Sunday, July 26, 2009

गंगूबाई हंगल


गंगूबाई हंगल
यह एक अद्भुत संयोग है कि कर्नाटक और हिंदुस्तानी दोनों तरह की संगीत धाराओं का गढ़ कर्नाटक में ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि हिंदुस्तानी संगीत कर्नाटक को बीच से काटने वाली तुंगभद्र नदी के उत्तर में पनपा और बढ़ा जबकि कर्नाटक संगीत नदी के दक्षिण में। हिंदुस्तानी संगीत की गायकी के लगभग सारे बड़े नाम उत्तरी कर्नाटक में एक-दूसरे से सटे तीन जिलों से आते हैं, जिनमें धारवाड़, हुबली और बेलगांव शामिल हैं। सवाई गंधर्व, कुमार गंधर्व, बसवराज राजगुरु, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, गंगूबाई हंगल और राजशेखर राजगुरु सब के सब इसी धरती की देन हैं।
गंगूबाई अपने परिवार में पहली गायिका नहीं थीं लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय गायकी के लिए बहुत अनुकूल नहीं थी। यह बात भी उनके खिलाफ जाती थी कि वे महिला होकर शास्त्रीय संगीत की पुरुष प्रधान बिरादरी में दाखिल होना चाहती थीं। गंगूबाई की मां अंबाबाई, यहां तक कि उनकी दादी भी देवदासी परंपरा से आती थीं और मंदिरों में गायन उनके लिए सहज-सामान्य था लेकिन मंदिर के बाहर सार्वजनिक मंच से शास्त्रीय गायन उतना ही कठिन। गंगूबाई का गायन आठ दशक में फैला हुआ है लेकिन शायद गायकी की पुख्तगी से ज्यादा बड़ी बात यह है कि उन्होंने तमाम तरह की विषमताएं ङोलते हुए अपना मुकाम हासिल किया। कन्नड़ में लिखी अपनी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संगीतज् में गंगूबाई ने इसका विस्तार से हवाला दिया है और लिखा है कि उन्हें ऊंची जातियों के शुक्रवारपेठ मोहल्ले से निकलते हुए किस तरह की फब्तियां सुननी पड़ती थीं। उन्हें बाई और कोठेवाली कहा जाता था।
गंगूबाई के बचपन के गांव हंगल में मैंने उनका पुश्तैनी घर देखा। सौ साल पहले बने छोटे से अहाते वाले उस घर के पांच टुकड़े हो गए थे, जिस पर बंटवारे के बाद परिवार के लोगों ने अलग-अलग घर बना लिए थे। गंगूबाई की मां के हिस्से में आया टुकड़ा उजाड़ था। खपरैल की छत थी, पर टूटी हुई। सामने के दरवाजे पर ताला लगा था और लकड़ी की दोनों खिड़कियां गायब थीं। मुङो उस घर तक ले गई एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि गंगू उनकी बचपन की सहेली थी लेकिन अब यहां नहीं आतीं। उसने हुबली में घर बनवा लिया है। नई पीढ़ी के बच्चों में ज्यादातर ने उनका नाम नहीं सुना था और कुछ बुजुर्गो में वही हिकारत थी, जिसका जिक्र विषमताओं के रूप में गंगूबाई ने अपनी किताब में किया है। हुबली में गंगूबाई का छोटा सा घर है। सामने बरामदा, अंदर एक आंगन और उसके तीन तरफ बने कमरे। मैंने हंगल और उनके बचपन के बारे में पूछा तो गंगूबाई टाल गईं। बाद में उनकी बेटी और बहू, जो खुद बेहतरीन गायिका हैं, कहा कि बचपन में ङोले सामाजिक अपमान का असर मां पर इतना था कि उन्होंने पचपन साल की होने तक बेटी को सार्वजनिक मंच से गाने नहीं दिया। उन्हें वह वाकया कभी नहीं भूला, जब गायन के दौरान श्रोताओं में से किसी ने कहा, ‘गाना बहुत हुआ बाई, अब ठुमका हो जाए।ज्
गंगूबाई ने अपनी आत्मकथा में बहुत संयम से लेकिन पीड़ा के साथ लिखा है कि शास्त्रीय संगीत में आज भी महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव होता है। शायद यही वजह है कि बड़ी से बड़ी गायिका बाई होकर रह जाती है जबकि पुरुष उस्ताद और पंडित बन जाते हैं। इस आधार पर कि वे मुसलमान हैं या हिंदू। उन्होंने इस सिलसिले में हीराबाई और केसरबाई का जिक्र किया है। इस बात पर हैरानी होती है कि शास्त्रीय संगीत में महिलाएं ऊंचे घरानों से क्यों नहीं आईं और जहां से आईं, उनकी स्वीकार्यता इतनी आसान क्यों नहीं थी। इसमें हीराबाई बारोडकर, केसरबाई केरकर, जद्दनबाई, रसूलनबाई और अख्तरीबाई के नाम उल्लेखनीय हैं। समाज ने बहुत बाद में केवल अख्तरीबाई को थोड़ी इज्जत बख्शी और उन्हें बेगम अख्तर कहा जाने लगा।
गंगूबाई का संबंध किराना घराने से था, जिसके उस्ताद अमीर खां मीरज में रहते थे। गंगूबाई की मां अंबाबाई जब अपने घर में गाती थीं तो उस्ताद अब्दुल करीम खां उन्हें सुनने आते थे। गंगूबाई के गुरु सवाई गंधर्व और हीराबाई भी अंबाबाई की गायकी के प्रशंसकों में थीं। धारवाड़ में अंबाबाई को सुनने के लिए उनके घर के बाहर भीड़ जमा हो जाती थी। अंबाबाई ने अपनी बेटी को संगीत की तालीम देने की जिम्मेदारी सवाई गंधर्व को सौंप दी, जिसके लिए गंगूबाई को 30 मील दूर जाना पड़ता था। वहां उनके गुरुबंधु थे पंडित भीमसेन जोशी। उस जमाने में दिन में सिर्फ दो बार रेल चलती थी जो धारवाड़ को सवाई गंधर्व के गांव से जोड़ती थी। यानी कि गाड़ी छूट जाए तो रात स्टेशन पर ही बितानी पड़ती। भीमसेन जोशी वापसी में अक्सर गंगूबाई को घर तक छोड़ने आते थे। फिरोज दस्तूर भी उन दिनों वहीं थे।
सवाई गंधर्व ने गंगूबाई को सिखाने में ख्याल पर जोर दिया और चाहा कि वह सात रागों पर महारत हासिल करें। जाहिर है, गंगूबाई के पास गायकी में भीमसेन जोशी जसी विविधता नहीं है लेकिन भैरवी, आसावरी, भीमपलासी, केदार, पूरिया धनाश्री और चंद्रकौंस में विलंबित में जिस तरह का राग विस्तार उनके पास है वह जोशी और दस्तूर के पास भी नहीं। अपनी हर रचना को प्रार्थना कहने वाली गंगूबाई की सिर्फ एक ख्वाहिश अधूरी रह गई कि वह सौ साल जीना चाहती थीं। प्रकृति ने उन्हें तीन और वर्ष नहीं दिए लेकिन उनकी अंदर तक धो देने वाली गंगाजल जसी पवित्र गायकी किसी की कृपा की मोहताज नहीं है। वह सैकड़ों साल जिंदा रहेगी।
मधुकर उपाध्याय
(आज समाज से साभार)

