Tuesday, August 11, 2015

तमस- ये अंधेरा कितना घना है!

रवीन्द्र त्रिपाठी
सांप्रदायिकता के प्रसंग में `तमस की याद स्वाभाविक है। भीष्म साहनी का ये उपन्यास हिंदी और भारतीय साहित्य़ में इस कारण भी समादृत है कि ये सांप्रदायिकता की विनाशकारी ताकत और भूमिका को रेखांकित करता है। भीष्म जी ने खुद एक आत्म वक्तव्य में लिखा है  (संदर्भ `भीष्म साहनी- एक मुकम्मल रचनाकार- प्रकाशक `सहमत) कि सन् 1970 के इर्दगिर्द महाराष्ट्र के भिवंडी शहर में दंगे के दौरान  वे वहां अपने बड़े भाई बलराज साहनी और फिल्मकार-लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ  गए थे तो वहां की विभीषिका को देखकर उनके दिमाग में अपने मूल शहर रावलपिंडी की वे यांदे ताजा हो गई जहां आजादी के ठीक पहले दंगे हुए थे। भीष्म जी उसी इलाके में जन्मे थे। `तमस के कई , बल्कि ज्यादातर, प्रसंग उस दंगे से ही उठाए गए हैं।   ऐसे में इस उपन्यास  को  सांप्रदायिक मनोवृत्ति को उजागर करनेवाला उपन्यास माना जाए तो इसे में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यशपाल के `झूठा सच के  बाद `तमस ही  हिंदी में वह रचना है जिसके बारे में ये कहा जा सकता है कि इस भारत विभाजन से जुड़े सांप्रदायिकता के मुद्दे को व्यापक परिप्रेक्ष्य में उठाया है। भीष्म जी की कहानी `अमृतसर आ गया  हैभी सांप्रदायिक मनोवृत्ति को उजागर करनेवाली रचना है।
  लेकिन कोई बड़ी रचना  किसी खास समस्या, चाहे वो कितनी ही बड़ी क्यों न हो, तक केंद्रित होकर अर्थवान नहीं होती। उसमें कई आवाजें होंती हैं और वे आवाजें समाज और मनुष्य के कई परतों से हमारा साक्षात्कार कराती हैं। `तमस को मैं ऐसी ही रचना मानता हूं। अपने प्रकाशन के चासील साल के अधिक बीत जाने के बाद भी अगर ये हमारे समकालीन साहित्य का एक संदर्भ-विंदु बना हुआ है तो इसकी एक वजह, मेरे खयाल से, ये भी है कि  इसमें व्यक्तिगत और सामाजिक मनोविज्ञान की कई गुत्थियां और प्रवृत्तियां हैं, ब्रितानी उपनिवेशवाद के तौर तरीकों से वाकफियत कराने की इसकी क्षमता है और ये फिर हमें उस अंधेरे का पता देती है जो लगातार घना हो रहा है तथा जो भारत में हीं नहीं दुनिया के कई देशों फैल रहा  है। `तमस की अंतर्वस्तु इस बात से भी जुड़ी है कि लोग दूसरों को और अपने को किस रूप में पहचानते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो `अपने और दूसरे’` का विभाजन ही एक सांप्रदायिक मनोवृत्ति है क्योंकि जब इस तरह का विभाजन करते हैं- यहां उसका तात्पर्य हिंदू बनाम मुसलमान विभाजन से है- तो उसमें दूरी और तनाव अनिवार्य है। हिंसा की आशंका भी।  सामाजिक स्तर पर इस तरह के भेद और विभाजन हर समाज में मौजूद रहते हैं लेकिन जब उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष जैसे ऐतिहासिक आंदोलन की प्रक्रिया में  पर इस विभाजन को पाट कर `नागरिकता या `भारतीयताकी नई संकल्पना पेश की जा रही हो, तो उपनिवेशवादी  ताकतें पुरानी अस्मिताओं को आपस में एक दूसरे के खिलाफ लड़ने के लिए माहौल बनाती है। ` तमसमें भी हम ऐसा ही होता दिखते हैं। इसलिए मेरी प्रस्तावना है कि ये सिर्फ सांप्रदायिकता को रेखांकित करनेवाला उपन्यास नहीं है।
