Friday, December 24, 2010

हिंदी साहित्य में आलोचना एक निष्फल प्रयास है : उदय प्रकाश

साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता वरिष्ठ साहित्यकार उदय प्रकाश से अभिनव उपाध्याय की विशेष बातचीत-

-ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी कहानी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। अब इसके बाद आगे पाठकों के लिए क्या है?

साहित्य अकादमी का यह कदम ऐतिहासिक है। इससे पहले केवल निर्मल वर्मा के कहानी संग्रह को पुरस्कार मिला था। साहित्य में कहानी कभी भी स्वीकृत विधा नहीं रही, लेकिन कहानी बहुत ही महत्वपूर्ण विधा है। मेरा मानना है कि कहानी गद्य में कविता है। प्रेमचंद की रचना ‘गोदान एक महत्वपूर्ण उपन्यास है, लेकिन उनकी कहानियां उससे काफी आगे हैं। चेखव की कहानियों पर कई नाटक हुए हैं। ‘मोहनदासज कहानी को पुरस्कार देना ज्यूरी का साहसिक और महत्वपूर्ण कदम है। अभी हमारी दो कृतियां ‘चीना बाबा और बच्चों के लिए पहली बार एक किताब ‘चकमक आ रही है। इससे पहले बच्चों पर लिखी गई स्पेनिश में एक किताब काफी पसंद की गई थी।

-हिन्दी के अलावा कई और भाषाओं में छपने के कारण आपको एक वैश्विक पहचान मिल रही है, कै सा अनुभव रहा?

किसी भी सफलता के लिए कठिन प्रयास की जरूरत है। यह संघर्षो से हुआ है, इसके पीछे कोई तिकड़म नहीं है। लेखक दलितों से भी दलित और अल्पसंख्यकों से भी अधिक अल्पसंख्यक हैं। वह आरक्षित और उत्पीड़ित हैं। हम सब भुक्तभोगी हैं।किसी भी लेखक की रचना उसका अकेला प्रयास है। इसी प्रयास से अभी तीन और करार करने का प्रस्ताव है। अमेजोन पब्लिशर्स से भी एक करार की बात चल रही है।
-हिन्दी के विस्तार या संरक्षण में भूमिका को किस तरह से देखते हैं?

अंग्रेजी में दो शब्दावलियां है, डेमोगोगी और पेडागोगी। एक राजनीतिक शब्दावली है और दूसरे का प्रयोग शिक्षाशास्त्र के लिए इस्तेमाल किया जाता है। दोनों में हिन्दी की व्यस्तता झूठ के लिए इस्तेमाल की जाती है। हिन्दी का प्रयोग लोग अपने निजी जीवन में कम से कम करते हैं। यह जरूरत के लिए निर्मित की गई भाषा है। राजनीतिक आंदोलन और एकीकरण के लिए इसकी आवश्यकता थी। राष्ट्रवाद और बाजार हिन्दी में मौजूद रहा है और दोनों मनुष्य विरोधी हैं। लेकिन कुल मिलाकर यह हमारी भाषा है।
-आपकी रचना मोहनदास पर फिल्म भी बनी है, कितने संतुष्ट हैं आप?

मैं स्पष्ट कहना चाहता हूं कि, मैं उससे संतुष्ट नहीं हूं। निर्देशक प्रस्ताव लेकर आए थे और हमने सहमति दी लेकिन यदि पोस्ट मार्डन रूरल फिल्म बनाते तो अच्छा होता। फिल्म में चरित्रों का चयन महत्वपूर्ण होता है लेकिन इसमें न्याय नहीं हो पाया जबकि मेरे जानने वाले बहुत से कलाकार उसमें काम करने के लिए तैयार थे।
-सिनेमा के बारे में आपकी क्या राय है?

सिनेमा हिन्दी साहित्य से आगे है। हिन्दी सिनेमा ने जो विभिन्न वर्गो के किया है, कमाल का है। एक फिल्म बनाने वाले को किसी हाल में एक साहित्यकार या आलोचक से कमतर नहीं आंका जा सकता।
-अंत में, हिन्दी के आलोचकों के बारे में आपकी क्या राय है?

देखिए, मेरा मानना है कि हिन्दी में आलोचना नहीं है। यह महज एक निष्फल प्रयास है। हिन्दी गद्य 19वीं सदी की आधुनिकताओं के बीच संभव हुआ। जार्ज लुकाच ने यूरोपीय साहित्य के गहन अध्ययन के बाद कहा कि औद्योगीकरण में गद्य पैदा होता है। लेकिन हिन्दी में गहन अध्ययन का अभाव है, इसमें एक ‘एडहाकिज्म रहा है।

Thursday, November 11, 2010

गाँधी, स्मृति के झरोखे से

मनोहर नायक

ओबामा से लेकर देश के नामी और छुटभैये मूल्य-निरपेक्ष गांधी भक्तों के इस दौर में बुधवार को तीस जनवरी मार्ग स्थित गांधी स्मृति परिसर में कृष्णदेव मदान के संस्मरण सुनना व एके चेट्टियार का गांधी पर वृत्तचित्र देखना अत्यंत भावात्मक अनुभव था। गांधी की शहादत की यह स्थली वैसे भी महात्मा की यादों को जागृत कर देती है। आज जो अनुभव था वह उसे सजल कर देने वाला था। मदान या चेट्टियार का चालू अर्थ में गांधीवाद से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन एक शब्द और दूसरे के चलचित्र से गांधी के प्रति उनका अनन्य प्रेम न सिर्फ स्पष्ट था, बल्कि हैरत में डालता और रोमांचित भी करता था।
मदान साहब इस समय छयासी बरस के हैं। जब इस जगह पर गांधीजी के सायंकालीन प्रवचनों को रिकॉर्ड करने की जिम्मेदारी उन्हें मिली, 19 सितंबर, 1947 में, तब वे चौबीस बरस के थे और ऑल इंडिया रेडियो में कार्यक्रम अधिकारी थे। रोज यह काम करना उन्होंने खुद चुना। सिर्फ तीन दिन बीच में ऐसे आए जब उन्हें इससे छुट्टी मिली, एक तो जब गांधीजी कुरुक्षेत्र गए और बाद में दो दिन उपवास पर रहे। तीस जनवरी के अभागे दिन भी वे अपने उपकरणों को साधने में व्यस्त थे। सिर्फ आंख उठाकर उस ओर देखा भर था जहां से गांधी रोज प्रार्थना स्थल तक आते थे। गांधी आते दिखे। वे अपनी तैयारी में फिर लग गए। तभी गोली चलने की आवाज आयी। पहली बार उन्होंने ध्यान नहीं दिया। दूसरी और फिर तीसरी! उन्हें अंत:प्रेरणा से वह लगा, जो हो चुका था। सामान सुरक्षित कर दो-चार मिनट में वे वहां थे। आभा-मनु के कंधों पर हाथ रखे जिस गांधी को आते देखा था, वे निष्प्राण पड़े थे।

कृष्णदेवजी ने वहां उपस्थित लोगों को गांधी में तल्लीन कर दिया। वे अत्यंत सधी वाणी और आत्मीय भाव से उस युगपुरुष को याद कर रहे थे, जिनके बिल्कुल पास बैठकर वे कई महीने रिकॉर्डिग करते रहे। वे माइक लेकर उन जगहों तक गए और सब कुछ चित्रवत बताते रहे। उन्हें आज तक पता नहीं कि वह कौन व्यक्ति था जो गांधी की पार्थिव देह को अकेले कमरे तक उठाकर ले गया। उनका अंदाज था वे बापू के प्राकृतिक चिकित्सक दिनशा मेहता थे। पर बाद में दिनशा मेहता ने बताया कि उन्हें तो बापू ने कराची भेजा हुआ था। मदानजी के दिल को जो बात उस रोज छू गयी, वह थी किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा उस जगह, जहां गांधी गिरे थे, एक छोटी मोमबत्ती जला देना, जो उस अंधकार में कंपकंपाती जलती रही।
मदान साहब ने कहा, ‘उस वक्त आज के जसा सूचना-संचार नहीं था। हादसा शाम 5.17 पर (मदानजी के अनुसार उनकी घड़ी 5.16 बजा रही थी।) हुआ। सबसे पहले माउंटबेटन आए, फिर नेहरू, फिर आजाद और फिर कुछ ही देर पहले बापू से मिलकर गए पटेल आए। और कुछ ही मिनटों में बड़ी तादाद में लोग आने शुरू हो गए। हर मिनट वे बढ़ते जा रहे थे। फिर नेहरू भीगी आंखों से कमरे से निकले। मुख्यद्वार पर आकर अपने को स्थिर किया और फिर ‘हमारे जीवन से प्रकाश चला गयाज् वाला अपना प्रसिद्ध भाषण दिया। मदान साहब ने नेहरू को ‘कवि बताते हुए वह श्रद्धांजलि फिर पढ़ी और कहा नेहरू सुबक रहे थे, पर बहते आंसुओं को वे बहने दे रहे थे।
गांधीजी का प्रवचन आधे घंटे से एकाध मिनट ज्यादा हो जाता था। साढ़े सात बजे उसका प्रसारण आठ बजे के समाचारों से ठीक पहले होता था। टेलीफोन के जरिये गांधी की वाणी आकाशवाणी के कंट्रोल रूप पहुंचती और वहां उसे रिकॉर्ड किया जाता। एक-दो मिनट का भाषण संपादित करना पड़ता। एक दिन हिम्मत कर उन्होंने सुशीला नैयर से कहा कि बापू से उनतीस मिनट बोलने को कहिए जिससे संपादित न करना पड़े। यह सुनते ही वे बिफर गयीं, बोलीं-‘तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई उसे एडिट करने की। तुम्हें तो नौकरी से निकाल देना चाहिए। उन्होंने डायरेक्टर जनरल की भी यही मंशा बतायी तो गांधीजी की बेहद करीब रहीं सुशीलाजी ने कहा कि उन्हें भी निकाल देना चाहिए। तब एक दिन मदानजी ने बापू से ही यह कहने का साहस किया, यह मानते हुए कि वे कम से कम निकालने की बात तो नहीं करेंगे। गांधीजी ने उनकी इल्तिजा सुनी और कहा, ‘इसमें क्या है, तुम अंगुली उठा दिया करना। उन्हें रोज अपना काम करते देख वे उन्हें पहचानने लगे थे। मदान साहब ने कहा, उस दिन से बस उनतीस मिनट होते ही मैं अंगुली उठा देता। गांधीजी वाक्य भी पूरा नहीं करते और कहते बस हो गया। उस दिन के बाद से जो भी उनके भाषण हैं वे इसी बात पर खत्म होते थे-‘बस हो गया।

कृष्णदेवजी ने ऐसे कुछेक संस्मरण सुनाए। प्रवचन के पहले सर्वधर्म प्रार्थना होती थी। किसी को कोई आपत्ति हो तो उससे हाथ उठाने को पहले ही कहा गया था। कुरान के पाठ के समय एक सरदारजी गुरुकीरत सिंह नियमित रूप से हाथ उठाते थे। कुछ दिनों बाद गांधी उनका हाथ उठने पर मुस्कुराकर हाथ हिला देते। नवंबर 47 में गांधीजी एक दिन के लिए कुरुक्षेत्र गए थे। वहां शरणार्थियों के शिविर में कंबल नहीं था। तब पंजाब के मुख्यमंत्री गोपीचंद भार्गव थे। दूसरे दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी ने इतना भर कहा कि, गोपीचंद का क्या इंतजाम है, कंबल भी नहीं हैं। दूसरे दिन अखबारों में यह बात हेडलाइन बनी। शाम को प्रार्थना सभा में गोपीचंद आगे बैठे हुए थे। उन्होंने वहां दो बार एडविना माउंटबेटेन को भी पालथी मारे बैठे देखा। आजाद, पटेल तो जब-तब आते ही थे। मदानजी से एक व्यक्ति ने सवाल किया, क्या बापू के अंतिम शब्द ‘हे राम थे? उन्होंने कहा, ‘मैंने तो सुना नहीं। मैं कुछ मिनट बाद उस जगह पर पहुंचा। पर यह किंवदंती है तो इसे किंवदंती ही रहने देना चाहिए। बाद में जब उनसे पूछा कि क्या वे अक्सर यहां आते हैं तो उन्होंने कहा, ‘हां, मैं यहां बहुत आता हूं। यह जगह तो मंदिर-मस्जिद से बड़ी जगह है।ज्
अन्नामलई कुरुयाप्पन चेट्टियार की गांधी-प्रेम की कहानी भी विलक्षण है। संयोग से चार नवंबर, 1911 में जन्मे एके चेट्टियार यह जन्मशती वर्ष भी है। 10 सितंबर, 1983 को उनका निधन हुआ। तमिलनाडु में करारकुडी के पास कोट्टायुर में उनका जन्म हुआ था। वे व्यवसायी नाट्टकोट्टई चेट्टियार समुदाय से थे। टोक्यो और अमेरिका में फोटोग्राफी की पढ़ाई की थी। गांधी और सिनेमा का उन्हें सम्मोहन था। दो अक्टूबर, 1937 में न्यूयॉर्क से डबलिन जाते हुए उन्हें सूझा कि क्यों न गांधी पर डाक्यूमेंटरी फिल्म बनाई जाए। अर्थ-संकट था। फिर सभी ने हतोत्साहित भी किया। आखरिश उनके समुदाय ने उनकी मदद की। फिर वे जुट गए। चार महाद्वीपों में एक लाख किलोमीटर से ज्यादा यात्रा कर जिस किसी के पास भी गांधी के फुटेज थे, वे प्राप्त किए।
दुनियाभर के कोई सौ फोटोग्राफरों का तीस साल का काम जमा किया। उनके पास गांधी की पचास हजार फुट की सामग्री जमा हो गई। उसे संपादित कर बारह हजार फुटेज का वृत्तचित्र तैयार किया। काम शुरू करते वक्त वे छब्बीस के थे, फिल्म जब बन गई तब उनतीस के। चेन्नई में 1940 में रॉक्सी सिनेमा में यह रिलीज हुई। फिल्म पहले तमिल में बनी थी, फिर उसे तेलुगू और फिर हिंदी में डब किया गया। हॉलीवुड जाकर उन्होंने इसका अंग्रेजी संस्करण भी तैयार किया। आजादी के पहले राजेंद्र प्रसाद की उपस्थिति में फिल्म दिल्ली के रीगल सिनेमा में दिखाई गई थी। तीनों भारतीय भाषाओं की फिल्म करीब दो घंटे से ज्यादा अवधि की थी। लेकिन फिर दशकों से यह फिल्म ओझल रही। इसे ढूंढने की बहुतेरी कोशिश हुई। अंतत: हॉलीवुड वाला इक्यासी मिनट का हिस्सा (ट्वेंटिअथ सेंचुरी प्रॉफिट : महात्मा गांधी) कुछ समय पहले मिला। चेट्टियारजी की यह दास्तान दिलचस्प, प्रेरणास्पद और लंबी है। उन्होंने तमिल में गांधी पर किताब भी लिखी (महात्मा के चरणों में)। उनकी किताब से भी फिल्म के कुछ सुराग मिले। अंग्रेजों ने इसे प्रतिबंधित भी किया था तभी से मूल फिल्म गायब हो गई। लेकिन बुधवार को जो अंग्रेजी संस्करण देखने को मिला वह अद्भुत था। समय का पता ही नहीं चला। 1912 में गांधी के गुरु गोखले दक्षिण अफ्रीका गए थे। उसके अंश तो गांधी पर उपलब्ध फिल्मी फुटेजों में भी कहीं नहीं है। गांधी, कस्तूरबा, पटेल, आजाद सब हैं। नेहरू हैं और सिगरेट हाथ में दबाए उनके पिता मोतीलाल भी, देशबंधु से बतियाते हुए। आजादी का पूरा आंदोलन उस पारदर्शी युग से झांकता और झंकारता दिखाई देता है। एक बच्चे को गोद में लेकर उनका मुक्तहास्य तो एक बच्ची को अपनी सूत की माला पहनाकर दूसरे सिरे में अपना सिर डालने का कौतुक..विनोद! गांधी की अनेक विभोर करती भंगिमाएं तो नेहरू की सम्मोहिनी मुद्राएं। एक पूरा युग आपके सामने जीवंत! फिल्म के समाप्त होने पर रह जाता एक अफसोस, कि, काश, पूरी फिल्म भी देखने को मिल पाती! गांधी-स्मृति का यह आयोजन बेहद आत्मीय था, जिसमें चरखा और गांधी साहित्य देकर मदानजी का सम्मान किया गया। पत्रकार और लेखक देवदत्त ने गांधी की प्रासंगिकता को रेखांकित किया। गांधी संस्थाओं को फिल्म की सीडी भेंट की गई।

Wednesday, October 13, 2010

कानून को लेकर उदासीनता क्यों?



