Friday, October 2, 2015

गाय को गांधी इस तरह बचाते

महात्मा गांधी गोपूजक थे और हिंदू- मुस्लिम एकता के हिमायती भी। आज के दौर में जब गोरक्षा और गोमांस के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है और भीड़तंत्र का न्याय हावी हो रहा है,तो उनके विचार नई प्रासंगिकता पा रहे हैं। दिल्ली के निकट गोमांस खाने के आरोप में दादरी में अल्पसंख्यक समुदाय के मजदूर को पीट-पीट कर मार डालने से देश सिहर गया है। जबकि एक खास सोच के लोग इस काम को सही ठहराने में लगे हैं। ऐसे में आइए देखते हैं कि 1909 में लिखी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक `हिंद स्वराज’ में इस विषय पर महात्मा गांधी ने क्या कहा था।
पाठकः-अब गोरक्षा के बारे में अपने विचार बताइए।
संपादकःमैं खुद गाय को पूजता हूं यानी मान देता हूं। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है इसे मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे।
लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूं, वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं। जैसे गाय उपयोगी है वैसे ही मनुष्य भी—फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू---उपयोगी है। तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूंगा? क्या मैं उसे मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान और गाय दोनों का दुश्मन हो जाऊंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक ही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती है तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक कानून है, ऐसा मैं तो मानता हूं।
हां और नहीं के बीच हमेशा बैर रहता है। अगर मैं वाद विवाद करूंगा तो मुसलमान भी वाद विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूंगा, तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिस्त भर नमूंगा तो वह हाथ भर नमेगाः और अगर वह नहीं भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलाएगा। जब हमने जिद की तो गोकशी बढ़ी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गोवध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पड़ी होगी।
मेरा भाई गाय को मारने दौड़े तो उसके साथ मैं कैसा बरताव करूंगा? उसे मारूंगा या उसके पैरों में पड़ूंगा? अगर आप कहें कि मुझे उसक पांव पड़ना चाहिए तो मुसलमान भाई के पांव भी पड़ना चाहिए।

Sunday, September 20, 2015

बदनवालु- एक खोई हुई जगह


रवीन्द्र  त्रिपाठी

क्या ऐसा होता है कि कोई जगह हमारे बीच मौजूद रहते हुए भी खो जाती है? यानी उसका स्वत्व अनुपस्थित हो जाता है?  उस स्थान विशेष का ढांचा तो बना रहता है लेकिन उसकी आत्मा विलुप्त हो जाती है? दूसरे शब्दों में ये भी कह सकते हैं कि जमीन की वो सतह तो बनी रहती हैं जिसकी वजह से उस जगह का नाम दिगंत में फैलता है लेकिन जो विचार वहां पनपते और पुष्पित या पल्लवित होते हैं वे मुरझा जाते हैं उनमें घुन लग जाता है।  क्या उस जगह की विलुप्त आत्मा को फिर से पाया जा सकता है? क्या उन विचारों का पुष्पन और पल्लवन फिर से संभव है जो उस स्थान विशेष जुड़े थे? और उनके साथ ही उस जगह की तेजस्विता का क्या पुनरोदय भी हो सकता है? आखिर आत्मा कभी नष्ट नहीं होती! चाहे वो मनुष्य की हो या जगह की।

अपनी एक यात्रा में एक ऐसी ही जगह और उसकी विलुप्त आत्मा की  खोज के लिए एक प्रयास को मैंने देखा। मैने ये भी महसूस किया कि उन विचारों का फिर से पुष्पन हो रहा है जिसके लिए वो जगह कभी मशहूर हुआ करती थी।  उस जगह का नाम है बदनवालु ( अंग्रेजी प्रेस में बदनवाल के नाम से इधर चर्चित हो गया है।) ये कर्नाटक के मैसूर जिले का एक गांव है। पहली नजर में भारत के उन आम गावों की तरह जहां की खेती हमेशा संकटग्रस्त रहती है। यहां की कृषि बारिश पर निर्भर है जो हमेशा कम होती है। लेकिन बदनवालु  एक गांव भर की नहीं है।  