मोटे तौर पर जिसे पहचान की समस्या या पहचान की राजनीति कहते हैं भारत में उसका सीधा संबंध भारत-पाक विभाजन रहा है और इसी  कारण उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए चले संघर्ष से भी। विभाजन के ठीक पहले भारत में जो सांप्रदायिक उन्माद गहराया उसका उत्स आंतरिक  नहीं था बल्कि बाहरी भी था। जरा देखिए कि उस समय पहचान की राजनीति कैसे काम कर रही थी और कौन सी ताकते थीं जो इस राजनीति में सक्रिय थी।  `तमस के शुरुआती पन्नों में आए इस प्रसंग को देखिए- ``नत्थू ने झट से मुड़कर देखा। तीन आदमी गली के मोड़ पर से सहसा प्रकट हो गए थे और नारे लगाने लगे थे। नत्थू को लगा  जैसे गली के बीचोबीच खड़े वो गान-मंडली का रास्ता रोके खड़े हैं। इन तीन आदमियों से एक के सर पर रूमी टोपी थी और आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा था। वह आदमी गली के बीचोबीच खड़ा मंडली को ललकारता हुआ सा बोल रहा था:
``कांग्रेस हिंदुओं की जमात है। इसके साथ मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं है।‘’
इसका जवाब मंडली की ओर से एक बड़ी उम्र के आदमी ने दिया: `` कांग्रेस  सबकी जमात है। हिंदुओं की, सिखों की, मुसलमानों की। आप अच्छी चक ह जानते हैं महमूद साहिब, आप भी पहले हमारे साथ ही थे।
और उस वयोवृद्ध ने आगे बढ़कर रूमी टोपीवाले आदमी को बांहों में भर लिया। मंडली में से कुछ लोग हंसने लगे। रूमी टोपीवाले ने अपने को बांहों में से अलग करते हुए कहा:
``यह सब हिंदुओं की चालाकी है, बख्शीजी हम सब जानते हैं। आप चाहे जो कहें कांग्रेस हिंदुओं की जमात है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की। कांग्रेस मुसलमानों की रहनुमाई नहीं कर सकती।‘’
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वयोवृद्ध आदमी कह रहा था:
``वह देख लो , सिक्ख भी हैं. हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं। वह अजीज सामने खड़ा है, हकीम जी खड़े हैं----------‘’
``अजीज और हकीम हिंदुओं के कुत्ते हैं। हमें हिंदुओं से नफरत नहीं, इन कुत्तों से नफरत है।‘’ उसने इतने गुस्से में कहा कि कांग्रेस मंडली के दोनो मुसलमान खिसिया गए।
``मौलाना आजाद क्या हिंदू  है या मुसलमान?’’ वयोवृद्ध ने कहा। ``वह तो कांग्रेस का प्रेसिडेंट है।‘’
मौलाना आजाद हिंदुओं का सबसे बड़ा कुत्ता है।गांधी के पीछे दुम हिलाता फिरता है, जैसे ये कुत्ते आपके पीछे दुम हिलाते फिरते हैं।
इस पर वयोवृद्ध बड़े धीरज से बोले:
``आजादी सबके लिए है। सारे हिंदुस्तान के लिए है।‘’
``हिंदुस्तान की आजादी हिंदुओं के लिए होगी, आजाद पाकिस्तान में मुसलमान आजाद होंगे
आइए अब चलते हैं उपन्यास के आखिरी हिस्से की ओर जहां शहर में अमन कायम करने के लिए बैठक हो रही है। उसी समय  एक लीगी उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है-
`` ले के रहेंगे पाकिस्तान! बख्शी जी, यह फरेब आप छोड़ दें। एक बार मान जाएं कि कांग्रेस हिंदुओं की जमात है, इसके बाद मैं इन्हें गले लगा लूंगा। कांग्रेस मुसलमानों की नुमाइंदगी नहीं कर सकती।
