीपी सीताराम कहते थे। लेकिन उनके अंदर का दर्द दूसरी तरह से कभी अनजाने उभर आता था। पता नहीं किसने उन्हें बताया कि एक दिन कहने लगे कि एक बढ़िया बात यह होगी कि मृत्यु के बाद मुङो मोक्ष मिल जाएगा। यानी फिर नहीं फंसेंगे। यह एक तरह से अपने जीवन और इस दुनिया से उनके रिश्तों पर शायद सबसे दारुण टिप्पणी थी। जबलपुर में उनकी मृत्यु पर अखबारों में काफी छपा, दिल्ली में कुछेक जगहों से लेख-फोटो की मांग हुई। लेकिन सच यह है कि जीते-जी उनकी कद्र नहीं हुई। अब, ‘मर गए हम तो जमाने ने बहुत याद किया।ज् उनकी बातें, उनका बच्चों-सा निर्दोष व्यक्तित्व सब बहुत याद आता है। वे गजब के किस्सागो थे। लक्ष्मीकांत वर्मा और पाठकजी दोनों के साथ अलग-अलग तय करके रातभर बातें करने का मुङो अनुभव था। एक दिन दोनों ही साथ थे और जो लतीफ संस्मरणों और बात में से निकलती दिलचस्प बातों का सिलसिला उस रात जमा वह अविस्मरणीय है। अक्सर मेरे घर में फिल्म देखते हुए फिल्म खत्म होने पर कहते-‘चलो थींडज् हो गई। वे दि एंड को मिलाकर कहते-थींड। पाठकजी की भी अद्भुत लेकिन दुखांत कथा आखिर थींड हो गई।

Wednesday, November 11, 2009

एक उन्वान....



इंडिया गेट।
जमघट सैलानियों का।
एक उन्वान।
एक आनंद।
एक खुशी।
दस्तक गुलाबी सर्दी की।
और मौसम भी खुशनुमा।
चाह।
कैद कर लें हर पल।
क्षण।
प्रतिक्षण।
ले जाएंगे साथ।
संजोकर।
सहेजकर।
यह कोशिश।
काश!
कायम रहे।
ऐसे ही शांति।
आएं ऐसे ही सैलानी।
जो निहारे इंडिया गेट।
और उन्हे देख, सूरज भी ढलने में करे ढिठाई..

कभी लगती थी जहां महफिलें ...



एक समय उत्तर भारत की सबसे सशक्त महिला रही बेगम का नाम अब शायद कम लोग ही जानते हैं । दिल्ली के चांदनी चौक स्थिति बेगम समरू के महल में एक समय बुद्धिजीवियों, रणनीतिकारों और कुछ रियासतों के लोग विचार विमर्श करने आते थे लेकिन आज उस महल की वर्तमान हालत देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यह कभी उनकी हवेली रही होगी। दिल्ली के चांदनी चौक इलाके के अंदर तंग गलियों से होकर किसी तरह वहां पहुंच भी जाएं तो उसकी हालत देखकर यह नहीं कह सकते कि यह कभी कोई हवेली रही होगी।
यहां गंदगी के बीच खड़ा है दिल्ली पर्यटन विभाग द्वारा लगाया गया बोर्ड जो इस महल के बारे में जानकारी दे रहा है। लेकिन दिलचस्प यह है कि यह जानकारी आधी-अधूरी ही नहीं बल्कि गलत भी है। यहां दी गई जानकारी दो भाषाओं में है। हिन्दी में जहां इसे 1980 में भगीरथमल द्वारा खरीदा गया बताया गया है वहीं अंग्रेजी में उन्हीं के द्वारा 1940 में खरीदा गया बताया गया है।
समरू के बचपन का नाम जोन्ना या फरजाना भी बताया जाता है लेकिन वह बेगम समरू के नाम से ही प्रसिद्ध हुई। ‘समरूज् नाम के बारे में जहां इंडियन आर्कियालॉजिकल सर्वे (एएसआई) ने उनके फ्रेंच शौहर वाल्टर रेनहार्ड साम्ब्रे से माना है जो भारत में ब्रिटिश शासन में भाड़े का सिपाही था, वहीं स्टेट आर्कियॉलाजी ने समरू नाम का संबंध सरधना (मेरठ ) से माना है।
इस महल के कुछ हिस्से अपने समय की कला को अब भी समेटे हुए हैं। यूनानी स्तम्भों से सजे बरामदे की अपनी खूबसूरती है लेकिन वहां पर हुए अतिक्रमण के कारण इसे ठीक तरह से देखा नहीं जा सकता। एक दिलचस्प बात और है कि वर्तमान में इसका नाम भगीरथ पैलेस है लेकिन एक दुकानदार ने बताया कि दुकान के किराए की रसीद किसी रस्तोगी परिवार के नाम से कटती है। इस महल की उपेक्षा का यह आलम है कि बाहरी लोगों को छोड़िए स्थानीय लोगों को भी इसके बारे में ठीक से पता नहीं है। इस ऐतिहासिक इमारत की देखरेख और संरक्षण के बारे में प्रशासनिक अधिकारी भी कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं।
कश्मीरी मूल की बेगम समरू का जन्म 1753 में मेरठ के सरधना में माना जाता है। जो 1760 के आसपास दिल्ली में आई। बेगम समरु पर लिखी किताब ‘बेगम समरू- फेडेड पोर्टेट इन ए गिल्डेड फार्मज् में जॉन लाल ने लिखा है कि ‘45 वर्षीय वाल्टर रेनहर्ट जो यूरोपीय सेना का प्रशिक्षक था। यहां के एक कोठे पर 14 वर्षीय लड़की फरजाना को देखकर मुग्ध हो गया और उसे अपनी संगिनी बना लिया।ज्
बेगम समरू के बारे में कहा जाता है कि वह राजनीतिक व्यक्तित्व और शासन का कुशल प्रबंधन करने वाली महिला थी। शायद यही कारण था कि एक पत्र में तत्कालीन गवर्नर लार्ड बिलियम बैंटिक ने उन्हे अपना मित्र कहा और उनके कार्य की प्रशंसा की। बेगम समरू को सरधना की अकेली कैथोलिक महिला शासिका भी कहा जाता है। इस महल में 40 साल से दुकान कर रहे बुजुर्ग ने बताया कि इस महल के अंदर से सुरंग लाल किले से मिलती है जिसके रास्ते हाथी-घोड़े और सैनिक जाते थे और इस महल के चारो ओर तेरह कुंए थे। जिससे महल के समीप बागों को पानी दिया जाता था। इतिहासकारों का मानना है कि बेगम ने 18वीं और 19वीं शताब्दी में राजनीति और शक्ति संघर्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक राजनीतिक जीवन व्यतीत करने के बाद उसकी मृत्यु लगभग 90 साल की आयु में सन 1836 में हुई। लेकिन इस ऐतिहासिक इमारत में अब कई रखवारे हैं सबका अपना स्वार्थ है लेकिन महल की दुर्दशा पर स्टेट आर्कियोलाजी भी मौन है।

सब कुछ राम भरोसे

दिल्ली में डीटीसी और ब्लू लाइन का किराया बढ़ा लेकिन यात्रियों की सुरक्षा राम भरोसे। भाई ये पब्लिक है सामान से भी सस्ती। सामान लेते हैं तो गारंटी- वारंटी कुछ तो देता है, आजकल बड़ा-बड़ा बैनर जागो ग्राहक जागो का भोंपू बजा रहे हैं। महंगाई बढ़ी लेकिन सरकार ने पब्लिक कि कोई गारंटी नहीं ली। चाहे चाइना धमकाए या पाकिस्तान अंगारे छोड़े। पब्लिक तो बस राम भरोसे.. सहीराम से अपनी व्यथा चतुर चटकोर जी बता रहे थे। सहीराम ने उनकी बात सुनते-सुनते कहा कि चटकोर जी मंहगाई के दौर में गारंटी की इच्छा न करें। बात आगे बढ़ी, सुना है बैल, गधा, घोड़ा, ऊंट के ऊपर कोड़ा चलता है तो वो तेज भागने लगते हैं लेकिन कुछ दिन पहले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पुलिस से भाग रहे थे। जनता मजे से टीवी पर उनके भागने और लुकाछिपी की कमेंट्री सुन रही थी और अंत में भागते-भागते वह थक कर बीमार पड़ गए। सबसे सुरक्षित जगह अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल से लौटकर अब वह जेल में आराम फरमा रहे हैं। यहां भी कोड़ा दूसरों पर चल गया। सुना है जो तारिकाएं उनका मनोरंजन करती थीं उनको पुलिस की नाक सूंघ रही है। कहीं उनके परफ्यूम के आगे बेहोश न हो जाएं। लल्लन मास्टर के बेटे का कहना था कि तारिकाओं का नाम हिरोइन इस लिए पड़ा कि जो इनके पास जाता था उन्हें हेरोइन चटा देती थीं। मैंने सोचा हो सकता है, कोड़ा को भी कुछ चटा या सुंघा दिया हो और उसकी मति मारी गई हो। जिससे वह बेचारा बना घूम रहा है। अच्छा हुआ उसे पुलिस हवालात ले गई। कहीं उसका दिमाग बौराया जाता तो न जाने कितनों का वारा-न्यारा हो जाता। वो तो भला हो जो अब साथ-साथ बीवी रहती है। अब अफसोस के बाद चटकोर जी ने बात का ट्रैक बदला,
देश में किसी को चैन नहीं। जनता तो जनता, सरकार को भी पता नहीं क्या हो गया है कि रोज कहीं न कहीं उठापटक चलती रहती है। संसद की समस्याएं सड़क तक आ गई हैं। स़ुना है दिल्ली के भिखमंगों को सड़क से हटा दिया जाएगा। यह चिंता भिखमंगों की कालोनी में चिंता का विषय था। भिखमंगों के सरदार खजांची राम ने अपनी समिति में चिंता प्रकट करते हुए कहा कि हमने भिखमंगों को विदेशी भाषा पढ़ाने में जो निवेश किया था उस पर पानी पड़ जाएगा।
इस सूचना के बाद भिखमंगों में उदासी छा गई। लेकिन सूचना मिली है इस खबर से पुलिस भी उदास है। बस किराया के बाद कोड़ा और अंत में भिखमंगों की समस्या और उसके बाद। अंत में सहीराम ने कहा भाई यही तो लोकतंत्र है!
अभिनव उपाध्याय

मंहगाई की मार

अजी सुनती हो दरवाजा खोलो, कितनी देर से चिल्ला रहा हूं। मास्टर गनपत राम ने दरवाजे से आवाज लगाई, सुनकर श्रीमती कलावती ने कहा, बाजार क्या जाते हो लगता है खेत जोतकर आ रहे हो। दरवाजा खोलते ही उन्होने मास्टर की भीगी कमीज और हांफते चेहरे को देखकर कहा कि सब्जी लेने गए थे, तो हांफ क्यों रहे हो? क्या दौड़ते गए थे और दौड़ते आए हो क्या। मास्टर जी ने संभलते हुए कहा कि गया तो बस से था लेकिन आया हूं पैदल। एक तो सब्जी का भाव सुनकर गर्मी छिटक गई मोल-तोल कर रहा था तो उसने कहा कि अब बस का किराया भी बढ़ गया है। इसलिए पैदल चल पड़ा। कलावती जी ने यह सुनकर घनघोर निराशा जाहिर की ‘दूध, दही, चीनी, रसगुल्ला में तो आग लगी ही थी कि अब मुंआ किराया भी..ज्
मास्टर जी ने पानी का गिलास अभी मुंह से लगाया ही था कि ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी कि बढ़ सक ते हैं पानी के दाम.. और पानी का घूंट हलक में ही अटक गया।
सुरसा की तरह बढ़ रही मंहगाई को देखते हुए मोहल्ले में मीटिंग हुई कि सरकार चुनाव से पहले तो मस्का लगाती है और बीतने के बाद गर्म घी उड़ेल देती है। बढ़ती हुई मंहगाई के कारण किन चीजों में कटौती की जाए कि मामला बराबर हो जाए। किसी ने दूध किसी ने बिजली किसी ने फोन पर कम खर्च करने का सुझाव दिया।
किसी ने चिंता जाहिर की कि अब तो दफ्तर का बाबू का भी सुविधा शुल्क बढ़ा देगा। लेकिन किसी ने गाड़ी कम चलाने पर जोर दिया। यह उधेड़ बुन चलती रही कोई भी प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास नहीं हुआ। इसी बीच भीड़ देखकर सत्ता पक्ष के एक नेता वहां पहुंचे। उनके ऊपर सभी लोगों ने शब्द बाण छोड़े लेकिन नेता जी एक वीर योद्धा की तरह की तरह सब ङोल गए और बोले, सरकार आपकी दुश्मन नहीं है, आपकी तकलीफ हमारी तकलीफ है। आप इस मंहगाई को गलत नजरिए से देख रहे हैं। दरअसल आजकल लोगों में भाईचारा कम हो रहा है। अगर सबके घर आलू होगा तो क्या वह अपने पड़ोसी के घर जाएगा, आप अगर अपने पड़ोसी से चाय के लिए दूध मांगते हैं तो कम से कम चलकर जाते तो हैं। हम लोग सुविधाभोगी हो गए हैं। अभी भाषण चल ही रहा था कि झुग्गी से आया हुआ कुपोषित, शोषित और अस्थिपंजर लिए गंगूराम ने कहा कि किस भाईचारे की बात करते हैं। मंहगाई में भीख मांगने पर भी पेट नहीं भरता .. उसे देख नेता जी बगले झांकने लगे फिर जोर देकर कहा कि देश को भूखे नंगे लोग बदनाम कर रहे हैं। इस सभा में यह विपक्ष द्वारा प्रायोजित भिखमंगा है। जल्द ही कामनवेल्थ गेम तक इनका भी इंतजाम हो जाएगा..
अभिनव उपाध्याय

Wednesday, November 4, 2009

महफूज नहीं मेहमान परिंदे



भारत का वातावरण केवल विदेशी सैलानियों को ही आकर्षित नहीं करता बल्कि दूर देश के परिंदों को भी लुभाता है। अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में आने वाले परिंदे साइबेरियाई देश, चीन, तिब्बत, यूरोप, लद्दाख आदि से भारी संख्या में भारत में आते हैं। नवंबर के प्रथम सप्ताह में ये बड़ी संख्या में आते हैं लेकिन वह जिस संख्या में आते हैं उतने लौट नहीं पाते। इसके कई कारण हैं। प्रमुख कारण इन परिंदों का शिकार करना है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के पक्षी विशेषज्ञ डा. एम शाह हुसैन का कहना है कि विदेशी पक्षी आने-जाने के लिए मूलत: दो रास्ते अपनाते हैं, एक पूर्वी रास्ता जो चीन-तिब्बत होकर आता है, दूसरा पश्चिमी रास्ता जो ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होकर आता है। जब यह लौटते हैं तो ये अपने शरीर में लम्बी यात्रा के लिए काफी चर्बी इकट्ठा कर लेते हैं जो उनकी यात्रा के लिए ऊर्जा देने का कार्य करते हैं। लेकिन इनकी तंदरुस्ती के कारण भी लोग बड़ी संख्या में इनका शिकार करते हैं। दिल्ली के यमुना जव विविधता पार्क के वन्य जीव वैज्ञानिक फैय्याज ए खुदसर का कहना है कि जलीय और स्थलीय दोनों तरह के पक्षी दिल्ली आते हैं। इन दिनों यूरोप व साइबेरिया में ठंड बढ़ जाती है। इनको खाने के लिए काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। ऐसे समय में ये परिंदे भारत आते हैं। फरवरी के पहले-दूसरे सप्ताह में पुराने पंख गिराकर नए पंख लेकर अपने देश लौट जाते हैं। भारत के विभिन्न प्रांतों से इन पक्षियों को मारने की खबरें आती हैं लेकिन दिल्ली में ऐसा हो रहा है सुनने में नहीं आया है। ऐसा माना जाता है कि अगर 2004 के बाद साइबेरिया क्रे न भारत में नहीं आते हैं तो इसका प्रमुख कारण अफगानिस्तान युद्ध और उस समय उनका शिकार किया जाना है।

Sunday, November 1, 2009

यह इमारत तो इबादतगाह....