ये गांधी जी के विचारों की सफल प्रयोगभूमि रही थी। एक ऐसी भूमि जहां `हिंद स्वराज के सफल प्रयोग हो रहे थे। वो प्रयोगभूमि आज उजड़  गई है। पर पिछले दिनों इस वीरानेपन में फिर से गांधी के विचारों का बीजरोपन हुआ। देश के वरिष्ठ रंगकर्मी, कन्नड़ लेखक और हथकरघा के पैरोकार प्रसन्ना ने यहां  पिछले दिनों अपने कुछ मित्रों के साथ यहां आकर एक सत्याग्रह किया था। इसी  सिलसिले में मैं वहां गया था। बेशक इस सत्याग्रह के कुछ घोषित मकसद थे- जैसे टिकाऊ जीवनशैली (ससटेनेबल वे ऑफ लाइफ) पर जोर, खादी और हथकरघा की लगातार संकटग्रस्त स्थिति की तरफ ध्यानाकर्षण, ग्रामोद्योग की अमहियत को बताना, विकास की मौजूदा सरकारी नीति पर विमर्श आदि। मगर बात निकली तो दूर तलक गई। यानी खेती पर भी  चर्चा हुई। देसी बनाम विदेशी अर्थात् बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीज का मसला भी उठा। ये सत्याग्रह उन कई कसमसाते मुद्दों का मिलनविंदु भी बना जो आज भारत के अलग अलग हिस्सों में उठ रहे हैं। जो बेचैनियां भारत के हर हिस्से में सुनी जा रही हैं उनमें से कई यहां मुखर हुईं।  इस यात्रा का वृंतात उस तरह का  नहीं है जो  पत्रिकाओं या साहित्यिक पुस्तकों में पाया जाता है। मेरे लिए ये उन विचारों से रूबरू होने होने का था जो हमारे समाज में मौजूद तो हमेशा से रही हैं लेकिन जिन पर महानगरी भारत अपना विश्वास खो बैठा है।
  पर सबसे पहले तो आपको ये बता दूं कि बदनवालु पहुंचने पर आपको इसका पक्का भरोसा हो जाएगा कि  भारतीय रेलवे में गजब की विनोदप्रियता है। ये मैं इसलिए कह रहा हूं  हालांकि इस गांव में एक रेलवे स्टेशन है और इसीलिए यहां  पहुंचना सुगम है, परंतु अगर आपने बदनवालु जाने के लिए रेल का टिकट चाहा तो आपको घोर निराशा होगी। आपको मैसूर या चामराजनगर से नरसांबुधि का टिकट लेना पड़ेगा जिसका अपना  कोई वजूद नहीं है। यानी वहां इस नाम का न कोई गांव है न कस्बा। सिर्फ रेलवे स्टेशन है। कैसे बदनवालु स्टेशन का नाम नरसांबुधि पड़ा ये किसी पुरातात्विक खोज का विषय है। नरसांबुधि भी एक खोई हुई जगह है।  भारतीय रेल उसका अस्तित्व मानता है लेकिन लोकस्मृति में वो नहीं है।
  बहरहाल पृष्ठभूमि के रूप में आपको बता दूं कि बदनबालु में मैं नौ अप्रेल 2015 से 19 अप्रेल 2015 तक था। बदनवालु में एक पुराना खादी केंद्र है जिसकी स्थापना 1927 में हुई थी। इसकी स्थापना तगडूर रामचंद्र राव ने की थी जो आजादी के पहले के भारत और कर्नाटक के प्रसिद्ध गांधीवादी थे। इस खादी आश्रम की पूरे कर्नाटक में इतनी प्रतिष्ठा थी कि यहां और आसपास में बनी खादी को `बदनवालू खादी  खादी  कहा जाता था। गांधीजी खुद इस आश्रम में 1932 में आए थे। ऐसा कहा जाता है कि कन्नड़ के दिग्गज लेखक कुवेंपु हमेशा बदनवालू खादी की पहनते थे। कई और दूसरे तत्कालीन  लेखक भी। कुछ लोगों का तो ये भी कहना है कि `बदनवालू खादीका इंग्लैंड में भी निर्यात होता था। पर आज की तारीख में बदनवालु का खादी केंद्र एक उजड़ा हुआ बियाबन  है। (भारत में कई ऐसे खादी केंद्र हैं)। ऐसा नहीं था कि बदनवालु में  सिर्फ खादी का कपड़ा तैयार किया जाता था। ये एक बड़ा ग्रामोद्योग केंद्र भी था जहां कागज, दियासलाई, तेल पिराई जैसे और भी काम होते थे। लगभग आठ एकड़ में फैले केंद्र में नौ-दस भवन थे। इनमें कई  क्षत विक्षत हैं। कुछ की मरम्मत हो रही है। बाकी किसी तरह खड़े हैं। अब गिरा तब गिरा वो अटका हुआ आंसू की तरह। ये खादी केंद्र जीर्ण शीर्ण शरीर की तरह है।  लगता है किसी भग्नावशेष में आ गए है। सिर्फ दीवार या क्षतें ही नष्ट नीड़ की तरह नहीं है बल्कि पूरा वातावरण ही उस बहुत कुछ के लोप जाने की गवाही देता है जो किसी भी केंद्र को ऊर्जा और हलचलों से भरा बनाए ऱखते हैं। बदनवालु सत्याग्रह उसी खादी मंदिर में फिर ग्रामोद्योग की प्राणप्रतिष्ठा का प्रयास था।
  प्रसन्ना न सिर्फ मेरे पुराने मित्र हैं बल्कि  व्यापक अर्थ में एक ऐसे संस्कृतिकर्मी हैं जो कला और सामाजिक भूमिका में किसी तरह का फर्क नहीं करते हैं। बतौर रंगनिर्देशक उनकी अखिल-भारतीय प्रतिष्ठा है। उन्होंने कई नाटक भी लिखे हैं लेकिन  पिछले कुछ वर्षों से उनका एक दूसरा व्यक्तित्व भी उभर रहा है। कर्नाटक के शिमोगा जिले के हेग्गोड़ू गांव  में उन्होंने `चरखानाम की एक संस्था भी बनाई जो हथकरघा का महत्त्वपूर्ण केंद्र भी बन गया है।  2014 में उन्होंने कर्नाटक में एक पदयात्रा का आयोजन भी किया जो हथकरघा के लिए था। इसी सिलसिले में कर्नाटक के गदग जिले के गजेंद्रगढ़ कस्बे में उन्होने अनशन भी किया था। हथकरघा और विद्दुतकरघा के बीच भारत में पिछले कई वर्षों से युद्ध की स्थिति है जिससे आम भारतीय अनभिज्ञ है। और इस ,युद्ध में हथकऱघा लहुलुहान हो रहा है। हथकऱघा बचाने के आंदोलन के  इसी क्रम में प्रसन्ना ने महसूस किया ये तब तक नहीं बचेगा जब तक लोगों की जीवनशैली नहीं बदलेगी अभी जो जीवनशैली हो है वो उपभोक्तावाद पर आधारित हैं तथा दूसरी चीजों के अलावा ऊर्जा के अत्यधिक उपभोग की तरफ ले जाती है। हालांकि हथकरघा में विद्युत ऊर्जा की खपत नहीं है फिर भी उसके खिलाफ उपभोक्तावादी ताकतें लगी रहती हैं। इसलिए हथकरघा के लिए आंदोलन का अभियान आगे चला   और इसी की अगली कड़ी में था बदनवालु सत्याग्रह जिसके बारे में  दक्षिण भारत उत्सुक था पर उत्तर भारत लगभग उदासीन।  