 ये दो  प्रसंग हैं जिनके माध्यम से ये समझा जा सकता है कि भारत की आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर में, जब देश विभाजन की तरफ भी बढ़ रहा था, किस तरह की मानसकिता सक्रिय थी। भारतीयता या मनुष्यता की पहचान धूमिल हो रही थी और उनके ही समानांतर हिंदु या मुसलमान की पहचान  तीखी और आक्रामक हो रही थी। आजादी का मतलब देश के आजाद होने से है –इस स्थापना को ही खंडित किया जा रहा था और धार्मिक अस्मिता पर जोर दिया जा रहा था। यानी ब्रिटेन की गुलामी से आजाद  आम भारतीय को नहीं वरन हिंदू या मुसलमान को होना था- ऐसा माहौल बनाया जा रहा था। और ये भी कि अस्मिता की ये लड़ाई  खुद की अस्मिता को पाने  की उतनी नहीं थी बल्कि दूसरों की अस्मिता को नष्ट करने की थी। मानो जब तक आप दूसरे को खत्म नहीं करेंगे खुद नहीं बचेंगे।
 पहचान की राजनीति या पहचान के नाम पर हत्याएं बीसवीं और इक्सीसवीं सदी की एक बहुत बड़ी परिघटना है। इसीलिए सेकुलर राष्ट्रवाद का विमर्श संकीर्ण और असहिष्णु पहचानवादी विमर्श में बदल गया है। ये सिर्फ  उस भारत में ही नहीं हुआ जो ब्रितानी हुकूमत का गुलाम था बल्कि उस तत्कालीन यूगोस्लाविया में भी हुआ जो एक लंबे समय तक मार्शल टीटो के शासनकाल में सेकूलर रहा। आज यूगोस्वालिया का नामों निशान मिट चुका है और स्लाव, क्रोट या मुस्लिम अस्मिताएं एक दूसरे को हताहत कर क्षत विक्षत हो चुकी हैं। ये पश्चिम एशिया से लेकर पाकिस्तान में हो रहा है जहां शिया बनाम सुन्नी से लेकर कई  तरह की अस्मिताओं के खिलाफ रक्तरंजित लड़ाइयां हो रही हैं। ये आज के हिंदुस्तान में हो रहा है जहां हिंदू- मुस्लिम से लेकर नगा –कूकी विवाद जारी है।
  यहां हम पूछ सकते हैं कि क्या मनुष्य की कोई एकल पहचान हो सकती है? या हम में हर कोई एक साथ कई पहचानों वाला होता है? लेकिन इन पहचानों में तालमेल बिठा कठिन होता है। क्या पहचानवादी राजनीति सिर्फ हिंदू या मुसलमान तक रूकेगी? या हिंदु पहचान की राजनीति करनेवाला धीरे धीरे जातियों की पहचान की राजनीति शुरू नहीं कर देगा या मुसलमान  पहचान की राजनीति करनेवाला क्रमश: शिया, सुन्नी, अहमदिया की राजनीति में नहीं उलझेगा । विश्वमानचित्र पर देखें तो ऐसा ही कई देशों में हो रहा है इसलिए `तमस में जिस अंधेरे को रेखांकित किया गया है वो महज एक भारतीय समस्या या सांप्रदायिकता का मसला नहीं। पहचान के नाम पर पूरी दुनिया में हत्याएं हो रही हैं।
    `तमस में जिस सांप्रदायिक हिंसा का वृतांत है वो सिर्फ दो धार्मिक समुदायों के बीच तनाव की वजह से नहीं है बल्कि उसके पीछे कई वजहे हैं। एक तो खुद उपनिवेशवाद है। उपन्यास के आरंभ में ही हम पाते हैं कि नत्थू से सुअर मरवाने की पीछे तत्कालीन प्रशासन है जो ब्रितानी हूकूमत के तहत काम कर रहा था। लीजा और रिचर्ड (लीजा रिचर्ड की पत्नी और रिचर्ड अंग्रेज अधिकारी) की बातचीत भी इस सिलसिले में मानीखेज है।  लीजा रिचर्ड से कहती है-
``बहुत चालाक नहीं बनो, रिचर्ड। मैं सब जानती हूं। देश के नाम पर ये लोग तुम्हारे साथ लड़ते हैं और धर्म के नाम तुम इनको आपस में लड़वाते हो। क्यों, ठीक है ना?’’