‘हमारे पूर्वज राव चुन्ना मल के बारे में लोग कहते थे कि आधी दिल्ली उनकी थी। उनका दिया हुआ आज भी हमारे पास बहुत कुछ है। चुन्नामल हवेली उनकी धरोहर है। वर्तमान में हवेली की देखरेख कर रहे व उनके वरिस अनिल प्रसाद बड़ी संजीदगी से ये बातें बताते हैं।
हवेली की पहचान अब ऐतिहासिक इमारतों के रूप में होती है। सैलानियों से लेकर फिल्म निर्माताओं के लिए यह पहली पसंद है। वर्तमान में इस हवेली की सुंदरता पर ग्रहण लग गया है। इसकी हालत देखकर फना कानपुरी का शेर ‘यह इमारत तो इबादतगाह..इस जगह एक मयकद़ा था क्या हुआ याद आता है। इस हवेली की कोई खास फिक्र किसी सरकारी संस्थान या गैर सरकारी संगठन को नहीं है। ऐतिहासिक महत्व की इस धरोहर के सामने बना पेशाब घर और खुलेआम वहां पर स्मैक पीते नशेड़ी देखे जा सकते हैं। हवेली के अंदर की सुंदरता को बरकरार रखने की अनिल प्रसाद ने पूरी कोशिश की है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि हॉलीवुड अभिनेत्री केट विसलेंट भी यहीं रहीं। हवेली की वास्तुकला देखने लायक है। 1842 में यह हवेली बनी। हवेली के हिस्से दर हिस्से को जोड़ते पुल अब भी देखे जा सकते हैं। वर्तमान में निचले फ्लोर पर दुकाने हैं, लेकिन 28,000 हजार वर्ग गज में फैली हवेली में तब संगमरमरी फव्वारे लगे होते थे। आज भी हवेली में प्रवेश करते ही चौड़ी सीढ़ियों पर पीतल की रेलिंग और अंतिम छोर पर शाही अंदाज दर्शाता शीशा देखा जा सकता है। यही नहीं यहां फारसी गलीचा, बड़े आइने, बोहेमियन ग्लास के झाड़ फानूस भी इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं। इस हवेली में एक स्थान पर फारसी में लिखा हुआ है कि ‘यह कमरा 1842 में बना और बैठक खाने के लिए प्रयोग में लाया जाता था।ज्
अनिल प्रसाद बताते हैं कि यह हवेली भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए लोगों की शरणस्थली भी रही। उन्होंने इसकी प्रशासनिक उपेक्षा को लेकर भी चिंता जताई। इस हवेली की देख-रेख के बारे में वह बताते हैं कि ‘इसमें औसतन सत्तर रुपए एक दुकान से किराया आता है जिसकी बदौलत इसकी देखरेख संभव नहीं है। यह हमारे पुरखों की निशानी है। इसके संरक्षण की हम पूरी कोशिश करते हैं। अनिल प्रसाद पुलिस की मनमानी से भी दुखी हैं। उनका कहना है कि पुलिस उनके रिश्तेदारों तक से यहां आने के पैसे ले लेती है।

Monday, October 26, 2009

कथक नहीं उसकी आत्मा भी दी- शोभना नारायणन

गुरु-मंत्र

शोभना नारायणन

इस बार अपने गुरु बिरजू महाराज को याद करते हुए सुप्रसिद्ध नृत्यांगना शोभना नारायण कहती हैं कि महाराजजी तो मेरे लिए देवता हैं। वे कहती हैं कि ये उनका स्नेह ही था जो उन्होंने मुङो लोगों के सामने प्रफेशनल रूप में पेश किया। इतना ही नहीं देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने मुझसे करवाई। ऐसा गुरु मिलना आज दुर्लभ है। शोभनाजी कहती हैं कि नृत्य की जो भी बारीकियां या तकनीक मुझमें हैं वे सब गुरु बिरजू महाराजजी की देन हैं। वे कहती हैं कि आज भी जब मैं उनको याद करती हूं तो कृतज्ञता से भर उठती हूं।

सीखना लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। आदमी बचपन से सीखता है। सीखने का मेरा यह क्रम आज भी जारी है। कलाओं में नृत्य एेसी कला है, जो गुरु का सान्निध्य पाकर निखरती है। शिष्य में आत्मविश्वास बढ़ता है। मेरी कथक की पहली गुरु साधना घोष रहीं। कलकत्ते में मैंने उनसे एक साल तक नृत्य की प्रारंभिक तालीम ली। बाद में पिताजी का तबादला मुंबई हो गया। वहां मुङो जयपुर घराने के कुंदन लाल ने छह साल तक नृत्य की बारीकियों से अवगत कराया। नृत्य की तरफ मेरे बढ़ते रुझान और कला की समझ को देखते हुए पिताजी ने कथक के बड़े उस्तादों से शिक्षा दिलाना जरूरी समझा। इसके लिए पिताजी कथक के नृत्य सम्राट बिरजू महाराज के पिता के पास गए। पिताजी ने बिरजू महाराज से मेरे लिए निवेदन किया और वे तैयार हो गए। मैं आज जो कुछ भी हूं, उसका सारा श्रेय बिरजू महाराज को जाता है। मैं उनकी शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मेरे जंगपुरा निवास पर नियमित रूप से सुबह-शाम आकर मुङो तालीम दी। किसी-किसी दिन तो सीखने-सीखाने का क्रम पूरे दिन चलता। बिरजू महाराज ने दस सालों में कथक के सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों और शरीर की गूढ़ मुद्राओं को मेरे भीतर उतार दिया।
नृत्य कथक की परिपूर्ण शैली है। कथक से ही कथा और कथाकार शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में श्लोक में इसका वर्णन मिलता है। इसका प्रयोग ब्राह्मी लिपि में किया गया है। बनारस में कथक का उल्लेख प्राकृत भाषा में भी मिलता है, जिससे इसकी प्राचीनता का पता चलता है। महाराजजी ने नृत्य की तकनीक को बड़ी खूबसूरती से मुङो सिखाया। उन्होंने शारीरिक संरचना और अंग की खूबसूरती को निखारा। महाराजजी ‘डांस ड्रामाज् भी बहुत ही सलीके से कंपोज करते थे। उनसे काफी चीजें सीखने को मिलीं। उन्होंने ‘अप्रोच टू कोरियोग्राफीज् के साथ मेरे अंदर कथक की आत्मा भर दी। आज मैं अपने को बिल्कुल बदला हुआ पाती हूं। महाराजजी ने जिनको भी सिखाया उसकी अपनी खासियत है, सबकी कला की अपनी खुशबू है। प्रत्येक साधक आखिरी सांस तक कला का साधक और पुजारी है। गुरु की डांट हमारे लिए प्रसाद थी। उनकी बातों से हम आज भी लाभान्वित होते हैं। मुङो याद आ रहा है कि 1968 में सप्रू हाउस में उनका कार्यक्रम हुआ था। कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने मुझसे करवाई। यही नहीं बहुत सारे अपने कार्यक्रमों में उन्होंने मंच पर आने से पहले मुङो भेजा। यह मेरे प्रति उनका स्नेह है। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुङो लोगों के सामने प्रफेशनल रूप में पेश किया। महाराजजी के साथ 1970 के बाद देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम किए। पेरिस, लंदन, अमेरिका के कई शहरों में मैं उनके साथ गई। मंच पर नृत्य करने के बाद अंत में सभी लोग तराना के समय एक साथ नृत्य करते थे। इस दौरान मैंने कई शानदार प्रस्तुतियां दीं।
अपने शिष्यों के प्रति महाराजजी का लगाव इतना अधिक होता था कि उनका मेकअप वह स्वयं किया करते थे। मेरा मेकअप महाराजजी ने खुद किया है। 1969 से लेकर 74 तक नृत्य की जितनी भी मेरी तस्वीरें हैं, उनमें मेरा मेकअप महाराजजी ने ही किया है। इस दौरान मैं मिरांडा हाउस की छात्रा थी। नृत्य के प्रति समर्पित होने में मेरी पढ़ाई कभी बाधा नहीं बनी। हालांकि, मैं भौतिकी की छात्रा रही हूं। और इसी विषय में पीएचडी भी की है। बचपन से पढ़ाई में अच्छी रही। सभी परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती रही। पढ़ाई में लगन और मेहनत के चलते मैं 1976 के सिविल सर्विसेज में चुनी गई। मैंने अब तक एेतिहासिक और पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर ढेर सारी प्रस्तुतियां दी हैं।
प्रत्येक शागिर्द का यह धर्म होता है कि वह अपने गुरु की परंपरा को आगे बढ़ाए। गुरु के लिए यह सबसे बड़ी खुशी है कि कथक परंपरा को उनके शिष्य मर्यादा के साथ आगे ले जा रहे हैं। हम जो करते हैं, उसका समाज पर असर पड़ता है। जो कलाकार कला में डूबा है, उसके लिए कला आत्मा है। जो एेसा नहीं करते उनके लिए कला इस्तेमाल करने की चीज या वस्तु होती है। नृत्य जब तक हृदय की अतल गहराइयों से न उपजा हो तब तक वह अपनी संपूर्णता और प्रभाव में साकार नहीं होता। महाराजजी की 70 के दशक में लाल किला, बाम्बे, सप्रू हाउस में दी गई प्रस्तुति आज भी आखों में बसी है। कथक में महाराजजी ने अलग-अलग वाद्ययंत्रों को लेकर जो कंपोजीशन किया है, वह अद्भुत होने के साथ ही बेजोड़ है। मेरे लिए बिरजू महाराजजी देवता हैं।
प्रस्तुति-अभिनव उपाध्याय

Sunday, October 25, 2009

बेगम कुदसिया के बाग का बिगड़ा साज



दिल्ली में कश्मीरी गेट के ठीक उत्तरी छोर पर मुगल काल की एक निशानी नवाब बेगम कुदसिया का बाग इस समय भी मौजूद है, लेकिन उसकी वर्तमान स्थिति को देखकर उसकी प्राचीन स्थिति का अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है। क्योंकि अब न तो बेगम का महल उस हाल में है न बाग। दिल्ली सरकार ने उसके रख-रखाव की थोड़ी जिम्मेदारी ली है लेकिन बेगम द्वारा बनवाई गई मस्जिद पर अब भी दो इमामों का कब्जा है और मस्जिद में बकायदा रोज नमाज भी अदा की जाती है।
दरअसल यह बाग मुगल काल में बेगम कुदसिया कि आराम करने की पंसदीदा जगह थी।
इतिहासकारों का मानना है कि इसका निर्माण नवाब बेगम कुदसिया ने लगभग 1748 में करवाया था। नवाब बेगम कुदसिया के बारे इंडियन आर्कियोलॉजिकल सर्वे द्वारा जारी किताब उन्हें एक प्रसिद्ध नर्तकी और मुहम्मद शाह (1719-48) की चहेती बेगम बताती है। जबकि प्रसिद्ध इतिहासकार कासिम औरंगाबादी ने ‘अहवाल-उल ख्वाकीन,(एफ 42 बी)ज् और खफी खान ने ‘मुखाब-उल लुबाब,(पेज 689)ज् में कुदसिया फख्र-उन-निशा बेगम को जहान शाह की पत्नी और मुगल शासक मोहम्मद शाह रंगीला की मां बताया है।
इतिहासकारों का मानना है कि 27 मार्च 1712 में जहांदार शाह से लाहौर में युद्ध के दौरान जहान शाह की मृत्यु के बाद नवाब कुदसिया बेगम का प्रभाव उनके बेटे अहमद शाह पर पड़ा वह किसी तरह के निर्णय लेने के पूर्व अपनी मां से परामर्श लेता था।
दिल्ली में यमुना के किनारे कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस बाग में बेगम ने महल, झरना, मस्जिद और गर्मी में हवा के लिए लॉज सहित फूलों और फलों का बागीचा भी लगाया था। कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह बाग इरानी चारबाग की पद्धति का बना है।
ऐसा कहा जाता है कि लाल किले में सुल्तान के हरम में रहने वाली महिलाएं यहां आती थीं। यही नहीं संगीतकारों के रियाज के लिए भी यह पसंदीदा जगह थी। गर्मी के दिनों में यह बाग शाम को ठंडक के लिए और जाड़े की दोपहर में यहां लोग गुनगुनी धूप लेने आते थे।
ऐसा कहा जाता है कि इस बगीचे के चारो तरफ दीवार थी लेकिन 1857 में गदर में यहां का कुछ हिस्सा टूट गया।
वर्तमान में एएसआई ने इसके रख-रखाव के लिए काम शुरू किया है लेकिन यहां पर हुए अधिग्रहण के बारे में अभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
उधर अधिग्रहण करने वाले इमाम शकील अहमद का कहना है कि ‘इस मस्जिद पर हमारा हक है क्योंकि इससे पहले मेरे वालिद मुहम्मद असगर 40 साल से इसमें नमाज अदा करा रहे थे और इसकी देख-रेख भी वही करते थे।ज् यही नहीं इस मस्जिद के एक हिस्से पर शकील अहमद के चाचा नसीर ने भी कब्जा जमाया हुआ है। शकील का कहना है कि ‘इस मस्जिद के संबंध में 1974 से केस चल रहा है और हम वाजिब हक के लिए केस लड़ भी रहे हैं। इसमे पहले मदरसा चलता था लेकिन 1999 में वालिद के इंतकाल के बाद अब मस्जिद की देख-रेख और साज-सज्जा मैं ही करता हूं।ज् अपनी खूबसूरती के लिए महशहूर इस बाग में आज भी दीवारों पर बच्चों की लिखावट और सरकारी उपेक्षा से यहां टूटे शिलाखंड देखे जा सकते हैं।

Saturday, October 24, 2009

मुङो देश की युवा पीढ़ी पर भरोसा है

कथाकार संजीव गहरे सरोकारों के लेखक हैं। वे भीतर-बाहर एक जसे हैं। कोई बनावटीपन, कोई कृत्रिमता नहीं। करीब डेढ़ सौ कहानियां और उपन्यास लिखने के बाद भी उनका लेखन जारी है। यह उनके लेखन और मानवीय संवेदनाओं को उसकी संपूर्णता में पकड़ने की भूख ही है, जो उनसे बीहड़ यात्राएं कराती रहीं। प्रेमचंद की तरह अपने को गारकर उन्होंने कथा-साहित्य की जो थाती पेश की है, उसका मूल्यांकन होना अभी बाकी है। ग्रामीण और छोटे कस्बे के परिवेश से आने वाले संजीव में महानगरीय सभ्यता का प्रभाव लक्षित नहीं होता। या कहें कि यह उनके अंदर की जीवटता और खुद्दारी है जो परेशानी और बीमारी के बावजूद उन्हें तोड़ नहीं पाती। साहित्य सृजन, प्रकाशन और सम्मान की संभावनाओं वाली दिल्ली भी उन्हें रास नहीं आई। वह गांव जाने की बात करते हैं। जसे दाने की तलाश में अपने घोंसले से दूर आई चिड़िया अपने घोंसले की ओर देखती है, वैसे ही संजीव अपने गांव की ओर देखने लगे हैं। संजीव के लेखन की खासियत है कि वह अपने कथा-सूत्र, विचार और चरित्रों के विस्तार और प्रभाव के लिए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों, आकड़ों और तथ्यों की गहरी जांच-पड़ताल करते हैं। लेखक संवेदनशील होता है, वह समाज के सभी स्तरों पर होनेवाली हलचलों के प्रति सजग रहता है। संजीव अपने लेखन के प्रति खासे ईमानदार और सरोकारों को लेकर प्रतिबद्ध हैं। लेखक समाज के संदर्भो से जितने गहरे अर्थो में जुड़ा होता है, उसकी सृजनशीलता उतनी ही प्रामाणिक और असरदार होती है। गत दो दशक में उदारीकरण, भूमंडलीकरण का प्रभाव समाज पर स्पष्ट रूप से दिखता है। बाजारू संस्कृति मानवीय मूल्यों को ठंडा कर उन्हें मिटाने पर तुली है। एक पीढ़ी है जो कंप्यूटर और इंटरनेट के साथ बड़ी हुई है। उसके अपने सरोकार हैं। राजनीति स्खलित हुई है। तकनीकी विकास और संस्कृतियों के मेल ने नैतिक और अनैतिक होने का विमर्श पैदा किया है। समाज को उद्वेलित और परिचालित करने करने वाली विचारधाराओं, घटनाओं, स्थितियों पर लेखक, कवि और कथाकार की पैनी नजर रहती है। साहित्यकार अपने समय के संदर्भो, तनाव और दबाव से गुजरता है। एेसे समय में संजीव जसा संवेदनशील कथाकार का क्या सोचना है,यह साहित्य सेवियों और प्रेमियों के जानने का विषय हो सकता है। इन्हीं मुद्दों को समेटते हुए प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार संजीव से बातचीत पर आधारित यह लेख-