आजादी के बाद भारत जसे लोकतांत्रिक देश में सूचना के अधिकार कानून को लागू करने में आई दिक्कतों के बाद यह 12 अक्टूबर 2005 को जब लागू हो गया तो अब पांच साल बाद जब कोई प्रशासनिक अधिकारी, अध्यापक और पत्रकार इसके प्रति अनभिज्ञता जताता है तो बरबस यह सवाल उठता है कि इतने महत्वपूर्ण काननू के लागू होने के बाद इतनी उदासीनता क्यो? क्या सरकार इसके प्रति उदासीनता दिखा रही है या आम नागरिक इसके बारे में जानने का इच्छुक नहीं है? या वह इस कानून का प्रयोग करने के बाद इसके परिणाम से हतोत्साहित हो चुका है? हो सकता है यह सभी सवाल सही भी हो या नहीं भी लेकिन जब सरकारी प्रयास की बात आती है तो एक आरटीआई के माध्यम से यह जानकारी मिली कि लोगों को सूचना के अधिकार के बारे में जानकारी देने के लिए विज्ञापन पर मामूली पैसे खर्च किए गए। जबकि अन्य विज्ञापनों में यह खर्च इसके मुकाबले काफी अधिक थे। 2008 में प्रधानमंत्री कार्यालय में विज्ञापन के संबंध में डाली गई एक आरटीआई के आवेदन में पता चला कि कानून लागू होने के बाद डीएवीपी द्वारा इस कानून के प्रति जागरूकता फै लाने के लिए महज 2 लाख रुपए खर्च किए गए। आज भी यह रकम किसी नेता के विज्ञापन के जन्मदिवस या पुण्यतिथि के विज्ञापन से काफी कम है।

गेल ने महासुरक्षा योजना के विज्ञापन में 4,18,22,903 रुपए खर्च किए। यही नहीं 2008-9 में पर्यटन मंत्रालय ने 65 करोड़ रुपए खर्च किए। इस मुकाबले सूचना के अधिकार पर कि या गया खर्च कोई मामूली ही है। इसे प्रसारित करने में फैसलों का महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अगर दिल्ली के बटला हाउस इंकाउंटर का मामला देंखे तो इससे संबंधित मांगी गई सूचना भी खबर बनी। हालांकि प्रशासन कभी भी सूचना देने के पक्ष में नहीं रहा है। इस अधिकार के प्रयोग के लिए जब हम धरातल पर जाएं तो कई दिक्कतें देखते हैं। भारतीय प्रशासन में कहीं यह भाव ही सम्मिलित नहीं है कि वह जनता की सेवा या उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए है। जब वह किसी प्रशासक से इस एक्ट के तहत सवाल पूछता है तुरंत इसका प्रशासक के मन में इसको लेकर एक शंका उत्पन्न होती है कि यह सूचना वह क्यों दे उसके लिए उसके पास बहानों की लम्बी लिस्ट है। चाहे सूचना कितनी भी महत्वपूर्ण हो लेकिन तर्क हमेशा उसके पास रहता है। वजह चाहे तर्क संगत न हो तो भी। दिल्ली के बटला हाउस इंकाउंटर का ही मामला लें। जब इस संबंध में सूचना के अधिकार के तहत अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से सूचना मांगी गई थी तो उसने इसे देने से साफ इंकार कर दिया था हालांकि जानकारी जांच से संबंधित नहीं बल्कि पोस्टमार्टम से संबंधित मांगी गई थी। एम्स ने सूचना का अधिकार कानून-2005 की उपधारा 8(1)बी और उपधारा 8(1)एच का हवाला दिया था। जिसे कानून के जानकारों ने उसी वक्त खारिज कर दिया था। दिलचस्प यह है कि वही रिपोर्ट मानवाधिकार आयोग ने बिना किसी लाग लपेट के दे दिया।


तंत्र की पारदर्शिता, सूचना की स्वतंत्रता अथवा जानने का अधिकार को लेकर भारत में विभिन्न स्तरों पर परिचर्चा हो रही है और इसके कुछ निष्कर्ष भी निकले हैं। लेकिन यह चर्चा जब भी बड़े स्तर पर हुई इसके केन्द्र में सरकारी गोपनीयता कानून यानी आफीसियल सिक्रेट एक्ट आया। सूचना को बेहद गोपनीय रखने वाला यह कानून 1889 में ही अस्तित्व में आ गया था लेकिन इसमें 1923 में बदलाव हुआ। लेकिन कुछ संशोधनों को छोड़ दिया जाए तो यह कानून अब भी उसी रूप में विद्यमान है। हालांकि सूचना के अधिकार कानून में 22 संबंधों में सूचना न देने की बात कानून में है। फिर भी यदि मामला किसी के जीवन से जुड़ा हो तो उस संबंध में सूचना देने पर विचार किया जा सकता है।
सूचनाओं के संबंध में प्रसिद्ध विचारक हेराल्ड लास्की ने कहा था कि ‘जिन लोगों को सही और विश्वसनीय सूचनाएं नहीं प्राप्त हो रही हैं, उनकी आजादी असुरक्षित है। उसे आज नहीं तो कल समाप्त हो जाना है। ..सत्य किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी थाती होती है। जो लोग और जो संस्थाएं उसे दबाने, छिपाने का प्रयास करती हैं अथवा उसके प्रकाश में आ जाने से डरती हैं, ध्वस्त और नष्ट हो जाना ही उसकी नियति है।ज् प्रश्न यह उठता है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हम तक कितनी सूचनाएं आती हैं। हमारी नौकरशाही हमें किस तरह की और कितनी सूचनाएं मुहैया कराती है।

नौकरशाही के स्वभाव और उसके उसकी कार्यप्रणाली पर प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर की टिप्पणी सटीक बैठती है, कि सरकारी गोपनीयता की अवधारणा नौकरशाही की विशिष्ट इजाद है। नौकरशाही उतनी कट्टरता से किसी और चीज की रक्षा नहीं करती जितनी गोपनीयना की करती है। असीमित सूचनाओं के आधार पर एकत्रित किए गए ज्ञान को गोपनीय रखने का कानून बनवाकर ही वह अपनी श्रेष्ठता स्थापित करती है। इसलिए वह कम जानकार संसद और मूर्ख जनता की भूरि-भूरि प्रशंसा करती है।
हालांकि भारतीय संविधान की धारा 19 में स्पष्टत: है कि ‘हर व्यक्ति को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। बिना किसी हस्तक्षेप के विचार निर्मित करना और उसे व्यक्त करना इस अधिकार में सम्मिलित है। देश की सीमाओं की चिंता किए बगैर किसी भी माध्यम से सूचनाएं एवं विचार एकत्र करने, प्राप्त करने और उन्हे लोगों तक पहुंचाने का अधिकार भी इस अधिकार में शामिल है। लेकिन बस शामिल है। क्योंकि आदाजी के बाद भारत जसे लोकतांत्रिक देश में किसी अलोकतांत्रिक देश के जसे ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ है। भारत में यह कानून भी विश्व के कई देशों में लागू होने के बाद प्रकाश में आया हालांकि समय समय पर इसके लिए कुछ सरकारी भी प्रयास हुए लेकिन वह बस नाम मात्र के थे। लेकिन कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा 1990 के बाद कई प्रयास सामने आए। 1988 में कर्नाटक में सरकारी प्रयास हुए लेकिन वह बहुत असरदार नहीं रहे। राजस्थान में अरुणा राय, महाराष्ट्र में बाबा आम्टे, मध्यप्रदेश में शंकरगुहा नियोगी, गोवा, तमिलनाडू,उत्तर प्रदेश में सामूहिक प्रयास हुए। लेकिन आज पांच साल बाद यह सवाल एक बार फिर है कि आखिर कितने लोग इसे जान पाए? प्रशासनिक अधिकारियों का मानना है कि यह हथियार बंदर के हाथ में कानून है? भारतीय जनता अभी इसके लिए तैयार नहीं है। उधर अगर हम कुकुरमुत्ते की तरह उगे गैर सरकारी संगठनों की आय पर ध्यान दें तो इस कानून के प्रसार के नाम पर उन्होने करोड़ों कमाएं हैं उनके पास सैकड़ों आरटीआई हैं। अब तो वह प्रशासकों को पुरस्कार भी देने लगे हैं लेकिन भारत की एक बड़ी आबादी इससे वंचित है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया भी इसमें बहुत रूचि नहीं दिखा रहा है अभी भारत के बहुत से शहरों में लोग पूछते हैं कि क्या ऐसा भी कोई अधिकार है? बहुत से अखबार और चैनलों में आरटीआई डेस्क नहीं हैं नहीं तो उन्हे भूत प्रेत और अपराध की खबरों के जरिए अपनी टीआरपी के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ता। 1936 में जवाहर लाल नेहरु ने एक भाषण में कहा था कि ‘पत्रकारिता और पत्रकारों को आधुनिक युग मे एक बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होगी। इस बात की पूरी आशंका है कि भारत में तत्थ्यों और सूचनाओं को छिपा लेने तथा उन पर रोक लगाने का प्रयास किया जाए। यह काम सरकार भी कर सकती है और विज्ञापन दाताओं के दबाव में अखबारी घरानों के मालिकान भी। ...मैं समाचारों और सूचनाओं को प्रतिबंधित करने के सख्त खिलाफ हूं क्योंकि विभिन्न घटनाओं पर राय निर्मित करने के लिए जनता के पास इसके अलावा अन्य कोई साधन नहीं है।

Monday, October 11, 2010

कहीं पर है कोई ऐसा, जिसे मेरी जरूरत है

राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान साहित्यि अकादमी में एक परिचर्चा में भाग लेने आए मशहूर शायर शहरयार से विभिन्न संदर्भो में बातचीत-

उर्दू को बढ़ावा देने के लिए सरकारी प्रयास जारी है? लेकिन क्या लगता है आपको उर्दू कितनी तरक्की कर रही है?
बहुत तरक्की कर रही है। उर्दू से मोहब्बत करने वाले और पढ़ने-लिखने वाले ऐसा कर कर रहे हैं। उर्दू को वो तमाम सुविधा हासिल है जो किसी भी जुबान को होनी चाहिए। सिविल सर्विस में यह एक विषय भी है। कुछ प्रदेशों की बोली में भी यह शामिल है। अकादमी भी है। दिल्ली बिहार में द्वितीय भाषा है कश्मीर में पहली भाषा है। मौलाना आजाद उर्दू युनिवर्सिटी है। दूरदर्शन का चैनल भी है। सरकार तो पैसा ही दे सकती है यह हिन्दी के साथ भी हो रहा है। हिन्दुस्तान में प्रॉसपेरिटी का मतलब यह हो गया है कि हम अपने कल्चर से दूर हो जाएं। अब मैनेजमेंट और बिजनेस की जो संस्कृति आ गई है उसमें हम अपनी भाषा को न जानने में फक्र महसूस करते हैं। उर्दू, हिन्दी अब मातृभाषा नहीं बल्कि मुंहबोली मां हो गई है। मामला यह है कि जब हम मकान से फ्लैट में आते हैें तो बदल जाते हैं। क्षेत्रीय जुबान में सब अपनी भाषा जानते हैं लेकिन हिन्दी उर्दू में ऐसा है जो जानते हैं वो भी शर्मिदगी महसूस करते हैं।

हिन्दी उर्दू में बहुत लिखा जा रहा है लेकिन पाठक कितने हैं?
जितने पाठक पहले थे उतने पाठक अब भी हैं। पाठक कम हो रहे हैें ये सब बहुत से धोखे हैं। न्यूज चैनल के आने के बाद कहा जाता था कि अखबार खत्म हो जाएगे लेकिन यह और बढ़ा। किसी ने किसी को रिप्लेस नहीं किया है । धोखा हो रहा है कि ऐसा हो जाएगा। जिसका महत्व है वह अब भी अपनी जगह कायम है। किताबें छप रही हैं, बिक रही हैं इसमें कोई मायूसी की बात नहीं है।
साहित्य में दिये जाने वाले पुरस्कार भी विवादों में आ रहे हैं लेकिन आपको पुरस्कार दिए जाने पर कोई विवाद नहीं हुआ?
हां, मेरा खयाल है कि ज्ञानपीठ के पुरस्कार विवादित नहीं होते हैं। ज्ञानपीठ के पिछले पुरस्कारों में भी विवाद नहीं हुआ था।

क्या लगता है ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने में देर हुई है?
कोई देरी नहीं हुई न कोई जल्दी हुई है। मेरा ख्याल है वक्त से मिला है।

आपकी आने वाली पुस्तकें कौन सी हैं?
मेरी दो किताबें आने वाली है। एक तो ‘सूरज को निक लता देखूं और दूसरी ‘फिर भी है।

आपने भारत से बाहर के देशों में भी यात्राएं की हैं वहां के साहित्य को किस तरह से देखते हैंे?

मानवीय समस्या सबके यहां एक जसी है। उनकी परंपरा, उनकी प्राथमिकता, उनकी संस्कृति अगल है और यह हमारे यहां से भिन्न है। तो उसका प्रभाव है उन पर।
पाकिस्तान में मुशायरे की क्या स्थिति है?
पाकिस्तान में की संस्कृति भारत से मेल खाती है वह भारत का हिस्सा रहा है। लेकिन यह दिलचस्प है कि पाकिस्तान में मुशायरा नहीं होता जबकि भारत में यह बहुत होता है। वहां मुशायरा न होने से मुशायरे की शायरी वहां पैदा नहीं हो पाई।

आपने फिल्मों में भी लिखा है लेकिन पिछले कई सालों से यह बंद है, ऐसा क्यों?
देखिए मैं कभी मुम्बई काम की तलाश में गया ही नहीं। मुङो कुछ फिल्मों के लिए बुलाया गया तो मैं गया। वो खास फिल्में थी, उसमें कहानी थी, उन फिल्मों का एक खास मकसद था। जाहिर है वह गाने पसंद किए गए। लेकिन आजकल की फिल्मों में कहानी होती ही नहीं है। एक ही तरह की मोहब्बत है जो हर फिल्म में हो रही है। लब्ज भी समझ में नहीं आते। बस धुनें हैं और लब्ज उनमें लिपटे रहते हैं।

ऐसे शायरों के बारे में क्या कहेंगे जो मंचो पर भी दिख रहे हैं और फिल्मों में भी लिख रहे हैं, मसलन गुलजार और जावेद अख्तर?
ये फिल्मों में पहले आए मंच से इनका कोई लेना देना नहीं था। फिल्मों की वजह से मंच पर बुलाए जाते हैं। शायर की हैसियत से उन्होने अपने को कभी परिचित नहीं कराया। दोनों की शायरी पर किताबें हैं लेकिन यह लेखक फिल्मों और किताबों में अगल-अगल है।

देश के वर्तमान हालात के बारे में आप क्या कहना चाहेगें?
हमें अपनी जुबान, अपने मजहब, हिन्दुस्तान से मोहब्बत करने का पूरा हक है। लेकिन इस मोहब्बत से हिन्दुस्तान में झगड़ा नहीं पैदा होना चाहिए। हिन्दुस्तान साथ में रहना चाहिए। जिससे हिन्दुस्तान में टकराव हो ऐसी मोहब्बत से बचना चाहिए। मैं कहना चाहूंगा कि ‘यही एक वहम है, जो और को जीने की हसरत है। कहीं पर है कोई ऐसा, जिसे मेरी जरूरत है।




Sunday, October 10, 2010

मूलत: नृत्य निर्देशक हूँ - आस्ताद देबू

दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में जश्न ए बचपन के दौरान पुंगचोलम का निर्देशन करने आए प्रसिद्ध कोरियोग्राफर आस्ताद देबू से बातचीत के कुछ अंश

प्रश्न- पुंग चोलम में बच्चों का चयन कैसे करते हैं?
उत्तर- बच्चों को संस्थानों में उनके माता पिता सीखने के लिए भेजते हैं। फिर उनमें से चयन होता है। ये छोटा ग्रुप है इसमें सभी बच्चे 8 से 12 साल के बीच हैं। जबकि एक बड़ा ग्रुप है जिसमे 18 साल से 28 साल तक के बच्चे हैं।
प्रश्न- यह कला कितनी पुरानी है?
उत्तर- यह कला काफी पुरानी है लगभग 1777 ई की है। इसमें लोगों की रुचि थी जिसके कारण यह पीढ़ी दर पीढी आगे बढती गई।


प्रश्न- इस कला का भारत से बाहर कैसा प्रदर्शन रहा?
उत्तर- लोग लोक कला को पसंद करते हैं और हम ग्रुप में आधुनिकता का समावेश करके बजाने और नृत्य करने जाते हैं। मैं मूलत: नृत्य निर्देशक हूं।
प्रश्न- क्या इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर हैं?

उत्तर-हां, और शायद इसलिए इसकी तरफ लोगों का रुझान भी है। बच्चे उत्साह से इसमें भाग लेते हैं।

प्रश्न-क्या मणिपुर से हट कर यह अन्य देशों में भी इस कला का विस्तार हुआ है?