Saturday, July 18, 2009

उदय, यह तो खुद का निषेध !

उदय, यह तो खुद का निषेध !

रामजी यादव

हाल के दिनों में साहित्य की सबसे बड़ी खबर वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश को मिला एक पुरस्कार है। उदयजी साहित्य में उस मुकाम पर हैं जहां उन्हें न केवल ढेरों पुरस्कार मिलना संभव है बल्कि वे अनेक लोगों को भी पुरस्कृत करवा सकते हैं। कथा साहित्य में उनके जसी भाषा और कथानकों को लेकर अनेक युवतम कथाकार आ रहे हैं, वे सभी उदय प्रकाश को अपना आदर्श भी मानते हैं। बेशक इसकी तह में अनेक कारण होंगे लेकिन अपनी कहानियों से उन्होंने चर्चा का जो नुस्खा तैयार किया है वह बहुतों को सुगम रास्ता लगता है। दूसरी बात यह कि जिस प्रकार उदय प्रकाश भारतीय समाज और जनता की पीड़ाओं से एक मनोगतवादी रिश्ता रखते हैं वह प्रविधि न केवल काफी रास आ रही है बल्कि उसी सीमा तक अनुचर-रचनाकारों की दृष्टि काम भी करती है। लेकिन ये सब दीगर बातें हैं। उदय प्रकाश द्वारा पुरस्कार ग्रहण करने के पीछे लोगों के मन में जो दुख उभर रहा है वह इस प्रकरण में गोरखपुर के कुख्यात भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के कारण है।
ज्ञातव्य है कि उदय प्रकाश ने गोरखपुर की जिस संस्था द्वारा पुरस्कार ग्रहण किया वह आदित्यनाथ के एक संबंधी द्वारा संचालित है और पुरस्कार समारोह में आदित्यनाथ मौजूद थे। संभवत: उदयजी के चयन में आदित्यनाथ की केन्द्रीय भूमिका रही है। यह दुख एवं शर्म का कारण इसलिए भी है क्योंकि हिन्दी का एक कथाकार जो भारत की सामासिक संस्कृति का अलंबरदार है वह हिन्दुत्व के नाम पर दंगा कराने और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के आरोपी सांसद के हाथों या संरक्षण वाली संस्था द्वारा पुरस्कार ग्रहण करता है। यह उदय प्रकाश का नैतिक पतन माना जा रहा है जो एक लंबे साहित्यिक संघर्ष के बाद साहित्य के इतिहास को एक विशिष्ट पड़ाव पर ठहरने का आधार देता है। लेकिन इतिहास कभी ठहरता नहीं। जो लोग उसकी ताकत को पहचानते हैं वे स्वयं किनारे हो जाते हैं और किसी स्तर पर अपनी जगह और स्मृतियां बचा भी लेते हैं, लेकिन जो लोग अपने स्वार्थो को उसके समानांतर ज्यादा तरजीह देते हैं वे हमेशा मलबे में बदल जाते हैं। इसीलिए इतिहास के दाएं-बाएं मौजूद वर्गो का दृश्यपटल पर आना-जाना लगा रहता है। भारतीय लोकतंत्र के एक नाजुक मोड़ पर जबकि स्वयं लेखकों का व्यक्तित्व और उनकी भूमिका लगातार बेमानी होती जा रही हो, इस प्रकार अपराधियों से पुरस्कृत-सम्मानित होना कमाई हुई मर्यादा को स्वयं नाले में बहा देना है। उदय प्रकाश अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो अपने खाते में यह बदनामी दर्ज करा रहे हों। हमारा देश जातियों में बंटा हुआ देश है और इसके बहुत कम लेखक जातिवाद की प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ पाए। यहां नौकरियां, सम्मान, सराहना, इज्जत, रुपए, पुरस्कार सब कुछ जातियों के कारण ही मिलता है और हममें से ऐसा कौन है जो कह सकता हो कि उसने जातीय विशेषाधिकार का लाभ नहीं उठाया है? कौन सच्चाई से स्वीकारेगा कि अपने देश की मेहनतकश जातियों के लोगों और रचनाकारों के लिए भी उसके मन में सहज प्यार है? लाभ-लोभ के सारे पद सवर्णो की बपौती हैं। भाजपा भी उनकी, कांग्रेस भी उनकी, सीपीएम भी उनकी और सीपीआई भी उन्हीं की। इन संस्थानों द्वारा संचालित सांस्कृतिक इकाइयां भी उन्हीं की। लेकिन यह संकीर्णता भारतीय लोकतंत्र को कहां ले गई है? अधिसंख्य रचनाकार-संस्कृतिकर्मी क्षुद्र स्वार्थो के लिए झूठ बोल रहे हैं और आज वे अपनी विश्सनीयता खो चुके हैं।