गत दशक में किए गए राजनीतिक फैसलों का असर इस दशक में साफ दिख रहा है। उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है। ग्लोबल विलेज और ग्लोबल कल्चर के संपर्क में आने पर देश में एक नई संस्कृति उभरी है। सामाजिक क्षेत्र में भी बदलाव असमान्य रूप में हैं। राजनीति अधोपतन की ओर अग्रसर है। तकनीकी क्षेत्र में हुई तरक्की ने सुख और सुविधा के उपकरण देने के साथ ही मानवीय मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। रिश्तों और संबंधों को एक नए तरीके से देखने के लिए विवश किया है।
सामाजिक बदलाव एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन यह प्रक्रिया अपने यहां सामान्य नहीं है। अपने यहां समाज की कई तहें और परते हैं। समाज का एक तबका उत्तर आधुनिकता में जी रहा है, तो एक वर्ग आज भी 14वीं सदी की रूढ़ और दकियानूस मान्यताओं से जकड़ा है। उदारीकरण का लाभ जो समाज के सभी वर्गो तक पहुंचना चाहिए था, वह अब तक नहीं पहुंचा है। पैसे और सुख भोगने की लपलपाती महात्वाकांक्षा ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है। कुछ लोगों के पास अथाह संपदा और पैसा है, जबकि देश में करोड़ों की संख्या में एेसे गरीब लोग हैं, जो सपने देखकर मरने के लिए अभिशप्त हैं। गरीबों को सपना दिखाने का छलावा बहुराष्ट्रीय कंपनियां कर रही हैं। जिनके पास पैसा है, वह अपने सपनों को पूरा कर ले रहा है और जिसके पास नहीं है, वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए चोरी, बेइमानी करने के सिवाय और क्या कर सकता है। कंपनियां गरीबों का सपने दिखाकर मार रही हैं। चिंता की बात है कि शहरी जीवन की तमाम बुनियादी जरूरतों को अपना खून-पसीना बहाकर पूरा करने वाले इस बड़े वर्ग की सुध न तो सरकार और न ही सभ्य समाज ले रहा है। उन्हें मात्र उतना ही दिया जा रहा है, जिससे वे अपनी दो जून की रोटी की जुगाड़ कर लें। उन्हें हाशिये पर जिंदा रखने की कोशिश की जाती है ताकि हिपोक्रेटिक समाज के जीवन में किसी तरह का अवरोध उत्पन्न न हो।
इधर, सामाजिक मूल्यों को बिगाड़ने और मानवीय संबंधों को छिन्न-भिन्न करने का काम बाजारवादी शक्तियों ने बड़ी तेजी से किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक साजिश के तहत मनुष्य को उसके सरोकारों और मूल्यों से काटने में लगी हैं। अपने फायदे के लिए ये कंपनियां भोगवादी संस्कृति का एेसा जाल बुन रही हैं, जिसमें फंसकर मनुष्य केवल उपभोक्ता बनता जा रहा है। सारे रिश्ते, नेह-छोह को तिलांजलि देकर वह आत्ममुग्धता का शिकार हो गया है। संबंधों के जिस उष्मा से जीवन परिचालित और उसमें ऊर्जा का संचार होता है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसी पर कुठाराघात किया है। राजनीति की गर बात करें तो सामाजिक मंच पर राजनीतिक शक्तियां क्षीण हुई हैं। मौजूदा समय की राजनीतिक शक्तियां नक्सलबाड़ी आंदोलन को एक गाली के रूप में देखती और उसे प्रचारित करती हैं। एेसी दृष्टि रखने वाली शक्तियां जनता को लूटने का ही काम करती हैं। और एेसा करने में उनकी मित्र शक्तियां कभी प्रत्यक्ष और कभी प्रच्छन्न रूप में उन्हें मदद पहुंचाती रही हैं। राजनीति राज करने की नीति है। लेकिन राजनीति में आज दल, बल और छल का बोलबाला है। झूठ बोलकर जनता को बरगलाया जा रहा है। नेताओं में ढोंग और प्रपंच इस कदर हावी है कि उनकी कथनी-करनी में कोई मेल और सामंजस्य नहीं दिखता है।
सन् 90 के शुरुआती दशक के उदारवादी ढांचे के तहत शुरू हुई बाजार की व्यवस्था और तकनीकी उन्नयन ने पहले से स्थापित सामाजिक मान्यताओं को झकझोर दिया है। इसे लेकर नैतिक और अनैतिक होने का विमर्श भी चलता रहता है। दरअसल, नैतिकता की कोई परिभाषा आज तक बन ही नहीं पाई है। मेरी मानें तो कथनी और करनी में भेद मिट जाए तो यही सबसे बड़ी नैतिकता है। हर समाज की अपनी नैतिकता होती है। दबाव में हर देश और व्यक्ति जीता है। कहीं न कहीं और किसी ओर हम सभी दबाव में जीते हैं। नैतिकता इस दबाव को मुक्त करने में है। समाज में कुछ घटनाएं एेसे सामने आ रही हैं जो क्षणिक आवेग का परिणाम हैं। पुराने निकषों पर नए प्रतिमानों को नहीं कसा जा सकता। होमोसेक्सुअलिटी, गेअटी और लेस्बियन जसे संबंध समाज के सामने हैं। उन्हें वर्षो से चले आ रहे मानदंडों को आधार बनाकर हम नहीं देख सकते। इनके लिए हमें एक नई दृष्टि विकसित करनी होगी। इन आवर्जनाओं से निपटने के लिए समाज को ही कुछ करना होगा। बिना रिश्तों के समाज की कल्पना भी संभव नहीं है। दरअसल, नैतिक और अनैतिक घोषित करने के कोई तय मानदंड नहीं हैं। इसके विरोध में वही लोग खड़े हो रहे हैं, जिनका इससे कोई लेना देना नहीं है।
तकनीकी विकास ने असंभव सी लगने वाली चीजों को संभव बना दिया है। विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क की दशा में सुधार हुआ है। फिर भी इसका लाभ सुदूर गांवों तक नहीं पहुंचा है। शिक्षा, रोजगार, सामाजिक न्याय और सुरक्षा प्रत्येक नागरिक का बुनियादी अधिकार है। व्यवहार के स्तर पर न जाने कितने कालाहाड़ी सरकारी दावों को मुंह बिराते नजर आते हैं। जरूरत गरीबी की दंश और अपनी अस्मिता के लिए जद्दोजहद कर रहे लोगों को बचाने की है। ये लोग समाज की मुख्यधारा की जरूरतों को पूरा करने के बाद भी नारकीय जीवन जीन के लिए बेबस हैं। हालांकि, केंद्र सरकार की ओर से कानून बनाकर सभी के लिए शिक्षा अनिवार्य करने का प्रयास सराहनीय है। बहुत सारे प्रांतों की सरकारें शिक्षा के लिए रियायतें दे रही हैं। लेकिन इनमें व्यावहारिक स्तर पर बहुत सारी खामियां हैं। सुधार के लिए उठाए गए ज्यादातर कदम कागजी साबित हुए हैं। इसके अलावा विधवा पेंशन, वृद्धा पेंशन, काम के बदले अनाज, नरेगा जसे कार्यक्रमों से उम्मीद बंधती है।
इस दशक में मीडिया काफी शक्तिशाली होकर उभरा है। लेकिन मनोरंजन चैनलों पर रियल्टी शो में दिखाए जाने वाले भौडेंपन को देखकर कुफ्र होता है। ‘सच का सामनाज् करने वाले खेतों, खलिहानों और जंगलों में मर रहे हैं। विडंबना है कि सच के नाम पर झूठ और फरेब का व्यवसाय करने वाले करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं। ग्लैमर और पैसे के इस खेल में यथार्थ को झुठलाया जा रहा है। देश की हकीकत के बारे में दिखाने और बताने से मीडिया परहेज करने लगा है। वहां भी ग्लैमर और पैसे की तूती बोलती है। इस दशक में महिलाओं की स्थिति पहले से कहीं ज्यादा बदली है। वे प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती पेश कर रही हैं। उनका जीने, रहने और सोचने का ढंग और दायरा बदला है। लेकिन इतना कुछ बदलने के बाद भी पुरुषों का उनके प्रति नजरिया मध्ययुगीन वाला ही है। थोड़ा सा खुरचने पर मनुष्य का मध्यकालीन वहशीपन सामने आ जाता है। हरियाणा की कल्पना चावला स्त्रियों की उपलब्धता की सबसे बड़े प्रतीक के रूप में देखी जा सकती हैं, लेकिन उसी हरियाणा में महिलाओं पर खाप पंचायतों का फरमान कथित सभ्य मनुष्यता पर कलंक लगा देता है।
देश के सामने चुनौतियां और समस्याएं अनेक हैं, लेकिन समाज के विकास में सबसे बड़ा अवरोध जाति व्यवस्था है। इसे समाप्त करने की जरूरत है। यदि एेसा चलता रहा तो देश एक बार फिर से दासता की जंजीरों में जकड़ जाएगा।
राजनीतिक शक्तियां आत्ममुग्धता की शिकार हैं, उनमें बिखराव है। जनता सीपीआईएमएल और अन्य राजनीतिक पार्टियां जुगनुओं की तरह हैं, उनसे अंधेरा नहीं मिट सकता। सवाल है कि यदि सत्ता पाने के लिए धुर विरोधी पार्टियां एक हो सकती हैं, तो वे जनता के लिए क्यों एक नहीं हो सकतीं। राजनीतिक शक्तियां जनता के हित के बारे में बात तो करती हैं, लेकिन वास्तव में वे अपना हित साधने में ही लगी हैं। वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक अधोपतन के बारे में शहीद भगत सिंह ने पहले ही कह दिया था कि यदि समाज की वर्जनाओं को रोका नहीं गया तो वे अधोपतन की ओर ले जाएंगी। फिर भी इतनी चिंताएं होने के बावजूद मैं निराश नहीं हूं। मुङो देश की युवा पीढ़ी पर भरोसा है। बुरा समय आने पर युवा आगे आते हैं और वे देश और समाज को एक नई दिशा देते हैं।
आलोक कुमार से बातचीत पर आधारित

Sunday, October 18, 2009

उपेक्षा का दंश ङोल रहा बलबन का मकबरा


शासक इतिहास गढ़ता है। लेकिन इतिहास को संरक्षित करने की जिम्मेदारी आने वाली पीढ़ी की होती है। पुरातात्वि दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर दिल्ली ऐतिहासिक इमारतों और मकबरे की उपेक्षा ङोल रहा है। इस कड़ी में महत्वपूर्ण स्थान है मेहरौली का आर्कियोलॉजिकल पार्क जहां ऐतिहासिक महत्व के 40 स्थान हैं लेकिन अधिकर स्थानों पर खंडहर ही दिखाई पड़ते हैं इन्हीं खंडहरों के बीच है गुलाम वंश के शासक गयासुद्दीन बलबन का मकबरा। यहां पर बिखरे टूटे पत्थर और मक बरे में के भीरत की गंदगी इसकी स्थिति खुद-ब-खुद बयां कर देते हैं।
वर्षो से उपेक्षा का दंश ङोल रहे इस पार्क में मरम्मत की पहल इंडियन नेशनल ट्रस्ट फार आर्ट एंड कल्चर (इंटैक) ने शुरु की बाद में इसे आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया (एएसआई) ने भी आगे
बढ़ाया लेकिन वर्तमान में भी यह सरकारी उपेक्षा का शिकार बना हुआ है।
ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व से सम्पन्न गयासुद्दीन बलबन का मकबरा भारत में मेहराब और गुम्बद का सबसे पहला उदाहरण माना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार गयासुद्दीन बलबन इल्तुतमिश का तुर्की गुलाम था जो नसिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में वजीर के पद पर आसीन हुआ था। महमूद की मृत्यु होने पर वह गद्दी पर बैठा और अपनी मृत्यु होने तक 24 वष तक शासन करता रहा। इतिहासकारों ने इसका शासनकाल 1266-1287 माना है।
मकबरे का मुख्य द्वार भी अपनेआप में अनूठा है। इसमें प्रवेश करते ही हिन्दू मंदिरों की तरह डिजाइन देखने को मिलती है जबकि पृष्ठ भाग पर मस्जिद के आकार का गेट और संभवत: यह भारत का पहला गेट है जहां मुख्य द्वार का छत गुम्बद का आकार न होकर के पिरामिड के आकार का है।
अनगढ़े पत्थरों से निर्मित इस मकबरे एक भाग पर गयासुद्दीन बलबन की कब्र है। यह माना जाता है कि मकबरे में पूर्व की ओर ध्वस्त आयताकार कक्ष में बलबन के पुत्र मुहम्मद की कब्र थी जो खां शहीद के नाम से मुलतान के आसपास सन् 1285 में मंगोलों के विरुद्ध युद्ध में मारा गया।
इस ऐतिहासिक मकबरे की उपेक्षा के बारे में पूछने पर एएसआई के एक अधिकारी ने बताया कि हम इसकी देखरेख के लिए प्रयासरत हैं और पिछले वर्ष इस पर काम भी हुआ है और इस वर्ष भी इसके संरक्षण का काम जल्द ही शुरु हो जाएगा।

Friday, October 16, 2009

दीपावली


कोने-कोने पहुंचे प्रकाश
दूर तिमिर हो, छाए उजास
मन में जागे ज्ञान की प्यास
इस दीपावली यही है आस।

बच्चों का बचपन हो जगमग
मिले-जुले सब हिल-मिल सज-धज
आएं सबको खुशियां रास
इस दीपावली यही है आस।

पक्षियों के लिए मुसीबत की रात बनकर आती दीवाली




दीपों का पर्व दीवाली। हरेक वर्ष यह लोगों के लिए खुशियों की सौगात लेकर आती है। लोग इसे धूमधाम से मनाने के लिए प्रतीक्षारत रहते हैं। लेकिन जहां एक ओर लोग पटाखे जलाकर आनंद लेते हैं वहीं पूरी रात इसके शोर से पशु-पक्षियों की नींद हराम हो जाती है। नवजात पक्षियों का तो मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है और हृदयाघात जसी परेशानी आने से मृत्यु तक भी आ जाती है। इसलिए दीवाली की रात पक्षियों के लिए कयामत की रात बनकर आती है। इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय के वन्य जीव विशेषज्ञ डा. एम. शाह अहमद का कहना है कि साल के दो दिनों का यह त्योहार पक्षियों के लिए नई बात जसी है। क्योंकि बहुत सी पक्षियां इस समय अंडे देती हैं और उनके बच्चे पटाखों की तेज आवाज सहन नहीं कर पाते। उन्हें पता भी नहीं चलता कि आखिर ये धमाके कहां हो रहे हैं। इन धमाकों से पक्षियों के बच्चों की हृदयगति रुक जाती है या वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ तो उस इलाके को छोड़कर दूर चले जाते हैं और फिर नहीं आ पाते। कुछ ऐसा ही हाल कुत्तों की नई प्रजाति के साथ भी होता है। पामेलियन कुत्ते तो पटाखों के इन धमाकों से कांप तक जाते हैं और कोना पकड़कर दुबक कर बैठ जाते हैं। एक अन्य वन्य जीव विशेषज्ञ का कहना है कि अफगानिस्तान में तो युद्ध के बाद पशु-पक्षियों की क्या स्थिति हो जाती है इस पर गहन शोध और अध्ययन हो चुके हैं। लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ है। दीपावली के बाद कई जगहों पर पक्षियों के शव मिलते हैं लेकिन लोग इसे सामान्य रूप से लेते हैं। इसलिए हमें इस अवसर पर पशु-पक्षियों के साथ सहानुभूति दिखाने की जरूरत है।