उत्तर- हां, इसे भारत के बाहर के लोग भी सीखने आते हैं। लेकिन जो जड़ों के लोग हैं वही इसका विस्तार करते हैं क्योंकि विदेशों के लोग सीखकर इसकी प्रस्तुति में वह रस नहीं दे पाते। लेकिन इसे विभिन्न फार्मो में अपनाया जा रहा है।
प्रश्न-आप कितने ग्रुप से जुड़े हैं?
उत्तर- अभी तीन ग्रुप देश में है इसके अलावा विदेशों में कई ग्रुप से जुड़ा हूं। 22 सालों से बहरे लोगों के साथ काम कर रहे हैं। हम हर साल नए ग्रुप को खोजते हैं।
प्रश्न- उत्तर पूर्व के प्रदशों में कई समस्याएं हैं इसमें इस कला को कितना प्रोत्साहन मिल पाता है?
उत्तर-यह कला वहां के लोगों से जुड़ी है। खुशी में, मृत्यु में उत्सव में हर मौके पर वह इसे ढोल या पुंग बजाते हैं। ऐसा नहीं है कि वह स्टेज पर ही बजाते हैं। वह जन्मदिन दावत आदि पर भी बुला लिए जाते हैं।



प्रश्न-आपका पुंग और ड्रम के प्रति रूझान कैसे हुआ?
उत्तर-ड्रम में एक लय है। यह उत्तेजना भी है और मैंने जसा कि बताया कि मूलत: एक नर्तक हूं। मेरे लिए यादगार रहा जब 1986 में वियना में एक प्रदर्शन किया जिसमें दुनिया के दस ड्रमर मेरे लिए बजा रहे थे। मणिपुर से मेरा खासा जुड़ाव है। तबला,ढोल आदि बैठ कर बजाते हैं लेकिन पुंग में यह बात नहीं है इसे खड़ा होकर बजाते हैं और ताल के साथ नाचते भी हैं। ये लोग करताल भी बजाते हैंे और बोलते भी हैं।
प्रश्न-आपने फिल्मों में भी कोरियोग्राफी की है कैसा अनुभव रहा?
उत्तर-फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग होता है। इसका एक अगल ही अनुभव है। हमारे फिल्म कलाकार भी प्रतिभावान हैं उनमे सीखने की क्षमता है।

Friday, October 1, 2010

गांधी नाम की सड़क....

नेता जी ने
जिंदगी भर
गांधी मार्ग पर
चलने की कसम खाई ।

इसीलिए
उन्होने
घर और दफ्तर के बीच
गांधी नाम की सड़क बनवाई।

राजेन्द्र श्रीवास्तव

Saturday, September 11, 2010

एक संत की याद

आज की तारीख अब 9/11 के रूप में याद की जाती है पर हमारे लिए इसका एक और महत्व रहा है, जिसकी स्मृति क्षीण होती गई है। आज आचार्य विनोबा भावे की जयंती का भी दिन है। भारतीय समाज, राजनीति में उनका व्यक्तित्व और कृतित्व विलक्षण रहा है। 9/11 के संदर्भ में भी देखें तो उनकी दृष्टि सत्य, प्रेम, करुणा की थी। वे हृदय परिवर्तन करके बदलाव करना चाहते थे। आज भी जमीन की समस्या देश की बड़ी समस्या है और उसके लिए बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं। बाबा ने इसका हल भी भूदान आंदोलन में ढूंढा था और दान के जरिए लाखों एकड़ भूमि प्राप्त की थी। आज न विनोबा हैं, न भूदान और न सर्वोदय। समस्याएं जहां की तहां हैं। विनोबा-विचार की प्रासंगिकता पर विचार करती हुई सामग्री।

विश्व रत्न विनोबा

अरुण डिके
आज यह कल्पना करना भी कठिन है कि लाखों एकड़ भूमि कोई दान से प्राप्त कर सकता है। यह करिश्मा विनोबा ने किया।
‘अमीरी नहीं, गरीबी बांटोज् यह विनोबाजी का अर्थपूर्ण नारा है। अपनी अनपढ़ मां की यह सीख लेकर कि- ‘देता है ह दे, रखता है ह राक्षस, थोड़े में मिठास, अधिक में लबारी (बदमाशी), पेट भर अन्न-तन भर स्त्र इससे ज्यादा की आश्यकता नहीं। यदि संत, सज्जन नहीं होते तो यह पृथ्ी टिकती किसके तप के आधार से? जीन संग्राम में पूरी तरह जीनेोले निोबाजी ने अपनी किशोर अस्था में ही सन्यस्त ्रत ले लिया था, इसीलिए े माता-पिता की अंत्येष्टि में भी नहीं गए और 30 जनरी 1948 को अपने गुरु महात्मा गांधी की दु:खद हत्या के बाद े जीनर्पयत दिल्ली भी नहीं गए। सन्यस्तमया: सन्यस्तं मया: (इसे छोड़, इसे छोड़) कहते हुए उन्होंने र्धा के निकट पनार आश्रम में ही कुछ समय के लिए अपने आप को समेट लिया।

उनका पहला गांधी दर्शन भी अत्यंत रोचक और प्रेरक था। 06 फररी, 1916 को बनारस हिन्दू श्ििद्यालय के उद्घाटन र्प पर महामना मदन मोहन मालीय के बुलो पर मोहनदास करमचंद गांधी भी मंच पर उद्बोधन देने मौजूद थे और दर्शकों में बैठा था निायक नरहरि भो नाम का द्यिार्थी। उद्घाटनकर्ता और मुख्य अतिथि थे भारत के वाइसराय हाíडंग। े निर्धारित समय से 20 मिनट देरी से आए। अपने उद्बोधन में गांधीजी ने उन्हें अत्यंत निम्र शब्दों में जो लताड़ लगाई उसे देख पूरी सभा स्तब्ध रह गई। मंच पर पीछे बैठी लेडी एनी बिसेंट ने भाषण दे रहे गांधीजी को इस कृत्य के लिए डपटा तो गांधी अपना भाषण अधूरा छोड़ बैठने लगे। सामने बैठे जनसैलाब ने उठकर इसका रिोध किया और गांधीजी से उनका भाषण जारी रखने का आग्रह किया। समय की पांबदी किसी सत्यादी को कितना बेखौफ और निडर बना सकती है यह देख, सामने बैठी भारत की गरीब जनता को मिला एक सत्यादी नेता और हमें मिले निोबा। उसी र्ष 7 जून को निोबा ने गांधीजी को पत्र लिखा और े हमेशा के लिए गांधी के संग्राम से जुड़ गए।
सन् 1951 में भूमि को लेकर आंध्र प्रदेश के तेलंगाना प्रान्त में जब साम्यादियों का आंदोलन चल रहा था तब उस हिंसाग्रस्त क्षेत्र में अहिंसा का पाठ पढ़ाते निोबा पैदल घूम रहे थे। एक दिन एक गरीब भूमिहीन किसान उनके पास भूमि के लिए याचना करने आया। 18 अप्रैल, 1951 को आयोजित एक सभा में निोबाजी ने उस गरीब किसान के लिए अपने हाथ पसारे और रामचन््र रेड्डी नाम के एक धनी किसान ने अपनी 100 एकड़ जमीन का दानपत्र उनके हाथों में रख दिया। उसी दिन से प्रारंभ हुई निोबा की भूदान यात्रा जो उन्हें शहरों से देहात, देहातों से जंगल, बीहड़, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों से तेज प्राहोली नदी-नालों से, पगडंडियों से, तो कभी हाथी, बैलगाड़ी से पूरे देश की यात्रा कराती ले गई। 18 अप्रैल 1951 से प्रारंभ हुई यह यात्रा 29 मार्च, 1964 को समाप्त हुई। 14 सालों तक निोबा के कदमों ने भारत की 70 हजार किलोमीटर भूमि नापी। लाखों लोगों से मिलकर 40 लाख एकड़ भूमि दान में प्राप्त की ।


भारत के भिन्न प्रांतों के लोगों को, भिन्न जातियों को समझने के लिए निोबा ने 22 भारतीय भाषाएं सीखी। आसाम में ‘कीर्तनघोषाज् को कंठस्थ किया, जिसे पिछले 500 साल तक किसी ने छुआ नहीं था। तमिलनाडु में ‘तिरुक्कल तिरुाचकम्ज् को कंठस्थ किया और े तमिल जनता से एकरूप हो गए। इस ब्रह्मांड के सत्य को समझने, उनकी प्रज्ञा केल भारत तक ही सीमित नहीं रही। यूरोप को समझने के लिए उन्होंने लेटिन, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं को आत्मसात किया। ईसाई धर्म समझने हेतु ‘बाइबलज् का और इस्लाम धर्म समझने के लिए कुरान का अध्ययन किया। इन दोनों धर्मो के प्रकांड पंडित भी मान गए कि निोबा जितनी बारीकियों से े स्यं भी अपने धर्मो से रू-ब-रू नहीं हुए थे। कुरान की आयतें तो े इतनी खूबसूरती से पढ़ते थे कि एक बार गांधीजी ने मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के सामने जब निोबा का कुरान पाठ कराया तब उनकी खालिस अरबी बोली को सुन मौलाना भी नतमस्तक हो गए।
निोबाजी जब अक्टूबर 1930 से फररी 1931 तक धुलिया (महाराष्ट्र) की जेल में कैद थे तब उन्होंने ज्ञानेश्री से गीता का पाठ कैदियों को सिखाना प्रारंभ किया। महाराष्ट्र के गांधी चिारक साने गुरुजी ने उनके उद्बोधन को लिपिबद्घ किया। उसी से प्रकाशित पुस्तक को निोबा ने नाम दिया गीताई (गीता मां)। गीताई का लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुाद हो चुका है। इस बात को लगभग 80 साल बीत गए हैं और गीता प्रचनों के 275 से ज्यादा संस्करण निकल चुके हैं तथा उनकी चालीस लाख से ज्यादा प्रतियां बगैर किसी तामझाम या ज्ञिापन के गंगा, कोरी और नर्मदा के प्राह की तरह देश-दिेश के कोने-कोने में पहुंच रही हैं। निोबा जी का लेखन, पठन, उद्बोधन, किसी बंद कमरे में या दानदाताओं के सुशोभित मंडप में किया गया कोरा प्रचन नहीं था। एक निष्काम कर्मयोगी की तरह उन्होंने बोला हुआ एक-एकोक्य जीकर बताया। आज के बाजाराद के माहौल में उनकी प्राप्ति को म्रुाओं में यदि तोला जाए तो कई टाटा, बिरला और अम्बानी पीछे रह जाएंगे। इतना सब कुछ करने के बाजूद निोबाजी अपनी जीकिा चलाने के लिए रोज 8 घंटे सूत कताई करते थे। उन्होंने बापू से शिकायत भी की थी कि आप सूत कताई की सलाह तो दे रहे हैं, लेकिन 8 घंटे सूत कातने के बाद भी इसका तागा बेचकर एक व्यक्ति का पेट नहीं पलता है। निोबाजी का आहार था 10 तोला दूध, 6 तोले छेना, 3 तोले गुड़, ढ़ाई तोला पपई, कुल 64़5 तोला। अपनी पदयात्रा की समाप्ति पर निोबा रोज सुबह 5.़30 से 7 बजे तक खेत में काम, दोपहर 4 बजे सूरज से तपे पानी से स्नान सायं 7़15 बजे सामूहिक प्रार्थना करते थे। निोबा का लेखन जितना सरल लगता है उतना ही उसका निष्कर्ष निकालना बहुत कठिन है। (सप्रेस)

(अरुण डिके कृषि ैज्ञानिक हैं और उनका यह लेख सर्वोदय प्रेस सर्विस में प्रकाशित हुआ। वहीं से साभार)

सर्वोदय नहीं, भूदान विफल

बाबा ने जो भूदान यज्ञ शुरू किया वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्साभर था, पूरा सर्वोदय नहीं।

देवदत्त
सर्वोदय को लेकर विनोबा भावे के योगदान को जानने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि उन्होंने जिस सर्वोदय आंदोलन को 1950 व 1960 के दशक में आगे बढ़ाया, वह महात्मा गांधी के सर्वोदय के सिद्धांत की सोच से प्रेरित था। गांधी एक नए समाज की रचना करना चाहते थे, जिसमें वे सभी व्यक्ति का उत्थान एवं कल्याण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई साधन सुझाए थे। भू-दान व ग्राम-दान उन्हीं में से एक था, जिसे लेकर विनोबा ने समाज को सुधारने की कवायद शुरू की। लेकिन 1950-60 के दशक के बाद इस आंदोलन का कोई नामलेवा नहीं रह गया। इसकी कई वजहें थीं। पहली तो यह कि जिस आंदोलन की शुरुआत विनोबा ने की, उससे आगे चलकर उन्होंने स्वयं ही अपने आप को अलग कर लिया। आंदोलन की विफलता का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि विनोबा ने जिस भू-दान या ग्राम-दान योजना की शुरुआत की, वह गांधी के सर्वोदय का एक हिस्सा मात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं।

यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि विनोबा अपने घर से ‘मुक्तिज् की तलाश में निकले थे, न कि किसी सामाजिक आंदोलन की मुहिम के तहत। इसी बीच, 1915-16 में वे गांधी के संपर्क में आए और उनके विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने ‘मुक्तिज् का मार्ग छोड़ दिया। वे सार्वजनिक जीवन में उतर आए। गांधी की हत्या के बाद उन्होंने उनके विचारों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन 1960 के दशक में भू-दान आंदोलन के सिलसिले में कोलकाता जाने के बाद उनका आध्यात्मिक मन एक बार फिर जागृत हुआ और उन्होंने गांधी से माफी मांगते हुए सार्वजनिक जीवन से किनारा कर लिया।
बहरहाल, विनोबा ने भू-दान व ग्राम-दान का जो आंदोलन चलाया, भूमि सुधार के संदर्भ में आज भी उसकी प्रासंगिकता है। जमीन की समस्या वास्तव में हिन्दुस्तान की समस्या है, जिसका दूसरा नाम कृषि है। 1947 में आजादी से लेकर अब तक किसी सरकार या राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि देश कृषि प्रधान नहीं है। कृषि को यहां जीवनशैली माना गया और सरकारों की यह जिम्मेदारी तय की गई कि वह इसे सुरक्षित रखे। विनोबा के भू-दान आंदोलन ने भी इसी मुद्दे को उठाया। आगे चलकर यह योजना ग्राम-दान के रूप में तब्दील हुई। गांव को एक इकाई के रूप में देखा गया और कहा गया कि कृषि से संबंधित जो भी समस्या हो या इसके विकास की बात हो, पूरे गांव के संदर्भ में हो। आज की कृषि समस्या के संदर्भ में भी यह पूरी तरह प्रासंगिक है। इस सिद्धांत या रणनीति के तहत गांवों की रचना से देश की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। गांवों को एक इकाई मानकर सामाजिक सुधार की दृष्टि से भी यह फॉर्मूला प्रासंगिक है।
यह कहना गलत है कि सर्वोदय के सिद्धांतों की आज उपयोगिता या प्रासंगिकता नहीं रह गई है। यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1950-60 के दशक में था। जरूरत है तो उन्हें सही तरीके से अमल में लाने की। इसके लिए बेहतर वातावरण पंचायती व्यवस्था में हो सकता है। लेकिन मौजूदा पंचायती व्यवस्था में नहीं। बल्कि उस पंचायती व्यवस्था में, जहां शक्तियां नीचे से ऊपर तक जाती हों, न कि ऊपर से नीचे आती हों। मौजूदा व्यवस्था में पंचायतों को जो भी शक्तियां मिली हुई हैं, उनका स्रोत कें्र है।

अब अगर विनोबा द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन की विफलता की बात की जाए तो सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि विनोबा द्वारा शुरू किया आंदोलन वास्तव में सर्वोदय आंदोलन था ही नहीं। यह भूमि सुधार आंदोलन था, जो भू-दान आंदोलन के नाम से प्रचलित हुआ। यह सर्वोदय का एक हिस्सा मात्र था, पूरा सर्वोदय नहीं। फिर गांधी ने जिस सर्वोदय का विचार दिया था, वह समाज सुधार की बात नहीं करता, बल्कि इसके समानांतर एक नए समाज के निर्माण की बात करता है; जबकि विनोबा ने सर्वोदय के लिए आवश्यक एक सिद्धांत को अमल में लाकर सामाजिक सुधार की कवायद शुरू की थी। इसलिए यहां गांधी के सर्वोदय का सिद्धांत विफल नहीं हुआ, बल्कि भू-दान आंदोलन विफल हो गया। आंदोलन की विफलता का एक अहम कारण यह भी है कि विनोबा ने आगे चलकर इससे खुद को अलग कर लिया और इसमें सरकार को शामिल कर लिया। भूमि सुधार को लेकर कानून बनाने की जिम्मेदारी सरकार को सौंपकर आंदोलनकारियों ने सरकार के समक्ष लगभग घुटने टेक दिए।
विनोबा ने ‘सबै भूमि गोपाल कीज् का नारा दिया था। उन्होंने जमीन पर लोगों के मालिकाना हक को स्वीकार किया, लेकिन इसका इस्तेमाल समाज द्वारा करने की बात कही। पूंजीवादी एवं समाजवादी व्यवस्था से अलग उन्होंने ट्रस्टीशिप व्यवस्था में यकीन जताया और हृदय परिवर्तन के माध्यम से भूमि सुधार लागू करने की कवायद शुरू की। लेकिन आंदोलनकारियों द्वारा सरकार के समक्ष घुटने टेकने के बाद सब वहीं समाप्त हो गया। हालांकि आज भी भूमि सुधार की बात उठती है। राजनीतिक दलों से लेकर विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ता भी किसान हितैषी होने की बात करते हैं। औद्योगिक विकास के लिए अगर कहीं जमीन का अधिग्रहण हो रहा है और किसान उसका विरोध कर रहे हैं तो उनके साथ खड़े होने के लिए राजनीतिक दलों से लेकर तमाम संगठनों के कार्यकर्ता भी आ जाते हैं। लेकिन वास्तव में वे किसानों के हितैषी नहीं, बल्कि प्रबंधात्म लोग हैं।