  19  अप्रेल 2015 को यहां, यानी बदनवालु में  हजारों लोग (पांच से छह हजार के करीब) इकट्ठे हुए हुए और इस सत्याग्रह को अपना समर्थन दिया। यहां कई तरह के लोग थे। किसान, देसी खेती को बचाने कि लिए लगे लोग थे, हथकरघा और खादी के हिमायती थे, शिक्षा में प्रयोग करनेवाले थे, लेखक, कलाकार और रंगकर्मी थे। उस तरह के लोग थे जिनको लग रहा है कि भारत में विकास की जो प्रक्रिया चल रही है वो टिकाऊ नहीं है और प्रकृति-जमीन, जंगल, स्वास्थ्य का विनाश कर रही है।
 ऐसा नहीं था कि सिर्फ 19 अप्रेल को ही जो हुआ सो हुआ। उसकी प्रक्रिया तो यहां पहले ही शुरू हो गई थी जब इस ताऱीख के लगभग एक महीना पहले प्रसन्ना और उनके तीन और साथी यहां आकर  रहने लगे। वे थे अनिल हेगड़े, जो समाजवादी पृष्ठभूमि के हैं, और इन दिनों पश्चिमी घाट बचाने के लिए जो लोग संघर्ष कर रहे हैं उनमें वे भी हैं। दूसरे थे श्रीकुमार जो विज्ञान के अध्येता रहे और इंजीनियरिंग के अध्यापक भी।  अब पिछले कई सालों से वे सिर्फ खेती कर रहे हैं। तीसरी थीं उषा राव जो ग्रामीण प्रबंधन की स्नातक रही हैं। वे भी कुछ सालों से तेलांगना के मेदक इलाके में खेती करती हैं। प्रसन्ना, अनिल हेगड़े, श्री कुमार और उषा राव बीस मार्च 2015 से ही इस खादी आश्रम में  जम गए। इस आश्रम के एक भवन के क्षत-विक्षत हिस्से को उन्होंने साफ किया। उस हिस्से की छत का बड़ा सा हिस्सा गायब था। इसलिए जब बारिश होती तो वो हिस्सा पानी से सराबोर हो जाता था।  कीड़े भी आ जाते थे। दोपहरी में तेज धूप  चमकती। और रात में मच्छरों का प्रकोप। वैसे ये चारो रात में खुले मैदान में सोते थे। ओडोमस के सहारे मच्छऱों का आक्रमण रोकने का प्रयास करते थे। लेकिन मच्छर भी कहां मानते थे। उनका अभियान जारी रहता। 9 अप्रेल की रात मैं भी वहीं सोया। लेकिन उस रात वहां सिर्फ मैं और ये चार लोग भर नहीं थे। कुछ और लोग भी थे। इरफान खान   और उनकी पत्नी सुतपा सिकदर । जी हां,  मैं हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता  इरफान खान की बात कर रहा हूं जो   हॉलीवुड के स्टार भी हो चुके हैं। 9 अप्रेल की रात को इरफान भी बदनवालु के उस चबूतरे पर खुले आसमान के नीचे सोए जहां प्रसन्ना और मैं भी थे। ओडोमस शरीर में मलकर प्रसन्ना तो जल्द गहरी नींद में सो सो गए। पर मैं, प्रसन्ना, अनिल हेगड़े. इरफान और सुतपा तो रात डेढ़ बजे तक बातें करते रहे।

 इरफान  सपत्नीक इस आदोंलन को अपना नैतिक समर्थन देने बदनवालु आए थे। दरअसल मैंसूर से इरफान, सुतपा, एक पेंटर सच्चिदानंद, एक स्थानीय नाट्य उत्साही जयराम पाटिल, उनकी पत्नी रजनी शास्त्री  और मैं मैसूर से एक इनोवा मे साथ ही चले। मैसूर शहर के बाहरी इलाके में जयराम पाटिल का घर है। ये एक गांव ही है जो पेड़ों से भरा है। और यहां एक खास प्रजाति के बंदर काफी हैं। जयराम पाटिल की पत्नी रजनी शास्त्री पशु प्रेमी (एनिमल राइट एक्टिविस्ट) है। लगभग ढाई तीन सौ बदंरों को रोज खेले खिलाती हैं। इसके अलावा चने भी। इरफान तो उनके घर के सामने बंदरों के चने खिलाने लगे। बंदर भी इतने सुसंस्कृत कि उनके हाथों से सिर्फ से चने ही लेते थे। बाकी कोई उधम नहीं। इरफान उनके सानिध्य का मजा ले रहे थे। बंदर भी मस्त होकर चने खा रहे थे और इऱफान के साथ फोटो भी खिंचवा रहे थे। ।
 खैर, बंदर-भोजन के बाद जब हम बदनवालु पहुंचे तो वहां घुप्प अंधेरा। मालूम हुआ कि बिजली का बिल इस आश्रम ने बरसों से नहीं चुकाया है और इसलिए यहां रात में अधेरे का साम्राज्य ही रहता है। कार के हेडलाइटों की रोशनी में ही प्रसन्ना ने सबका एक दूसरे से परिचय कराया। कुछ कन्नड़ टीवी चैनल वाले भी इरफान का इंटरव्यू लेने वहां आ गए थे इसलिए कुछ रोशनी कैमरा के लिए  जो प्रकाश व्यवस्था  थी, वो भी कर रही थी।  इरफान ने चैनलों से बात करते हुए जो कहा उसका लब्बो लुबाब ये था प्रसन्ना मेरे (यानी इरफान के) गुरु हैं और उनसे अभिनय की बारीकियां सीखीं है। (इरफान और उनकी पत्नी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे हैं और प्रसन्ना के निर्देशन में `फुजियामा और `लालघास पर नीले घोड़े’  नाटकों  में इरफान ने मुख्य भूमिका निभाई थी।)  इरफान ने कहा कि वे न सिर्फ प्रसन्ना के कारण यहां आए हैं बल्कि पश्चिमी शैली के विकास के मॉडल के प्रति भारत में अंधानुकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है उससे भी अपनी असहमति जताने यहां पहुंचे हैं।