Sunday, October 11, 2009

जिसको हम जानते हैं मकबरे से


शासक केवल शासन ही नहीं करता बल्कि अपनी निशानी के रुप में कुछ अविस्मरणीय छोड़कर जाना भी चाहता है। सैय्यद वंश के शासक मुबारक शाह ने मकबरे के रुप में ऐसी निशानी छोड़ी है। सैय्यद वंश द्वारा निर्मित अष्टभुजाकार मकबरे का यह अच्छा उदाहरण माना जाता है।
1421 से 1434 तक शासन करने वाले मुबारक शाह ने सेकी साम्राज्य को न केवल राजपूतों के अतिक्रमण से बचाया बल्कि मुबारकाबाद जसे सुन्दर शहर की परिकल्पना भी की और उसके निरीक्षण के दौरान अपने विश्वास पात्रों द्वारा मारा भी गया।
सैय्यद वंश के शासन में निर्मित यह मकबरा आजकल मुबारक शाह की मजार तक अतिक्रमण से घिरा है। इस बारे में दिल्ली सरकार और एएसआई समेत पुरातात्वि स्मारकों को संरक्षण देने वाले संस्थानों ने कुछ विशेष नहीं किया है। कुछ वर्ष पूर्व मकबरे के सुन्दरीकरण के नाम पर वहां की फर्श पर पत्थर लगाने का काम तो किया गया लेकिन वह भी अधूरा पड़ा है। मकबरे की दीवारों की दरार यहां स्पष्ट रुप से देखी जा सकती हैं। यहां पर जाने के लिए कोई सीधा रास्ता नहीं है। कोटला मुबारकपुर गांव में स्थित इस मकबरे तक जाने के लिए टेढ़े-मेढ़े और तंग रास्तों से जाया जा सकता है। लेकिन इसे ठीक से देखना मुमकिन नहीं है क्योंकि मकबरे के चारो ओर लगभग तीन फीट छोड़कर ऊंचे-ऊंचे मकान बनाए गए हैं। यही नहीं इस मकबरे के चबूतरे का उपयोग गांव के लोग द्वारा त्योहारों के या शादी विवाह के अवसर पर सार्वजनिक उपयोग के लिए किया जाता है।
इस मकबरे से थोड़ी दूर पर एक मस्जिद भी है। लेकिन यह मस्जिद किसी छोर से दिखाई नहीं देती लगभग 100 मीटर अंदर एक मस्जिद भी है जिसका संबंध मुबारक शाह की कत्ल से जुड़ा हुआ है। यहां अतिक्रमण इस हद तक है कि मस्जिद की दीवारों के ऊपर से लोगों ने दीवार खड़ी कर दी है और निर्माण कार्य करवा रखा है।
इस गांव का अपना इतिहास है पहले इसे मुबारकाबाद कहा जाता था।
याहिया बिन अहमद सिरहिन्दी ने तारीख ए मुबारक शाही में लिखा है कि, मुबारकाबाद को मुबारक शाह ने 1434 में बसाया था। इस जगह को खराबाबाद-ए-दुनिया कहा जाता था जिसका मतलब बेकार जगह से है। लेकिन मुबारक शाह ने इसको नए शहर के रू प में बसाया। इस मकबरे के समीप की मस्जिद के निर्माण के निरीक्षण के दौरान जुमा के नमाज के समय ही उसके विश्वसनीय लोगों द्वारा 19 फरवरी 1434 में उसकी हत्या कर दी गई। इस हत्या का षणयंत्रकारी मिरान सदर था।
यह मकबरा कई कारणों से अपनी विशिष्टता के लिए जाना जाता है। संभवत: यह पहला पठानोत्तर शैली का मकबरा है जो चबूतरे के ऊपर बनाया गया है। यही नहीं इसमें लाल बलुए पत्थरों और रंगीन टाइल्स का इस्तेमाल किया गया है। गांव के एक व्यक्ति ने बताया कि पहले चबूतरा ऊंचा था लेकिन स्थानी लोगों ने इस पर मिट्टी डालकर इसे सड़क के बराबर बना दिया है।
पूर्णत: सरकारी उपेक्षा का शिकार इस मस्जिद और मकबरे के बारे में एएसआई ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। एएसआई के एक अधिकारी ने बताया कि वहां से अतिक्रमण हटाने की कोशिश हो चुकी है लेकिन फिर से लोगों ने कब्जा जमा रखा है। इस पर जल्द ही उचित कदम उठाया जाएगा।

धार्मिक मान्यता भी है इस मकबरे की-
इस मकबरे की एक धार्मिक मान्यता भी है। मकबरे के अंदर सात कब्र है। स्थानीय लोग एक कब्र मुबारक शाह की मानते हैं शेष उसके परिजनों की। गांव के लोगों का मानना है कि जब भी कोई नया कार्य शुरू होता है तो इस मकबरे में पूजा अर्चना की जाती है। शादी के खास अवसर पर दूल्हा घोड़ी चढ़ने पर पहले मकबरे में मत्था टेकता है और उसके बाद मंदिर में जाता है।

Sunday, October 4, 2009

अरे, ये तो रजिया की कब्र!




मुस्लिम और तुर्की इतिहास में पहली महिला शासिका रजिया सुल्तान की मजार सैकड़ों वर्षो से धूप-बारिश ङोलती प्रशासिन उपेक्षा की शिकार बनी अतिक्रमण से घिरी हुई है। तुर्कमान गेट के भीतर और काली मस्जिद के समीप तंग गलियों के बीच इस शासिका की कब्र है। लेकिन वहां तक पहुंचना आसान नहीं है। यहां पर अधिकरत लोगों को पता नहीं है कि यह रजिया सुल्तान की ही कब्र है। ऊंचे मकानों के बीच गंदी और तंग गलियों से होकर वहां जाया जा सकता है लेकिन कोई प्रमाणिक जानकारी देने वाला बोर्ड या एएसआई द्वारा नियुक्त चौकीदार नहीं है जो इस कब्र के बारे में लोगों को बता सके। यही नहीं यहां पर असंवैधानिक रुप से रोज नमाज भी पढ़ी जाती है। चारो ओर से अतिक्रमण से घिरी इस कब्र की देखरेख के लिए कोई नहीं है।
इल्तुतमिश की योग्य और साहसी बेटी रजिया सुल्तान लगभग 1236 में सिंहासन पर बैठी लेकि न अधिक दिनों तक शासन नहीं कर पाई और उनके भाई मैजुद्दीन बेहराम शाह ने सिंहासन पर कब्जा कर लिया। हालांकि इतिहासकार सतीश चन्द्र ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ मेडिवियल इंडिया में लिखा है कि उसके छोटे भाई रक्तुद्दीन ने पिता की मृत्यु के बाद छह महीने तक शासन संभाला एक विद्रोह में 9 नवम्बर 1236 को रक्तुद्दीन तथा उसकी मां शाह तुर्कानी की हत्या कर दी गई। इसके बाद रजिया सुल्तान ने शासन संभाला। लेकिन ऐसा कहा जाता है कि रजिया का अपने सिपहसालार जमात उद-दिन-याकूत जो एक हब्शी था के साथ प्रेम प्रसंग चल रहा था जो मुस्लिम समुदाय को मंजूर नहीं था। इससे उसके राज्यपालों में असंतोष था अंतत: भटिंडा का राज्यपाल मल्लिक इख्तियार-उद-दिन अल्तुनिया समेत अन्य राज्यपालोंे ने विद्रोह कर दिया इनसे लड़ते हुए याकूत मारा गया और दबाव में आकर रजिया ने अल्तुनिया से शादी कर ली। इसी बीच रजिया के भाई मौजुद्दीन बेहराम शाह ने सत्ता हथिया ली। अपनी सल्तनत की वापसी के लिए रिाया और उसके पति अल्तुनिया ने उसके भाई बेहराम शाह से युद्ध किया जिसमें 14 अक्टूबर 1240 को दोनों मारे गए।
ग्लोरिया स्टिनिम ने अपनी पुस्तक, ‘हर स्टोरी: वुमेन हू चेंज्ड द वर्ल्डज् में उस समय की मुस्लिम व्यवस्था के बारे में लिखा है कि, रजिया को भी अन्य मुस्लिम राजकुमारियों की तरह सेना का नेतृत्व तथा प्रशासन के कार्यो में अभ्यास कराया गया ताकि जरुरत पड़ने पर उसका इस्तेमाल किया जा सके।
उस समय दिल्ली सल्तनत की शासिका रिाया सुल्तान की वास्तविक कब्र को लेकर मतभेद है। लेकिन अधिकतर विद्वानों ने तुर्क मान गेट के पास ही इसकी वास्तविक स्थिति को बताया है। ऐसा माना जाता है कि इस कब्र की गुम्बद पैंतीस वर्ग फीट रही होगी हांलांकि अब यह अतिक्रमण से ग्रस्त है गुम्बद की कोई निशानी नहीं दिखाई देती है। अब यह मात्र आठ फीट की ऊंचाई से घिरी कब्र है जिसके चारो ओर ऊंची-ऊंची इमारतें हैं। तीन फीट पांच इंच चौड़ी और लगभग आठ फीट लम्बी रजिया सुल्तान की कब्र के पास एक और कब्र है ऐसा माना जाता है कि वह रजिया की बहन शजिया बेगम की है।
इतिहास में इतनी महत्वपूर्ण जगह की प्रशासनिक उपेक्षा इस तरह से है कि वहां पर फै ली गंदगी के कारण पर्यटक भी वहां जाने से कतराते हैं। इस संबंध में आर्कियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया के सुप्रिमटेंडेंट आर्कियोलाजिस्ट का कहना है कि हम इस संबंध में पूरी कोशिश कर रहे हैं। यहां पर हो रही अवैध नमाज और अतिक्रमण से संबंधित मामला अदालत में चल रहा है लेकिन हमें पूरी तरह से और भी सरकारी एजेंसियों की मदद चाहिए तथा स्थानिय निवासियों में भी अपनी संपदा को लेकर जागरुकता होनी चाहिए। हम अपनी तरफ से भी ये सब करने के लिए पूरी तरह प्रयास कर रहे हैं।

Monday, September 28, 2009

एक थे बनारसी प्रिंसेप






जेम्स प्रिंसेप गजब के प्रतिभाशाली व्यक्ति। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी था। इस सब से अलग एक खास बात यह थी कि बनारस से उनको अगाध प्रेम था। बनारस ही नहीं, बल्कि गंगा को भी वे ‘हमारी गंगाज् कहते थे। बनारस के लिए जितना जेम्स प्रिंसेप ने किया वह अतुलनीय है। शायद ही किसी एक शहर के लिए एक व्यक्ति ने इतना किया होगा। ओपी केजरीवाल ने पिं्रसेप की इस काम को लेकर और उनके परिवार से मिली सामग्री के आधार पर एक पुस्तक तैयार की है जिसे पिलग्रिम्स पब्लिशिंग ने हाल ही में प्रकाशित किया है। केजरीवाल जेम्स की बायोग्राफी और भारत में प्रिंसेप परिवार के इतिहास पर भी काम कर रहे हैं। उनसे इस किताब और इसके अद्भुत नायक पर यह बातचीत अभिनव उपाध्याय ने की है।



प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप के लिए ‘बहुमुखी प्रतिभावानज् शब्द भी शायद कम पड़ेगा? आप जेम्स की प्रतिभा को कैसे व्याख्यायित करेंगे? उनका कौन सा रूप आपको सबसे अधिक आकर्षित करता है?

उत्तर- बहुत से प्रतिभाशाली व्यक्ति हुए हैं लेकिन उनका किसी एक विशेष विषय में ही नाम हुआ है। जसे सुकरात को हम एक दार्शनिक के रूप में ही जानते हैं, मोजार्ट को एक श्रेष्ठ संगीतज्ञ के रूप में। लेकिन उसका व्यक्तित्व बहुमुखी था। मुङो लगता है कि वह लियोनाडरे द विंची के करीब था। लेकिन लियोनाडरे द विंची और उसमें फर्क है, जेम्स प्रिंसेप जो करता था उसके बारे में लिखता था। उसके लेख विभिन्न विधाओं में हैं। उसने ब्राह्मी लिपि पढ़कर भारत को अशोक का उपहार दिया। हमारे भारतीय इतिहास का बहुत बड़ा प्रतिशत या तो उसने खोजा है या उसमें हिस्सा लिया है। उसने कनिष्क, गुप्त वंश आदि अनेक वंशों को पढ़ा। प्राचीन राजवंशों की खोज में भी उसका योगदान है। वह बांसुरी बजाता था, नाटक करता था और भी बहुत कुछ..

प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप की ‘बनारस की खोज और बनारस निर्माणज् की मुख्य बातें क्या थीं, जो इस किताब में आई हैं?

उत्तर-जेम्स ने बनारस की खोज नहीं की इसका निर्माण किया। बनारस का पहला नक्शा जेम्स ने बनाया। वहां के लोगों की प्रामाणिक जनगणना, सबसे पहले भूमिगत नाली प्रणाली उसने बनवाई जो आज भी काम कर रही है। किसी ने उसके बारे में कहा है कि वह आधुनिक बनारस का निर्माता था, जिससे मैं पूर्णत: सहमत हूं। वहां पर उसने कर्मनाशा नदी का पुल बनवाया। उसका निर्माण कार्य देखने वह रोज 30 किमी घोड़े से जाता था। उस पुल पर आज भी गाड़ियां चलती हैं। अब तक कोई भी व्यक्ति बनारस के लिए इतना काम नहीं किया है। उसने बनारस के हर घर का नक्शा बनाया। बनारस के प्रति उसका प्रेम आदरणीय था, क्योंकि वह गंगा नदी को अपने लेखों में ‘हमारी गंगा जीज् कहकर संबोधित करता है।

प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप को बनारस पर जारी सामग्री में से इस पुस्तक को जारी करने में किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

उत्तर- जेम्स प्रिंसेप के बारे में भारत में कुछ खास नहीं मिला। मैं लंदन में प्रिंसेप खानदान के बारे में खोज कर रहा था कि वहां से कुछ मिल जाए। इसके लिए वहां की फोन डायरेक्ट्री में प्रिंसेप परिवार से संबंधित नम्बर लिया।
उनसे मिलने गया लेकिन वे लोग भी जेम्स के बारे में अधिक नहीं जानते थे। उन्होंने अन्य लोगों के नम्बर दिए लेकिन कुछ बात नहीं बनी। कुछ दिन बाद उन्होंने कहा कि उनके पास एक पुराना बक्सा है शायद उसमें उसकी जरूरत की कुछ चीजें हों। उस बक्से को खोलने पर उसमें अद्भुत सामग्री मिली। मैं उसे भारत लाना चाहता था लेकिन वे लोग भारत के लोगों को लापरवाह मानते हैं। मैं लगातार उनके संपर्क में रहा। एक दिन उन्होंने बताया कि वह घर खाली कर रहे हैं और मैं वह सामग्री ले आया। उसके बाद मैंने अपनी किताब एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल में एक अध्याय जेम्स प्रिंसेप पर लिखा।


प्रश्न-इस किताब को तैयार करने में कितना समय लगा?

उत्तर- इस किताब को तैयार करने में तीन साल लग गए। लेकिन इस परिवार पर मैं पिछले 15 सालों से काम कर रहा हूं। मेरा मानना है कि आधुनिक भारत का इतिहास प्रिंसेप के बिना नहीं लिखा जा सकता। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इसके नाम को बनारस के अधिकतर लोग नहीं जानते। उसने वहां पर सोसायटी फार दी सेप्रेशन आफ द वायस नामक संस्था बनाई।

प्रश्न- बनारस पर बहुत लिखा जा चुका है। आपका काम इससे किस तरह से अलग है?