(श्वेता यादव से बातचीत पर आधारित)

विचार तो अब भी कायम

किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले, सर्वोदय आंदोलन के साथ यह नहीं हो सका।

एसएन सुब्बाराव
विनोबा मूलत: आध्यात्मिक व्यक्ति थे और इसी रूप में वे सभी समस्याओं का समाधान तलाशते थे। नेता बनने की इच्छा उनमें नहीं थी। वे सभी को समान रूप से देखते थे और एक आध्यात्मिक जीवन बिताना चाहते थे। यह भी सच है कि वे घर से मुक्ति की तलाश में निकले थे, लेकिन गांधी से मिलने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। वे उनके विचारों से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग छोड़ दिया और सामाजिक जीवन में उतर आए। फिर आजादी के आंदोलन से लेकर एक नए समाज की रचना तक के गांधी के कार्यक्रम में वे हर जगह उनके साथ रहे। लेकिन 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या के बाद हालात बदल गए। एकाएक हुई इस वारदात ने लोगों को सकते में डाल दिया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में आ गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अब उन सपनों को कैसे पूरा किया जाएगा, जो गांधीजी ने आजाद भारत की जनता के लिए देखे थे। कैसे एक नए समाज की रचना हो, जिसमें हर व्यक्ति का कल्याण हो। ऐसे में सबको विनोबा में उम्मीद की किरण दिखी। गांधी के रूप में देश का जो नेतृत्व एकाएक खो गया, वे विनोबा के रूप में दिखा। लोग उनके निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। विनोबा ने भी महसूस किया कि सर्वजन के हित में जिस समाज की संकल्पना गांधी ने की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यूं हाथ पर हाथ धरे रहने से बात नहीं बनेगी। उन्होंने गांधी के सपनों को साकार करने के लिए लोगों का आह्वान किया और कहा कि देश ने आजादी तो हासिल कर ली, अब हमारा लक्ष्य एक ऐसे समाज की रचना करना होना चाहिए, जिसमें सबका कल्याण सुनिश्चित हो सके।

गांधी के सपनों को साकार करने के लिए सर्वसेवा संघ का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य समाज में सभी की सेवा करना था। अब तक विनोबा के मन में भू-आंदोलन जसी कोई संकल्पना नहीं थी। लेकिन देशभर का भ्रमण करने के बाद उन्हें इस बात का भान हो चला था कि समाज दो भागों में बंटा है, एक भूमिहीन लोगों का तबका और एक भू-स्वामियों का वर्ग। भूमिहीन लोगों की एक बड़ी संख्या है, जबकि मुट्ठीभर लोगों के पास आवश्यकता से अधिक भूमि है।
अपनी पदयात्रा के दौरान जब वे आंध्र प्रदेश के तेलंगाना पहुंचे तो वहां जमीन के टुकड़े के लिए लोगों को लड़ते देखा। भूमिहीन भू-स्वामियों से जमीन छीनने के लिए छापामार युद्ध चला रहे थे तो उन्हें काबू में करने की जिम्मेदारी पुलिस को दी गई थी। भूमिहीनों से उन्होंने हिंसा छोड़ने की अपील की तो उन्होंने अपने लिए जमीन की मांग की। खुद विनोबा को भी उस वक्त नहीं पता था कि वे इनकी समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे? इसी उधेड़बुन के बीच उन्होंने ग्रामीणों की सभा बुलाई और लोगों के सामने उनकी समस्याएं रखी। तब स्वयं विनोबा को भी उम्मीद नहीं थी कि कोई उनकी समस्याओं के समाधान के लिए इस तरह आगे आएगा। सभा में से एक व्यक्ति ने सौ एकड़ जमीन देने की पेशकश की। यहीं से विनोबा को मिल गया भूमिहीनों की समस्या का समाधान। देशभर में पदयात्रा कर वे और उनके अनुयायी भू-स्वामियों को भूमिहीनों के लिए जमीन का एक टुकड़ा देने के लिए प्रेरित करते रहे। स्वयं विनोबा ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद देशभर में लगभग छह हजार किलोमीटर तक पदयात्रा की। उनके प्रयास से देशभर में भू-स्वामियों द्वारा दान की गई लाखों एकड़ जमीन एकत्र की गई और इन्हें भूमिहीनों के बीच बांटा गया।


हां, यह सच है कि जमा की गई भूमि एक हिस्सा भूमिहीनों के बीच बंट नहीं पाया। लेकिन इसके लिए विनोबा और उनके अनुयायियों को दोष देना ठीक नहीं है। इसके लिए काफी हद तक सरकार भी जिम्मेदार है, जो जमीन का सही वितरण सुनिश्चित नहीं कर पाई। जहां तक सर्वोदय आंदोलन की प्रासंगिकता की बात है तो सिर्फ इस आधार पर इसे अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता कि विनोबा द्वारा चलाई गई यह मुहिम आगे चलकर विफल हो गई। किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले। सर्वोदय आंदोलन के साथ ऐसा नहीं हो पाया। वरना इसके विचार और अवधारणा आज भी प्रासंगिक हैं। आवश्यकता है तो उसे सही तरीके से समझने और उस दिशा में प्रयास करने की।
आज भी देश में भूमिहीनों की एक बड़ी तादाद है। नक्सल समस्या इसकी एक बड़ी वजह है। कभी विनोबा ने कहा था कि हर बेरोजगार हाथ बंदूक पाने का हकदार है। अगर उन्हें रोजगार मिले तो वे भला बंदूक क्यों उठाएंगे? आज सरकार नक्सल समस्या से निपटने के लिए तरह-तरह की कार्य योजनाएं बना रही है और उस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन यह समस्या ही न हो, इसके लिए कोई कार्य योजना नहीं बना रही। अगर योजना बन भी रही है तो उन्हें क्रियान्वित नहीं किया जा रहा। विकास कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण जसी समस्या का समाधान भी विनोबा के सिद्धांतों में ढूंढा जा सकता है। विशेष आर्थिक क्षेत्र या अन्य विकासात्मक कार्यो के मद्देनजर अगर किसानों को स्वेच्छा से जमीन देने के लिए प्रेरित किया जाए तो देशभर में जमीनों के अधिग्रहण के लिए हो रहा विरोध रोका जा सकता है।
(श्वेता यादव से बातचीत पर आधारित)

Monday, September 6, 2010

परंपरा कमजोर पड़ी, उम्मीद नहीं

रीता-बीता दिवस
अब दिवस आाते हैं, जाते हैं। महिला दिवस, बाल दिवस, पर्यावरण दिवस। दिवसों की भरमार है। उन्हें शुरू करने के पीछे गहरे सरोकार और उद्देश्य थे। धीरे-धीरे उद्देश्य, सरोकार लुप्त होते गए और बची रह गई निरी समारोहिकता। इसके साथ ही उनको लेकर समाज में उत्साह भी क्षीण होता गया। अब सारे दिवस एक औपचारिकता में सिमट चुके हैं। पांच सितंबर को शिक्षक-दिवस होता है और अब इसकी सबसे बड़ी खबर शिक्षकों को मिलने वाले राष्ट्रपति के पदक हैं। हमारे जसे गरीब देश में बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित है और सबको शिक्षा का हमारा मंतव्य सिर्फ नारा बनकर रह गया है। वहां शिक्षा, उसका माहौल, उसकी दिशा-दशा और छात्र-शिक्षक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए और शिक्षक दिवस उस पर आत्ममंथन का दिन होना चाहिए।


विश्वनाथ त्रिपाठी


आज का समाज पहले के समाज की तरह नहीं है। वर्तमान का दौर पहले से बदला है। लेकि न जो बदलाव है उसकी सीमारेखा 1990 के बाद खींचनी चाहिए जब पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था को हमने सुधार के नाम पर स्वीकार किया। बाजारवाद को हमने पूरी तरह से अपनाया। धन को ही हमने मूल्य मान लिया। सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को हमने तिलांजलि दे दी। आज पैसे को लेकर सिनेमा, क्रिकेट, समाचार पत्र में समाचार खत्म हो रहा है। आज कुछ बुद्धिजीवी कबीरदास के शब्दों में कहें तो ‘भरम ज्ञानीज् अर्थात जो भ्रम को ज्ञान समझते हैं वह कहते हैं कि इतिहास का अंत हो रहा है लेकिन इतिहास का अंत नहीं हो रहा है बल्कि मूल्यों का अंत हो रहा है। पंचमहाभूतों का अंत हो रहा है।
विद्वान ये नहीं सोचते कि आदमी-आदमी के बीच संबंध क्या है। ये पैसा को ही सब कुछ मानते हैं। गांधी-नेहरू का जिसने देश जो चरखा और नमक के साथ साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी अब वह नहीं है। अब ऐसे में हमें गुरु और शिष्य का संबंध भी देखना है। अब शिक्षा नहीं है। पहले भी कहा जाता था कि विद्या अर्थ का साधन है लेकिन वर्तमान में तो सरस्वती ने लक्ष्मी के आगे समर्पण कर दिया है। हमारे शास्त्रों में भी यह है कि जो अच्छा काम पैसों के लिए करता है उसे अच्छा नहीं माना जाता है। हमारे यहां एक गुरु होता है और एक उपाध्याय होता है। गुरु ज्ञान देता है जबकि ट्यूटर पैसा लेकर शिक्षा प्रदान करता है। जो गरिमा गुरु की है वह ट्यूटर की नहीं है। जो स्थान संदीपनि का है वह द्रोणाचार्य की नहीं है। अब वर्तमान स्थिति में हम देखते हैं कि परंपरा में बहुत बल होता है। मैं स्वयं अध्यापक रहा हूं और आज भी अध्यापकों का बहुत आदर है। लेकिन वर्तमान अर्थव्यवस्था में ये सम्मान की बात नहीं हो रही है। आज शिक्षा खरीदी और बेची जाती है। लेकिन ऐसे में भी कुछ गुरुओं का आदर होता है। हमारे यहां गुरु को ज्ञान देने वाला बताया गया है। ज्ञानी वही हो सकता है जो निर्भीक हो। गुरु दुनियादार नहीं होता। आज तो एड गुरु और मैनेजमेंट गुरु हो गए हैं लेकिन इनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। ये दुनियादारी सिखाते हैं। ये पैसा कमाना सिखाते हैं। ये जानकारी देते हैं, ज्ञान नहीं देते। ज्ञान और जानकारी में अंतर है। वह तरीके बता सकते हैं। जीवन जगत जड़ और चेतन का संबंध नहीं बताते हैं। मानव जीवन की सफलता का मतलब बताते हैं वह मानव जीवन का मूल्य नहीं बताते हैं। वे यह नहीं बताते हैं कि एक आदमी की तकलीफ से दूसरे को भी तकलीफ होनी चाहिए।
लेकिन ऐसे में शिक्षक दिवस का महत्व कम नहीं हो जाता, क्योंकि एक शिक्षक केवल विषय की जानकारी नहीं देता बल्कि वास्तविक जीवन की जानकारी देता है। अच्छा शिक्षक विषयगत जानकारी तो देता है लेकिन वह यह भी बताता है कि मानव मानव के बीच जो भावनात्मक संबंध है उसे बनाए रखना चाहिए। मनुष्य यदि मनुष्य है तो उसे समाज में रहना पड़ेगा और ऐसे में हमें एक दूसरे की चिंता करनी पड़ेगी। आधुनिक शिक्षा की बहुत बड़ी कमी यह है कि वह पूरी तरह से बाजारू हो गई है। इस पर ध्यान देना चाहिए। आज न शिक्षक के मन में छात्रों के लिए चिंता रह गई है और न छात्रों के मन में शिक्षक के लिए आदर। यह एकतरफा नहीं है। पहले विद्यार्थियों के लिए शिक्षक केवल उन्हें रोजगार का साधन नहीं मानता था बल्कि साधन से वंचित छात्रों की तरफ भी ध्यान देता था उसका छात्र सम्मान भी करते थे। लेकिन अब अध्यापकों की तनख्वाह बढ़ गई है। अब यदि शिक्षक आंदोलन करते हैं तो उनकी मांगों में कहीं भी यह नहीं होता कि छात्रों को सुविधा दी जाए, इनकी फीस कम की जाए बल्कि उन्हें अपने वेतन और सुविधा की चिंता होती है। छात्र उसे देखते हैं और उसका प्रभाव पड़ता है। इसलिए भी एक दूसरे के मूल्यों में गिरावट आई है। ऐसे में सोचना कि पहले जसा छात्र सम्मान करेंगे यह कुछ अधिक सोचना है लेकिन यह कहना कि वह पूरी तरह से सम्मान नहीं करते यह गलत है, क्योंकि यहां एक लम्बी परंपरा रही है जो क्षीण हुई है, समाप्त नहीं हुई है और मैं इसको लेकर आशावान हूं।
(लेखक प्रसिद्ध आलोचक हैं)
- अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित

अब पैमाना योग्यता नहीं

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

शिक्षक दिवस सिर्फ भारत में नहीं मनाया जाता, बल्कि दुनियाभर में मनाया जाता है। हां, दुनिया के विभिन्न देशों में इसकी तिथि अलग-अलग जरूर है। हमारे यहां हर साल यह पांच सितंबर को मनाया जाता है। देश के पहले उप राष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर इसे मनाने की परंपरा है, जिनकी गिनती महान दार्शनिक व शिक्षाविदों में होती है। समाज निर्माण में शिक्षकों की अहम भूमिका अतीत काल से है। आज भी शिक्षकों की भूमिका का महत्व कम नहीं हुआ है। हां, परिस्थितियां और हालात कुछ ऐसे हो गए हैं, जिसके कारण गुरु-शिष्य संबंध परंपरागत नहीं रह गए हैं। उसमें काफी बदलाव आया है।

यह सच है कि शिक्षकों और छात्रों का संबंध पहले जसा नहीं रह गया है। छात्रों के मन में शिक्षकों के लिए पहले जसा सम्मान नहीं रह गया है और न ही अब शिक्षक छात्र हितों की बात करते हैं। शिक्षक हों या छात्र, अपने-अपने हितों की बात ही उठाते हैं। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि शिक्षकों की जो भर्ती हो रही है, उसका एकमात्र पैमाना योग्यता नहीं रह गया है। शिक्षकों की नियुक्ति अब जोड़तोड़ और तिकड़मों से होने लगी है। हालांकि सभी नियुक्तियों का आधार यही नहीं होता, लेकिन ज्यादातर भर्तियां इसी तरीके से होती हैं। ऐसे में वे लोग, जिनके पास सिर्फ योग्यता है, कहीं पीछे छूट जाते हैं। इसका असर स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई और शिक्षक-छात्र संबंध पर भी होता है। जाहिर है, जब शिक्षक ही योग्य नहीं होंगे तो वे छात्रों को कैसे उचित शिक्षा दे पाएंगे? इससे शिक्षा का स्तर तो गिरेगा ही। और अगर शिक्षक उचित शिक्षा नहीं दे रहे, तो छात्र उनका सम्मान क्यों करने लगे?
ऐसे में अगर छात्र अपनी राह और शिक्षक अपनी राह चल रहे हैं, तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं। हां, योग्य शिक्षकों और छात्रों के बीच संबंध आज भी बेहतर होते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि योग्य युवा शिक्षा के क्षेत्र में आना ही नहीं चाहते। इसका बड़ा कारण शिक्षकों का वेतन कम होना है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के युग में जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्रोफेशनल्स को मोटा वेतन दे रहे हैं, वहां भला कौन युवा कम वेतन लेकर शिक्षा को अपने कॅरियर के रूप में अपनाना चाहेगा?
शिक्षा के गिरते स्तर के लिए सरकारी नीतियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। सरकार साक्षरता दर बढ़ाने पर जोर दे रही है, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर नहीं। ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठा रही। युवाओं का एक बड़ा वर्ग देश में शिक्षा प्राप्त करके नौकरी के लिए विदेशों का रुख कर लेता है, क्योंकि वहां उन्हें वेतन और अन्य सुविधाएं यहां से बेहतर मिलती हैं। आखिर यही चीजें उन्हें यहां क्यों नहीं दी जा सकती? मैनेजमेंट गुरू और कुकुरमुत्ते की तरह उग आए संस्थानों और इसके शिक्षकों के संबंध में केवल इतना कहा जा सकता है कि ये दुकानें हैं, वास्तविक गुरु नहीं। गुरु-शिष्य परंपरा से इनका कोई लेना-देना नहीं है।