मुङो निजी रूप से उदयजी के लिए दुख है, क्योंकि यह स्वयं उदय प्रकाश द्वारा उदय प्रकाश का निषेध है। दिनेश मनोहर वाकणकर और थुकरा महराज जसे लोगों के भोलेपन और पीड़ा को समझने वाले उदय प्रकाश की कहानी और ‘अंत में प्रार्थनाज् पर आधारित नाटक और नाटककार पर भाजपानीत मध्य प्रदेश सरकार के गुण्डों ने हमला किया तब उदय प्रकाश इसके खिलाफ लड़े। लेकिन लगता है सब दिन समान नहीं होते। उनकी कहानियों की एक बड़ी विशेषता इस बात में निहित है कि उनके पात्र प्राय: दो यथार्थो के बीच की विडंबनाओं के यात्री रहे हैं। इस तरह उदय प्रकाश सत्ता के बाहर और भीतर के विचार और व्यवहार को सबसे ज्यादा ऐंद्रिकता के साथ कथा में विमर्श का केन्द्र बनाते हैं। लेकिन ध्यान से देखिए तो उदय प्रकाश के सारे पात्र एक विचारहीन मानसिकता के पुतले भर हो जाते हैं। क्या उनके रूप में उदयजी अपने भीतर की विडंबनाओं और भावुकता को ही लगातार चित्रित करते रहे हैं? क्योंकि रामसजीवन हो, वारेन हेस्टिंग्स हो, रामगोपाल सक्सेना उर्फ पाल गोमरा हो, पिता हो, मोहनदास हो, डा. वाकणकर हो या थुकरा महाराज हो सभी व्यवस्था का शिकार होते हैं, विगलित होते हैं, विचलित होते हैं लेकिन लड़ नहीं पाते। अक्सर उदय प्रकाश भी उन्हें कोई रचनात्मक सहानुभूति नहीं दे पाते और लगातार असहाय और दयनीय बनते ये पात्र अपनी रीढ़ की ताकत खो देते हैं। ‘सवा सेर गेहूंज् में ब्राह्मणवाद के जाल में फंसते शंकर की पीड़ा और सामाजिक संरचना को प्रेमचंद इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘शंकर ने सारा गांव छान मारा, मगर किसी ने रुपए न दिए इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था या किसी के पास रुपए न थे, बल्कि इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी।ज् क्रूर व्यवस्था और निरीहता का इतना विदग्ध चित्र तमाम तकलीफों के बावजूद उदय प्रकाश की कहानियों में लगभग असंभव है।
इसलिए मुङो लगता है कि विचारहीनता के रूपक उदयजी के पात्र जिस व्यवस्था द्वारा उत्पीड़ित हैं उसी व्यवस्था द्वारा सम्मान मिलने पर उसके चरणों में गिर जाएंगे। यदि यह मान लिया जाए कि लेखक के पात्र या रचनाएं उसकी नियति को तय करते हैं तो यह मानकर संतोष किया जा सकता है कि उदय प्रकाशजी इस प्रकरण की पृष्ठभूमि बरसों से तैयार कर रहे थे। नैतिकता संबंधी प्रश्नों का जवाब ढ़ूंढ़ना जनता का काम है और यह एक व्यक्ति के बूते के बाहर है लेकिन इस संदर्भ में सोच-विचार और व्यवहार में मौजूद उन विडंबनाओं पर भी ध्यान जाना चाहिए जो कम से कम नवजागरण काल से हिन्दी मानस में बनी हुई है। ब्रिटिश सत्ता के साथ भागीदारी और साम्प्रदायिक दुर्भावना के साथ शहरी मध्यवर्ग की विपन्नता की पीड़ा को ही सम्पूर्ण भारत का रूपक बना देने वाले भारतेंदु हरिश्चंद और उनके काल के साहित्यकारों को हम अपना आदर्श कैसे मान सकते हैं! जबकि इसके बरक्स देहाती जीवन का दमित-उत्पीड़ित और अकारण अकाल के मुंह में ढकेला जा रहा हिस्सा लगातार उपेक्षित किया जाता रहा है। शहरी मध्यवर्गीय विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव को जहानाबाद के बथानी के किसान-मजदूरों की हत्या से क्या लेना-देना? हिन्दी की सारी मुख्यधारा आज घरानों और जनविरोधी, यहां तक कि नए साम्राज्यवाद द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं के मालपुए उड़ा रही है। क्या उसे देश की निर्माणकारी ताकतों पर हो रहे हमलों की जानकारी नहीं है? सलवा जुडूम चलाने वालों के साथ मंच शेयर करने वाले लोग क्या उदय प्रकाश के मुकाबले अपने को साफ-शफ्फाक कह सकते हैं? कई लोग अपराधियों और भ्रष्टतम लोगों के प्रति लगातार वफादारी कायम रखे हुए हैं लेकिन मौका देखकर पुरस्कार आदि लौटा देते हैं और चर्चित हो जाना चाहते हैं। क्या वे लोग क्रांतिकारी हैं? असली फैसला तो तब होगा जिस दिन पुरानी संरचनाएं ध्वस्त होंगी और साम्प्रदायिकता और जातिवाद बीते दौर की बात होंगी। अभी तो उस सड़ांध के बाहर आने का दौर है जो बरसों से भीतर ही भीतर बजबजा रही थी।

आज समाज से साभार

Wednesday, July 15, 2009

अब दिन में लगता है डर..