उत्तर- इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। उन्नीसवीं शताब्दी का सही इतिहास इस किताब में मिलता है। सबका दृष्टिकोण अलग है। इसमें जेम्स प्रिंसेप के योगदान को लेकर उस समय के दृश्य उपस्थित किए गए हैं। अब तक बनारस को लेकर जेम्स प्रिंसेप पर कुछ नहीं लिखा गया है। काशी का एकमात्र इतिहास डा. मोतीचन्द ने ‘काशी का इतिहासज् लिखा लेकिन जेम्स प्रिंसेप के बारे में कुछ नहीं था। इसके नए संस्करण में मैंने एक लेख जेम्स प्रिंसेप लिखा। यह दुखद है कि अभी तक इस बुद्धिजीवी पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया।

प्रश्न-बनारस को लेकर हमेशा से एक सम्मोहन रहा है। क्या आपमें भी किसी तरह का सम्मोहन था? इसे यह किताब किस तरह तृप्त कर पाती है?

उत्तर- बनारस के प्रति मेरे मन में एक समर्पण की भावना है। जब सेवानिवृत्ति के बाद बनारस गया तो वहां ‘वाराणसी जागृति मंचज् से जुड़ा लेकिन मुङो बतौर केंद्रीय सूचना आयुक्त बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। इसके बाद फिर बनारस गया। वहां गंगा के बचाव के लिए ‘गंगा महासभाज् में भाग लिया। यह गौर करने वाली बात है कि विश्व के लोग भारत के और किसी शहर को इतना नहीं जानते जितना बनारस को जानते हैं। यह किताब भी इसी समर्पण का प्रतिफल है। अगले साल तक दो और किताबें बनारस पर आ जाएंगी।

प्रश्न- इस किताब के पृष्ठों में रेखांकनों, चित्रों में जो बनारस उभरता है, उसके बरक्स आज का बनारस अपने तमाम सम्मोहन के बावजूद, कहां ठहरता है? इस किताब पर काम करते हुए यह बात भी आपके दिमाग में जरूर आई होगी?

उत्तर- काश! वह बनारस अब होता, वह माहौल वापस आ सकता। अब बनारस भीड़, गंदगी, प्रदूषण से पटा है। वहां की संस्कृति भी लुप्त हो रही है। बनारस के पक्का महल में, जो पुराने बनारस के नाम से जाना जाता है के एक सज्जन ने जेम्स प्रिंसेप के बारे में बताया कि वह हम लोगों से अधिक बनारसी था। उसे लोग ‘बनारसी प्रिंसेपज् कहते थे। मुङो कोई विदेशी ऐसा नहीं मिला जो किसी शहर के निर्माण उसकी संस्कृति में इतना रच-बस गया हो। कुछ हद तक डेविड हेयर को कह सकते हैं क्योंकि कोलकाता के प्रति उसके मन में अगाध प्रेम था। लेकिन फिर भी इतना नहीं जितना जेम्स का बनारस के प्रति था।

प्रश्न- जेम्स प्रिंसेप की बायोग्राफी पर भी आप काम कर रहे हैं? साथ ही भारत में प्रिंसेप परिवार के इतिहास पर भी, अपने इस काम के बारे में बताएं?

उत्तर- प्रिंसेप परिवार की चार पीढ़ियों के 17 सदस्य भारत आए थे। दूसरी पीढ़ी के सात भाई एक साथ भारत में कार्यरत रहे। उसके भाई एडवोकेट जनरल, चीफ सेक्रेटरी, द्वारका नाथ टैगोर के बिजनेस पार्टनर, आर्किटेक्ट, जिसने बिस्टेल में राजा राम मोहन राय की समाधि डिजाइन की थी और सुन्दरवन का नक्शा बनाया था। एक भाई अर्थशास्त्री था जिसने बैलेंस आफ ट्रेड पर काम किया।
एक भाई उपन्यासकार था। उसने ‘द बाबूज् नामक उपन्यास लिखा जो संभवत: पहला विदेशी उपन्यासकार है जिसने भारतीय चरित्रों को प्रमुखता दी।
लेकिन इन सबमें जेम्स प्रिंसेप विलक्षण था। उसके पिता जॉन प्रिंसेप नील की खेती करने वाले पहले विदेशी थे। इंग्लैंड में उसने ‘गरीबदासज् नाम से वहां के अखबार में कई लेख लिखे। उसमें उसने भारतीयों की वकालत की है। इंग्लैड की संसद में भारतीय किसानों की स्थिति का दुखद वर्णन किया है। जेम्स प्रिंसेप के भाई एच.टी. प्रिंसेप ने उस समय मैकाले की शिक्षा प्रणाली का विरोध किया था। उसने मैकाले के खिलाफ एक साक्षरता अभियान भी चलाया था।

प्रश्न- प्रिंसेप के प्रेम या विवाह के बारे में कुछ बताएं?

उत्तर-उसकी बायोग्राफी पर काम करते समय एक बात सामने आती है कि 1826 में अपने परिवार के साथ वह कोलकाता गया। वहां उसे एक लड़की पसंद आई। लेकिन उसने देखा कि वह उसके छोटे भाई के प्रति आकर्षित है। इससे उसका मन खिन्न हो गया और वह भारी मन से बनारस लौट आया। यह बात उसके भाई विलियम जोन्स की डायरी में है। बाद में उसकी शादी हैरियट से हुई। जेम्स अंतिम दिनों में अपनी स्मृति खो बैठा था। उसकी पत्नी ने उसकी काफी सेवा की थी। अंतत: जेम्स 1840 में चल बसा।

प्रश्न- इस किताब पर काम करते हुए आप किन अनुभवों से गुजरे?

उत्तर- अच्छा अनुभव रहा लेकिन काम आसान नहीं था। हमारी पहली किताब में जेम्स पर एक अध्याय है। उसके बाद उसके परिवार के बारे में जानने में और ललक जागी और लिखना शुरू किया। प्रिंसेप खानदान बहुत ही प्रतिभाशाली खानदान था। उसके हर सदस्य पर एक किताब लिखी जा सकती है। हमने किताब लिखने के सिलसिले में बिखरे हुए प्रिंसेप खानदान के कई लोगों को मिलाया।

प्रश्न-अपना कोई रोचक अनुभव?

उत्तर- 2003 में एक स्कालरशिप मिलने पर मैं अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड गया था वहां पर एक सज्जन फ्रे ड पिल मिला जो भारत में 10 वर्ष रह चुके थे। इसलिए वे भारत से जुड़ी हर छोटी-बड़ी जानकारी अपने पास रखते थे। यहां की पेंटिंग्स, लेख, किताबें आदि। उन्हें जब पता चला कि एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल मैंने लिखी है तो वह खुश हो गए। उन्होंने हमें लंच पर बुलाया काफी दिलचस्प बातें हुईं। उनके परिवार में कोई नहीं था। मैं चाहता था कि वह अपनी किताबें मुङो दे दें। फिर उन्होंने हमें डिनर पर भी बुलाया। बात धीरे-धीरे आगे बढ़ी जब उन्हें पता चला कि हम यहां रिसर्च के लिए आए हैं और हास्टल में रह रहे हैं तो उन्होंने यूरोप टूर पर जाने से पहले अपने पांच कमरों के मकान में हमें रहने के लिए कहा। यह हमारे लिए अच्छा था। मैं जब वापस आया तो उनसे संपर्क में बना रहा। जब उन्हें पता चला कि उन्हे कैंसर है और वह कम दिनों के मेहमान हैं तो उन्होंने अपनी किताबों और पुराने सामानों का संग्रह ब्रिटिश म्यूजियम के नाम अपनी वसीयत में कर दिया। और हमें सूचित किया कि अगर वह बचा हुआ कुछ चाहते हैं तो संपर्क कर सकते हैं। मैं इंग्लैंड गया उनसे बात की और उनके इस संग्रह के महत्व को भारत के लिए महत्वपूर्ण बताया। फिर उन्होंने अपनी वसीयत निरस्त करके मेरे नाम की। लगभग 100 से अधिक बक्सों में वह सामान उनके मरने के बाद भारत आया। ऐसा पहली बार हुआ था कि विदेश से कोई धरोहर भारत आई हो। यह अमूल्य धरोहर है। हमने उसे बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी के भारत कला भवन में रखवाया और उसके नाम से यह गैलरी जिसे भारी संख्या में लोग देखने आते हैं।

प्रश्न- क्या इस पुस्तक की कीमत इसके बहुत से इच्छुक पाठकों तक पहुंचने में बाधक नहीं होती?

उत्तर- यह सही है, लेकिन प्रकाशक का अपना दृष्टिकोण है, वे इसे एक संग्रहणीय पुस्तक बनाना चाहते हैं। इसके निर्माण में लागत भी अधिक आई है। लेकिन जेम्स प्रिंसेप की जीवनी आने पर यह शिकायत दूर हो जाएगी।

प्रश्न- अंत में आप जेम्स प्रिंसेप के बारे में क्या कहना चाहते हैं?

उत्तर- अगर मानव इतिहास में कुछ प्रतिभाशाली व्यक्तियों की सूची बनाई जाए उसमें मेरे अनुसार जेम्स प्रिंसेप का स्थान सबसे ऊपर आएगा।

Saturday, September 26, 2009

नानी की कहानी में जोड़ो पानी



गौहर रजा
चंद्रमा पर पानी होने की पुष्टि होना निश्चित रूप से धीरज बधाने वाली बात है। मनुष्य पहली बार 1969 में चंद्रमा पर कदम रखा। तभी से चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पता लगाने के लिए खोज शुरू हो गई। अमेरिका, रूस और भारत के खगोल वैज्ञानिकों ने पानी की मौजूदगी को लेकर तमाम शोध किए। अमेरिका और रूस ने मिशन भेजे। लेकिन यहां मैं एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि चंद्रयान -1 के इस खुलासे के पहले अब तक चंद्रमा से प्राप्त आंकड़ों और जानकारियों पर दुनिया के वैज्ञानिकों में मतैक्य नहीं था। वैज्ञानिकों का एक धड़ा चंद्रमा पर पानी होने के पक्ष में था, जबकि एक तबका पानी होने के तर्क को खारिज करता आया है। लेकिन चंद्रयान-1 पर गए नासा के ‘मून मैपरज् ने चंद्रमा पर पानी होने की ताकीद कर दी है। यही नहीं बहुत पहले अपोलो-9 द्वारा लाए गए चट्टान भी इस बात की जानकारी देते हैं कि चंद्रमा पर पानी की संभावना है। लेकिन वैज्ञानिकों का एक समूह उस डाटा पर विश्वास नहीं करता था। आज 40 साल बाद यह बात साबित हो गई। सन 1998-99, 2007 और अब 2009 में चंद्रमा पर पानी होने की बात स्वीकारी गई है। सिर्फ निश्चित सिद्धांत न होने के कारण इतना समय निकल गया।
चंद्रयान-1 के कारण पहली बार हमारे पास आंकड़े भी हैं और एक निश्चित सिद्धांत भी। यह सिद्धांत सूर्य से आने वाली हवाओं पर आधारित है, जिससे हाइड्रोजन आयन समृद्ध होता है। सूर्य की किरणें जब किसी भी चीज से टकराती हैं, तो उससे वे संपृक्त हो जाती हैं। इसी कारण यह ओएच बांड बनाती हैं और आक्सीजन के साथ आसानी से जुड़ती हैं। पहली बार हमारे पास यह सिद्धांत मौजूद है। जहां तापमान कम होता है, वहां पानी का बनना सामान्य प्रक्रिया है। इससे यह माना जाता है कि चंद्रमा के निचली सतहों पर पानी हो सकता है। यह सिद्धांत है कि जहां सूरज ढल रहा होता है, वहां पानी अधिक होता है, जिस तरह ध्रुवों पर पानी अधिक है। यहां पर एेसा सूर्य के तिरछी किरणों के आने के कारण है। लेकिन जहां पर सूर्य की सीधी किरणें पड़ती हैं, वहां पर यह संभावना कम होने लगती है। भारत को मार्च 2009 में ही चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पता चल गया था। इसे चंद्रयान ने साबित किया है। निश्चित रूप से यह दुनिया के लिए बड़ी उपलब्धि है। और इस उपलब्धि पर भारत को सौ प्रतिशत गर्व है। निश्चित रूप से विकासशील देशों में यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत पहला देश है। आज अगर गैलीलियो जिंदा होता तो वह शायद धरती का सबसे खुश इंसान होता। उसने जो बात पहले कही, आज सही साबित हो रही है।
चांद पर पानी किस रूप में है। यह कहना कठिन है, क्योंकि इसे लेकर अभी केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं। प्रामाणित तथ्यों का अभाव है। लेकिन यह खुशी की बात है कि चंद्रमा पर जीवन संभव है। थोड़ी मुश्किलें आ सकती हैं। लेकिन चंद्रमा पर जीवन बनाया जा सकता है। लेकिन इससे पहले अभी यह पता लगाना जरूरी है कि वहां पानी कितना और किस रूप में है। अभी चंद्रमा पर पानी की मात्रा को लेकर स्थितियां साफ नहीं हो पाई हैं। अब चंद्रयान के इस खुलासे के बाद निश्चित तौर पर अमेरिका, रूस और चीन चंद्रमा पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। चंद्रमा पर पानी होने की पुष्टि से अन्य ग्रहों पर भी पानी, जीवन की संभावना तलाशने में मदद मिलेगी। यदि आने वाले दिनों में वैज्ञानिक चंद्रमा पर आधार शिविर बनाने में सफल हो जाते हैं तो अन्य ग्रहों और आकाश गंगा को खंगालने में काफी मदद मिल सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चंद्रयान-1 की इस सफलता से इसरो ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक बड़ी छलांग लगाई है। उसने इतिहास रचा है। लेकिन चंद्रमा पर पानी होने की खोज का श्रेय हम केवल इसरो या केवल नासा को नहीं दे सकते। यह विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में जुटे दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मिला जुला प्रयास है। इसमें सभी का योगदान है। लेकिन भारत के लिए यह विशिष्ट उपलब्धि है। और प्रत्येक भारतीय इस उपलब्धि पर गौरवान्वित और फख्र महसूस कर सकता है। अब चंद्रमा पर पानी होने की पुष्टि ने उसकी खूबसूरती में और इजाफा कर दिया है। चांद पहले से और शीतल होगा। शायरों के लिए चांद अब पहले वाला चांद नहीं रहेगा।

(अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित)