जहां तक आज छात्राओं द्वारा शिक्षकों पर लगाए जाने वाले यौन शोषण के आरोप की बात है तो यह निश्चित रूप से चिंताजनक है। ऐसे आरोप शोधार्थी छात्राओं के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक हैं और निश्चित रूप से गुरु-शिष्य संबंध को लज्जित करते हैं। कई बार इसके लिए दोनों पक्ष जिम्मेदार होते हैं। बहुत से मामले ऐसे भी होते हैं, जहां छात्राएं नैतिकता को परे रखकर अपने कॅरियर को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों के आगे समर्पण कर देती हैं। लेकिन मूल रूप से इसके लिए वे नियम जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से शिक्षकों को ऐसा अधिकार मिल जाता है कि वे छात्राओं को अपने इशारे पर नचा सकें। अगर छात्राओं को यह भरोसा हो जाए कि शिक्षक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो वे कभी उनके आगे समर्पण नहीं करेंगी। इस संबंध में नियम व नीतियां बदलने की जरूरत है।

प्रस्तुति : श्वेता यादव

नालंदा का महास्वप्न


प्रखर प्रकाश मिश्रा


हम खुशनसीब हैं कि हम अपनी विरासत को संजोने की पहल कर रहे हैं। इस बार लोकतंत्र के मंदिर, यानी संसद ने सरस्वती के प्राचीन मंदिर नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया है। इतिहास गवाह है कि सदियों बाद वह खुद को दोहराता है। इतिहास का एक ऐसा ही वरक हम आपके सामने पलट रहे हैं, जिस पर वर्तमान अपने अतीत को तलाशता हुआ भविष्य के लिए नई इबारतें लिख रहा है। यह सच्ची कहानी है उस नालंदा की जो 800 साल पहले कहीं अंधेरों में खो गया था।
नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण पांचवीं और छठी शताब्दी में गुप्त वंश के समय किया गया था। तब यह विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म की शिक्षा का केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म और हीनयान बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण कर छात्र पूरे विश्व को ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्मम् शरणं गच्छामि, संघ शरणम् गच्छामिज् का संदेश देकर दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाते थे। पंद्रह सौ वर्ष पहले के इतिहास को खंगालने पर पता चलता है कि नालंदा में अन्य धर्मो के साथ-साथ विज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष विज्ञान और संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी। तब दुनिया में कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, हार्वर्ड जसे नामों का कहीं नामो-निशां न था। तब नालंदा में चीन, बर्मा, थाइलैंड, श्रीलंका, कोरिया, जापान, इंडोनेशिया, इरान, तुर्की जसे कितने ही देशों के छात्रों को आचार्य, वैज्ञानिक और ज्ञानी बनाया जाता था।

नालंदा में दस हजार छात्र पढ़ते थे और दो हजार अध्यापक उन्हें पढ़ाते थे। वहां छात्रावास की परंपरा तभी से थी और जानकर आपको आश्चर्य होगा कि नालंदा में छात्रसंघ भी होता था। नालंदा के इतिहास को चंद लब्जों में समेटा नहीं जा सकता। अगर इसे समेटना है तो नालंदा तक चलकर जाना होगा, गर ये न हो सके तो नालंदा को पढ़ना होगा। नालंदा को ह्वेनसांग और इत्सिंग ने याद रखा था, फिर इसे एलेक्जेंडर कर्निघम ने खोज निकाला था। सदियों पहले नालंदा में ज्ञान की गंगा बहा करती थी और इस शहर में गूंजा करती थी छात्रों की और गुरुजनों की वाणियां।
मानसून सत्र में नालंदा का विधेयक पारित करनेवाले सांसद और यूपीए सरकार भी नालंदा को पुनर्जीवित करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी। संसद में नालंदा विधेयक पास कर इसे एक हजार पांच करोड़ रुपए दिए हैं। केन्द्र सरकार यूनिवर्सिटी के लिए संसाधन मुहैया करा रही है। इसके नए रंग-रूप के लिए पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के पंद्रह सदस्य देश पैसा दे रहे हैं। बिहार सरकार ने इसके पुनर्निर्माण के लिए पांच सौ एकड़ जमीन दी है। नालंदा में अलग-अलग छह संकायों में इतिहास, भूगोल, दर्शन, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, साहित्य, व्यापार समेत करीब-करीब हर विषय की पढ़ाई होगी।
प्रो. अमर्त्य सेन की अध्यक्षता में एक मेंटर ग्रुप बनाया गया है जो अंतरिम गवर्निग बोर्ड के तौर पर नालंदा में काम करेगा। इस विधेयक का मकसद नालंदा को जीवित कर दुनिया को अमन चैन का पाठ पढ़ाना है। बहाना तो विश्वविद्यालय का है, लेकिन इसी के जरिए पूर्वी एशिया को एक मंच पर लाया जाएगा, ताकि बेहतर तालमेल बन सके। प्राचीन नालंदा दक्षिण और पूर्व एशिया की संस्कृतियों का संगम था, तब इसने अलग-अलग सभ्यताओं के बीच पुल का काम किया था। इतिहास से सबक लेते हुए नालंदा विश्वविद्यालय के जरिए एशिया प्रशांत क्षेत्र में देशों के हितों को जोड़कर सॉफ्ट पावर डिप्लोमेसी बनाई जा सकती है। यह पहल एशियाई नवचेतना में मील के पत्थर की तरह साबित हो सकती है, अगर अपनी आर्थिक हैसियत के बूते दक्षिण और पूर्वी एशिया के देश भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक मंच पर आकर सभ्यताओं के संगम को नालंदा का कुंभ बना दें और यह तब संभव है जब दुनिया शांति के पथ पर चलती हुई उस भूख की आग को बुझा सके। नालंदा आज भी हम से वादा करते हुए यह अपील कर रहा है कि अगर तुम विरासत को संभाल लोगे तो मैं तुम्हें आर्यभट्ट, शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल जसे ज्ञानी दूंगा।

हमारी आकांक्षाओं से बेमेल शिक्षा

गोपेश्वर सिंह
वर्तमान शिक्षा पद्धति अंग्रेजी राज के साथ आई। अंग्रेजों की ये बुनियादी धारणा थी कि भारत में कोई शिक्षा पद्धति थी ही नहीं। उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति भारत में लागू की और शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बनाया और पूरे भारत में उसी शिक्षा नीति का प्रचार-प्रसार हुआ। लार्ड मैकाले की देख-रेख में भारतीय ब्रिटिश सरकार ने जो शिक्षा नीति और भाषा नीति तैयार की उसका मूल उद्देश्य ब्रिटिश उपनिवेश को मजबूती देना था। यह शिक्षा मूल रूप से मनुष्य का अपनी जमीन, अपनी भाषा और अपने लोगों से सरोकार खत्म करने वाली थी। यह समाज के प्रति उत्तरदायित्वहीन व्यक्ति पैदा करने वाली शिक्षा थी। इस शिक्षा के जरिए आत्मकेन्द्रित शिक्षित मध्यवर्ग पैदा करने की शुरुआत हुई। वहां से चलकर और अब तक इसी शिक्षा व्यवस्था का प्रसार हुआ है। गांधीजी इस शिक्षा नीति के विरोधी थे। वे चाहते थे कि हमारी शिक्षा प्रारंभिक रूप में मातृभाषा में हो। इसी के साथ वे यह भी चाहते थे कि शिक्षा रोजगारपरक हो। आजादी के बाद आधे-अधूरे मन से भारत सरकार ने कुछ बुनियादी विद्यालयों की नींव रखी। यहां छात्रों के लिए किताबी शिक्षा प्राप्त करने का प्रावधान था। वहां शिक्षा और शारीरिक काम के बीच तालमेल की गुंजाइश थी, लेकिन चूंकि आधे-अधूरे मन से वह योजना शुरू हुई थी, इसीलिए उसकी परिणति विफलता के रूप में हुई और उसे विफल होना ही था।
असल में प्रारंभ से ही इस देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था चलती रही हैं। एक निजी क्षेत्र में चलने वाले अंग्रेजी माध्यम के हाई-फाई स्कूल, दूसरी तरफ देशी भाषा माध्यम के स्कूल। चूंकि शासन और सफलता की कुंजी अंग्रेजी भाषा के पास है इसलिए अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल फलते-फूलते रहे हैं। उनका विस्तार होता रहा है। उन शिक्षण संस्थानों से निकले लोग ही सरकार और समाज चलाने वाली मशीनरी के अंग होते रहे हैं इसलिए देशी भाषा माध्यम के स्कूल मजबूरी का नाम भर है। यह दोहरी शिक्षा व्यवस्था ब्रिटिश राज की स्थापना से लेकर अब तक जारी है और फल-फूल रही है। ब्रिटिश काल में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई का स्तर ठीक था और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की संख्या कम थी इसलिए पहले बहुत सारे समर्थ लोग सरकारी शिक्षा व्यवस्था में भी जाते थे लेकिन आजादी के बाद सरकारी शिक्षा व्यवस्था लचर होती गई और अंग्रेजी माध्यम से चलने वाली निजी शिक्षा व्यवस्था फलती-फूलती रही और उसका द्रुत गति से विस्तार होता रहा। इस तरह की दोहरी शिक्षा पद्धति का होना हमारी लोकतांत्रिक और समतावादी आकांक्षा के विपरीत है। यह समाज में वर्ग भेद पैदा करने वाली शिक्षा नीति है। यह शासक और शासित लोगों का फर्क पैदा करती है। यह एक तरह की नई वर्ण व्यवस्था पैदा करने वाली शिक्षा है। वर्तमान शिक्षा पद्धति श्रम भेद पर आधारित है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को पूर्ण व्यक्तित्व देना है, साथ ही उसे जीवन और जगत के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण भी बनाना है।
जहां तक शिक्षकों की बात है तो आज के शिक्षकों में वह प्रतिबद्धता और आदर्श नहीं है जो पहले के शिक्षकों में होता था। पहले शिक्षक और छात्र का संबंध व्यावसायिक नहीं था। अब शिक्षा का व्यावसायिकरण हो रहा है और शिक्षकों का भी। नई आर्थिक नीति जब से आई है तब से शिक्षा के अनेक निजी संस्थान भी खुलते जा रहे हैं। उनका उद्देश्य व्यवसाय करना है और उसका असर पूरे शिक्षा जगत और शिक्षक समुदाय पर पड़ा है। शिक्षण और प्रशिक्षण के नए-नए संस्थान रोज खुल रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां अपना परिसर खोलने की सुविधा दी जा रही है, जो पहले के विश्वविद्यालय हैं वहां ज्यादा जोर नौकरी देनेवाले विषयों पर है। ऐसे में मानविकी ओर समाज विज्ञान के विषयों की उपेक्षा हो रही है और शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है। शिक्षा का मतलब नौकरी दिलाने वाले विषय का अध्ययन हो गया है। ऐसी स्थिति में शिक्षक वही सफल माना जाता है जो छात्रों को नौकरी दिलाने में मदद करे। शिक्षा का उद्देश्य जब शुद्ध रूप से अर्थकरी होगा तो शिक्षकों से पुराने आदर्श की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में भी अभी भी थोड़े शिक्षक ऐसे हैं जो मानते हैं कि शिक्षा से रोजगार तो मिले लेकिन सबसे पहले एक अच्छा नागरिक और मनुष्य पैदा हो।
(लेखक प्रसिद्ध आलोचक हैं)
- पंकज चौधरी से बातचीत पर आधारित

Wednesday, August 25, 2010

बस काम करते रहिये........

काम करो और दिल लगा के करो, मन लगा कर करो, जरूरी है कि दिमाग भी वहीं हो, इसलिए बस तन्मयता से काम करो। तुम्हे पता है जब इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हुई थी तो वहां पर लोग अठ्ठारह घंटे लगातार काम करते थे। बिना रूके बिना थके। क्या तुम्हे पता है रूस के सैनिक लगातार लड़ते थे विजय के लिए। बिना खाए पिए भूखे प्यासे। इसलिए काम को युद्ध की तरह लो, बस करते जाओ। काम करना अपना हुनर दिखाने का मौका है इसलिए इससे चूको मत। काम करो लेकिन फल की चिंता मत करो। यह मैं नहीं कह रहा यह गीता में लिखा है। आप लोग गीता को तो मानते हैं न? बस उसी की बात को मन में बिठाकर काम करिए। उक्त उत्साहवर्धक बातें एक उच्च संस्थान के अति वरिष्ठ अधिकारी अपने निम्न कर्मचारियों से कह रहे थे।

संस्थान के निम्न कर्मचारी पिछले कई महीने से वेतन न पाने के कारण कुम्हलाए थे। नाटेराम विद्रोही ने तन कर कहा साथियों अब काम बंद। बहुत हो गया गीता का प्रवचन अब महाभारत होगी। रोज रोज की प्रवचन से कान कुकुहाने लगा है। मालिक है कि मक्खीचूस, क्या दीवाली क्या होली क्या ईद क्या रमजान, स्वतंत्रता दिवस को सरकार भी छुट्टी देती है लेकिन ये तो आजादी के बाद भी गुलाम बनाकर रखा है। साथियों हम कब तक गुलाम बने रहेंगे। अब तो सांसद संसद में जूता चलाने गाली गलौज करने के बाद भी अपनी तनख्वाह बढाने के लिए अड़े हैं फिर हम तो दिन रात एक करके मालिक के लिए मर रहे हैं और यह मालिक का तोता हमारी तनख्वाह न बढाकर रोज प्रवचन सुना जाता है। साथियों अब बात से बात नहीं बनेगी हमें कुछ करना होगा। मालिक के मिट्ठू को कर्मचारियों की बात पता चली तो वह थोड़ी देर के लिए सकते में आ गया।

बात मालिक तक भी पहुंची। मालिक को मजदूरों का पैसा बढाने के नाम पर खुजली होती थी और हड़ताल जसा कुछ सुनकर खुजली बढ़ जाती थी। तोता तलब हुए, हालात का जायजा लिया गया। मालिक ने तोते को मिर्च बढ़ाई, अपना कान खुजलाया और जोर से बोला कोई हड़ताल नहीं होनी चाहिए। तोता आवाज सुनकर तुलतुलाया बोला, मालिक अब तो आप तनख्वाह भी देर से देने लगे हो कितनों की तो महीनों से बाकी है कुछ कृपा कर दीजिए साल भर से प्रवचन दे रहा हूं लेकिन नाटेराम ने विद्रोह कर दिया है। इसलिए मजदूर नाराज हैं। मालिक ने फिर कान खुजलाया बोला तुम्हारी तनख्वाह दुगनी कर देता हूं और नाटेराम की तीन गुनी। तोता अब स्पष्ट बोल रहा था। कहा, मालिक कैसी हड़ताल इस बार हिटलर की कथा सुनाऊंगा सब सही हो जाएगा।

Tuesday, August 17, 2010

खेल खेल में खेल..