अब दिन में लगता है डर..
प्राय: जब रात होती थी तो डर लगता था अब जब धूप होती है तो डरता हूं। डरने की वजह सूरज नहीं है, तेज धूप भी नहीं है भीड़-भाड़ भी नहीं, दरअसल एक सर्वे आया है कि हादसे रात स्ेा अधिक दिन में होते हैं, सर्वे कंपनी ने अपना भी स्पष्ट शब्दों में नहीं लिखा है। अब तो सरेआम, दिनदहाड़े, आड़ में नहीं सबके सामने बदनाम भी किया जाने लगा। बस रात कहने को रह गई है। अब तो फू लों की बात करने के लिए भी रात की जरूरत नहीं है। हाइब्रिड रातरानी दिन-दोपहर-शाम किसी टाइम खिल सकती है। अब तो इजहारे मोहब्बत को भी गोधुलि बेला का इंतजार नहीं रहा। तो जनाब अब हादसों के लिए रात का इंतजार कतई नहीं । अंट-शंट, बेअंट-शंट और किसी भी प्रकार के स्टंट लेने के लिए दिन सबसे महफू ज है।
दिल्ली जसे शहर में भी बुड्ढे अब रात में नहीं दिन में ही चोरों का शिकार हो रहे हैं। जब एक चोर ने दिन में एक बुढ़िया का गला रेतने का मन बनाया तो उसके साथी ने दबी जुबान में कहा कि अभी दिन है, रात को काम तमाम कर लेना। पहले चोर ने फौरन कहा जान मरवाना चाहते हो क्या, दिन के हादसे की खबर अगले दिन छपती है और रात की खबर तो सुबह ही छप जाती है। हमें भागने का वक्त नहीं मिलता इसलिए जल्दी करो..।
ठीक इसी तरह की पुनरावृत्ति बसों में भी होती है। अब साहसी पाकेटमार पर्स न देने पर पांच इंच का चाकू सरेआम दिन में चलती बस में ही दिखा देते हैं। ये गैर सरकारी प्रबंधन है जो रात का इंतजार नहीं करता। लेकिन सरकारी प्रबंधन भी इससे जरा भी पीछे नहीं है। पुलिस सही नम्बर की गाड़ी लाइसेंस, प्रदूषण और विभिन्न तरह के कागज सहित तड़क कर पकड़ती है और पैसा लेने के बाद मुस्कुराकर छोड़ती है। गलती से दिन में सहीसलामत एक पत्रकार की गाड़ी पकड़ ली। जब उसने अपना परिचय दिया तो नाश्ता पानी कराकर कहा क्या करें साहब कभी-कभी दिन में भी गलत नम्बर लग जाता है। इसके बाद देर तक पुलिस ने हवा में हाथ लहरा उसकी विदाई की जब तक को लेंस वाले चश्मे से दिखाई दिया।
जबसे दिल्ली में मेट्रो के हादसे हुए हैं दिन में मेट्रो में चढ़ते वक्त मेरे एक मित्र सकते में आ जाते हैं, बार-बार शीशे से बाहर झांकनें की कोशिश करते हैं वह यह मापने की कोशिश करते हैं कि मेट्रो धरती से कितनी ऊपर है अगर गिरे तो बच जाएंगे या क्रेन लाना पड़ेगा और क्रेन आ भी गया तो क्या पता वह भी कहीं उलट न जाए। सहीराम ने उन्हे सलाह दी अब रात में चलिए रात में हादसे कम होते हैं।

अभिनव उपाध्याय

Friday, July 10, 2009

बजट पर एक और बहस

बजट के पूर्व की अटकलों ने जो ख्वाब दिखाया था वह काफूर हो गया। उम्मीद भी ऐसी टूटी की अब जुड़ना मुश्किल लग रहा है। लग रहा है पूरी उम्र टैक्स चुकाते ही जाएगी। सहीराम से अपनी व्यथा उनके गांव के सज्जन बयां कर रहे थे। सहीराम को उनकी व्यथा नहीं सुनी गई तब वह उन्हे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ बाबा चवन्नी के पास ले गए। सज्जन वहां भी शुरू हो गए। उनकी बात सुनकर बाबा चवन्नी ने भवें तान ली और बोले लोकतंत्र की जीभ में हड्डी नहीं होती जिधर चाहे लचका लो, लेकिन सत्ता सुख का मर्म तो आप लोग जानते ही नहीं हैं। फिर उन्होने जो घुट्टी पिलाई कि सज्जन की बोली बंद। अब तो लोग अपनी सभी प्रकार की आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए बाबा चवन्नी के दरबार में आने लगे। एक किसान दम्पत्ति ने जब अपनी समस्या कुछ इस तरह से रखी कि , बाबा जी मैं एमबीए हूं और मेरी पत्नी एमसीए हम दोनों मेहनत से काम कर रहे थे और जिन्दगी में मिठास थी लेकिन आर्थिक मंदी ने प्यार के हलवे में हींग का तड़का लगा दिया । हमारी नौकरी कोसों दूर चली गई। अब मियां बीबी खेती करते हैं। लेकिन हमारे लिए मंदी में कोई ठोस उपाया नहीं हैं। इस पर बाबा ने उन्हे जोर से डांटा, अरे मूर्ख तुम्हे तो छूट ही छूट है ।
तुम्हारी पत्नी कूकर में खाना पकाएगी और गहना पहनकर खेत में खाना लेकर जाएगी। यही नहीं अब एसीडी और सीडी प्लेयर भी सस्ते हो रहे हैं जम कर घर पर ता थैया थैय्या करो। और कहो जय हो दादा की।
लेकिन बाबा गैस सिलेंडर गांव में नहीं आता और बिजली का तो महीनों से पता नहीं न तार है न करंट बस गांव में खम्भे गड़े हैं ऐसे में बजट में विकास की बातें मुंह चिढ़ाती हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं है, उनकी बात बीच में काटते हुए बाबा बोल पड़े देखो बच्चा भावावेश में मत बहो ये दोनों बेकार चीजें हैं। आप तो जानते हैं जो पढ़ेगा वो बढ़ेगा और बढ़ेगा वह मांगेगा फिर कहां से देगें इतनी नौकरी। और रही बात स्वास्थ्य पर खर्च करने की तो वह बेवकूृफी है क्योंकि अपना बेटा जब थोड़ा तगड़ा हो जाता है तो आंख तरेरता है फिर ये तो जनता है।
लेकिन बाबा कागज मंहगा हो गया और जूता सस्ता। हां जबसे पत्रकारों ने जूते मारने शुरू किए हैं तब से सरकार को इस पर विचार करना पड़ा रही बात कागज की तो इसका तो शुरू से दुरुपयोग हुआ है। माने अब लिखना छोड़कर जूता...
अभिनव उपाध्याय