9 अप्रेल की उस रात जब बदनवालु में चांद कभी बादलों के बीच छिप जाता था और कभी बाहर निकल आता था, और हल्की सी बूंदा बांदी भी हो जाती थी और बिजली के साथ ये आशंका भी जोर से कौंधती थी कि अगर वर्षा हुई तो हम कहां छिपेंगे, इरफान और बाकी हम सब  विकास नीति से लेकर फिल्मों जैसे विषयों पर बात करते रहे। मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दिनों से देख रहा हूं कि इरफान में एक सहज ईमानदारी है जो उनके अभिनय में भी झलकती हैं और निजी जीवन में। जब वे अभिनय करते हैं लगता नहीं कि कुछ अतिरिक्त कर रहे हैं। कोई मैनरिज्म नहीं। कोई अतिनाटकीयता नहीं। किसी तरह का स्टारडम नहीं। पर उनके भीतर एक गहरा `कनिविक्शनजिसका मुरीद हुए बिना आप रह नहीं सकते। उस रात बातचीत में भी वे आत्मीय रूप से अपनी राय और अनुभव बता रहे थे। नासिक के पास इरफान का आमों का बाग भी है। वे बता रहे कि किस तरह कई जगहों पर जमीन देखने के बाद उन्होंने नासिक वाली जगह पसंद की। मुझे याद आया कि इरफान आमों का एक विज्ञापन भी किया था जिसमें कई तरह के आमों का उल्लेख था। उनके नासिक वाले आम के बाग के बारे में जानने के बाद लग कि क्यों वो विज्ञापन भी विश्वसनीय लगता था। आखिर आम का बागवानी का उनका अपना अनुभव भी है। बहरहाल जब फिल्मों की बात चली तो `द लाइफ ऑफ पाई के बारे में भी उन्होंने  कई चीजें बताईं। जैसे ये कि  उसके निर्देशक आंग ली एक बेचैन व्यक्ति हैं और शूटिंग के दौरान ऐसा कई बार होता था कि जब इरफान अपने समय पर शूटिंग के लिए  पहुंचते थे तो पाते थे कि वे (आंग ली) उनके द्वारा बोले जाने  वाले संवादों की खुद बुदबुदा रहे हैं। इरफान के कहने का आशय ये था कि आंग ली  फिल्म निर्माण की प्रक्रिया में खुद को इतना विलीन कर लेते हैं उसी के साथ एकमेव हो जाते हैं।  `लाइफ ऑफ पाई के लिए बाघ फ्रांस के एक चिड़ियाघर से मंगवाए गए थे। ये बाघ भी बड़े मूडियल थे। (मूडियल शब्द मेरा है इरफान का नहीं।) वे कब किस मूड में होते इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। कभी आखें बंद करते तो देर तक खोलते ही नहीं और कभी देखते तो लगातार एकटक। उनके मूड के मुताबिक शूटिंग की जाती थी। इरफान ने कहां कि वे आंग ली के प्रशंसक इसलिए हो गए जिस विषय पर ये फिल्म (द लाइफ ऑफ पाई) है, यानी ईश्वर के होने या न होने पर, उसे बनाना बहुत कठिन है। ये फिल्म... की रचना पर बनी है। वे भी इस पुस्तक को लिखने के दौरान काफी बेचैन थे और कुछ दिनों के लिए पांडचेरी में आकर रहे भी थे।  आज की  हिंदी फिल्मों की बात चली तो इरफान ने कहा कि अब वो समय आ गया है जब अच्छी पिल्म फिल्म के लिए मौलिक कहानी चाहिए, सिर्फ मसाले से काम नहीं चलेगा। वही फिल्म अब
टिकेगी और स्थाई महत्त्व की होगी जिसकी अपनी खास कहानी हो। 10 अप्रेल को जब इरफान और सुतपा लौटते वक्त बदनवालु से बीस किलीमीटर दूर कुम्हारों के गांव दूरा गए तो मैं और अनिल हेगड़े भी साथ थे। गाड़ी अनिल हेगड़े ड्राइव कर रहे थे। इरफान और अनिल हेगड़े में खेती और किसानी को लेकर बहुत बातें हुईं। पोपट लाल पवार
के बारे में अनिल हेगड़े ने विस्तार से बताया। पोपटराव पवार जब महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले को हिब्रे बाजार पंचायत के अध्यक्ष बने तो तब  इस ग्राम पंचायत की खेती का बुरा हाल था। कृषि के लिए पानी नहीं था इसलिए बोरिंग की जाती पर उससे पानी का स्तर और नीचे जाता। पोपटलाल पवार के प्रयास से पंचायत ने जल संग्रहण का काम शुरू किया। इससे पंचायत के भूजल का स्तर ऊपर उठा। फिर अच्छी खेती होने लगी। इस गांव में आज की तारीख में एक भी बोरवेल नहीं है। यानी पानी का दोहन नहीं होता। पंचायत ने नियम बना दिया गांव की जमीन कोई बाहर का आदमी नहीं खरीद सकता। फिर शराब बंदी की गई। पंचायत की तरफ से। महाराष्ट्र सरकार ने  हिब्रे बाजार को एक आदर्श ग्राम पंचायत घोषित किया है। इरफान ने इस कहानी को बड़े गौर से सुना हैं और कहा  इस पर टीवी कार्यक्रम बनाने की इच्छा हो रही है। अनिल हेगड़े ने उसके बाद सुभाष पालेकर के बारे में बताया। पालेकर भी महाराष्ट्र के अमरावती जिले हैं और जीरो-बजट खेती के प्रचारक हैं। अनिल हेगड़े ने कहा कि पालेकर अपनी खेती की पद्धति पर कार्यशाला भी लगाते हैं और किसानों को प्रशिक्षित भी करते हैं।