दिन बदलते देर नहीं लगती, मेरी बात मानों एक दिन शेरा का भी दिन बदलेगा। लोग शेरा के पीछे पड़े हैं हम कहते हैं कि भइया दम हो तो आगे आओ। लेकिन वही है न कि पीठ पीछे जो मन में आए कह दो और सामने आने पर मुकर जाओ। चाय बेचने वाला पल्टू यह बात लोगों को समझा रहा था। वह कह रहा है कि लोग समझ नहीं रहे हैं कि शेरा जंगल का राजा है और देश के राजा टाइप लोग ही इस खेल के खेवनहार हैं। राष्ट्रमंडल खेल परियोजना में काम करने वाला मजदूर रफ्फू सुनते-सुनते बोल पड़ा, चाचा लोग शेरा के पीछे नहीं पड़े हैं ये राजा टाइप लोग जनता के पीछे पड़े हैं कि इनकी दाल रोटी इस मंहगाई में भी कैसे चल रही है? चाचा पल्टू, शेरा का दिन तो बदलेगा लेकिन हमारे दिन बिगाड़ कर। खेल-खेल में जाने कैसा खेल शुरू हो गया कि हमारे मुंह से रोटी और सिर से चोटी गायब हो गई। पल्टू ने रफ्फू को चौंक कर देखा, बोला रोटी का तो पता है लेकिन चोटी का नहीं। रफ्फू ने सिर सहलाते हुए कहा कि चाचा ईंट गारा ढोते-ढोते सिर पर एक बाल तक नहीं बचा तो चोटी कैसे रहेगी। सरकार अपनी नाक बचाने पर लगी है और कान से कुछ भी सुनने को तैयार है।

पल्टू-रफ्फू संवाद का लोगोंे ने जम कर आनंद लिया। लेकिन टीवी प्रेमी राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को लेकर टेलीविजन से चिपके हैं। गिल को भरोसा है कि गिली-गिली छू जसा कुछ होगा जिससे सब कुछ सही से हो जाएगा। मुख्यमंत्री भी मीडिया के सामने तैयारियों को लेकर हलकाते हुए बयान दे रही हैं। सुना है बिना फल-फू ल वाले पेड़ पौधे लगाए जा रहे हैं जो केवल सुंदर लगेंगे। लेकिन सावन के अंधे को उससे क्या फायदा। कायदा तो यह है कि इनसे कुछ मिले भी। तो जनाब अब तक दौड़ने से घोड़ी बिदकती थी लेकिन अब तो खबर सुनकर दौड़ने वाले खिलाड़ी भी बिदक रहे हैं। यही सब देखकर खेल मंत्री ने अपने संतरी को भेजा होगा कि जाओ स्टेडियम देखकर आओ और जब उसने हाल बताया होगा तो बस एक ही चिर परिचित बयान याद आया कि अब तो बारात दरवाजे पर आ गई है इसके स्वागत की तैयारी की जाए। लेकिन क्या करें जब भी स्वागत की तैयारी होती है मौसम नासाज हो जाता है और दिल्ली का हाल तो और बुरा है यहां जब बादल छाए होते हैं तभी से जाम लगना शुरू हो जाता है और बारिश के बाद तो पूछिए मत। अब जाम में काम कैसे होगा। मंत्री परेशान हैं बयान से, संसद के घमासान से, कंपनियों के काम से। एक नेता ने जोर से कहा हम बारातियों की तैयारी में लगे हैं और विपक्ष शेरा की पूंछ में आग लगाने पर तुला है।
कार्टून- मंसूर नकवी
अभिनव उपाध्याय

Thursday, August 12, 2010

एक हिजड़े की अंतरआत्मा की अवाज है मेरी आत्म कथा

दिल्ली में आए अब लगभग तीन साल हो गए। बीच में घर आना जाना रहा। दो वषों से जब पत्रकारिता में सक्रिय हुआ तो किन्नरों पर काम करने का मन हुआ। लेकिन कई कारणों से मुराद पूरी नहीं हुई। जब भी किसी से उनकी गतिविधियां जानने की इच्छा जताता वह या तो हंसता या फिर उनके बारे में बहुत कुछ बुरा कह देता। लेकिन आज एक किन्नर से मिलकर आ रहा हूं। इंडिया इंटरनेशल सेंटर में ठहरी थी। उनकी पुस्तक पेंगुइन से आई है, ए ट्रुथ अबाउट मी: ए हिजड़ा लाइफ स्टोरी। इसकी लेखिका हैं किन्नर ए रेवती। रेवती वर्तमान में बहुत व्यस्त हैं। जब उनसे मैंने फोन पर बात की तो वह खुद रिशेप्शन पर लेने आई। उनका स्वभाव कहीं से भी मुङो उस हिजड़े जसा नहीं लगा जिसे मैं देखता था या जिसके बारे में लोगों से सुनता था। लेकिन बातचीत का सिलसिला जब शुरू हुआ तो उसमें उनके सभी दुख प्रकट हुए यह बातचीत एक घंटे से अधिक चली विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई। अपने समुदाय की अच्छाइयों बुराइयों का विवेचन सुनने लायक था। उनकी पुस्तक सहित जो चर्चाएं हुईं उसे संक्षिप्त में प्रस्तुत कर रहा हूं-

अपनी पुस्तक के बारे में उन्होने बताया कि मेरी आत्म कथा मेरी अंतराआत्मा की आवाज है। जो मैंने सहा, जो मेरे साथ हुआ और जिस संघर्ष के साथ मैंने उसका सामना किया वह सब अपनी पुस्तक में लिखने की कोशिश की है। यह आत्म कथा केवल एक रेवती की आवाज नहीं बल्कि पूरे किन्नर समुदाय की आवाज है। संभवत: पहली बार इस विषय पर एक किन्नर द्वारा लिखी गई किताब आ रही है। किन्नर रेवती ने बताया कि वह शरीर से तो पुरुष है लेकिन उसकी भावना एक स्त्री की है और इसलिए एक स्त्री के रूप में रहना पसंद है। रेवती संगमा संगठन में कार्यकर्ता भी हैं। वह दक्षिण भारत में हिजड़ों के विकास और उनके अधिकार के लिए भी व्यापक पैमाने पर काम भी करती हैं। मूलत: तमिलनाडू की सेलम जिला की रहने वाली रेवती दसवीं बाद किन्नर समुदाय में शामिल हो गई। लेकिन जब समाज में किन्नरों की स्थिति देखी तो इनके लिए कुछ करने का जज्बा आया। 9वीं पास होने के बाद वह आगे की पढ़ाई तो नहीं कर पाई लेकिन लोगों को जागरू क करने का काम भी किया। रेवती का विरोध किन्नरों के साथ हो रही यौन हिंसा से लेकर रोजगार तक है। उसका कहना है कि विदेश में किन्नर नौकरी भी करते हैं हमारे यहां भी किन्नरों में यह प्रतिभा है लेकनि उन्हे रोजगार मुहैया नहीं कराया जाता,शिक्षा का भी अभाव है। वह किन्नरों के लिए सामाजिक स्वीकृति की बात भी करती हैं जिससे उन्हे आत्मबल मिलेगा। दक्षिण की फिल्मों में अदाकारी कर चुकी रेवती तमिलनाडु सरकार द्वारा किन्नरों के हित में बिल पास करवाने बाद कर्नाटक सरकार के समक्ष इनकी शिक्षा, मतदान, औरत के रूप में पहचान तथा बुढापा पेंशन की मांग रखी जिसे सरकार ने मान लिया है। वह इसे एक बड़ी जीत मनाती हैं। यौन गतिविधियों और अपराध में किन्नरों की लिप्तता के सवाल पर वह समाज और पुलिस को दोषी मानती हैं। उनका कहना है कि पुलिस किन्नरों से अवैध वसूली करती है उन्हे भोजन आवास की कोई व्यवस्था नहीं है और सामाजिक स्वीकृति भी नहीं लिहाजा वह इन कार्यो में लिप्त हैं। किन्नरों अवसर देने की जरूरत है वह भी बेहतर काम कर सकती हैं। रेवती के मन में अपने परिवार के लिए अगाध प्रेम है। वह बताती हैं कि जब उन्होने नाम कमाया तो उनके परिवार ने भी उन्हे स्वीकार कर लिया। पुस्तक लिखने से पूर्व जो पैसा मिला उसे उन्होने अपनी मां के इलाज में लगा दिया लेकिन दुर्भाग्यवश मां जीवित नहीं बची। पिता सहित एचआईवी पाजिटिव भाई के परिवार और उसके बच्चों का खर्च रेवती खुद चलाती हैं। यह भारत सहित विभिन्न देशों में व्याख्यान देने तथा इस समुदाय की समस्या के लिए आवाज भी उठाती हैं। रेवती ने इससे पहले भी 50 किन्नरों का साक्षात्कार करके एक किताब का रूप दिया है। रेवती को कविता लिखना बहुत पसंद है और यहीं से लिखने की प्रक्रिया भी शुरू हुई। रेवती इस बात पर बल देती हैं कि हम भी आईएस, पीसीएस या अन्य सेवाओं में जा सकते हैं बस हमें मुख्यधारा में शामिल किया जाए। यदि आज हम हिजड़ा हैं तो इसमें मेरा क्या दोष है जिससे कारण समाज हमें तिरस्कृत करता है।
रेवती दिल्ली में अपने गुरुओं से भी मिलेंगी उन्होने बताया कि मेरे इस सुधार के निर्णय का मेरे गुरु ने भी विरोध किया लेकिन मैंने वही किया जो मुङो उचित लगा।

रेवती के जज्बे को सलाम! उनसे मिलने के बाद मैें देर तक सोचता रहा, उसकी लगन,मेहनत और कुछ कर गुजरने की जिज्ञासा के बारे में। इतनी लोकप्रियता के बाद भी वह राजनीति में नहीं आना चाहती। उसे पता है शक्ति भ्रष्ट करती है और अधिक शक्ति अधिक भ्रष्ट करती है। वह तो बस काम करना चाहती है जिससे उसके समुदाय के अन्य लोगों को भी हौसला मिले आगे बढ़कर कु छ करने का। रेवती की किताब का विमोचन आज होगा उम्मीद है वह लोगों को पसंद आएगी। वैसे रेवती इस किताब को कई अन्य भाषाओं में चाहती है जिससे भारत सहित विश्व के सभी लोग इसे पढ़ सके और उस समुदाय की पेरशानियों और अपनी जिम्मेदारियों को समझ सकें। बधाई रेवती पुस्तक के लिए, इस प्रयास के लिए के लिए।

Tuesday, July 20, 2010

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी.....

सुनिए जी हम बात करना चाहते हैं? सच कहें तो जी भर के बात करना चाहते हैं? मानिए न मेरी बात हम बात करना चाहते हैं? इतने आग्रह पर तो गूंगा भी बात करने को राजी हो जाएगा लेकिन मियां शर्त है, और शर्त भी ऐसी कि हंसिए लेकिन दांत न दिखे या बोलिए लेकिन जुबान न खुले उसी तरह दौड़िए लेकिन पैर न हिले। जनाब बात भी हम ऐसे ही करना चाहते हैं। जुगानी ने सभा में यह शर्त रख दी। बात करने तो सब आए थे कि बिना बात किए ही जाना उचित समङो। किसी ने कोशिश भी की तो शर्त के आगे फे ल हो गए। तो हुजूर शर्ते इस तरह की भी हो सकती हैं। इस शर्त के आगे तो शाह मुहम्मद कुरैशी की शर्त तो कुछ भी नहीं। बिना वजह इसे लोग तूल दे बैठे। पड़ोसी को समस्या भी क्या है? बस उसी शर्त की तरह है कि खाना बनाओ लेकिन धुंआ मेरे घर नहीं आना चाहिए। फूल चढ़ाओ लेकिन सुगंध को कैद कर लो। चाचा चकचक हमेशा पड़ोसियों के लिए लट्ठ रखते थे लेकिन अब जमाना बदल गया पड़ोसी मिसाइल रखता है। जरा सी चूं चिकर करोगे तो फेंक देंगे। और ऐसे फे केंगे कि फिर पता भी नहीं चलेगा। लेकिन अपने पड़ोसी को कौन समझाए कि खून खराबा से कुछ नहीं होने वाला। अगर कुछ होगा तो मुहब्बत से लेकिन पड़ोसी से मुहब्बत परवान कहां चढ़ पाती है। फू ल दो तो वह उसका रंग-गंध नहीं देखता है हां कांटे पर नजर पहले जाती है। जब मुहब्बत के कांटे पड़ोसी को चुभने लगे तो मामला तो बिगड़ेगा ही।

तो हम फिर वार्ता पर आते हैं, हुजूर नतीजा कुछ न निकले लेकिन हम तो बतियाएंगे। एक दो बार नहीं, जब भी जी चाहे, यही नहीं, जब आदेश मिले, और तब भी जब वो चाहें। लेकिन चाहत तब अधूरी रह जाती है जब वह बात करते करते कुछ और कहने लगते हैं। कभी मुस्कुराते हैं, कभी खिसियाते हैं, कभी डराते हैं, कभी धमकाते हैं, कभी करीब आते हैं और कभी बात करते करते फु र्र्र। हुजूर ऐसे में कैसे बात करें। पड़ोसी के साथ तो एक और समस्या है पता ही नहीं चलता कि बात किससे करें। कभी कभी घर में सब बाप जसे लगते हैं और कभी कभी सब बेटा। जब मामला फायदे का हो तो पड़ोसी के घर सब मुखिया बन जाते हैं लेकिन जब घाटे का हो तो सब बच्चे। ऐसे में वार्ताकार की स्थिति बहुत नाजुक हो जाती है। हम तो गाना भी गाते है कि ‘दूर रह कर न करो बात करीब आ जाओज् लेकिन मर्जी उसकी फिर भी पड़ोसी चतुर है हर लड़ाई और मुहब्बत के बाद वह बात जरूर करता है। अब सुना है चुपके से बात करना चाहता है। उसे कौन समझाए कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी..

Friday, July 16, 2010

मेरा तांगा नहीं है....?

चल मेरी धन्नो.. यह शोले का मशहूर डायलाग था जिसे काफी दिनों तक अपनी गाड़ियों के पीछे जीप बस और ट्रक वाले भी लिखवाते थे। यह धन्नो तांगा खीचने वाली घोड़ी थी। पशुओं का मानव जीवन से गहरा रिश्ता है खासकर रोजगार से। दिल्ली से तांगा हटाने का फरमान जारी हो गया है। अस्तबल तोड़ दिए गए। अब उम्र भर तांगा चलाने वाला मोटरकार तो नहीं चला सकता। एक तांगा कई सवाल खड़े कर रहा है.. क्या हम इतने आधुनिक हुए हैं कि परंपराओं को एकदम भूल गए हैं या हम बाजारवाद की चपेट में हैं जो हम तांगे की विरासत को संभाल नहीं सकते या यह कि हम किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की नीति का इंतजार कर रहे हैं जो तांगे पर गद्देदार सीट लगाएगी और एक अजूबा की तरह लोग उसे देखेंगे तथा कुछ संभ्रांत लोग ही उस पर बैठेंगे। वह कंपनी उस पर अपनी मर्जी से टिकट रखेगी और तांगा पर चढ़ना तब एक फक्र की बात होगी। उसका घोड़ा साफ इत्र से युक्त होगा। बहरहाल तांगा और उसकी स्थिति तथा दिल्ली से जुड़े तांगे की स्थिति के बारे में वरिष्ठ पत्रकार हबीब अख्तर के विचार-