Friday, July 3, 2009

रंगकर्म से कैसे जाएंगे तनवीर




रंगकर्म से कैसे जाएंगे तनवीर

राजकमल नायक

हबीब तनवीर के जेहन से रंगमंच कभी गैरहाजिर नहीं हो सका। हर पल रंग पल रहा। हर बात रंगमंच की रही। राजकमल नायक ने इस महान कलाकार को ऐसे देखा-पाया। हबीब साहब के साथ कई वर्कशापों में हिस्सा ले चुके और उनके नाटकों में काम कर चुके राजकमल नायक रायपुर में रंगकर्म से जुड़े हैं। ब.ब. कारंत, श्याम बेनेगल की फिल्मों में प्रमुख भूमिकाएं निभाईं और जमकर रंगकर्म किया। ‘रंग-संवादज् पत्रिका भी निकाली। उनकी यादों में हबीब तनवीर।


हबीब तनवीर के जेहन में रंगमंच कभी गैरहाजिर नहीं हो सका। वे खुद चौबीसों घंटे रंगमंच की ‘आन ड्यूटीज् पर रहे। दोनों एक दूसरे के मातहत रहे और वे रंग हबीब हो गए। उनका हर पल रंग पल रहा। हर बात रंगमंच की बात रही। हर कर्म रंगकर्म रहा। तो क्या हबीब कभी रंगमंच के बाहर नहीं होते? जी नहीं। ‘नो एक्जिट!ज् एक बार रंगमंच में एंट्री ली और उसी के होकर रह गए। तनवीर ने रंगमंच का सुनहरा इतिहास रच दिया। कालजयी रंग पुरुष के रंग कलापों ने देश-विदेश में रंगमंच का झंडा गाड़ दिया। उनके पाइप से निकलते धुएं के गुबार का अशांश भी थिएटर की खुशबू से आबद्ध होता था। उनकी छवि बला की थी। कभी वे महान संत की तरह दीख पड़ते, कभी लगता कि वे दार्शनिक हैं, कभी वैज्ञानिक प्रतीत होते तो कभी सामाजिक कार्यकर्ता, कभी रंग धुनी लगते तो कभी शायर वगैरा-वगैरा।
उनके नाटक जितने परम्पराशील नाट्य को रुपायित करते थे उतने ही उत्तर आधुनिक भावबोध को। उनके नाटक देखते हुए स्टेज मानो घुल जाता था। दर्शक और कलाकार एकमेक हो जाते थे। दूरी मिट जाती थी। सब कुछ इतना सहज, इतना अपना, अपने समय का, अपने पास का हो जाता था कि नाटक नहीं दिखता था, जीवन दिखता था, फिर नाटक दिखता था, फिर जीवन दिखता था। ‘टोटल थिएटरज् की परिभाषा जानना है तो हबीब साहब के नाटक देख लो। हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ी बोली को स्थानीय से समकालीन बनाया। स्थानीयता से वे वैश्विकता में बोली का बोलबाला हबीब के ही बूते की बात थी। भाषा और बोली के इस कठिन क्षरण काल में हबीब ने रंगमंच के जरिए बोली को जीवित और प्रतिष्ठित कर दिया। वे पाठ पढ़ा गए कि लोकमंच के तत्वों, उसकी ऊर्जा, उसकी ताकत के बल पर उपजाया हुआ रंगमंच किसी भी आधुनातन रंगमंच से कमतर नहीं वरन एक कदम आगे ही है। उपज अभिनय ‘इम्प्रोवाइजेशनज् का जमकर और बेहतर इस्तेमाल हबीब साहब के नाटकों में चार चांद लगाता रहा। कभी-कभी तो प्रस्तुति के दौरान ही उनके कलाकार प्रत्युत्पन्नमति के सहारे समसामयिक घटनाओं को नाटक में समाहित कर लेते थे। रिहर्सल के दौरान हबीब साहब गाइड की तरह अपने कलाकारों से दृश्य उपजाते, संवारने के काम में रत रहते थे। सैकड़ों बार एक ही दृश्य की उठा-पटक, उलट-पुलट, कांट-छांट करना उनका शगल था।
1973 में उनसे अल्प भेंट का सुयोग मुङो मिला। हबीब तनवीर नाचा पर वर्कशाप करने रायपुर आए थे। मैं तब तक रंगमंच का मुरीद बन चुका था। चूंकि वर्कशाप नाचा का, लोक कलाकारों का था अत: मैं बतौर ‘रिहर्सल दिखयाज् उसमें शामिल रहा। हबीब तनवीर को जानने-समझने का मौका तो नहीं मिल पाया परंतु नाचा के सैकड़ा भर कलाकारों की कला के दर्शन करने का बेमिसाल मौका मुङो मिल गया था।