Friday, September 25, 2009

सादगी भी एक अदा ठहरी

भई, अपनी तो सरकार वही जो अदा रखती हो। सादगी के हो-हल्ले में लगा कि ये बेनाज-बेअदा बला कहां से आयी! अब मुतमइन हुए कि अरे यह सादगी भी एक अदा ही ठहरी। आज के खुल्लम-खुल्ला खुलेपन में लाज की गठरी बनी न जाने कहां सिमटी-सिकुड़ी बैठी थी। उसे उठाकर सरेबाजार फिर ले आयी सरकार तो शायद इस ख्याल से कि दुनिया देखे कि हमारी यह भी है कि एक अदा और! बेहद जतन से इसकी मिजाजपुर्सी चली। जरा सी ठेस जिससे लगी उस पर लानत भेजी। इसलिए ही तो शशि थरूर की, अब के जो लौटे सफर से खूब मेहमानी हुई। सोनियाजी, प्रणब दा और एंटनी साहब के दर-दर भटके। समझ में आ गया न हम सादगी समङो, न राजनीति समङो!
असल में गलती न थरूर की है न कृष्णा की, न उन किसी की भी जो घोर गरीबी और अंधेरों में रह रहे इस महादेश के करोड़ों लोगों से बेखबर, चमक-दमक के दिलदादा हैं। अब उनसे अपने बहिश्त को जनता के दोजख में डाल देने की उम्मीद करना मासूमियत ही है। देश की फिजां ही बदली हुई है। जलवों की लूट है। जश्नों की धूम है। कमाने-धमाने-खर्चने की छूट है। उदारीकरण में जीवन ही जीवन है। मरण तो उसके बाहर है। ऐसे में उल्टी गंगा बहाना अकारथ ही जाएगा। चील से मांस की रखवाली और घोड़े से घास से यारी की गुजारिश बेजा है। हफीज जलंधरी की ‘अभी तो मैं जवान हूंज् नज्म याद आती है- ‘सुनो जरा शेखजी/अजीब शै हैं आप भी/ हवाएं इत्रबेश हों/ अदाएं फित्नाखेज हों / तो जोश क्यों न तेज हो/सुगंध ही सुगंध और बाजारू मारक अदाएं! मोह मन मोहे, लोभ ललचाये इसमें नाजायज क्या!
कोई भी चीज, फिर चाहे वह सादगी हो या संयम, संकल्प के बिना बेमानी हैं। और जब तक कोई विचार, उद्देश्य और लक्ष्य न हो, तब तक संकल्प काहे का? बात सन् 1930 की है। मेरे पिता सोलह के होंगे। दुर्गावती की समाधि पर संकल्प लिया। खादी पहनेंगे। आंदोलन में शामिल होंगे। घर में घोर गरीबी। घरवालों की चाहत, कि नौकरी करें। तब आंदोलन के साथ पढ़ाई और पढ़ाई के लिए ट्यूशन करने लगे। 32-33 में खादी की कीमत दोगुनी हो गयी। क्या करें। बापू को चिट्ठी लिखी। अपना हाल बताया। पूछा, संकल्प कैसे पूरा हो? गांधीजी का जवाब आया। ‘डियर गणेश प्रसाद, ‘वेयर देयर इज ए विल, देयर इज ए वे। कट शॉर्ट युअर एक्सपेंसेज। खर, पिता ने आजीवन संकल्प साधा। लेकिन बात गांधीजी की है। उनका एक उद्देश्य था। और खादी उसका एक औजार। इसीलिए एक गरीब छात्र को भी वे सलाह देते हुए निर्मोही थे। अब सोनियाजी ने खुद इकोनॉमी क्लास में यात्रा कर एक संदेश देने की कोशिश की। राहुल और उनकी मजबूरी है सुरक्षा। लेकिन संदेश कौन ले? उल्टे शाही खर्चो और शौक के दफ्तरों की खबरें खुलने लगीं। अगर सादगी योजना है तो उसे वैसे ही लागू होना चाहिए। लेकिन तब फिर सरकारी योजनाओं की तरह सद्गति सादगी को मिलनी ही है।
दरअसल सादगी-संयम सभी सापेक्ष चीजें हैं। आज की सादगी पहले से अलग ही होगी। मुख्य चीज है सार्वजनिक शोभनीयता। उसी में से निकलती या उसके ही बरक्स दिखती है सादगी। और जब आप उसके सामने इसे रखते हैं तो सादगी भी बहुत बड़ी चीज हो जाती है। वह ज्यादा ध्यान, ज्यादा एकाग्रता और प्रयत्न मांगती है। सार्वजनिक शोभनीयता के ख्याल से जो भी असंगत है, हेच-पोच है वहां सादगी, संयम की दरकार है। बोलने-चालने, बर्ताव में। जीवन के सभी अंगों में। समाज-राजनीति-शिक्षा सभी क्षेत्रों में। इनमें जो भी फूहड़ है वहां सादगी की जरूरत है। भाजपा खुद मानती है कि चुनाव में अनाप-शनाप बोलना महंगा पड़ा। पता नहीं वह और उसके परिवारी कब समङोंगे कि हुसैन के साथ सलूक भी उनका बेजा और फूहड़ है। फिर एक अदद अनुपात और संतुलन भी चाहिए। ताजा मिसाल महाराष्ट्र के होने वाले चुनाव की है। कांग्रेस हो या भाजपा सभी के नेता पुत्र-पुत्रियों के लिए टिकटार्थी हैं। राष्ट्रपति के पुत्र भी। सोचिए सार्वजनिक शोभा के लिए यह सब कितना भदेस और त्रासद है। कांग्रेस की सरकार है इसलिए उसकी भूमिका बड़ी, नेतृत्वकारी है। यह कहना दूर की कौड़ी नहीं है कि महाराष्ट्र और अन्य जगहों का यह परिवारवाद आपकी सादगी के परखचे भी उड़ाता है। राहुल की युवा संगठनों में लोकतंत्र लाने की कोशिश को तो यह मजाक बनाता ही है। चुनाव महत्वपूर्ण है, चयन भी उतना ही और शोभनीयता भी उतनी ही। अफसोस यह है कि कोई भी चीज यहां मुद्दा या बहस नहीं बन पाती। गुजरात के दंगों पर बहस शुरू करो तो 84 की बात छेड़ दी जाती है। उस पर करो तो कोई बात और अधबीच शुरू हो जाती है। सादगी पर भी यही हुआ। फिजूलखर्ची के किस्सों में और दिखावा-छलावा के आरोप में वह धंस गयी। अजब हाल है मंत्री और मीडिया सादगी नहीं समझते। एक मुख्यमंत्री, सरकार-संगठन मजाक नहीं समझते। मुख्य विपक्षी दल कला नहीं समझता। थरूर बच गए पर हुसैन तो यहां के निकाले हुए ही हैं।
मनोहर नायक

Tuesday, September 22, 2009

गंगा- जमुनी तहजीब का कलावा




शेराज अहमद, अनारू, जुबैर, इसरार अहमद और ऐसे ही करीब 100 से भी ज्यादा लोग हर सुबह हिंदू धर्म के सबसे पवित्र धागे को अपनी मेहनत से तैयार करते हैं। यह दिलचस्प है कि जो धागा हिंदू धर्म में सबसे पवित्र व अहम माना जाता है उसे मुस्लिम धर्म के 22 घरों के करीब सौ से भी ज्यादा लोग तैयार करते हैं। जी हां हिंदू धर्म में सबसे पवित्र माने जाने वाले कलावा, कलाई नारा या रक्षा सूत्र को पूरे विश्व में एक ही जगह बनाया जाता है। संगम की पावन धरती प्रयाग (इलाहाबाद) से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर लालगोपाल गंज कस्बा पड़ता है और यही पर स्थित दो गांव अल्हादगंज व खंजानपुर में दिन रात कलावे (रक्षा सूत्र) बनाने का काम किया जाता है। नवरात्रि के समय कलावे की मांग बढ़ जाने पर यहां पर दिन रात कलावे व माता की चुनरी बनाने का काम तेजी से होते देखा जा सकता है। अल्हादपुर गांव के नफीस अहमद बताते हैं कि उनके दादा-परदादा इस काम को करते आ रहे हैं। यह काम पुश्तैनी हो चुका है नफीस अपने बच्चों को भी इस काम में लगा चुके हैं। नफीस ने बताया कि करीब 100 साल से यह काम पूरी दुनिया में सिर्फ इन्हीं दो गावों में किया जाता है। मुस्लिमों में रंगरेज बिरदारी ही इस काम को अंजाम दिया करती है। नफीस के यहां कलावे बनाने का काम प्रत्येक सुबह तीन बजे से शुरू हो जाता है। कच्चा माल भिवंडी से आता है जिसे लाछा या नारा कहा जाता है। यह 40 से 45 रुपए प्रति किलो के हिसाब से मिलता है। इसको घर की महिलाएं धागे के रूप में कई लच्छों में बांटतीं हैं। इसके बाद काम होता है रंगाई का। लाल व पीले रंगों को क्रमश: कांगो लाल व खपाची पीला कहा जाता है जिसे कानपुर से मंगाया जाता है। लच्छों को गर्म रंगीन पानी में डालकर सुखाने के लिए रखा जाता है। और फिर तैयार होता है रक्षासूत्र। रोजा रह रहे अफरोज रंगरेज ने बताया कि हर दिन उसे 40 से 60 किलो लच्छे को रंगना होता है। बीस किलो को एक नग या ताव कहा जाता है। एक ताव को तैयार करने के लिए यहां के लोगों को सत्तर रुपए मिलते हैं। प्रतिदिन 100 से ज्यादा लोग रंगाई के इस काम को करते हैं और तैयार करते हैं 20 से 30 कुंतल कलावा। मार्केट में कलावे की सप्लाई 55 से 60 रुपए प्रति किलो के रेट पर की जाती है। 15 रुपए के इस मुनाफे में 22 घर व सैकड़ों लोग अपनी जीविका चलाते हैं। 19 साल के रहमान कहते हैं कि जिसने जितना काम किया होता है उसे उसकी मजदूरी का पैसा तुरंत मिल जाता है। इसी गांव में आदिल सलाम उर्फ दलाल चुनरी बनाने का काम करते हैं। चुनरी के लिए कच्चा माल अहमदाबाद से लाया जाता है जिसमें नमकी कलर का प्रयोग कर विभिन्न डिजाइन देने के बाद चुनरी तैयार की जाती है। छोटी और बड़ी साइज की चुनरी तैयार करने के बाद इनमें इंटरलाकिंग का काम गांव की महिलाएं घरों में करतीं हैं। 100 चुनरी की इंटरलाकिंग 20 से 25 रुपए के रेट पर की जाती है। रेहाना खातून 70 साल की हैं और सुबह घर के काम काज से खाली होकर दिन भर इसी काम में मशगूल हो जातीं हैं। रेहाना ने बताया कि नवरात्रि और मेले में चुनरी की मांग तेज हो जाती है। रेहाना के शौहर का इंतकाल 20 साल पहले हो गया था और तब से वह अपनी दो बेटियों और तीन बेटों की पढ़ाई का खर्चा इसी से निकाल रही हैं। इस धंधे में मंदी का कोई असर पड़ने के बारे में आदिल उर्फ दलाल ने बताया कि पूरी दुनिया में वास्तविक कलावा लालगोपालगंज में ही बनाया जाता है और इसी कारण भारत ही नहीं बल्कि मलेशिया, नेपाल, ब्रिटेन, अमेरिका, लंदन पाकिस्तान जसे देशों में भी इसकी सप्लाई की जाती है। भारत के सभी प्रसिद्ध मंदिरों में कई महीनों पहले से ही आर्डर देकर थोक के भाव कलावे व चुनरी बनवाई जातीं हैं। मैहर, मुंबा देवी, विंध्याचल, वैष्णो देवी, कालका जी, ज्वाला देवी, बालाजी मंदिर, सिद्धीविनायक जसे तमाम बड़े धार्मिक स्थलों के आर्डर महीनों पहले यहां पर आ चुके हैं। आदिल बताते हैं कि वर्तमान में आदमी कम पड़ जाते हैं लेकिन सप्लाई पूरी नहीं हो पाती है। आज के दिन में अल्हादपुर व खंजान पुर के लोगों के पास इतना काम है कि वह 24 घंटे भी काम करें तो भी डिमांड पूरी नहीं की जा सकती है। प्राइवेट कंपनियों के कलाई नारा बनाने के काम में कूदने पर यहां का रंगरेज समुदाय खासा नाखुश है इनका मानना है कि सरकार को इस काम को बढ़ावा देना चाहिए। सरकार की ओर से एक रुपए की भी मदद न मिलने से गांव वाले खासे नाराज हैं। लेकिन काम इतना ज्यादा है कि किसी को गिला तक करने की फुर्सत नहीं हैं। बिजली समय पर आ जाती है तो चुनरी में डिजाइन व प्रेसिंग का काम समय पर हो जाता है वरना रंगाई व धुलाई के लिए कुएं व हैंडपंप के पानी पर ही आश्रित रहना पड़ता है। गांव की दो मस्जिदों के इर्द-गिर्द रहने वाले इन लोगों की दिनचर्या पांचो वक्त नमाज अदा कर इस धागे में रंग घोलने तक सीमित है। इनके बच्चे इन धागों व चुनरियों को सुखाने के लिए खेतों में ले जाया करते हैं। खेतों में फैले रंगीन धागे व चुनरयिां सुबह के वक्त किसी मनोरम दृश्य से कम नहीं होते हैं। 12 साल के सादिक उर्फ सोनू को इन लाल रंग के धागों से खेलना अच्छा लगता है, उसे नहीं पता कि इन धागों की अहमियत क्या है, वह तो बस इतना जानता है कि उसके अब्बू व भाईजान सुबह तीन बजे से ही इन धागों व चुनरियों को रंगने में व्यस्त थे और अब उसकी जिम्मेदारी है कि जब ये सूख जाएं तो करीने से इनको घर ले जाकर अम्मी को देना है। गांव के ही एक मस्जिद के मौलवी अश्फाक अहमद ने नमाज अदा करने के बाद बातचीत में बताया कि यह एकता का जीता जागता प्रमाण ही है कि हिंदू धर्म के सबसे बुनियादी व अनिवार्य वस्तु से मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा अपनी रोजी रोटी चला रहा है। सरकार को इस छोटे लेकिन महत्वपूर्ण व्यवसाय को व्यवस्थित करने के लिए कुछ मदद करनी चाहिए।
सर्वेश उपाध्याय
चित्र- अभिषेक शुक्ल

Wednesday, September 9, 2009

मंहगाई में प्रेम पत्र

हे मन प्रिये, मैं सच कहता हूं चाहो तो वित्तमंत्री की कसम खिला लो। जब मैंने पत्र लिखना शुरू किया तभी कलम रुक-रुक कर चलने लगी। मैं जान गया कि इसे भी पैसेंजर ट्रेन वाली आदत पड़ गई है। लेकिन कलम की स्याही जवाब दे गई। मध्य रात्रि को घनघोर गर्मी में जूझते हुए जब पड़ोसी से कलम के लिए दरवाजा खटखटाया तो उसे लगा कि यह फिर चाय पत्ती मांगने आ गया। बहुत मनुहार के बाद जब उसे विश्वास हुआ कि मैं वास्तव में कलम पिपासू हूं तो उसने दरवाजा खोला और फिर कलम देकर झट से बंद कर दिया। सच मानो तुम्हे पत्र लिखते समय कलेजा सेंसेक्स की तरह ऊपर नीचे हो रहा है। मेरे हृदय में तुम्हारा जो स्थान है वह निश्चित रूप से सोने के भाव की तरह है जो नीचे होने वाला नहीं है।
यह सत्य है कि हमारे-तुम्हारे बीच पक्ष-विपक्ष की तरह वार्तालाप नहीं हुआ लेकिन प्रेम के राज्य में मुख की अपेक्षा नेत्र अधिक बोलते हैं। आजकल प्रेम राज्य में सूखा है सरकारी घोषणा के बावजूद भी मेरे मन के रेगिस्तान में किसी जलबोर्ड का पानी नहीं आया है। सच कहूं तो जल बोर्ड का पानी घर पर भी नहीं है। इसलिए सूखा दो तरफा है। हां एकाध बार बारिश हुई लेकिन कम्बख्त छत भी सरकारी व्यवस्था की तरह कमजोर निकली और बस भीग गया कागज। बहरहाल तुम चिंता मत करो।
कल कबीर को पढ़ रहा था। प्रेम गली अति सांकरी, यामे दुई न समाय। यह बिल्कुल सच है। प्रेम की गली में मंहगाई और मैं एक साथ नहीं रह सकते। मंहगाई के कारण मेरा प्रवेश लगभग वर्जित है। मन रोटी दाल के भाव देखकर चिहुंक जाता है। प्रणय, परिणय और प्रीत के बीच मंहगाई की घोड़ी दुलत्ती झाड़ रही है। प्रेम का मुहावरा प्रचलित है ‘लव मी एंड लव माई डागज् मतलब, हे प्रिये तुम मुङो चाहो तो मेरे चाहने वालों को भी चाहो। मुङो पता है शायद तुम यह कहो लेकिन, इस मंहगाई में एक ही भारी पड़ रहा है अत: उम्मीद है कि भावनाओं को समझोगी। अब दूसरी कलम भी जवाब दे रही है अत: हे.. पत्र का उत्तर शीघ्र पाने की आकांक्षा के साथ आपका गरीब नाथ।
शीघ्र पत्र आया.. हे गरीब नाथ, मैं आपकी भावनाओं को समझ रही हूं अत: जब आर्थिक मंदी बीत जाए तब ट्राई करना। अभी मेरे पास भी वक्त नहीं है आजकल रोज शॉपिंग में व्यस्त रहती हूं। तुम्हारी..सुखहरणी
अभिनव उपाध्याय

Sunday, August 30, 2009

यह जिन्न है कि ..

