Friday, July 16, 2010

मेरा तांगा नहीं है....?

चल मेरी धन्नो.. यह शोले का मशहूर डायलाग था जिसे काफी दिनों तक अपनी गाड़ियों के पीछे जीप बस और ट्रक वाले भी लिखवाते थे। यह धन्नो तांगा खीचने वाली घोड़ी थी। पशुओं का मानव जीवन से गहरा रिश्ता है खासकर रोजगार से। दिल्ली से तांगा हटाने का फरमान जारी हो गया है। अस्तबल तोड़ दिए गए। अब उम्र भर तांगा चलाने वाला मोटरकार तो नहीं चला सकता। एक तांगा कई सवाल खड़े कर रहा है.. क्या हम इतने आधुनिक हुए हैं कि परंपराओं को एकदम भूल गए हैं या हम बाजारवाद की चपेट में हैं जो हम तांगे की विरासत को संभाल नहीं सकते या यह कि हम किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की नीति का इंतजार कर रहे हैं जो तांगे पर गद्देदार सीट लगाएगी और एक अजूबा की तरह लोग उसे देखेंगे तथा कुछ संभ्रांत लोग ही उस पर बैठेंगे। वह कंपनी उस पर अपनी मर्जी से टिकट रखेगी और तांगा पर चढ़ना तब एक फक्र की बात होगी। उसका घोड़ा साफ इत्र से युक्त होगा। बहरहाल तांगा और उसकी स्थिति तथा दिल्ली से जुड़े तांगे की स्थिति के बारे में वरिष्ठ पत्रकार हबीब अख्तर के विचार-

जो धीरे चलता है ह तेज गति से चलनेोलों से पिछड़ जाता है। यह सच्चाई हर जगह लागू होती है। रिक्शा, हाथ रिक्शा, तांगा, रेहड़ा, बुज्गी,ऊंट गाड़ी, बैलगाड़ी,घोड़ा गाड़ी, हाथ ठेला और बग्घी यह सब आधुनिक मोटरोहनों के मुकाबले पिछड़ गए हैं। तांगा तो उस समय ही पिछड़ गया था जब मोटरोहन के रूप में कार भारत की सड़कों पर दौड़ने लगी थी। नया दौर नाम से एक पूरी फिल्म इसी षिय पर बनी इसमें बदलते दौर में तांगेोलों की शिता को बहुत खूबसूरती के साथ उकेरा गया है। तांगा पिछड़ गया इस हार के बाजूद हमारे यहां नई और पुरानी चीजें साथ साथ चलती रही। प्राइेट टैक्सी बसों सरकारी बसों के प्रयोग में आने के बाजूद तांगा चलता रहा और आज भी अन्य शहरों में चल भी रहा है। सारियां भी इसे सस्ता मान कर अपनाती हैं।
एक दौर था कि तांगा सारी और माल ढुलाई के लिए देश के भिन्न शहरों कस्बों की तरह दिल्ली में परिहन का मुख्य साधन था। जिस तरह से आटो एक इंडस्ट्री है, उसी तरह से तांगा एक उद्योग होता हुआ करता था। जिस तरह से टैक्सी, ऑटो और रिक्शा चलाना गरीब लोगों की आजीकिा का साधन है ैसे ही तांगा गरीब लोगों की आजीकिा का साधन है। दिल्ली में इस सयम 250 तांगे हैं। दो चार घुड़साल अस्तबल हैं। गिनती के तांगा स्टैंड मौजूद हैं। टैक्सी स्टैंड की तरह पूरे शहर में जगह जगह तांगा स्टैंड, घुड़साल और अस्तबल होते थे। समय के साथ तांगा स्टैंड और घुड़साल अस्तबल लिुप्त हो गए है।