  14 अप्रेल को मेधा पाटकर बदनवालु के उस खादी केंद्र में पहुंची थीं। प्रसन्ना से मिलने और बदनवालु सत्याग्रह को अपना नैतिक समर्थन देने। मेधा की स्मरण शक्ति गजब की है। उनसे लगभग पंद्रह साल बाद मिला था पर उन्होंने पहचान लिया। उस दिन  खादी केंद्र पर कई युवा लड़कियां भी आई थीं। उन्होंने मेधा पाटकर से नर्मदा बचाओ आंदोलन के बारे में कई सवाल पूछे। मेधा ने संक्षेप में नर्मदा आंदोलन का इतिहास बताया। उन्होंने सबसे ये भी कहा कि जल संग्रहण के लिए अपने अपने इलाके में छोटे मोटे प्रयास करते रहें क्योंकि पानी देश की प्रमुख समस्या है। खेती की भी। उनका कहना था कि  हमारे देश में  बरसात के पानी को बचाने का प्रयास कम होता है और वह अधिकतर बह जाता है। बरसाती पानी के संग्रहण के लिए अभियान चलाया जाना चाहिए। मेधा ने नर्मदाघाटी के पुरातात्विक मह्त्त्व की भी चर्चा की। उनके कहने का सार ये था कि इस घाटी में ही आदि मानव का जन्म हुआ और ये मोहनजोदड़ों (मुइन जोदड़ो) से भी पुरानी सभ्यता है।


 बदनवालु में 19 अप्रेल को जो हजारों लोग थे उनकी अहमियत सिर्फ ये नहीं थी वे किसी संख्या को बता रहे थे। वे उस बेचैनी को भी अभिव्यक्त कर रहे थे जो देश के चप्पे में खदबदा रही है। प्रकृति को नष्ट करके विकास की गाड़ी आगे बढाई जाए या प्रकृति को बचाकर- इस बहस को देश के हर इलाके मे सुना जा सकता है। मगर इस बहस की आवाज दबी दबी सी रह जाती है क्योंकि सत्ताकांक्षी नेता, संगठित कॉरपोरेट, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और नौकरशाही की ताकत इतनी ज्यादा है कि वो  असर नहीं कर पाती।  हालांकि भारत का विकास किस तरह का हो, ये मसला तो औपनिवेशिक भारत में ही उठ गया था और जिसका एक सशक्त विमर्श महात्मा गांधी के `हिंद स्वराजसे आया था। लेकिन आजाद भारत में `हिंद स्वराज का तर्क दब गया और औद्योगीकरण की नीतियों और कार्यक्रमों  ने उसे  कुचलने की कोशिश की। लेकिन विचारों की अपनी ताकत और जिजीविषा होती है। दबाए जाने के बाद भी वे खड़े हो जाते हैं। सीधा और तनकर।  इसी कारण नर्मदा सागर बांध और सरदार सरोवर बांध जैसे प्रकल्पों के खिलाफ आवाजें उठीं और आंदोलन हो रहे है। फिर नई आर्थिक नीति का दौर आय़ा तो लगा कि अब तो उपभोक्तावाद की जययात्रा पूरी हो चुकी है। किंतु तभी किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगीं। कपास की खेती में लगे किसान तबाह होने लगे। हालांकि ये सब अचानक नहीं हुआ था। इसकी पूर्वपीठिका तो पहले से बनने लगी थी। कर्नाटक के ही किसान नेता प्रो. नंजुंडास्वामी ने चेताया था कि अगर विदेशी बीजों का चलन बढ़ा तो भारत के किसान अपनी खेती नहीं कर पाएंगे, वे विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इच्छा और उनके हितों के मुताबिक खेती करेंग। नंजुंडास्वामी ने एक विदेशी बीज कंपनी को खिलाफ आंदोलन भी चलाया।
     आज की तारीख में स्थिति  ये है कि  विदेशी बीजों का चलन भी जारी है और साथ ही किसानों की बर्बादी भी। किंतु दूसरी तरफ खेती से देसी तरीके और देसी बीजों के लिए चेतना भी बढ़ रही है। बदनवालु में ऐसे कई लोग मौजूद थे जो  व्यावसायिक खेती से नुकसान को लेकर जनजागरण कर रहे हैं। व्यापसायिक खेती में जिस तरह बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का प्रयोग हो रहा है उससे स्वास्थ्य संबंधी गंभीर संकट पैदा हो रहे हैं। कैंसर जैसी बीमारियां  सुरसा के बदन की तरह बढ़ रही हैं। अनिल हेगड़े ने इरफान से बातचीत के दौरान पंजाब के एक ऐसे गांव का जिक्र किया जहां के लोग कीटनाशकों के अतिशय प्रयोग के कारण कैंसर की चपेट मं इस तरह आ गए हैं कि अपनी गांव की जमीन बेचना चाहते हैं, परंतु उस जमीन को खरीदनेवाले नहीं है क्योंकि वैसे वहां बसना कौन चाहेगा जहां कैंसर के दानव की क्षुधा बढ़ रही हैउस गांव में कोई अपनी लड़की की शादी के लिए तैयार नहीं है क्योंकि उसके और उसके भावी बच्चों के कैंसरग्रस्त होने की आशंका है। कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसका रिश्ता विकास की नीतियों से है। अगर आप कीटनाशकों का बेहिसाब प्रयोग करेंगे,  परमाणु केंद्रों में पैदा होनेवाले रेडिएशन पर ध्यान नहीं देंगे ये बीमारी तो और बढ़ेगी। फिर कैसा विकास और किसका विकास? विकास औऱ विनाश में फर्क क्या रह जाएगा?