जो धीरे चलता है ह तेज गति से चलनेोलों से पिछड़ जाता है। यह सच्चाई हर जगह लागू होती है। रिक्शा, हाथ रिक्शा, तांगा, रेहड़ा, बुज्गी,ऊंट गाड़ी, बैलगाड़ी,घोड़ा गाड़ी, हाथ ठेला और बग्घी यह सब आधुनिक मोटरोहनों के मुकाबले पिछड़ गए हैं। तांगा तो उस समय ही पिछड़ गया था जब मोटरोहन के रूप में कार भारत की सड़कों पर दौड़ने लगी थी। नया दौर नाम से एक पूरी फिल्म इसी षिय पर बनी इसमें बदलते दौर में तांगेोलों की शिता को बहुत खूबसूरती के साथ उकेरा गया है। तांगा पिछड़ गया इस हार के बाजूद हमारे यहां नई और पुरानी चीजें साथ साथ चलती रही। प्राइेट टैक्सी बसों सरकारी बसों के प्रयोग में आने के बाजूद तांगा चलता रहा और आज भी अन्य शहरों में चल भी रहा है। सारियां भी इसे सस्ता मान कर अपनाती हैं।
एक दौर था कि तांगा सारी और माल ढुलाई के लिए देश के भिन्न शहरों कस्बों की तरह दिल्ली में परिहन का मुख्य साधन था। जिस तरह से आटो एक इंडस्ट्री है, उसी तरह से तांगा एक उद्योग होता हुआ करता था। जिस तरह से टैक्सी, ऑटो और रिक्शा चलाना गरीब लोगों की आजीकिा का साधन है ैसे ही तांगा गरीब लोगों की आजीकिा का साधन है। दिल्ली में इस सयम 250 तांगे हैं। दो चार घुड़साल अस्तबल हैं। गिनती के तांगा स्टैंड मौजूद हैं। टैक्सी स्टैंड की तरह पूरे शहर में जगह जगह तांगा स्टैंड, घुड़साल और अस्तबल होते थे। समय के साथ तांगा स्टैंड और घुड़साल अस्तबल लिुप्त हो गए है।
जब तांगा एक उद्योग था, हजारों लोग इसके रोजगार में जुड़े हुए थे। तांगे के पहिए, तांगे की बॉडी, घोड़े की नॉल, नॉल ठोकने, घोड़े के बाल काटनेोले, तांगे के लकड़ी के पहिये पर लोहे का कर पायदान बनानेोले ,रबर चढ़ानेोले और घोड़े घोड़ी की सजाट के साजो समान बनाने और सजाट करनेोले, घोड़े पर चलनेोले चाबुक छत बनाने रंगाई करनेोलों के अलाा घोड़े की मालिश करनेोले और घोड़े के लिए चारा इत्यादि उपलब्ध करानेोलों की लम्बी जमात होती है। रोजगार की तलाश में कस्बे शहर को आनेोलों के लिए तांगा उद्योग में कहीं न कहीं जगह मिल जाती थी। हालत इतने बदले हैं कि अब तांगेोलों को खुद अपना नया रोजगार ढूंढना होगा। हालांकि सरकार ने तांगों पर प्रतिबंध लगाकर तांगेोलों के पुर्नास की व्यस्था की है। इस ैकल्पिक व्यस्था का मतलब तांगे की एक पूरी रिासत को खत्म करना है। दिल्ली में तांगों पर प्रतिबंध का मतलब पूरे देश में तांगे पर प्रतिबंध लगाने जैसा है क्योंकि बाकी देश दिल्ली की दिखाई राह पर चलता है। यहां एक दौर था जब कनॉट प्लेस दिल्ली में राजी चौक पर जहां मैट्रो स्टेशन है हां की सड़कों पर तांगे चला करते थे। ओडियन सिनेमा हॉल के पास एक तांगा स्टैंड हुआ करता था। इसी तरह इंदिरा चौक से पचकुंइया रोड के मुहाने पर भी एक तांग स्टैंड था। इंडिया गेट से तांगे गुजरा करते थे। पिछली शताब्दी के आठें दशक के मध्य तक कनॉट प्लेस के अन्दर और बाहरोले सर्किल में तांगे चलते थे। उस दौर में यहां दो तरफा यातायात चलता था। यह तांगे एक तरह से पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली को जोड़ते थे। ‘मेरा तांगा नहीं है खाली जैसे गानों के बोल तो रहेंगे पर यहां तांगा नहीं होगा। बदलते दौर में तांगा ैसे ही अपनी धीमी मौत मर रहा था अब इन्हें लाइसेंस देनेोले दिल्ली नगर निगम ने शेष तांगो को बंद करने का निर्णय लेकर तांगों की मौत की सजा सुना दी है। तांगे को तो जाना ही है, इसके बाजूद एक साल बार बार मन में उठता है कि पर्यारण संरक्षण के दौर में क्या हम परिहन की इस रिासत को संरक्षण नहीं दे सकते। शहरी जिन्दगी में पर्यारण को सुरक्षित रखने के लिए जिस तरह से हम साइकिल की ओर लौटना चाहते हैं। उसी तरह से हमें तांगे की भी याद आएगी। क्योकि तांगा घोड़े की टापों और गर्दन में बंधे घुंघरुओं की ध्नि के अलाा किसी दूसरे तरह का प्रदूषण नहीं फैलाता। गली में जब कोई तांगा आता था तो लगता था कोई मेहमान आया है।
इन सब के बाजूद यहां एक साल उठता है कि राजधानी दिल्ली में हम जहां स्मारकों को हम संरक्षण दे रहे हैं। इन पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं। इनमें से करीब साढ़े तीन सौ महžपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों को शेिष तौर से सजा सांर रहे हैं। अक्टूबर में होनेोले राष्ट्र मंडल खेलों को देखने के लिए आनेोले मेहमानों के लिए ऐसे बहुत से काम हम शेिष तौर से कर रहे हैं। ऐसे में साल उठता है कि हम दिल्ली के करीब 250 तांगों को क्यों मौजूद रहने नहीं दे सकते? पर्यारण की दृष्टि से तांगा बेहतर सुरक्षित है। इसके चलने में एक सुर है एक ताल है। तांगा गुजरता है तो हमारे सामने से एक संगीत की धुन गुजरती है। इससेोतारण खराब नहीं होता। प्रदूषण नहीं फैलता है।
कह सकते हैं कि सड़कों पर अन्योहनों के साथ तांगा यह चलेगा तो तेज गतिोलेोहनों के सामने अरोध बनेगा। इसलिए तांगे को कुछ खास मार्गो और खास जगह तक आने जाने की अनुमति दे सकते हैं। देश में खादी और हस्तशिल्प जिन्दा है हमारे दस्तकार, कलाकार और कारीगर मौजूद हैं। हम इन सबको संरक्षण और सहायता देते हैं। इन्हें बनाए रखने के लिए शहरा और कस्बों में क्राफ्ट बाजार, क्राफ्ट इम्पोरियम तथा क्राफ्ट मेलों का आयोजन करते हैं। इन मेलों में ऊंट, घोड़े, हाथी और बग्घी की सारी की व्यस्था करते हैं। इनसे लोगों का भरपूर मनोरंजन होता है। आइस क्रीम के इस दौर में जिस तरह से बर्फ से बर्नी चुस्की का शेिष आनन्द है, उसी तरह से भिन्नोहनों के बीच तांगे से यात्रा करने का एक अलग आनन्द है। देशी और दिेशी पर्यटकों के लिए हम यहां के कुछ खास रास्तों और महžपूर्ण पर्यटन स्थलों के आस पास तांगों की सारी की व्यस्था कर सकते हैं। यहां के शेिष स्टैंड पर सजे धजे तांगे मौजूद रहें। शहर के लोग भी शौकिया तौर पर इसका इस्तेमाल रह सकते हैं। पर्यटकों को तांगे अश्य लुभाएंगे। इतनी शिाल और साधन सम्पन्न श् िस्तरीय बननेोली दिल्ली में अगर मलबा ढोने के लिए गधे और खच्चरों का प्रयोग जारी है। यहां इस काम को करनेोलों की एक पूरी बस्ती पुरानी दिल्ली में आबाद है। दिल्ली के भिन्न हिस्सों में छुट पुट ढ़ग से ऐसे लोग बसे हुए है। तरह तरह के आधुनिकोहनों के बाजूद यहां पारम्परिक शादी में दुल्हा घोड़ी की सारी करता है। कुछ व्याह शादियों में हाथी और घोड़े की भी सारी होती है। दिल्ली शहर में जीन धिता जिस तरह से इस शहर को सुन्दर बनाती है। उसी तरह से यातायात के भिन्न साधन परिहन में अलग अलग रंग भरते हैं। इसमें तांगा भी रहे तो हर्ज क्या है। ऐसा लगता है कि हाशिए पर जीन जीनेोलों से जुड़े लोगों और उनसे जुड़े साधनों के प्रति जो उपेक्षा का नजरिया होता है ह नजरिया तांगे के साथ दिल्ली नगर निगम ने दिखाया है। केन्द्र दिल्ली सरकार एक प्रकार से इस अपनी मौन सहमति दिखा रही है। सम्पन्न व्यक्तियों से जुड़े साजों सामान को जिस तरह से संरक्षण मिलता है ैसी इज्जत आम आदमी से जुड़े साधनों को नहीं दी जाती है।
रईस लोगों की पुरानी कारें धीरी गति से सड़कों पर जब चलती हैं तब उन्हें कौतुहल और इज्जत भरी नजरों से देखा जाता है। इन पुरानी कारों की अधिकतम गति 60 से 80 किलोमीटर के बीच है जबकि इनकीोस्तकि गति 30 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा के आस पास ही रहती है। तांगे में बंधा जान घोड़ा जब सरपट दौड़ता है तो ह भी 30-40 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति पार कर लेता है। तांगे के प्रति उपेक्षा और पुरानी कारों के प्रति इज्जत एक तरह की पीड़ा देनेोला भा है। इन कारों की प्रतिष्ठा के लिए हर र्ष शहर में एक बड़ा आयोजन होता है। राजपथ के जिय चौक से िंटेज कार रैली गुजरती है। धूमधाम से होनेोले इस आयोजन को मीडिया भी प्रचारित करता है। िंटेज कार रैली जहां से गुजरती है उस समय रास्ते रोक दिए जाते हैं और जिस रास्ते से रैली गुजरती है हां दूसरेोहन नहीं चलते हैं। अफसोस के साथ कहना होगा कि तांगों के लिए ऐसा आयोजन लम्बे समय से यहां कहीं देखने को नहीं मिला। अब यहां तांगे ही नहीं रहेंगे तो ऐसे आयोजनों इनकी सारी की कल्पना भी नहीं होगी।

Tuesday, July 13, 2010

शुक्रिया, फुटबाल! शुक्रिया फीफा!



मनोहर नायक

अब आठवां देश स्पेन! फुटबाल की एक बहुत बड़ी और भव्य दुनिया का विजेता देश। हमेशा चूकता, लेकिन इस सुंदर खेल को अपने खास दिलकश अंदाज में खेलता स्पेन अंतत: ग्यारह जुलाई 2010 को अपना हक पा गया। जोहानीसबर्ग में फाइनल गो उसने उस अंदाज में नहीं जीता जिसकी उम्मीद थी। जर्मनी की मंजी हुई शानदार टीम को जसा खेलकर उसने हराया उसकी फाइनल में एकाध दफा ही झलक दिखी। जर्मनी की टीम भी युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से लैस थी। अर्जेटीना जसे दावेदार का उसने वैसा ही मजाक बनाकर रख दिया था जसा स्पेन ने सेमीफाइनल मे उसका मजाक बना दिया था और पहली बार फाइनल में पहुंची थी। दूसरे दावेदार ब्राजील को हराने वाली नीदरलैंड भी उखड़ी हुई थी। एक गोल से पिछड़कर हाफ टाइम के बाद उसका खेल स्तब्ध करने वाला था जिसने अंतत: ब्राजील को वापस मुल्क भेज दिया था। स्पेन की कला नदारद थी तो नीदरलैंड का जोशीला जुझारूपन। उनका खेल ‘फिर भी डटे रहे डचज् मार्का ही रहा और एक सौ अठारहवें मिनट में सबस्टीट्यूट फैबरेगास के पास पर आंद्रेस इनिएस्ता ने उन्हें तीसरी बार भी हाथ मलते रहने छोड़ दिया। एक तरह से देखें तो विश्व कप के कुछेक बेहद उम्दा मैचों के बाद फाइनल फीका था। एकस्ट्रा टाइम के कारण लंबा था और उसमें उबाऊ वाले क्षण भी काफी थे। लेकिन उसका जबर्दस्त आकर्षण था कि आठवां विजेता पहली बार कौन होगा! और आक्टोपस पॉल, बनारसी श्यामा चिड़िया, सिडनी के मगरमच्छ और सिंगापुरी तोते को छोड़िये, भूलिये, जीता वही जो बेहतर था।
बेशक स्पेन बेहतरीन टीम थी। इस टूर्नामेंट की सर्वोकृष्ट। 2008 में यूरो कप जीतने के बाद से वह लगातार शानदार खेल रही थी। एक अत्यंत सुसम्बद्ध टीम। उसके छोटे-छोटे सुंदर पासों वाला खेल ब्राजील के अच्छे दिनों की याद दिलाता था। टॉरेस, इनिएस्ता, विला, पुयोलो, फैबरेगास जसे हुनरमंद और धाक रखने वाले सितारे टीम में एक अदद खिलाड़ी ही नजर आते थे। एक स्वार्थी प्रेडो थे, जो वैसे फाइनल में अपनी निजी महत्वाकांक्षा से मुक्त हो गये थे। इस टीम का लक्ष्य स्पष्ट था और उसने उसे भेद ही दिया। पॉल बाबा का क्या विधि विधान था और मीडिया से मशहूर हुए बाकी ‘ज्योतिषीज् किस कर्मकांड से विजेता तय कर रहे थे यह तो शायद ही पता चल सके लेकिन एक चीज जो खेल में हरदम सूर्यप्रकाश सी स्पष्ट होती है वह है: ‘खेलज्। इसलिये डियेगो माराडोना हों या फुटबाल के नामी और अनाम प्रेमी, ज्यादातर, सभी की पसंद स्पेन पर सिमट आयी थी।


अब फुटबाल क्या सभी खेलों में अंधविश्वास का चलन आम है। निर्णायक क्षणों में प्रशंसक भी सिर ऊपर उठाए बुदबुदाते दिखते हैं। फुटबाल का संसार और उसके दांव और खेलों से कहीं ज्यादा विशाल और व्यापक हैं तो यहां अंधविश्वास भी वैसा ही ज्यादा है। अनंत किस्से हैं। मसलन, किसी टीम के कोच ने मैच के आसपास चिकन खाने पर रोक लगा दी थी। किसी विश्वकप के एक सेमीफाइनल में एक खिलाड़ी ने अपना नाम हटवा लिया क्योंकि उसे लगता था कि इस टीम के खिलाफ जब-जब मैं नहीं खेला तब-तब जीत हुई। खिलाड़ियों को मैदान की घास चूमते, आकाश की ओर देखते, क्रास बनाते और मैदान में घुसते ही गोल पोस्ट में किक लगाते या पोस्टों को चूमते तो हर समय देखा जा सकता है। हारने पर खिलाड़ी मातम मनाते हैं और कुछ को यह सदमा रहता है कि इसलिये हारे क्योंकि पिछली बार जीतने के बाद जर्सी विपक्षी टीम के खिलाड़ी से बदल ली थी। अब इसी बार जर्मनी के कोच जोआकिम लोव स्पेन के खिलाफ सेमीफाइनल में वही जर्सी पहने हुए थे जो उन्हें लगता था उनके लिये जीत का डंका बजा रही है। उनके खिलाड़ियों ने उन्हें उसे धोने तक नहीं दिया था। लेकिन हुआ क्या स्पेन ने अच्छी-खासी टीम की गत बना दी।
इस स्वीकारोक्ति में भला क्या हर्ज की ब्राजील के पुराने शैदायी हमें भी क्वार्टर फाइनल में नीदरलैंड के खिलाफ ब्राजीलियनों को अपनी मशहूर पीली जर्सी में न देखकर खटका हुआ था। लगा था कि जिताने के लिये इस नीली जर्सी की पीली पट्टियां ही काफी नहीं। ब्राजील हार भी गयी। बाद में पढ़ा कि दशकों से ब्राजील इस जर्सी को पहनकर हालैंड से जीतती रही है। लेकिन जर्सियां नहीं जितातीं! दस नंबर की जर्सी की क्या दुर्दशा हुई! काका-मैसी-रूनी सभी फ्लाप। टॉप स्कोरर न होते हुए भी दस नंबर की जर्सी वाला खिलाड़ी टीम की आत्मा होता है, दिल-दिमाग। पेले-प्लातीनी और बैजियो की तरह। वह तो कहिये फोरलैन और श्नाइडर ने उसकी कुछ लाज बचा ली।
ब्राजील के पूर्व कप्तान सोक्रेटीज ने स्पेन को जीतने का हकदार बताते हुए कहा भी था कि अगर मैं अंधविश्वासी होऊं तो मानूंगा कि इस टूर्नामेंट के सारे मैच जीतने वाली नीदरलैंड को ही फाइनल जीतना चाहिए। बात सही है। खेल में ऐसा नहीं होता। पहला ही मैच हारने वाली स्पेन विजेता रही और कोई भी मैच न हारने वाला नीदरलैंड सबसे महत्वपूर्ण, निर्णायक और ऐतिहासिक मैच हार गया। औरों की तरह स्पेन के कोच विसेंट डेल बोस्क को अपनी टीम पर भरोसा था, पर वे किसी मुगालते में नहीं थे। शुरू में ही एक इंटरव्यू मे उन्होंने कहा था, ‘कोई मैच आसान नहीं होता। पेपर पर कोई भी टीम बड़ी हो सकती है पर वह जीते यह शर्तियां नहीं होता।ज् यूं देखें तो वाकई सबसे तगड़ी टीम इंग्लैड की थी। अर्जेटीना और ब्राजील भी। लेकिन सब पूर्व विजेता एक-एक कर बाहर होते गए। ब्राजील की टीम का तो चाल-चलन ही बदल दिया कोच डूंगा ने। उनके लिये ‘जीतज् महत्वपूर्ण थी। जीतने के लिये तो खेला ही जाता है लेकिन जसा कि उरुग्वे के इतिहासकार एडुआडरे गैलियानो कहते हैं कि फुटबाल की यात्रा ‘ब्यूटीज् से ‘ड्यूटीज् हो जाने की है। गोल मारने के बजाय, बचाने पर जोर हो गया है। खिलाड़ी से उसकी सूझबूझ छीन ली गयी है। वह ‘जीतज् का बंदी है। सोक्रेटीज ने अपने एक कॉलम में जसे अपने ही समकालीन डूंगा को ध्यान में रखकर लिखा: ‘बहुत से कोच आजकल आज्ञाकारी और औसत खिलाड़ियों को पसंद करते हैं। ये बिना सोच-विचारे आदेशों को मानते रहते हैं और कलात्मकता की बनिस्बत भद्दे ढंग से खेलकर मैच जीतना चाहते हैं।ज् इतिहास को अपनी आगोश में लेने की कश्मकश वाले फाइनल में ‘जीतज् का यह दबाव दिखा जिसने खेल को भद्दा भी किया और दोनों टीमों का निजी कौशल भी कम किया।
इस विश्व कप ने एक नया विजेता दिया है और बताया है कि फुटबाल की दुनिया बदल रही है। दिग्गज बौने नजर आ रहे हैं। इटली स्लोवाकिया के हाथों पिटती है। सितारों की चमक धूमिल पड़ रही है। गोल्डन ग्लोव पाने वाले इकेर कैसियास हों या इनेएस्ता, जिन्हें रूनी भी सर्वश्रेष्ठ फुटबालर मानते हैं, मुलर हों या विला या फोरलैन या घाना के गोलची किंग्स्टन या जियान या होंडा। नये-नये सितारे उभरे हैं। आगे अफ्रीका और एशिया की चुनौती और तीव्र होगी। खुद फीफा बदल रहा है। चूकों के लिये वह शर्मिदा हुआ और नियम बदलने पर आमादा है। वेवेजुला की गूंजती आवाजों ने उसके कान-कपाट खोल दिये हैं। इसकी गाज तीखी आवाज वाले वेवेजुला पर भी गिरी है। 2014 के लिए उस पर पाबंदी लग गयी है।