जब तांगा एक उद्योग था, हजारों लोग इसके रोजगार में जुड़े हुए थे। तांगे के पहिए, तांगे की बॉडी, घोड़े की नॉल, नॉल ठोकने, घोड़े के बाल काटनेोले, तांगे के लकड़ी के पहिये पर लोहे का कर पायदान बनानेोले ,रबर चढ़ानेोले और घोड़े घोड़ी की सजाट के साजो समान बनाने और सजाट करनेोले, घोड़े पर चलनेोले चाबुक छत बनाने रंगाई करनेोलों के अलाा घोड़े की मालिश करनेोले और घोड़े के लिए चारा इत्यादि उपलब्ध करानेोलों की लम्बी जमात होती है। रोजगार की तलाश में कस्बे शहर को आनेोलों के लिए तांगा उद्योग में कहीं न कहीं जगह मिल जाती थी। हालत इतने बदले हैं कि अब तांगेोलों को खुद अपना नया रोजगार ढूंढना होगा। हालांकि सरकार ने तांगों पर प्रतिबंध लगाकर तांगेोलों के पुर्नास की व्यस्था की है। इस ैकल्पिक व्यस्था का मतलब तांगे की एक पूरी रिासत को खत्म करना है। दिल्ली में तांगों पर प्रतिबंध का मतलब पूरे देश में तांगे पर प्रतिबंध लगाने जैसा है क्योंकि बाकी देश दिल्ली की दिखाई राह पर चलता है। यहां एक दौर था जब कनॉट प्लेस दिल्ली में राजी चौक पर जहां मैट्रो स्टेशन है हां की सड़कों पर तांगे चला करते थे। ओडियन सिनेमा हॉल के पास एक तांगा स्टैंड हुआ करता था। इसी तरह इंदिरा चौक से पचकुंइया रोड के मुहाने पर भी एक तांग स्टैंड था। इंडिया गेट से तांगे गुजरा करते थे। पिछली शताब्दी के आठें दशक के मध्य तक कनॉट प्लेस के अन्दर और बाहरोले सर्किल में तांगे चलते थे। उस दौर में यहां दो तरफा यातायात चलता था। यह तांगे एक तरह से पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली को जोड़ते थे। ‘मेरा तांगा नहीं है खाली जैसे गानों के बोल तो रहेंगे पर यहां तांगा नहीं होगा। बदलते दौर में तांगा ैसे ही अपनी धीमी मौत मर रहा था अब इन्हें लाइसेंस देनेोले दिल्ली नगर निगम ने शेष तांगो को बंद करने का निर्णय लेकर तांगों की मौत की सजा सुना दी है। तांगे को तो जाना ही है, इसके बाजूद एक साल बार बार मन में उठता है कि पर्यारण संरक्षण के दौर में क्या हम परिहन की इस रिासत को संरक्षण नहीं दे सकते। शहरी जिन्दगी में पर्यारण को सुरक्षित रखने के लिए जिस तरह से हम साइकिल की ओर लौटना चाहते हैं। उसी तरह से हमें तांगे की भी याद आएगी। क्योकि तांगा घोड़े की टापों और गर्दन में बंधे घुंघरुओं की ध्नि के अलाा किसी दूसरे तरह का प्रदूषण नहीं फैलाता। गली में जब कोई तांगा आता था तो लगता था कोई मेहमान आया है।
इन सब के बाजूद यहां एक साल उठता है कि राजधानी दिल्ली में हम जहां स्मारकों को हम संरक्षण दे रहे हैं। इन पर करोड़ों रुपये खर्च कर रहे हैं। इनमें से करीब साढ़े तीन सौ महžपूर्ण ऐतिहासिक स्मारकों को शेिष तौर से सजा सांर रहे हैं। अक्टूबर में होनेोले राष्ट्र मंडल खेलों को देखने के लिए आनेोले मेहमानों के लिए ऐसे बहुत से काम हम शेिष तौर से कर रहे हैं। ऐसे में साल उठता है कि हम दिल्ली के करीब 250 तांगों को क्यों मौजूद रहने नहीं दे सकते? पर्यारण की दृष्टि से तांगा बेहतर सुरक्षित है। इसके चलने में एक सुर है एक ताल है। तांगा गुजरता है तो हमारे सामने से एक संगीत की धुन गुजरती है। इससेोतारण खराब नहीं होता। प्रदूषण नहीं फैलता है।