    बदनवालु में  देसी बीजों की बात भी हुई। वहां कृष्णा प्रसाद आए थे जो बंगुलुरु में रहते हैं और `सहज समृद्धा से जुड़े हैं। उत्साह से भरपूर कृष्णा प्रसाद  वैसे शिक्षा से इंजीनियर हैं लेकिन उनका सारा समय देसी बीजों के संवर्धन और प्रोत्साहन के लिए जाता है। उनका दिमाग वैज्ञानिक है और वे प्रमाणों से साथ बात करते हैं। उन्होंने `भारत बीज स्वराज मंच का भी गठन किया है। जापानी किसान और दार्शनिक मसानोबु फुकोआका की किताब `वन स्ट्रा रिवोल्यूशन ने उनकी जीवनदृष्टि बदल दी। उन्होंने तय़ किया कि न तो सरकारी नौकरी करेंगे और न किसी बड़ी कंपनी मे। सारा समय देसी खेती को बचाने में लगाएंगे। उनका दावा  है कि देसी बीजों को बचाने और संग्रह करने का उनका अभियान देश के अलग अलग भागों में लोकप्रिय हो रहा है।
  बदनवालु में मुझे गोपीकृष्ण और मामाजी से मिलकर इस बात का भी एहसास हुआ कि हम गांधी जी के चरखा को भी ही नहीं उनकी बकरी को भी भूल गए हैं। गोपीकृष्ण कर्नाटक के बेलगांव के इलाके हैं और भेड़ पालन में लगे समुदाय के साथ काम करते हैं। मामाजी, जिनका नाम नीलकंठ नागप्पा कुरबर है, और जो पीले रंग की पग्गड़ पहनते हैं,  इसी समुदाय है। वे भेड़ों के डॉक्टर भी हैं। कम से कम अपने को ऐसा ही कहते हैं। बेहद बातूनी आदमी। चेहरे पर कुछ छोटे छोटे मांसल गोले। आंखों में हल्की सी शरारत। बेलगांव के ही हैं लेकिन कोई स्थाई ठिकाना नहीं। वे घुमंतु हैं और अपने घोड़ों और भेड़ों के साथ घूमते रहते हैं। परिवार भी साथ रहता है। वे भेड़ के बारे में ही नहीं घूमंतूपन के बारे में भी काफी कुछ बताते हैं। हिंदी अच्छी बोलते हैं। लहजा थोड़ा व्यंगात्मक है और मजाकिया भी ।  यहां  और आगे बढूं इसके पहले एक हल्का सा विषयांतर हो जाए जो विषयांतर नहीं भी है।  यानी थोड़ा-सा बकरी पुराण ।
  इन दिनों  जब बकरी की चर्चा होती है तो सिर्फ  ऐसे पालतू जानवर की याद आती है जो कम मात्रा में दूध देती है। आजकल उसकी उपयोगिता इसलिए बढ़ गई है कि जब शरीर में जब प्लेटलेट कम हो जाता है तो बकरी के दूध का सेवन फायदेमंद होता है। इसी वजह से जब बड़े शहरों में डेंगू का प्रकोप होता है इस दूध का रेट इतना बढ़ जाता है एक किलो दूध बेचकर कोई एक बकरी खरीद सकता है। पर क्या बकरी के लिए देश में या राज्य सरकारों के लिए कोई नीति है?  मैं नहीं जानता।  मैं उस यात्रा को सफल मानता हूं जिसमें आप कुछ नए प्रश्नों से मिलते हैं। वे प्रश्न आपको नए वैचारिक गंतव्य की तरफ ले जा सकते है। अगर आप जाना चाहें। बदनवालु में भी कई सवाल मिले जिनमें एक  बकरी वाला  भी था। गोपीकृष्ण से बात करने के दौरान मेरे मन में यकाएक कौंधा कि बकरी और भेड़ हमारे राष्ट्रीय विमर्श में कहीं भी क्यों नहीं हैं। क्या हम चरागाही जीवन को बिल्कुल भूल गए हैं। आखिर पारंपरिक भारतीय अर्थव्यवस्था तो चरागाही लोगों पर बहुत कुछ निर्भर थी। खासकर कृषि।
   भेड़ पालन भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का अविभाज्य हिस्सा रहा है। पहले ज्यादातर और आज भी कई किसान अपने खेतों में भेड़  बिठाते हैं। भेड़ का मल खेत से लिए उर्वरक का काम करता है। भेड़ से  उन भी भी निकलता है जिससे कंबल, स्वेटर बनते हैं। पर जब खेती पर सरकारी नीतियां बनती हैं तो भेड़ों और चरवाहों पर बहुत कम बातें होती हैं।  गोपीकृष्ण  ऊंटों के बारे में चर्चा करते हैं। यानी बकरी, भेड़ और ऊंट को छोड़कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुरक्षित नहीं रख सकते। गांधी जी यों ही बकरी के हिमायती नहीं थे।
 गोपीकृष्ण और मामाजी के साथ ही मिली दीप्ति देसाई। दीप्ति देसाई फोटोग्राफर हैं। पचीस-तीस साल की लड़की।  चेहरे पर गंभीरता भी और उत्साह भी। सारा समय वे चरवाहों और गड़रियों के बीत बिताती हैं। उनके बीच ही रहती हैं और उनके फोटो खींचती हैं। उन सबको ही अपमा परिवार मानती हैं। उनका फोटोग्राफी को लेकर एक साइट भी हैं –दीप्ति देसाई डाट काम।(deeptidesai.com )