असली मौका मिला 1976 में। रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में ड्रामा वर्कशाप का आयोजन हबीब तनवीर के निर्देशन में हुआ। छत्तीसगढ के दूर-दराज के कलाकार भी इसमें शिरकत करने आए थे। वर्कशाप में रोज हबीब साहब से बात करने, काम करने के दौरान उनसे निकटता बढ़ी। सातवीं शती के बोधायन रचित संस्कृत प्रहसन ‘नगवद् अज्जुकमज् की तैयारी शुरू हुई। मुङो दो भूमिकाएं करने का मौका मिला। वर्कशाप के दौरान दिन भर हमें हबीबजी नाचा-गम्मत, पंडवानी दिखाते रहते। और खुद भी देखते हुए न जाने क्या बूझते रहते। अपनी निकटता का लाभ उठाते हुए मैंने सकुचाते हुए एक दिन कह ही डाला कि हम सब छत्तीसगढ़ के ही हैं। नाचा गम्मत, पंडवानी देखते ही रहते हैं, कुछ आधुनिक रंगमंच के बारे में बटरेल्ट ब्रेष्ट वगैरा के बारे में बतलाइए। हबीब साहब आग बबूला हो गए। तुम्हें ब्रेष्ट की क्या समझ है? नाचा-गम्मत में तुम्हें ब्रेष्ट नहीं दिखता। अपनी आंखें खोलो, कान और दिमाग खोलो तथी थिएटर समझ में आएगा। यह उम्दा किस्म की फटकार अब तक मेरे काम आती है। उसी दिन शाम को हबीब साहब ने ब्रेष्ट के बारे में, बर्लिनर ऐन्सेम्बल के बारे में बहुत कुछ बताया। समूचे वर्कशाप के दौरान उनसे संबंध बनते-बुनते गए।
संभवत: 1982-83 के आसपास एक और वर्कशाप जो कि मूलत: मास्क निर्माण और उसके उपयोग पर केन्द्रित था, में हबीब साहब के साथ फिर काम करने का अवसर मिला। लंदन की ऐलिजाबेथ लिंच और जिर्रादितबोन हबीब साहब के साथ आई थीं। बड़े-बड़े मास्क जीव-जंतुओं के बनाए गए। हबीब जी ने ही सुझाव दिया कि मास्क का उपयोग करते हुए एक लघु नाटक करना चाहिए। शिविर लगभग समाप्त होने को था। कहानी डेवलप करने में हबीब जी के साथ सभी शिविरार्थी जुटे हुए थे। शो की घोषणा की जा चुकी थी। विश्वविद्यालय के पेड़ों के नीचे खुली जगह में शो करना तय हुआ। बमुश्किल तमाम कथा बन पाई। नाम रखा गया ‘नेटका हांसिस गाज्। शीर्षक छत्तीसगढ़ी में था पर नाटक हिंदी में। मुङो सूत्रधार की बड़ी भूमिका का निर्वाह करना था जिसकी कोई तैयारी नहीं हुई थी। शो के दिन दर्शक आ चुके थे। हबीब साहब बगैर किसी संकोच के, घेरे में खड़े हुए दर्शकों के बीच बैठे मुङो समझा रहे थे कि क्या सीक्वेंस होगा और लगभग क्या कहा जाना है। पाठक विश्वास करें कि अधूरी तैयारी का शो भी ऐसा अद्भुत हुआ कि हम सब भी अवाक् रह गए। हबीब साहब ने मेरी पीठ ठोंक कर ईनाम दिया।
1976 से बने संबंध प्रगाढ़ होते चले गए। अनेक बार मैंने उनके नाटकों को बनते, परिष्कृत होते देखा है। उनके लगभग सभी नाटकों के अनेक प्रदर्शन मैंने देखे। हबीब साहब तथा ‘नया थियेटरज् के कलाकारों ने मेरे कई नाटकों को देखा, पसंद किया, समीक्षा की, बहस की, मार्गदर्शन दिया है। मुङो हबीब साहब से रंगमंच और नाटक पर बहस करने की छूट मिलती रही। 1986 के आसपास ‘भारत भवनज् भोपाल में उनका नाटक ‘हिरमा की अमर कहानीज् हुआ। मैं वहीं रंगमंडल में था। प्रस्तुति के बाद बहिरंग के स्टेज पर मैं उनसे मिलने गया। उन्हें बधाई दी। वे मुङो एक ओर ले गए और पूछा-अब बताओ, कैसा रहा? मैंने कहा-थोड़ा ढीला है। ऐसा लगता है एडिटिंग बहुत जरूरी है। उन्होंने कहा-नाटक के स्क्रू को तो मैं कसूंगा ही। मैंने कहा, और आपके आदिवासी कलाकार स्टेज पर गोली लगने के बाद गिरकर बहुत देर तक उठते ही नहीं। क्या आपने सायास ऐसा किया है? हबीब साहब बोले-ये आदिवासी कलाकार बस्तर से ढूंढ़कर लाया हूं। कमाल का नाचते-गाते हैं। नाटक की मांग के मुताबिक कुछ मूक दृश्य की रिहर्सल भी इनसे करवाई है। जब इन्हें मंच पर बंदूक का निशाना बनाया जाता है तो ये अपनी तरह से गिरकर मर जाते हैं। और वे सोचते हैं कि अब तो हम मर गए अब उठकर क्यों जाएं और कैसे जाएं? इसीलिए बहुत देर पड़े रह जाते हैं। कई बार तो मंच से इन्हें हकालकर, घसीटकर ले जाना पड़ता है, बत्ती गुल करनी पड़ती है। हबीब साहब और मैं ठठाकर हंस पड़ते हैं।