यानी धर्म के नाम पर लड़ाई  दो तरह के धर्मावलंबियों का आपसी मामला नहीं है। उसके पीछे और शक्तियां हैं।
  मेरे मित्र और राजनीति विज्ञानी प्रकाश उपाध्याय ने एक किताब लिखी है-`प्रिय दुश्मनों की खोज। कई बार लोग या समुदाय अपने दुश्मनों की खोज करते हैं। प्रकाश उपाध्याय ने इस पुस्तक में लिखा है- दुश्मन बनाने की इस विधि की सबसे पहली शर्त यह है कि यह जनसमूह अपने उन नेताओं का पिछलग्गू बने जो उन्हें इस बात का ज्ञान दें कि वह (यह जनसमूह) हर प्रकाऱ से एक अद्वितीय और अलग संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्र है। जैसे भारत के संदर्भ में हिंदु और मुस्लिम राष्ट्रवादियों द्वारा अपनी अलग संस्कृति और सभ्यता के नाम से सामाजिक विभाजन के जो बीज बोए थे उसी के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में मौलिक रूप से भारत और पाकिस्तान नाम के दो अलग अलग राष्ट्रों का निर्माण हुआ था। (प्रिय दुश्मनों की खोज –पृष्ठ 22)।
 तमस में दुश्मनों की खोज की गई है। हिंदूवादी ताकतें अपने मुससमान को प्रिय दुश्मन मानती हैं और मुस्मिल लीग वाले हिंदुओं को। बिना इस बात का अहसास किए कि वे सदियों से एक साथ रह रही हैं वे एक दूसरे को अपना दुश्मन मानती है और एक दूसरे को नष्ट करने के लिए गोला बारूद इकट्ठा करती हैं और एक दूसरे की हत्याएं भी करती हैं। रणबीर नाम के एक युवक के कहने पर इंद्र नाम का नौजवान एक मुसलमान इत्रफरोश की हत्या करता है, यह जानते हुए कि वो (यानी इत्रफरोश) एक बूढ़ा है और सांप्रदायिक तनाव के माहौल में अपने घर से इसलिए निकला है चंद पैसे कमा सके। रणबीर या इंद्र कोई कट्टर हिंदुवादी भी नहीं है। वे अंदर के कुछ कुछ डरपोक भी हैं। लेकिन वे उस कट्टर उन्माद के दबाव में हैं जो दुश्मन की खोज करती है ताकि अपने को, अपनी पहचान को जबरिया दूसरे पर थोप सके।
   `तमस में अंधेरा नहीं उजाला भी है। लेकिन बहुत कम। उजाला हम तहां देखते हैं जब वृद्ध हरनाम सिंह अपनी पत्नी के साथ डर की वजह से अपने घर से भागता है और पनाह लेता है एक मुसलमान के यहां। जो औरत उसे पनाह देती है उसे नहीं मालूम को उसका पति और उसका बेटा हरनाम सिंह के घर से लूटपाट करके ही वापस लौंटेंगे। ये उपन्यास का बेहद मार्मिक दृश्य है जिसमें मुसलमान औरत राजो पहले  हरनाम सिंह को पनाह देती है और फिर अपने पति की नाराजगी की आशंका से उससे कहती है कि बाहर जाओ। पर फिर उसे जाने से रोकती भी है। जब राजो का बेटा वापस लौटकर हरनाम सिंह को मारना चाहता है तो भीतर से कमजोर पड़ जाता है और अपना  इरादा बदल  देता है । और जब आधी रात को राजो हरनाम सिंह और उसकी पत्नी राजो के घर से विदा लेते हैं तो वो (यानी राजो) सरदार जी को गहने की वो पोटली भी सौंपती है जिसे उसका पति और बेटा लूटपाट के बाद लाए थे।

पर ये उजाला बहुत मद्धिम है और अंधेरा घना होता जा रहा है। पहचान की राजनीति और पहचान के नाम पर हत्याएं जारी हैं। इस संदर्भ में सांप्रदायिकता एक अपर्याप्त अवधारणा है। भीष्म जी का लेखन हमें इस अहसास की तऱफ ले जाता है कि मनुष्यता की आत्मा को ही लहूलूहान किया जा रहा है। पहचान की राजनीति करनेवाले और उपनिवेशवादी ताकतें (आज के संदर्भ में हम जिनको नवसाम्राज्यवादी ताकतें कह सकते हैं) इस दुरभिसंधि में शामिल हैं और हमें किसी `दूसरे के नहीं बल्कि खुद के खिलाफ खड़ा कर रही हैं। क्या `दूसरे को  नेस्तनाबूद करने की आकांक्षा हमें अंदर से विकृत नहीं कर देती?   आखिर कौन सी वजह है कि `अमृतसार आ गया है कहानी में  बाबू नाम का एक चरित्र ट्रेन पर चढ़ रहे एक मुसलमान वृद्ध की  हत्या कर देता है? क्या इसका सिर्फ फौरी कारण था या उसके भीतर कोई घृणा लगातार संगठित हो रही थी और इसका कोई वैचारिक आधार था? क्या इस घृणा की वजह सिर्फ सांप्रदायिकता है या हमें, यानी हम सबको और मात्र हिंदु या मुसलमान को ही नहीं, अपने भीतर जाकर ये देखना होगा कि कहीं  हम जिसे दुश्मन मान कर हत्या कर रहे हैं वो हम खुद तो नहीं हैं। अर्थात कहीं  हम खुद का शिकार तो नहीं कर रहे हैं?  `अमृतसर आ गया हैकहानी में वृद्ध की करनेवाले बाबू की मुस्कान  अंत में वीभत्स क्यों हो जाती है?

साभार-साहित्य अकादमी 

(लेखक, समीक्षक और स्तंभकार रवीन्द्र त्रिपाठी द्वारा भीष्म साहनी की जन्म शतवार्षिकी पर साहित्य अकादमी में पढ़ा गया लेख।)



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