बचपन में अलादीन का चिराग से निकला जिन्न कभी-कभी सपने में आ जाता था लेकिन एक बार साध्वी सुगंधा का प्रवचन सुना कि सब गायब। लेकिन जिन्न होता है कि नहीं इस बात की पुष्टि रह-रह कर संदेह पैदा करती है। मान लेते हैं कि नहीं होता है तो बार-बार जिन्ना का जिन्न बोतल से बाहर क्यों आ जाता है। और अगर मान लेते हैं कि होता है तो मुंहमांगी मुराद पूरी क्यों नहीं कर देता। जनाब जिन्न को लेकर मामला आम आदमी के लिए ही क्रिटिकल नहीं है पार्टियों के नेताओं को भी सपने आते हैं। आज का जिन्न बहुत उदार है बिना रगड़े बाहर निकल कर कहता है कि ‘क्या हुक्म है मेरे आका!ज्। जिन्ना का जिन्न तो हमेशा के लिए चिराग से बाहर आकर किताबों में बस गया है। रसातल में जा रही पार्टी को उबारने के लिए अक्सर जिन्ना का जिन्न किताबों से बाहर आता है और दो चार को लपेट कर चला जाता है। लेकिन इससे किसी को खास नुकसान नहीं होता है। मीडिया को मसाला मिल जाता है। बुद्धिजीवी बहस के लिए बुलाए जाते हैं। अखबार वाले भी पन्ने रंगते हैं। पाकिस्तान-भारत नए सिरे से रिश्तों की गरमाहट और ठंडई महसूस करते हैं।
एक विज्ञापन कंपनी ने सहीराम से आइडिया मांगा कि धंधा मंदा है क्या किया जाए? वह बोले, बस कुछ नहीं अपने ग्राहक से कह दो कि वह चिल्लाकर एक बार कह दे कि जिन्ना सेक्युलर नेता था। बाकी काम उसका जिन्न संभाल लेगा।
भाजपा के आडवाणी को जिन्ना प्रेम हुआ कि पार्टी ने कमर कस ली। अब जसवंत सिंह ने अपनी किताबों में जिन्ना को कुछ- कुछ कह दिया। पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। मामला थमने का नाम नहीं ले रहा है। चक्र सुदर्शन की तरह जिन्ना का जिन्न घूम रहा है जो मिला उसे लपेटा, जो छूट गया उसे अगली बार के लिए छोड़ दिया। जिन्न को सुदर्शन ने भी पकड़ लिया और वही बात कह दी जो जिन्ना प्रेमियों ने कही थी। बस मामले ने तूल पकड़ लिया। आश्चर्य की बात यह है कि जिन्न को खुद पता नहीं है कि उसके पास कितनी शक्ति है। वह तो बस ऐसे ही लोगों को छूता है कि असर दिखने लगता है। यह असर अगर चुनाव में दिखा तो चारों तरफ जिन्न ही जिन्न की चर्चा होने लगेगी। बाकी मुद्दों को भूत पकड़ लेगा और शायद पार्टयां दाल-रोटी का भाव भी भूल जाएं।
अभिनव उपाध्याय

Saturday, August 29, 2009

अभी तो मैं जवान हूँ


सुप्रसिद्ध कथाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव 28 अगस्त को 80 वर्ष के हो गए । इस उम्र में भी वे वैसे ही जुझारू, बौद्धिक रूप से सजक और रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं जिसके लिए उन्हे शुरू से ही जाना जाता है। भारतीय वंचित समाजों के लिए भूमिका ऐतिहासिक महत्व की है। बहस तलब हर मुद्दे-प्रसंग पर राजेन्द्र यादव एक नई दृष्टि लेकर आए हैं। नयापन उनकी विशिष्टता है जिसके कारण वे हिन्दी जगत की चेतना पर हमेशा अपना दबदबा बनाए रखते हैं। इस उम्र में भी उनकी सक्रियता के पीछे उनका नयापन है। वे खुद कहते हैं कि नयापन का अर्थ है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। सालगिरह के अवसर पर मशहूर कथाकार, विचारक और ‘हंसज् के संपादक राजेन्द्र यादव से पंकज चौधरी की बातचीत


प्रश्न 1-मशहूर कथाकार संजीव ने अपने एक इंटरव्यू में आपको ‘बांका जवानज् कहा था। आपकी सक्रियता, गतिशीलता और लड़ाकू तेवर को देखते हुए अभी भी संजीव की बात आपके ऊपर सटिक बैठती है। हालांकि अब आप अस्सी पार के हो गए हैं। इस उम्र में आकर मेरा ख्याल है कि एकाध अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के अमूमन मूर्धन्य भसिया जाते हैं?

-मैं मानता हूं कि आदमी उम्र से वृद्ध नहीं होता। उम्र शरीर की होती है, मन की नहीं। जब तक आपको संसार की सुंदरता आकर्षित करती है तब तक उम्र आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं अभी भी भीतर से अपने-आपको युवा ही महसूस करता हूं। उम्र का अर्थ होता है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। इस अर्थ में मैं भविष्यवादी हूं और जो मैं नहीं हूं उसे युवा मित्रों की आंखों में देखकर प्रेरणा पाता हूं। कुछ अतीतजीवी लोग बीस-पच्चीस वर्षो में ही बूढ़े होने लगते हैं। जो यथास्थिति को तोड़ नहीं सकता वह किस बात का युवा है। युवा होने का मतलब है कि मूल मान्यताओं, परंपराओं या विश्वासों को मानने से इनकार करना। हमारे बाप-दादा जहां खड़े थे अगर हम भी वहीं खड़े रहें तो फिर मैं समझता हूं कि हमारा जन्म लेना ही व्यर्थ है।

प्रश्न 2-उम्र के इस मोड़ पर आकर क्या कभी आपको ऐसा लगा कि जीवन अकारथ गया, व्यर्थ गया। आप फलां किताब लिखना चाहते थे, लिख नहीं पाए। कुछ और बड़े कामों को अंजाम देना चाहते थे, दे नहीं पाए। आपने कहीं लिखा है कि यदि आपका पैर सही होता तो आप लेखक की जगह पालिटिशियन होते?

-जितने भी असंतोष हैं सब युवा होने के प्रमाण हैं। मुङो वही सब करना है जो अभी तक मैं नहीं कर पाया। यहां मैं यह बात तुम्हें बता दूं कि पैर का टूटना मेरे लिए कभी भी बाधा नहीं बना। मैं पूरे भारतवर्ष और विदेशों में घूमा हूं। पहाड़ों से लेकर कन्याकुमारी तक। जीवन में कहीं भी ये भावना आड़े नहीं आई कि मुझमें कोई कमी भी है। हां, इसका एक फायदा यह हुआ कि मेरा ध्यान अध्ययन की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। अभी तक लगभग मेरी 60 किताबें छप चुकी हैं और आठ-दस छपने की तैयारी में हैं। फिर भी मुङो लगता है कि अभी तक मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा जो मेरा अपना हो।

प्रश्न 3- स्त्री विमर्श के आप बड़े पैरोकार हैं। यूपीए-2 का जब गठन हुआ तो कांग्रेस ने तीन महीने के अंदर महिला आरक्षण विधेयक पर मुहर लगाने की बात की। पेंच इसमें यह है कि इस आरक्षण का दलित और पिछड़ी जातियों के नेताओं ने विरोध करना शुरू कर दिया है। माननीय शरद यादव ने तो यहां तक कह दिया कि अगर यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरूप में पास होता है तो मैं सुकरात की तरह जहर खा लूंगा। इनका तर्क है कि राजनीति में दलित और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को कम करने के लिए ‘महिला आरक्षणज् जसा षड्यंत्र रचा गया है। दूसरी ओर इनका कहना है कि हां, ‘आरक्षण के अंदर अगर आरक्षणज् हो तो इस विधेयक को पारित करने पर विचार किया जा सकता है। मेरा ख्याल है कि ‘आरक्षण के अंदर आरक्षणज् का जो तर्क है उसमें दम है, क्योंकि मायावती जसी पावरफुल दलित महिला के लिए भी रीता बहुगुना जोशी जसी महिला दिन-दहाड़े अपशब्दों का इस्तेमाल कर देती हैं?

- ये सारी की सारी राजनीति की बातें हैं जो समय और सुविधा को देखकर की जाती हैं। इन्हें गंभीरता से लेनी भी चाहिए और नहीं भी लेनी चाहिए। सही है कि महिला विधेयक अगर पास हुआ तो ऊंचे, प्रभावशाली और सम्पन्न महिलाएं ही विधायिका में छा जाएंगी। इस विधेयक में ऐसा प्रावधान जरूर होना चाहिए कि पिछड़ी और दलित जातियों की महिलाओं को सामने आने का अवसर मिले। अवसर मिलेगा तो मैं समझता हूं कि वे योग्यता भी अर्जित कर लेंगी। सारा खेल अवसरों का है। योग्यता तो बाद की चीज है। अभी तो यह भारत भी सन् 47 में दी गई उस स्वतंत्रता जसा ही लगता है जब उच्च सवर्ण पुरुषों ने सारे शासन को हथिया लिया और महिलाएं और दलित लम्बे वक्त तक इस भ्रम में बने रहे कि यह स्वतंत्रता उन्हें भी मिली है। भ्रम भंग की प्रक्रिया में महिला और दलित आंदोलन सामने आए। डा. आम्बेडकर ने तब भी इस स्वतंत्रता का विरोध किया था। आज अगर महिलाएं ऊंचे पदों पर दिखाई देती हैं तो हम इसे पचा नहीं पाते। जहां तक अशालीन शब्दों के प्रयोग की बात है तो क्या हमने कभी संसद और विधानसभाओं में उन दृश्यों की समीक्षा की है जहां एक-दूसरे को भयंकर गालियां दी जाती हैं। कुर्सियां फेंकी जाती हैं और बाहर निकलकर समझ लेने की धमकियां दी जाती हैं। सही है कि रीता बहुगुना जोशी को ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। मगर जब पूरे राजनीति के कुएं में ही भांग पड़ी हो तो अकेले इन्हें ही दोष देना क्यों जरूरी है।

प्रश्न 4-‘हंसज् ने एक लम्बे अरसे तक हिन्दी पट्टी में वैचारिक उत्तेजना पैदा करते रहने का काम किया। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और उत्तर आधुनिकता जसे विमर्शो को हिन्दी में पैदा करने का श्रेय ‘हंसज् को जाता है। आपके लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लेखों ने हमारे जसे युवा लेखकों का निर्माण किया है। ‘हंसज् जब अपने शिखर पर था तो ज्ञानरंजन का वह कथन मुङो याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि राजेन्द्र यादव ने सारे सरस्वतियों को ‘हंसज् में बिठा रखा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ‘हंसज् का वो ‘तेजज् पता नहीं कहां गुम हो गया है। अब तो मैं इसे 1-5 में भी नहीं रखता?

- जितनी बातें तुमने ‘हंसज् के बारे में बताई हैं इस संदर्भ में मेरा कुछ भी कहना इसलिए गलत है क्योंकि हंस की उपलब्धियों की चर्चा करना पाठकों का काम है मेरा नहीं। कुछ पाठक तो यह भी कहते हैं कि ‘हंसज् ने जिस तरह की जागरूकता पाठकों में फैलाई है वैसी जागरूकता न कभी किसी पत्रिका ने फैलाई थी और न ही स्वतंत्रता के बाद के किसी भी आंदोलन ने। मगर मैं मानता हूं कि ये सब हिम्मत बढ़ाने की बातें हैं। मुझसे जो बन पड़ा वो मैंने अपने मित्रों की मदद से ही की। हां, ये सही है कि आप हमेशा एक आवेग, गुस्से और उत्तेजना में नहीं बने रहते। ठहराव भी आता है। हो सकता है ‘हंसज् में इधर कोई ठहराव आया हो, मगर शायद हम भारतीयों की आदत है कि जो कुछ पहले हो चुका है वही महान है। जो मिठाइयां और चाट हमने अपने बचपन में खाए थे वैसी आज कहीं नहीं मिलती। जबकि स्थिति यह है कि दोनों पकवानों की कलाओं और स्वाद में बहुत संपन्नता आई है। ‘हंसज् को लेकर तुम्हारी बातों में भी यही है। और यहां तुम्हारा पुराण मोह दिखाई देता है।


प्रश्न 5- ‘हंसज् के सलाना कार्यक्रम में हाल ही में डा. नामवर सिंह ने जिस तरह से दलित लेखक अजय नावरिया के लिए ‘लौंडाज् शब्द का इस्तेमाल किया है, उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम होगी। क्योंकि बिहार और उत्तर प्रदेश में ‘लौंडाज् शब्द के क्या मायने हैं इसको नामवर सिंह से बेहतर कौन जानता होगा। लेकिन यह भी तो सच है कि आप अजय नावरिया को जरूरत से ज्यादा प्रमोट करते रहते हैं। आपके इसी प्रमोशन के कारण बहुत सारे दलित लेखक भी आपके खिलाफ हो गए हैं?

-इसका जवाब मैं ‘हंसज् के अगस्त अंक में दे चुका हूं। वैसे दिल्ली और आगरा की मुसलमानी संस्कृति में ‘लौंडाज् शब्द प्यार में इस्तेमाल किया जाता है। ‘यह आप का लौंडा है।ज् बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो यह शब्द ‘लमड़ाज् हो जाता है। खर! हिन्दी का तीसरा शब्द ‘चेष्टाज् मराठी में अश्लील प्रयत्नों के लिए इस्तेमाल होता है, जिस तरह हिन्दी के ‘बालज् और बांग्ला के ‘बालज् में जमीन आसमान का अंतर है। इसलिए इतना ही नहीं नामवरजी की बाकी बातों को भी गंभीरता से लेने की क्या जरूरत है। वे कहते चाहे जो हों लेकिन वे मूलत: स्त्री, दलित या युवा विमर्श को बहुत समर्थन नहीं देते। ये उनका पुराना रवैया है। उस दिन वे राहुल गांधी की युवा राजनीति को भी साहित्य के आगे चराते रहे।


प्रश्न 6- हिन्दी में दलित विमर्श को शुरू हुए 20 वर्षो से अधिक हो गए हैं। इन वर्षो के दरम्यान एक-से-एक ब्रिलिएंट दलित चिंतक पैदा हुए हैं। मसलन डा. धर्मवीर, कंवल भारती, तुलसीराम, चंद्रभान प्रसाद। इस क्रम में मैं राजेन्द्र यादव और मुद्राराक्षस का भी नाम लेना चाहूंगा। हालांकि आप और मुद्राराक्षस दलित नहीं हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि जिस दलित विमर्श ने एक-से-एक धुरंधर रैडिकल विचारक पैदा किए हों और जिनके विचारों की प्रखरता ने हजार वर्षो के सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य पर सवाल खड़े कर दिए हों, वहां कायदे का एक भी कविता संग्रह, कहानी संग्रह या उपन्यास देखने को क्यों नहीं मिलता? क्या मैं यह मानकर चलूं कि अभी हिन्दी का दलित विमर्श कुछ अच्छी आत्मकथाओं को यदि छोड़ दिया जाए तो रचनात्मक साहित्य की पीठिका ही तैयार कर रहा है?

- हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो। मगर मुङो ऐसा लगता है कि जिस साहित्य में विचार, विवेचना और विश्लेषण का वर्चस्व होता है वहां रचनात्मक साहित्य प्राय: कमजोर हो जाता है या सिर्फ फार्मूलाबद्ध होकर के ही रह जाता है। मार्क्‍सवादी वैचारिकता को लेकर जो साहित्य रचा गया है उसमें भी बहुत कुछ ऐसा ही है। और यह हमें याद भी नहीं रहता या इसे हम याद भी रखने लायक नहीं समझते। वैसे भी हिन्दी में दलित चेतना राजनीतिक आंदोलनों के बाद आई है। जबकि मराठी में फुले से लेकर अब तक दलित जागरूकता ने ही वहां के रचनाकार और विचारक पैदा किए। चूंकि दलितों और स्त्रियों के पास अपना कोई इतिहास नहीं होता और वहां सिर्फ मालिकों के शासन में रहने वाले स्वामीभक्तों का इतिहास होता है। इसलिए दलित और स्त्रियां अपने आपसे ही इतिहास का प्रारंभ मानती हैं और यह सही भी है। स्वाभाविक है कि ऐसी मानसिकता में आत्मकथाएं ही आएंगी जो वर्तमान से लेकर भविष्य की ओर जाती हुई दिखाई देंगी। वर्तमान से अतीत की ओर तो सिर्फ यातना, प्रताड़ना और शोषण का लंबा इतिहास है इसलिए मैंने पहले भी कई बार कहा है कि हमारे साहित्य का मूलमंत्र ‘सत्यम, शिवम, सुंदरमज् का कुलीनतावादी दृष्टिकोण नहीं हो सकता, बल्कि यातना, संघर्ष और स्वप्न का जुझारू सिद्धांत है।


प्रश्न 7- संजीव और उदय प्रकाश हमारे दौर के दो विशिष्ट कथाकार हैं। संजीव एक ओर जहां, चालू शब्दों में कहें कि प्रेमचंद की परंपरा को लगातार विकसित और समृद्ध करते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उदय प्रकाश साहित्य की दुनिया में जहां कुछ भी नया हो रहा है, उसका प्रयोग बहुत ही खूबसूरती से अपनी कहानियों में करते दीख रहे हैं। कहानी की सेहत के ख्याल से इसीलिए दोनों का महत्व है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उदय प्रकाश के नाम को जिस तरह से उछाला जा रहा है और संजीव के नाम को भुलाने का प्रयास दिख रहा है, उसके पीछे आप क्या देखते हैं?

-संजीव शुद्ध भारतीय गांवों और कस्बों की संघर्ष चेतना के कथाकार हैं। उनके पास जो जानकारियां, शोध और कलात्मक संतुलन हैं वे शायद ही हिन्दी के किसी लेखक के पास हों। निश्चय ही उनकी रचनाओं में प्रेमचंद से ज्यादा विविधता ही नहीं बल्कि अनेक तरह के पात्रों की विशेषताएं भी हैं। उदय प्रकाश देशी-विदेशी रचनाकारों के गंभीर पाठक रहे हैं। उनके पास एक चमकदार और विचारगर्भी भाषा है और वे अपनी भाषा से खेलना जानते हैं। इसी के बल पर वे लम्बे-लम्बे विवरणों और नाटकीयता से पाठकों को बांधे रखते हैं। उन्होंने बहुत कम कहानियां लिखी हैं लेकिन वे निश्चय ही बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हिन्दी के ये दोनों कथाकार अपने-अपने क्षेत्र में विलक्षण हैं। पाठकों का दृष्टिकोण इनके प्रति वही है जो बड़े और छोटे शहरों के समाजकर्मियों की होती है। एक मीडिया के केन्द्र में होता है और दूसरा सिर्फ स्थानीय हो सकता है, जो स्थानीय है वह ज्यादा मूलगामी कार्य कर रहा है।

प्रश्न 8- हिन्दी अकादमी के विवाद का पटाक्षेप हो गया है। अशोक चक्रधर उपाध्यक्ष के रूप में अकादमी के कार्यो को अंजाम दे रहे हैं। आप लोगों का ‘चक्रधर मिशनज् फेल हो चुका है। अशोक चक्रधर के पीछे आपलोग लट्ठ लेकर इसलिए पड़ गए क्योंकि वे एक मंचीय और हास्य कवि हैं। हिन्दी साहित्य में अभी भी हास्य और लोकप्रियता को इस तरह से देखा जाता है जसे ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत।ज् मेरा मानना है कि जीवन में और प्रकृति में जिस तरह की डायवर्सिटी है, मतलब जीवन में यदि गंभीरता है तो हास्य भी है। दुख है तो सुख भी है, घृणा है तो प्रेम भी है। मतलब जीवन और प्रकृति में एकरसता नहीं है। तो फिर साहित्य में यह डायवर्सिटी क्यों नहीं होनी चाहिए?

- शब्दों के ये विलोम हमें कहीं नहीं ले जाते। व्यक्तिगत रूप से अशोक चक्रधर को मैं आज भी बहुत प्यार करता हूं और मानता हूं कि उन्होंने कविता के मंच को जो सम्मान वापस दिलाया है उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। ज्यादातर कवि जो राजू श्रीवास्तव के प्रतिलोम दिखाई देते हैं। मगर मैं अपने बेटे को चाहे जितना प्यार करता होऊं और उसकी योग्यता से खुद भी आतंकित होऊं लेकिन मैं उसे शायद युद्ध के किसी मोर्चे का इंचार्ज बनाने से पहले कई बार सोचूं। पिछला अध्यक्ष तो लगभग निष्क्रिय ही था। मगर अशोक एक एजेंट के तौर पर लाए गए हैं। उनका समर्थन करने वालों के नाम अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि या तो सब भाजपा से जुड़े रहे हैं या लगभग ढुलमुल किस्म के रचनाकार हैं। पुरानी कार्यकारिणी के लगभग सारे महत्वपूर्ण सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिए हैं। अब अशोक अपने मत के उन्हीं लोगों को कार्यकारिणी में लाएंगे जो उनकी योजनाओं को कार्यरूप दे सकें। इस प्रक्रिया में सबसे अधिक खेदजनक कृष्ण बलदेव वैद को बदनाम करना है। भाजपा के एक कार्यकर्ता ने तो बाकायदा वैद की रचनाओं को अश्लील रेखांकित कर दिया है। मुङो नहीं लगता कि कृष्ण बलदेव जसी भाषा, शब्दों पर उनका अधिकार और खिलंदड़ी शैली किसी और लेखक के पास है। उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टियों के साथ अपने पात्रों की मानसिकताओं को पकड़ने की कोशिश की है। अगर तथाकथित अश्लीलता और पोर्नोग्राफी के आधार पर ही साहित्य का मूल्यांकन करना हो तो कालिदास का तुसंहार, जयदेव के रति वर्णन या रीतिकाल को कूड़े में डाल देना चाहिए। चलिए कृष्ण बलदेव वैद न सही, लेकिन केदारनाथ सिंह और रमणिका गुप्ता को तो इस सम्मान का मैं सबसे बड़ा अधिकारी मानता हूं। केदारनाथ सिंह के बारे में कुछ कहना जरूरी नहीं है, मगर जिस लगन और समर्थन से रमणिका गुप्ता ने पूर्वोत्तर प्रांतों के आदिवासियों पर काम किया है वह अभी तक किसी ने नहीं किया है। स्त्री और दलितों का एजेंडा तो है ही लेकिन आदिवासियों पर किया गया उनका यह काम बड़े से बड़े सम्मान का अधिकारी है।

Wednesday, August 26, 2009

एक माया मिस्र की

मधुकर उपाध्याय
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपनी मूर्तियों के कारण सुर्खियों और विवाद में हैं। अमरत्व की कामना, इतिहास में गुम न हो जाने की आशंका और इसलिए अपने को समाज पर थोपने की कोशिश कम ही कामयाब होती है। मिस्र की महिला बादशाह हातशेपसत की कहानी भी कुछ यही बताती है। उसे भी यही खौफ था कि इतिहास कहीं मुङो भुला न दे। उसने भी मूर्तियां बनवाईं। 1458 ईसा पूर्व हातशेपसत की मृत्यु हुई तब शासक बने उनके सौतेले बेटे ने अपनी मां के सारे स्मारक नष्ट करने का आदेश दिया। शाही मैदान से उसकी ममी भी हटवा दी। फिर हातशेपसत का नाम जिंदा है। तो क्या इतिहास को मिटा देने की कोशिश में समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की तरह ही नाकाम रहती है।
कई बार ऐसा लगता है कि कुछ चीजें पहली बार हो रही हैं और ऐसी चीजों के लिए ‘इतिहास अपने को दोहराता हैज् एक बेमानी कथन है। दरअसल, इसकी असली वजह शायद यह है कि इतिहास की हमारी समझ और पीछे जाकर चीजें टटोलने की क्षमता सीमित है। जसे ही इतिहास का कोई नया पन्ना खुलता है, पता चलता है कि आज जो हो रहा है, वह कोई नई बात नहीं है। दुनिया ऐसे लोग और उनकी बेमिसाल सनक पहले भी देख चुकी है।
दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक मिस्र की सभ्यता है, जिसका लिखित इतिहास सवा पांच हजार साल पुराना है। उसके प्राचीनतम साक्ष्य तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व से पहले के हैं। उसकी वंश परंपरा पांच हजार साल पहले शुरू होती है और लगातार तीन हजार साल तक चलती है। इसी परंपरा में बीस वर्ष का एक ऐसा कालखंड आता है, जिसमें मिस्र की बादशाहत एक महिला के हाथ में थी। सामाजिक स्थितियों और परंपराओं में महिला शासक की स्वीकार्यता नहीं थी। इसलिए उस ‘महिला बादशाह-हातशेपसतज् को तकरीबन पूरा कार्यकाल पुरुष बनकर पूरा करना पड़ा। इस घटना का उल्लेख दस्तावेजों में है कि उसे ‘शी किंगज् कहा जाता था। हातशेपसत का कार्यकाल असाधारण उपलब्धियों वाला था। वह एक कुशल शासक थी। नई इमारतें तामीर कराने में उसकी दिलचस्पी थी। राजकाज से आम लोगों को कोई शिकायत नहीं थी। बल्कि उसके बीस साल के कार्यकाल को मिस्र के स्वर्णिम युग की तरह याद किया जाता है। हातशेपसत का कार्यकाल 1479 से 1458 ईसा पूर्व में था। एक अध्ययन के अनुसार, हातशेपसत की मां अहमोज एक राजा की पुत्री थी। उसके पिता टुटमोज प्रथम सही मायनों में राजशाही खानदान के नहीं थे। इसकी वजह से हातशेपसत को थोड़ी सामाजिक स्वीकार्यता मिली, जिसका फायदा उठाकर उसने अपने पति के निधन के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया। हालांकि टुटमोज प्रथम ने अपने सौतेले बेटे को गद्दी सौंपी थी लेकिन वह कभी सत्ता में रह नहीं पाया।
पूरा इतिहास कुछ इस तरह गडमड था कि हातशेपसत की मौजूदगी और बेहतरीन सत्ता संचालन के बावजूद उसे स्थापित करने के ठोस प्रमाण नहीं मिल रहे थे। कुछ अमेरिकी और मिस्री विद्वानों को अचानक एक दिन एक खुली कब्र मिली, जिसके बाहर एक ममी पड़ी थी। यह अनुमान लगाना किसी के लिए भी असंभव होता कि मिस्र के शासक रह चुके किसी व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार हो सकता है कि उसकी ममी खुले में पड़ी हो। यह बात सौ साल पुरानी है। करीब 75 साल पहले एक और मिस्री विद्वान को उस ममी के पास सोने के गहने मिले। इससे उसे संदेह हुआ कि यह ममी किसी साधारण व्यक्ति की नहीं हो सकती। पूरी चिकित्सकीय प्रक्रिया के बावजूद ममी का काफी हिस्सा नष्ट हो गया था और ले-देकर एक दांत सही सलामत मिला। उसी दांत के सहारे हातशेपसत की पहचान हुई और फिर उस ममी को सम्मानपूर्वक स्थापित किया गया।

हातशेपसत का शासन दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहले हिस्से में करीब छह वर्ष तक वह टुटमोज द्वितीय के बेटे के उत्तराधिकारी के रूप में शासन करती रही। सारे फैसले उसके होते थे लेकिन नाम उस नाबालिग बच्चे का रहता था। छह साल बाद हातशेपसत ने नाबालिग टुटमोज तृतीय को बेदखल कर दिया और खुद सत्ता संभाल ली। इसके बावजूद महिला के रूप में समाज के सामने जाने का साहस हातशेपसत नहीं जुटा सकी और हमेशा पुरुषों के कपड़े पहनती रही। इतना ही नहीं, उस समय की तमाम प्रतिमाओं में भी उसे पुरुष की तरह चित्रित किया गया।
शक्तिशाली फरोहा होने के बावजूद समाज द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के डर की वजह से हातशेपसत में एक तरह का जटिल व्यक्तित्व विकसित हुआ। उसे यह डर हमेशा लगा रहता था कि ताकतवर पुरुष प्रधान मिस्री समाज उसे खारिज कर देगा। उसका योगदान भुला देगा और उसका अस्तित्व इतिहास से मिटा दिया जाएगा। साढ़े तीन हजार साल पुरानी इस इतिहास-कथा ने हातशेपसत के इसी डर और चिंता के कारण एक नया मोड़ लिया। उसने तय कर लिया कि आगे का पूरा शासन वह एक पुरुष फरोहा की तरह चलाएगी और एक अभियान चलाकर समाज में अपनी छवि एक पुरुष की तरह स्थापित करेगी। उसकी बाद की प्रतिमाओं में उसके महिला होने के संकेत तक नहीं मिलते बल्कि चेहरे पर दाढ़ी भी दिखती है। ऐसे कई दस्तावेज मिलते हैं, जिसमें हातशेपसत ने कहा कि वह शासन करने के लिए भेजी गई ईश्वरीय देन है। इसी दौरान उसने यह फैसला लिया कि पूरे साम्राज्य में उसकी विराट प्रतिमाएं लगाई जाएंगी, ताकि किसी को उसके फरोहा होने पर संदेह न रह जाए। मिस्र के छोटे से छोटे इलाके तक संदेश भेजे गए कि हातशेपसत बादशाह है और कोई उसे चुनौती देने की कोशिश न करे। इसी के साथ उसने एक शब्द गढ़ा, जिसे ‘रेख्तज् कहते थे और इसका अर्थ था-आम लोग। मिस्र की जनता को हातशेपसत प्राय: ‘मेरे रेख्तज् कहती थी और हर फैसला यह कहकर करती थी कि रेख्त की राय यही है। लोकप्रियता हासिल करने की सारी सीमाएं हातशेपसत ने तोड़ दीं। हातशेपसत ने लगभग बीस साल के अपने शासन के दौरान हमेशा यह ख्याल रखा कि उसके किसी फैसले पर नील नदी के दोनों ओर बसे रेख्त की राय क्या होगी। एक दस्तावेज में उसने यहां तक लिखा कि अगर रेख्त की मर्जी नहीं होगी तो मेरा दिल धड़कना बंद कर देगा।
हातशेपसत की मृत्यु 1458 ईसा पूर्व में हुई, जिसके बाद उसके सौतेले बेटे टुटमोज तृतीय ने उन्नीसवें फरोहा के रूप में सत्ता संभाली। अपनी सौतेली मां की तरह टुटमोज तृतीय को भी स्मारक बनाने का शौक था। मुर्गी को भोजन की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा उसी ने शुरू की और उन्नीस साल के शासन में सत्रह सैनिक अभियान चलाए और कामयाब रहा। अपने शासनकाल के अंतिम दौर में उसने अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट होकर आराम से रहने की जगह एक अजीबोगरीब फैसला किया। यह फैसला था-अपनी सौतेली मां हातशेपसत द्वारा निर्मित सारे स्मारक और उसकी सारी प्रतिमाएं नष्ट कर देने का ताकि इतिहास में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। टुटमोज तृतीय अपने इस अभियान में भी सफल रहा और अपनी सौतेली मां को उसने साढ़े तीन हजार साल के लिए इतिहास से गायब कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी सौतेली मां की ममी को भी फरोहा के शाही मैदान से हटा दिया। उसे एक ऐसी जगह ले जाकर रखा, जहां किसी को संदेह ही न हो कि वह हातशेपसत हो सकती है।
निश्चित तौर पर अमरत्व की कामना, इतिहास में खो जाने के डर और समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की कोशिश में किए गए प्रयास कभी पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकते। लेकिन साथ ही यह भी लगता है कि इतिहास को नष्ट करने या उसे मिटा देने की कोशिश भी उतनी ही नाकामयाब होती है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...