Friday, March 6, 2009

नजरें जो बदलीं..



नजरें जो बदलीं..
पिछले एक सप्ताह से बौद्धिक वर्ग से ताल्लुक रखने वाली महिलाएं बेहद सक्रिय नजर आ रही हैं। इन दिनों अखबार और चैनलों में भी कोई न कोई महिला संबंधी लेख पढ़ने को मिल ही जाता है। सबसे ज्यादा व्यस्त इन दिनों महिला पत्रकार हैं, क्योंकि उन्हें आठ मार्च के लिए सामग्री जो जुटानी है। मुश्किल यह है कि पुरानी बोतल में नई शराब भरें भी तो कैसे। क्योंकि महिलाओं की समस्याएं भी पुरानी हैं और समाज का नजरिए में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। लेकिन कलमकार होने की रस्म तो अदा ही करनी होगी। ऊपर मैंने समाज के नजरिए की बात की वही पुराना, घिसा-पिटा नजरिया। पहले सोचा भ्रूण हत्या पर लिखूं पर कुछ नया नहीं लगा। तकरीबन डेढ़ दशक पुराना है यह मुद्दा। दहेज पर हजारों लेख लिखे जा चुके हैं। घरेलू हिंसा अभी पं्रह दिन भी नहीं बीते मैंने हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर हाल में इस मुद्दे को लेकर सीएसआर के सौजन्य से आयोजित एक प्रेस वार्ता में शिरकत की थी। सरकार के प्रति बहुत गुस्सा था बौद्धिक वर्ग की महिलाओं में। आरक्षण का मुद्दा भी उठाया गया। दबी कुचली महिलाओं के लिए इन परोपकारी महिलाओं ने आवाज उठाई। वार्ता खत्म करके जब मैं बाहर आई तो ऊनी शाल बेच रही महिला के भावहीन चेहरे को देखकर मैं समझ गई कि यह अंदर चलने वाली महिला आजादी की मुहिम से बेखबर है। सो इस मुद्दे को भी मैंने छोड़ दिया।
मुद्दा तलाशते-तलाशते मैं अचानक दिल्ली की वढेरा गैलरी में पहुंच गई, वहां पर लगी फोटोग्राफी की प्रदर्शनी देखकर मुङो सुकून का एहसास हुआ। इसलिए नहीं क्योंकि यह किसी महिला फोटग्राफर के फोटो की प्रदर्शनी थी, बल्कि इसलिए क्योंकि दिल्ली तक पहुंचने वाली यह महिला शादी गार्डिया एक ऐसे देश से ताल्लुक रखती है जहां आज भी बुर्का महिलाओं की पहचान है। दीवार पर शादी ने अपने कुछ फोटो भी लगाए थे। एक तस्वीर में शादी अपने कैमरे को निहार रही हैं। उस चेहरे को बेहद बारीकी से देखो तो आपको पता चलेगा कि इस महिला ने अपनी आइब्रो के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की है। बात आइब्रो बनवाने या पार्लर जाने की नहीं है बात है लगन की, ईरान जसे कट्टर देश में अपना वजूद बनाने के लिए इस महिला को कितना जूझना पड़ा होगा। वहां लगी फोटो खुद ही बयान कर देती हैं। बुर्के से ढके चेहरों के ठीक सामने रसोईंघर के बर्तन यानी कप प्लेट, कद्दूकस और भी ना जाने क्या-क्या। इस बात का सबूत है कि बुर्का तो मात्र प्रतीक है, इसकी आड़ में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कई बंदिशों से गुजर कर शादी ने दिल्ला तक का अपना सफर तय किया होगा। हालांकि शादी ने अपने ब्रोशर में इस बात का भी जिक्र किया है कि उसके अब्बा उन तंग दिमाग वाले लोगों से बेहद अलग थे जो लड़कियों की आजादी के खिलाफ होते हैं। यह तो महज एक उदाहरण है जो हालिया होने की वजह से मेरे जहन में ताजा था सो लिख दिया। लेकिन और भी ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें बंदिशें रोक नहीं पाईं। पर ऐसी महिलाएं महिला दिवस जसे आयोजनों से दूर ही रहती हैं। उनका आदर्श कोई जुझारु इंसान होता है। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि वह महिला है या पुरुष। वह चीख-चीख कर किसी आरक्षण की मांग भी नहीं करती हैं। मुझसे किसी ने कहा था कि नजरें क्या बदली नजारे बदल गए। शादी जसी महिलाएं नजरें बदलती हैं और ढूंढ़ती हैं अपने हिस्से का आकाश।
संध्या द्विवेदी, आज समाज

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