कह सकते हैं कि सड़कों पर अन्योहनों के साथ तांगा यह चलेगा तो तेज गतिोलेोहनों के सामने अरोध बनेगा। इसलिए तांगे को कुछ खास मार्गो और खास जगह तक आने जाने की अनुमति दे सकते हैं। देश में खादी और हस्तशिल्प जिन्दा है हमारे दस्तकार, कलाकार और कारीगर मौजूद हैं। हम इन सबको संरक्षण और सहायता देते हैं। इन्हें बनाए रखने के लिए शहरा और कस्बों में क्राफ्ट बाजार, क्राफ्ट इम्पोरियम तथा क्राफ्ट मेलों का आयोजन करते हैं। इन मेलों में ऊंट, घोड़े, हाथी और बग्घी की सारी की व्यस्था करते हैं। इनसे लोगों का भरपूर मनोरंजन होता है। आइस क्रीम के इस दौर में जिस तरह से बर्फ से बर्नी चुस्की का शेिष आनन्द है, उसी तरह से भिन्नोहनों के बीच तांगे से यात्रा करने का एक अलग आनन्द है। देशी और दिेशी पर्यटकों के लिए हम यहां के कुछ खास रास्तों और महžपूर्ण पर्यटन स्थलों के आस पास तांगों की सारी की व्यस्था कर सकते हैं। यहां के शेिष स्टैंड पर सजे धजे तांगे मौजूद रहें। शहर के लोग भी शौकिया तौर पर इसका इस्तेमाल रह सकते हैं। पर्यटकों को तांगे अश्य लुभाएंगे। इतनी शिाल और साधन सम्पन्न श् िस्तरीय बननेोली दिल्ली में अगर मलबा ढोने के लिए गधे और खच्चरों का प्रयोग जारी है। यहां इस काम को करनेोलों की एक पूरी बस्ती पुरानी दिल्ली में आबाद है। दिल्ली के भिन्न हिस्सों में छुट पुट ढ़ग से ऐसे लोग बसे हुए है। तरह तरह के आधुनिकोहनों के बाजूद यहां पारम्परिक शादी में दुल्हा घोड़ी की सारी करता है। कुछ व्याह शादियों में हाथी और घोड़े की भी सारी होती है। दिल्ली शहर में जीन धिता जिस तरह से इस शहर को सुन्दर बनाती है। उसी तरह से यातायात के भिन्न साधन परिहन में अलग अलग रंग भरते हैं। इसमें तांगा भी रहे तो हर्ज क्या है। ऐसा लगता है कि हाशिए पर जीन जीनेोलों से जुड़े लोगों और उनसे जुड़े साधनों के प्रति जो उपेक्षा का नजरिया होता है ह नजरिया तांगे के साथ दिल्ली नगर निगम ने दिखाया है। केन्द्र दिल्ली सरकार एक प्रकार से इस अपनी मौन सहमति दिखा रही है। सम्पन्न व्यक्तियों से जुड़े साजों सामान को जिस तरह से संरक्षण मिलता है ैसी इज्जत आम आदमी से जुड़े साधनों को नहीं दी जाती है।
रईस लोगों की पुरानी कारें धीरी गति से सड़कों पर जब चलती हैं तब उन्हें कौतुहल और इज्जत भरी नजरों से देखा जाता है। इन पुरानी कारों की अधिकतम गति 60 से 80 किलोमीटर के बीच है जबकि इनकीोस्तकि गति 30 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा के आस पास ही रहती है। तांगे में बंधा जान घोड़ा जब सरपट दौड़ता है तो ह भी 30-40 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति पार कर लेता है। तांगे के प्रति उपेक्षा और पुरानी कारों के प्रति इज्जत एक तरह की पीड़ा देनेोला भा है। इन कारों की प्रतिष्ठा के लिए हर र्ष शहर में एक बड़ा आयोजन होता है। राजपथ के जिय चौक से िंटेज कार रैली गुजरती है। धूमधाम से होनेोले इस आयोजन को मीडिया भी प्रचारित करता है। िंटेज कार रैली जहां से गुजरती है उस समय रास्ते रोक दिए जाते हैं और जिस रास्ते से रैली गुजरती है हां दूसरेोहन नहीं चलते हैं। अफसोस के साथ कहना होगा कि तांगों के लिए ऐसा आयोजन लम्बे समय से यहां कहीं देखने को नहीं मिला। अब यहां तांगे ही नहीं रहेंगे तो ऐसे आयोजनों इनकी सारी की कल्पना भी नहीं होगी।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...