वेवेजुला के शोर, जुबलानी पर प्रहार की दुनिया से हम परसों देर रात एकाएक बाहर आ गए। महीने भर तक हम फुटबाल की विराट और रोमांचकारी दुनिया की प्रजा थे। शायद इस दौरान की यह सबसे बड़ी दुनिया होती है। अनेकता में जुनूनी एकता वाली। देशों, भाषाओं की सबसे विविध और रंगीन दुनिया। फीफा जिसकी सरकार होता है और जो अपना काम ‘अरबितरोज् यानी रैफिरियों के जरिये निरंकुश ढंग से चलाता है। इस दुनिया में शामिल रहना अनोखा और लाजवाब था। जसा कि विश्व कप आयोजन समिति के प्रमुख कार्यकारी डैनी जॉर्डान ने कहा कि फुटबाल का यह आयोजन हमें जोड़ता है। अपनी भाषा का एक शब्द ‘उबन्नुज् उन्होंने इस्तेमाल किया जिसका अर्थ है कि हम सब आपस में बंधे हुए हैं। फीफा की यह सरकार दखलंदाजी भी पसंद नहीं करती। फुटबाल तो करामाती है। उथल-पुथल करती है। देश, सरकार उससे डावांडोल होती हैं। पर फीफा डपटे तो नाइजीरिया और फ्रांस सब दुबक जाते हैं। लेकिन लोग, वे तो फुटबाल के जरिये बदला लेते और चुकाते हैं। सोरेज उरुग्वे में ‘हीरोज् तो जाते हैं तो समूचे अफ्रीका में ‘चीटज्। घाना ही नहीं पूरा अफ्रीका उरुग्वे के खिलाफ मैच में नीदरलैंड के समर्थन मे वेवेजुला बजाता है। फीफा ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल इस बार नस्लवाद के खिलाफ किया। और देखिये, नस्लवाद के गढ़ रहे दक्षिण अफ्रीका में और उसके खिलाफ लड़ने वाले अप्रतिम योद्धा नेल्सन मंडेला की उपस्थिति में वह नीदरलैंड हार गया, जिसने औपनिवेशिक दौर में नस्लीय नियम लागू किये थे। लोग कहते रहें, खेल-खेल है, इतिहास -इतिहास। लेकिन फुटबाल का खेल इतिहास से सामना कराता रहता है।

Sunday, July 11, 2010

विमल रॉय: एक यथार्थवादी निर्देशक


फिल्म समाज का आइना है और फिल्मकार समाज को गहराई से देखकर एक कलमकार की तरह उसे पृष्ठों पर उकेरने वाला जनक। प्रसिद्ध फिल्मकार विमल राय उन्हीं फिल्माकारों में से थे जिन्होने समाज की सही दशा अपनी फिल्मों के माध्यम से लोगों के सामने लाए और दर्शकों को एक नए सिनेमा से रूबरू कराया। हम आज उनकी जन्मतिथि को उन्हे याद करते हैं और उनके कार्य को शत शत नमन करते हैं।
हिंदी फि ल्म जगत में मिल राय एक ऐसी सुहानी बयार की तरह आये जिन्होंने अपनी ‘देवदास, दो बीघा जमीन, ‘परणीता, ‘बिराज बहू और बंदिनी जैसी फि ल्मों से मनोरंजक और यर्थाथ सिनेमा की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ दिया । साथ ही उन्होंने फि ल्म निर्माण के लगभग हर पक्ष को एक सर्वथा नया छंद दिया। समीक्षकों के अनुसार उनकी लगभग हर फिल्म विषय को बेहतरीन ढंग से उठाने की कला, संगीत, फिल्मांकन, अभिनय, गीत चिंत्राकन के कारण फि ल्मकारों के लिए आज भी पाठ्यपुस्तक का काम करती हैं। मिल राय की फि ल्में मानीय रिश्तों और समाज की बलती प्रृतियों को बहुत गहराई तक कुरेती हैं और उनकी फ ोटोग्राफि क नजर मधुमति जैसी फि ल्मों में प्रकृति की सूक्ष्म धड़कनों को महसूस करती है। 12 जुलाई 1909 को ढाका में जन्मे मिल राय ने श्याम श्वेत फिल्मों में फि ल्म निर्माण के कुछ ऐसे प्रतिमान गढ़ दिए जिन्हें तोड़ना आज के फि ल्मकारों के लिए भी मुश्किल है।
फि ल्मकार अनर जमाल उनके बारे में कहते हैं कि मिल राय और उनके ौर के फि ल्मकार सामाजिक सरोकारों के प्रति सेंनशील होते थे और उन्हें साहित्य एं संगीत की समझ होती थी। इससे उस ौर के फि ल्मकारों की फि ल्मों में सामाजिक, राजनीतिक, लित मिर्श और महिला मिर्श की स्पष्ट छाप दिखाई है। उनका कहना है कि र्ष 1953 में प्रर्शित उनकी फि ल्म ‘दो बीघा जमीन की प्रासंगिकता को इक्कीसीं सी में देखा जा सकता है। उस वक्त जब दूनिया ने ‘सुपर इकोनामिक जोन का सपना भी नहीं देखा था, मिल राय जैसे यथार्थवादी निर्देशक ने इस बात की कल्पना कर ली थी कि आने वाले समय में इसके नाम पर किसानों और खेतिहर मजूरों को किस तरह के संकट का सामना करना पड़ेगा। फि ल्म समीक्षक और इतिहासकार अमरेश मिश्रा इस संदर्भ में कहते है कि सामाजिक बला के दौर में विमल राय और महबूब दो प्रमुख फि ल्मकार थे। जहां विमल राय लोकतांत्रिक चेतना के वाहक थे और उनकी फि ल्मों का फलक इतना विशाल था कि उन्हें किसी खास विचारधारा से बांधा नहीं जा सकता, दूसरी तरफ महबूब की फि ल्मों का समाजावादी रूझान एकदम स्पष्ट था। विमल राय ने ‘सुजाता के जरिये समाज में व्याप्त छुआछूत की समस्या को परे पर उतारा। वहीं ‘परख के जरिये देश की चुनाव पद्धति को परखने की कोशिश की और यह भष्यिवाणी करी कि इस देश की चुनाव प्रणाली भ्रष्ट होती जा रही है। उन्होंने कहा, ‘‘विमल राय में, व्यासायिक सिनेमा की गहरी समझ थी और हर दर्शक की नब्ज से भली भांति परिचित थे। आजकल के फि ल्मकारों की कई फि ल्में उनकी फि ल्मों से प्रेरित नजर आती हैं। समाज, देश की बुराइयों के साथ ही स्त्रियों की समस्याओं पर भी उनकी दृष्टि थी। हिंदी सिनेमा में आज भी नायक प्रधान फि ल्में बनती हैं, जबकि मिल राय उस क्त नायिकाओं की अभिनय क्षमता को न केल सामने लाये बल्कि उन्होंने फि ल्मों के नाम भी महिलाओं पर रखे। छायाकार के रूप में ‘न्यू थियेटर कंपनी में काम करने वाले विमल राय को निर्देशन का सफ र तय करने में उन्हें आठ साल लग गये। उन्होंने 1944 में पहली हिंदी फि ल्म ‘हमराही का निर्देशन शुरू किया, जो बांग्ला फि ल्म ‘उयेर पाथेज का हिंी संस्करण थी। फिल्म की नई धारा की शुरूआत करने वाला यह सात जनरी 1966 को मुंबई में उनका निधन हुआ। लेकिन फिल्मों और विचारों के माध्यम से वह हमारे बीच सदैव मौजूद रहेंगे।
दीपक सेन

Friday, July 2, 2010

खाप का खौफ कब तक !

पंकज चौधरी

कुछ दिन पहले करनाल जिला अदालत ने मनोज-बबली हत्याकांड के सात अभियुक्तों में से पांच को जब मौत की सजा सुनाई तो खाप के चौधरियों ने आसमान को सर पर उठा लिया था। इन चौधरियों ने तुरंत कुरुक्षेत्र में एक सभा बुलाई और अदालती फैसले को जमकर कोसा। खापों के इन नेताओं ने मनोज-बबली हत्याकांड के दोषियों के प्रति पूरी हमदर्दी जताई और फरमान जारी किया कि मौत की सजा पाए लोगों का मुकदमा हाई कोर्ट में लड़ने के लिए हर परिवार दस-दस रुपए का चंदा जुटाए। इसके अलावा इन्होंने सबसे बड़ा फैसला जो लिया वह यह था कि एक ही गोत्र में शादी पर पाबंदी लगाने के लिए हिन्दू मैरिज एक्ट-1955 में सरकार संशोधन करे। हिन्दू मैरिज एक्ट-1955 के सेक्शन-5 में लिखा है कि ‘उसी स्त्री से विवाह न्यायसंगत है जो मानसिक रूप से स्वस्थ हो, उसे बच्चे पालने में कोई कठिनाई नहीं हो, उम्र 18 साल से ज्यादा हो और पति के साथ ब्लड रिलेशन नहीं हो।ज् मतलब यह ब्लड रिलेशन माता-पिता की ओर से तीन-चार पीढ़ियों तक सीमित रखा गया है।
खाप पंचायतें जो एक ही गोत्र या फिर एक ही गांव के लड़का-लड़की के विवाह कर लेने पर उसे मौत के घाट उतारने का फरमान जारी करती हैं, की सबसे बड़ी आपत्ति तथाकथित जेनेटिक चिंताओं को लेकर है। इनका तर्क है कि एक ही गोत्र के लड़के-लड़की से जो संतान उत्पन्न होगी उसमें कई तरह के की विकृतियां होंगी। मसलन उनमें सफेद दाग, विकलांगता, हीमोफीलिया आदि-आदि बीमारियां हो सकती हैं। इस बात की पुष्टि के लिए जब मैंने कई विकलांग, हीमोफीलिया और सफेद दाग से पीड़ित लोगों से बात की तो पता चला कि उनके माता-पिता तो कोई समगोत्रीय नहीं थे। वे लोग जसा कि हिन्दू विवाह पद्धति का नियम है कि वे एक ही जाति के हों, तो वे वैसे ही थे। इसके अलावा शादी से पहले उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता भी नहीं था। मतलब विकृतियों की समस्या अलग-अलग गोत्रों के बीच हुई शादियों में भी हो सकती है। यह कहना कि सगोत्रीय शादी में ही ये समस्या उत्पन्न होती है, बेबुनियाद है। इस सिलसिले में मैंने मेडिकल साइंस के कुछ प्रगतिशील विशेषज्ञों से भी बात की तो उन सबका मिला-जुलाकर यही जबाव था कि हजारों में किसी एक करैक्टर में ही जेनेटिक विकृतियों की आशंका रहती है।
सारा विवाद इस एक शब्द ‘गोत्रज् को लेकर है। इस शब्द का उल्लेख पहले-पहल गवेद में मिलता है। गवेद की गुरु-शिष्य परंपरा या फिर उस आश्रम की जहां गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान बांटने का काम करते थे जगजाहिर है। कहा जाता है कि यह ‘गोत्रज् शब्द वहीं से आया है। एक आश्रम में शिक्षा लेने वाले लोग सगोत्रीय माने जाते थे और उनके बीच शादी की मनाही थी। हम इस बात से अवगत हैं कि वैदिक काल में जाति के स्थान पर वर्ग अस्तित्व में था और आश्रम में ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य तीनों वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। इस आधार पर आश्रम में जब तीनों वर्ग के लोग शिक्षा प्राप्त कर सकते थे तब उनका ‘गोत्र एक कैसे हुआ? गोत्र का आधार जब ब्लड रिलेशन है तब फिर आश्रम के तीनों वर्गो के शिक्षार्थियों का भी जाहिर है, ब्लड ग्रुप अलग-अलग होगा। क्या विभिन्न क्षेत्रों, वर्गो और अनुशासनों से आने वाले लोगों को मनमाने तरीके से एक ही ‘गोत्रज् के खूंटे में बांध दें? और फरमान जारी कर दें की इनके बीच अब रोटी-बेटी का संबंध नहीं हो सकता। तब फिर दुनिया कैसे चलेगी! यह ‘गोत्र शब्द जब से अस्तित्व में आया है तब से ही यह फर्जीवाड़ा है। ये दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस देश के 80 प्रतिशत लोगों को उसके ‘गोत्र का कुछ अता-पता नहीं। मैं अपने गांव के एक सम्पन्न मुशहर को जानता हूं, जिनसे श्राद्ध में उनके गोत्र का नाम जब उनके पुरोहित के द्वारा पूछा गया तो वे अकचका कर रह गए और उन्होंने अपने गोत्र का नाम बताने में असमर्थता जताई। तब पुरोहित ने अपने यजमान को अपने गोत्र का नाम दिया और कहा कि आज से आपके गोत्र का नाम हमारे ही गोत्र से चलेगा। और पूरा श्राद्ध पुरोहित के गोत्र से सम्पन्न हुआ। जाहिर है कि पुरोहित के पूर्वजों की आत्मा को ही शांति मिली होगी न कि यजमान के पूर्वजों की आत्मा को।
आदिवासी समाज की जीवन पद्धति को बहुत ही प्राकृतिक और वैज्ञानिक माना जाता है। उस समाज के वैवाहिक आधार को यदि हम देखें तो चौंक जाएंगे। भारत, ब्राजील और अमेरिका की कुछ जनजातियों में भाई-बहन, चाची-भतीजा, मौसी-भांजा और यहां तक कि दादी और पोते के बीच भी शादियां होती हैं। बशर्ते उन लोगों के बीच प्रेम हो। और ऐसी शादियों में उस समाज के चौधरियों और नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मुस्लिम समाज में ‘दूधज् के संबंध को छोड़कर धड़ल्ले से शादियां होती हैं। दक्षिण भारत में तो बहन अपने भाई की बेटी को अपने बेटे से ब्याह करवा देती है। आज जब दुनिया एक गांव में तब्दील हो गई है और कोई भी कहीं भी विचरने के लिए स्वतंत्र है तब फिर दो बालिग को जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं और आपसी सहमति से शादी करना चाहते हैं, को मौत के घाट उतार देने का फरमान जारी करना कहां तक उचित कहा जा सकता है।

खाप पंचायतों की ओर से प्रेमियों के लिए मौत के जितने भी फरमान जारी किए जाते हैं उनमें लड़कियों की हत्या की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं, क्योंकि सामंती समाज में लड़कियां ही घर की इज्जत होती हैं। सामंती समाज का सीधा संबंध खेती और सत्ता से है। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति हुई और इसका फायदा वहां के किसानों को मिला। इस क्षेत्र के किसान अमूमन जाट हैं। हरित क्रांति की समृद्धि के बलबूते ही पिछले 25-30 वर्षो से हरियाणा में जाटों की सरकार है या उसके पास भी सत्ता है। इस सत्ता के नशे में ही वे पंचायती राज व्यवस्था को नहीं मानते और इसके समानांतर उन्होंने खाप पंचायतें चला रखी हैं। एक आंकड़े के अनुसार हरियाणा के 6759 गांवों में 6155 पंचायतों की व्यवस्था है लेकिन कई गांवों में इन पंचायतों की तुलना में खाप पंचायतें ज्यादा प्रभावशाली हैं। मतलब खाप पंचायतें आधुनिक सरकार और राज्य को सीधे-सीधे चुनौती देने का काम करती हैं। पिछले 25-30 वर्षो के दौरान हिन्दीभाषी राज्यों की मध्यवर्ती जातियों के पास भी सत्ता आई है। बिहार और उत्तर प्रदेश की यादव और कुर्मी और हरियाणा की जाट ये तीनों जातियां मध्यवर्ती जातियां तो हैं ही साथ ही ये मार्शल कास्ट भी मानी जाती हैं। मार्शल कास्ट प्राकृतिक रूप से दक्षिणपंथी रुझान की होती हैं। ये महिलाओं और दलितों पर उसी तरह से अत्याचार करेंगे जिस तरह से ब्राह्मण और राजपूत करते हैं। हरियाणा में पिछले दिनों मिर्चपुर में एक दलित पिता और उसकी बेटी को जिंदा जला देने की घटना इसी का ज्वलंत उदाहरण है। बिहार और उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों, ठाकुरों और भूमिहारों के बाद दलितों के ऊपर सबसे ज्यादा अत्याचार यादवों और कुर्मियों ने किए हैं। देखा जाए तो इन मध्यवर्ती जातियों ने आज पहले के ब्राह्मणों और ठाकुरों का स्थान ले लिया है। सती प्रथा और विधवाओं का विवाह नहीं होने देने की समस्याएं पहले निम्न जातियों में दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलती थीं। मतलब महिलाओं का दमन यहां नहीं था। महिलाएं यहां स्वतंत्र थीं, क्योंकि वे अपनी आजीविका का साधन खुद जुटाती थीं। महिलाओं का दमन और खाप पंचायतों के फरमान सीधे-सीधे पुरुषवादी, सामंतवादी और वर्चस्ववादी लोगों से जुड़े हुए हैं।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...