हबीब साहब के एक ही नाटक का हर प्रदर्शन शने: शने: बदलता जाता है, पकता जाता है। नया थियेटर अपने नामानुरूप रंगरत् रहा है। ‘नया थियेटरज् इसीलिए हमेशा नया बना रहा है क्योंकि वह प्रगतिशील, प्रयोगधर्मी पारंपरिक, वैचारिक आधुनिक के संगुफन को रंजकता से अभिव्यक्त करता रहा है। ‘नया थियेटरज् मनुष्य के अहम् सवालों को, द्वंद्वों को, संघर्षो को प्रकट करता रहा है। यह ‘नया थियेटरज् में ही हो सकता था कि एक ओर खाना पक रहा है या चाय बन रही है तो दूसरी ओर नाट्याभ्यास जारी है। कलाकार अपनी भूमिका करके दौड़ते हुए भात-दाल भी रांध लेता है या खा लेता है और फिर वापस अपनी भूमिका में भी आ जाता है। चावल बीनते हुए अभिनेत्री रोल करते यहां देखी जा सकती है। अभिनेता अपने बच्चे को गोद में लिए अभिनय कर सकता है। सभी को सभी नाटक यहां याद रहते हैं। ‘शो मस्ट गो आनज् सभी के रक्त में हैं। अशिक्षित कलाकारों को रोल याद कराने का जिम्मा हबीब साहब का भी है, साक्षर कलाकारों का भी। रिहर्सल का समय और स्थान कहीं भी, कभी भी, कितना भी हो सकता है। जीवन और नाटक का एका देखना हो तो ‘नया थियेटरज् देख लें।
हबीब तनवीर रंगधुनी थे। शूद्रक का नाटक हो या बाणभट्ट का, शेक्सपीयर का हो या मौलियर का, रवीन्द्रनाथ टैगोर का हो या हबीब जी का स्वरचित सभी छत्तीसगढी बोली में रचकर अपने हो जाते हैं। हिन्दी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, अंग्रेजी का मिश्रित इस्तेमाल भी हबीब साहब ने खूब किया है। संगीत तो उनके नाटकों का अनिवार्य अंग था। लोक धुनों को खंगाल-खंगालकर उन्होंने अपने नाटकों में बड़ी खूबी से पिरोया। शेरो-शायरी और शास्त्रीय संगीत भी उनके नाटकों में आवश्यक उपकरण की तरह उपयोगी साबित हुए। 1994 में संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली के ‘प्रथम युवा निर्देशक वर्कशापज् में देश भर के नामी निर्देशक, रंग विशेषज्ञ हम तेरह युवा निर्देशकों की क्लास लेने आया करते थे। इस चालीस दिवसीय वर्कशाप के लीडर थे प्रख्यात रंग निर्देशक ब.ब. कारंत और रंग मनीषी नेमिचंद्र जन। कारंत मेरे गुरु थे और मैं उनका परम शिष्य। हबीब तनवीर हमारी छह दिवसीय क्लास लेने पहुंचे। कारंतजी ने उन्हें रिसीव करते हुए कहा कि आपके अखाड़े का भी एक युवा निर्देशक यहां आया हुआ है। हबीब साहब ने क्लास में जब मुङो देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। छह दिन तक उनसे रंग-मुठभेड़ चलती रही।
हबीब तनवीर लंदन के डंकन रास को अपना गुरु मानते थे। डंकन रास ने उनसे कहा था कि ‘कहानी को खूबसूरती से पूरा कह जाना ही नाटक है।ज् इस ‘खूबसूरतीज् और ‘पूराज् कहने में ही सैकड़ों पापड़ बेलने पड़ते हैं। एक और वाकया हबीब साहब बताते थे। मुम्बई में बलराज साहनी के नाटक में काम करते वक्त कई बार बताने के बावजूद अभिनय में खोट होने पर हबीब तनवीर को बलराजजी ने चांटा जड़ दिया। बाद में अभिनय बढ़िया हो गया। हबीब ने बलराज साहनी से पूछा कि ऐसा क्यों हुआ? इस पर बलराज जी ने कहा-‘यह मसल्स मेमोरी का कमाल है। यह दुखद है कि हबीबजी ‘नया थियेटर की पचासवीं सालगिरह मनाने की तैयारी के बीच हमसे बिछड़ गए। लेकिन वे हमारे रंगकर्म में हमेशा उपस्थित हैं। इसमें वे अनुपस्थित हो ही नहीं सकते।