 चले फिर बदनवालु सत्याग्रह की ओर। इस सत्याग्रह का वृहत कार्यक्रम 19 अप्रेल को जरूर था लेकिन उसके पहले आसपास की पांच जगहों से ऐसी पदयात्राएं निकली थीं जो 19 को बदनवालु पहुंची थी। ये यात्राएं मैसूर, हेचडी कोटे. चामराजनगर, नंजनगुड़ और अमृतभूमि से निकली थीं। इन यात्राओं में किसान थे, पेंटर थे, रंगकर्मी थे, युवा थे और बच्चे भी थे। गांधीवादी भी थे और लोहियावादी भी। किसी जत्थे ने पचीस किलोमीटर की यात्रा तय की किसी ने पचास किली मीटर की। कोई जत्था  पांच दिनों में यहां पहुंचा तो कोई चार दिनों में। 18 अप्रेल को ये यात्राएं तगडूर रामचंद्र राव के गांव तगडूर पहुंचीं जो बदनवालु से लगभग दस किलोमीटर दूर है। इस गांव में तगड़ू ने एक खादी केंद्र बनाया था जो आज भी सक्रिय है। मालूम हुआ कि रामचंद्र राव का इस गांव में आरंभिक दिनों में काफी विरोध हुआ। उनके खादी केंद्र को शुरू में जला भी दिया गया था। तगड़ू चूंकि अस्पृश्यता नहीं मानते थे इसलिए गांव के सवर्णों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। पर तगड़ू अडिग रहे और अपने मिशन पर लगे रहे। उनका पुश्तैनी मकान भी देखा जो भारत के गावों में पाए जाने वाले सामान्य पुराने मकानों की तरह हैं। मिट्टी का बना।  एक आम भारतीय किसान का मकान जिसकी छतें ऊंची नहीं होतीं और जो मिट्टी के दीवारों से बनी होती है।
 यात्रा में सिर्फ नए प्रश्न ही  मिलते। नई तरह की प्राकृतिक सुषमा ही नही मिलती। नए लोग मिलते हैं जिनसे मिलकर लगता है कि जीवन में आस्था अगर बनी रहेगी तो ऐसे ही लोगों के वजह से। बदनवालु में मुझे एक ऐसे ही सज्जन मिले जयदेव। जयदेव चामराजनगर में रहते हैं और अनाथ और साधनहीम बच्चों के लिए एक केंद्र चलाते हैं दीनबंधु आश्रम। अपने जीवन में जो कुछ अनाथ आश्रम मैंने देखें हैं उनमें बच्चों के चेहरे पर कभी खुशी की रेखा नहीं देखी। लेकिन बदनवालु से लगभग पचीस किलोमीटर दूर चामराजनगर में जो दीनबंधु आश्रम है उसके हर बच्चे के चेहरे पर प्रसन्नता की वो आभा मैंने देखी जो आम बच्चों के चेहरे पर भी विरल है। चामराजनगर तमिलनाडु और केरल से सटा जिला है इसलिए इन दोनों राज्यों की संस्कृतियां भी यहां मौजूद हैं। नारियल के पेड़ों की अनगिनत श्रृंखलाएं यहां सड़क से दिखेंगीं। विज्ञान के विद्यार्थी और प्राध्यापक रहे जयदेव ने अपना लगभग पूरा जीवन अनाथ और साधनहीम बच्चों की देखभाल और शिक्षा में लगा दिया। वे लगभग साठ साल के हैं और ऊर्जा तथा सामाजिक जिम्मेदारी के एहसास से हमेशा भरे रहते हैं। बदनवालु सत्याग्रह में उनकी बड़ी भूमिका रही।  बदनवालु के लिए जो पांच  पदयात्राएं निकली थीं और 19 अप्रेल को वहां पहुंची थीं उनमें एक चामराजनगर के दीनबंधु आश्रम से भी निकली। इनमें कई बच्चे भी थे। इस पदयात्रा के साथ मैं आठ किलोमीटर चला। बच्चों में क्या उत्साह था?  वे कन्नड़ में गीत का रहे थे और नुक्कड़ नाटक भी कर रहे थे। हालांकि उन गीतों और नाटक के संवादों के मैं समझ नहीं पा रहा था लेकिन जो आभास हो रहा था उससे लग रह था कि प्रकृत और पर्यावरण को बचाने का संकल्प उनमें था।

बदनवालु की य़ात्रा मेरे लिए नई अंतर्दृष्टियों के करीब जाने का अवसर था। हालांकि भाषा की समस्या थी। ज्यादातर लोग कन्नड़ ही बोलनेवाले थे। कुछ अंग्रेजी जाननेवाले भी थे। लेकिन वहां वो भारत था जिसे हम देसी भारत कह सकते थे। 19 अप्रेल को बदनवालु की हवा में सिर्फ एक गांव  के खादी केंद्र को बचाने की आवाज भर नहीं था। वो हवा संकल्पों और स्वप्नों से भरी थी।  वो हवा जो आसमान को बड़ा कर देती हैं और आशाओं की नई संभावावनाएं पैदा करती है। वहां कई ऐसे एहसास थे जो हम देश के बड़े महानगरों से लेकर गांव और कस्बों में रोजाना महसूस करते हैं। मसलन ये कि हमारा भोजन इतना जहरीला क्यों हो रहा है?  या फिर उसका स्वाद  क्यों खत्म हो रहा है? ऐसे समय में जब बिजली की कमी हो रही है हम  क्यों खादी या हथकऱघा को नष्ट कर रहे हैं जिसमें बिजली की कोई जरूरत नहीं है। एक ऐतिहासिक सत्य है कि अंग्रजों ने भारतीय  वस्त्र उद्योग को इसलिए खत्म किया उनकी मिलें चलती रहें लेकिन आजाद भारत में हम क्यों अंग्रेजों की राह पर चलते हुए देसी कपड़ा उद्योग और कारीगरों को खत्म करने पर तुले हुए हैं? हमारे देश की खेती विदेशी बीज  कंपनियों के हितों के लिए होगी या भारतीय किसानों के हितों के लिए? क्या गांव आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकते हैं या वहां से हमेशा शहरों की तरफ युवकों का पलायन होता रहेगा? गांधी के `हिन्द स्वराज  के वैचारिक बीज बदनवालु में फिर से रोप गए हैं। देखते हैं कि वे किस तरह अंकुरते हैं। विचारों की खेती भी होती है। बदनवालु की खोई हुई जगह में वो विचार क्या पैदा करते हैं इसे देखने वहां फिर जाऊंगा।

Tuesday, August 11, 2015

तमस- ये अंधेरा कितना घना है!