आज समाज से साभार

Wednesday, July 1, 2009

सरोद का सहयात्री


सरोद का सहयात्री

बिंदु चावला

मैहर के उस्ताद अलाउद्दीन खां साहिब स्वयं कहते थे कि उन्हें और उनकी पत्नी मदीना बेगम को जब कई वर्ष तक बेटा नहीं हुआ, तो आखिर एक दिन किसी हिंदू महात्मा के दर्शन और आशीर्वाद में मिली भभूत खा लेने से अली अकबर का जन्म हुआ। यह 1922 की बात है। पिता अलाउद्दीन खां हमेशा यही शुक्र मनाया करते ,और जिस एक दिन अली अकबर के यहां भी बेटा हुआ उसका नाम मोहम्मद आशीष रखा गया। मोहम्मद यानी मुसलमान नाम, आसीस यानी हिंदू।
आशीष से जो आता है वह भगवान का कोई न कोई काम जरूर करने आता है। अली अकबर खां साहब ने सरोद को अपनाकर उसे दुनिया के लिए एक बेहतरीन और शानदार सोलो(एकल)बजाने लायक साज बनाया। यहां तक कि बीसवीं सदी में सरोद की यात्रा ही उनके जीवन की कहानी से जुड़ी हुई है। बचपन में ‘गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ हैज् वाली बात थी। बाबा अब्बा कम गुरु ज्यादा थे। हंसते-खेलते नहीं कि बेटा बिगड़ जाएगा। पीट-पीटकर सिखाया करते। रोजाना अठारह घंटे का रियाज और उसके बाद कुछ दाद भी न देते। बाबा की छड़ी तो मशहूर थी ही पर शिष्यगण यह नहीं जानते होंगे कि जिसे गुरु सबसे ज्यादा पीटे मानो उसे सबसे ज्यादा चाहते हैं। अली अकबर को ही सबसे ज्यादा पीटा जाता।
मेरे पिता पंडित अमरनाथ अक्सर सुनाया करते कि यह सच बात है कि डांट-मार खाते-खाते अली अकबर एक दिन इतने तंग आ गए कि आधी रात सरोद गले में बांध मैहर वाले अपने घर के अपनी ही खिड़की से कूदकर भाग गए। खून बोलता है। एक दिन पिता ने भी तो अपने मां-बाप का घर छोड़ यही किया था, संगीत सीखने के लिए। अली अकबर कोई सत्रह-अठारह साल के होंगे तब। फिर क्या था वे कहीं भी जाते उनका आने वाला भाग्य उनके साथ था। महाराज जोधपुर के यहां उनका नया जीवन शुरू हुआ। जिस तरह से पिता गाना और बजाना सिखाया करते अली अकबर खां साहब ने भी यही सिलसिला शुरू किया। सिखाते-बजाते उन्हें बेशुमार इज्जत मिली। पर उस वक्त रियासतें भी खत्म होने जा रही थीं, मजबूरन उन्हें कोलकाता भागना पड़ा। आते ही अली अकबर कालेज आफ म्यूजिक शुरू किया।
अब्बा से ही उनके मिजाज में एक गहरी बात आ गई थी। वे बोलते बहुत कम थे। यह उनके जीवन का एक बहुत बड़ा योग था। कुछ भी कहना होता उसे वे अपने साज में ही ढालकर कह देते। उनका साज बोलता। और कैसा बोलता। सरोद को हाथ में लेते ही सुनने वाले अश-अश करते उठते। जहां उनके गुरु भाई पंडित रविशंकरजी एक बहुत बड़े गिनतकार माने जाते वहीं खां साहब एक महान लयकार माने जाते। लय के ऐसे-ऐसे झोल बनते उनके बजाने में कि मानो एक सरोदिया नहीं बल्कि किसी कम्पोजन के हाथ में सरोद थमा दिया गया हो। पश्चिम से आए वायलिन वादक यहूदी मेन्युईन ने उनका सरोद सुना। वे दंग रह गए। उन्होंने हिंदुस्तान में ऐसा सरोद कभी नहीं सुना था। वे खां साहब को विदेश ले गए। न्यूयार्क, लंदन। एक दिन ऐसा आया कि उनका संगीत विदेश में इतना सराहा गया कि वे वहीं के हो गए। मरीन काउंटी कैलिफोर्निया में उन्होंने अपना एक और स्कूल अपने ही नाम से खोल लिया और आखिरी वक्त तक वहीं रहे। हजारों शिष्यों को तालीम दी। अच्छे-अच्छे वादक बनाए। दूर-दूर तक साज का नाम रोशन होने लगा। विदेश में बस जाने के बारे में लोग उन्हें बहुत कुछ कहते। वे स्वयं भी हिंदुस्तान के लिए बहुत उदास रहते लेकिन यहां रहने के लिए लौटकर कभी नहीं आए।
देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कांफ्रेंसों में जब भी बजाते कोई भी अशोभ(अप्रचलित)राग खोलने से हिचकिचाते थे। हेम विहाग, मदन मंजरी और उनका अपना प्रिय चंद्र नंदन जो उन्हीं के कहने से मालकौंस, चंद्रकौंस, नंदकौंस और कौंसी कान्हड़े का मिश्रण है। उनके कई शागिर्दो में से मुंबई फिल्मों के जाने-माने संगीतकार जयदेव भी उनके शार्गिद बने। यहीं दिल्ली में उनके बेटे आशीष खां तो थे ही। एक वक्त था जब जयदेवजी अपने लुधियाना का घर छोड़कर दिल्ली भाग आए थे। पिताजी पंडित अमरनाथ जी भी जब अपना घर छोड़ आए तो रोहतक रोड पर एक छोटे से किराए के मकान में रहने लगे। पांच साल इकट्ठे रहे। घर में एक ही थाली होती और उसी में इकट्ठा भोजन करते। उसी रोहतक रोड के मकान में जयदेवजी के पास उस्ताद अली अकबर खां साहब आया करते। और उसी मकान में कई बार उस्ताद अमीर खां साहब अमरनाथजी के गुरू भी आते। गाने की चर्चा होती और खाना होता। फि ल्मों में संगीत की बहुत चर्चा होती क्योंकि जयदेवजी का यही रुझान था।
फिर सब लोग मुम्बई चले। अमरनाथजी ने राजेन्द्र सिंह बेदी की ‘गरम कोटज् का संगीत तैयार किया। अली अकबरजी ने दो फिल्में साइन कीं। ‘आंधियांज् और ‘हमसफरज्। इनमें जयदेव उनके सहायक थे। फिर खां साहब ने बंगाली हंग्री स्टोन अर्थात ‘क्षुधित पाषाण का संगीत दिया जिसमें उन्होंने उस्ताद अमीर खां से एक बेहद खूबसूरत और लोकप्रिय गाना गवाया। उसके बाद सत्यजीत राय की ‘देवीज् में संगीत दिया। उनकी आखिरी फिल्म थी इतालवी निदेशक अर्नादो बर्तोलजी की लिटिल बुद्धा।
खां साहब पद्मविभूषण थे, हालांकि उनके गुरु भाई रविशंकरजी ‘भारत रत्नज्। इस पर भी उन्हें काफी कुछ सुनने को मिलता। बहुत उकसाया जाता। पर वे कुछ नहीं बोलते थे। उनके पिता मैहर महाराजा के मुलाजिम लेकिन गुरु भी थे। वे महाराजा से कुछ भी करने को कह सकते थे। लेकिन कहते नहीं थे। इसी घरानेदार अंदाज में अली अकबर खां साहब भी नतमस्तक रहे। उन्होंने कभी फोन उठाकर अपने लिए भारत सरकार से कुछ भी नहीं मांगा।

आज समाज से साभार

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...