रवीन्द्र त्रिपाठी
सांप्रदायिकता के प्रसंग में `तमस की याद स्वाभाविक है। भीष्म साहनी का ये उपन्यास हिंदी और भारतीय साहित्य़ में इस कारण भी समादृत है कि ये सांप्रदायिकता की विनाशकारी ताकत और भूमिका को रेखांकित करता है। भीष्म जी ने खुद एक आत्म वक्तव्य में लिखा है  (संदर्भ `भीष्म साहनी- एक मुकम्मल रचनाकार- प्रकाशक `सहमत) कि सन् 1970 के इर्दगिर्द महाराष्ट्र के भिवंडी शहर में दंगे के दौरान  वे वहां अपने बड़े भाई बलराज साहनी और फिल्मकार-लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ  गए थे तो वहां की विभीषिका को देखकर उनके दिमाग में अपने मूल शहर रावलपिंडी की वे यांदे ताजा हो गई जहां आजादी के ठीक पहले दंगे हुए थे। भीष्म जी उसी इलाके में जन्मे थे। `तमस के कई , बल्कि ज्यादातर, प्रसंग उस दंगे से ही उठाए गए हैं।   ऐसे में इस उपन्यास  को  सांप्रदायिक मनोवृत्ति को उजागर करनेवाला उपन्यास माना जाए तो इसे में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यशपाल के `झूठा सच के  बाद `तमस ही  हिंदी में वह रचना है जिसके बारे में ये कहा जा सकता है कि इस भारत विभाजन से जुड़े सांप्रदायिकता के मुद्दे को व्यापक परिप्रेक्ष्य में उठाया है। भीष्म जी की कहानी `अमृतसर आ गया  हैभी सांप्रदायिक मनोवृत्ति को उजागर करनेवाली रचना है।
  लेकिन कोई बड़ी रचना  किसी खास समस्या, चाहे वो कितनी ही बड़ी क्यों न हो, तक केंद्रित होकर अर्थवान नहीं होती। उसमें कई आवाजें होंती हैं और वे आवाजें समाज और मनुष्य के कई परतों से हमारा साक्षात्कार कराती हैं। `तमस को मैं ऐसी ही रचना मानता हूं। अपने प्रकाशन के चासील साल के अधिक बीत जाने के बाद भी अगर ये हमारे समकालीन साहित्य का एक संदर्भ-विंदु बना हुआ है तो इसकी एक वजह, मेरे खयाल से, ये भी है कि  इसमें व्यक्तिगत और सामाजिक मनोविज्ञान की कई गुत्थियां और प्रवृत्तियां हैं, ब्रितानी उपनिवेशवाद के तौर तरीकों से वाकफियत कराने की इसकी क्षमता है और ये फिर हमें उस अंधेरे का पता देती है जो लगातार घना हो रहा है तथा जो भारत में हीं नहीं दुनिया के कई देशों फैल रहा  है। `तमस की अंतर्वस्तु इस बात से भी जुड़ी है कि लोग दूसरों को और अपने को किस रूप में पहचानते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो `अपने और दूसरे’` का विभाजन ही एक सांप्रदायिक मनोवृत्ति है क्योंकि जब इस तरह का विभाजन करते हैं- यहां उसका तात्पर्य हिंदू बनाम मुसलमान विभाजन से है- तो उसमें दूरी और तनाव अनिवार्य है। हिंसा की आशंका भी।  सामाजिक स्तर पर इस तरह के भेद और विभाजन हर समाज में मौजूद रहते हैं लेकिन जब उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष जैसे ऐतिहासिक आंदोलन की प्रक्रिया में  पर इस विभाजन को पाट कर `नागरिकता या `भारतीयताकी नई संकल्पना पेश की जा रही हो, तो उपनिवेशवादी  ताकतें पुरानी अस्मिताओं को आपस में एक दूसरे के खिलाफ लड़ने के लिए माहौल बनाती है। ` तमसमें भी हम ऐसा ही होता दिखते हैं। इसलिए मेरी प्रस्तावना है कि ये सिर्फ सांप्रदायिकता को रेखांकित करनेवाला उपन्यास नहीं है।
मोटे तौर पर जिसे पहचान की समस्या या पहचान की राजनीति कहते हैं भारत में उसका सीधा संबंध भारत-पाक विभाजन रहा है और इसी  कारण उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए चले संघर्ष से भी। विभाजन के ठीक पहले भारत में जो सांप्रदायिक उन्माद गहराया उसका उत्स आंतरिक  नहीं था बल्कि बाहरी भी था। जरा देखिए कि उस समय पहचान की राजनीति कैसे काम कर रही थी और कौन सी ताकते थीं जो इस राजनीति में सक्रिय थी।  `तमस के शुरुआती पन्नों में आए इस प्रसंग को देखिए- ``नत्थू ने झट से मुड़कर देखा। तीन आदमी गली के मोड़ पर से सहसा प्रकट हो गए थे और नारे लगाने लगे थे। नत्थू को लगा  जैसे गली के बीचोबीच खड़े वो गान-मंडली का रास्ता रोके खड़े हैं। इन तीन आदमियों से एक के सर पर रूमी टोपी थी और आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा था। वह आदमी गली के बीचोबीच खड़ा मंडली को ललकारता हुआ सा बोल रहा था:
``कांग्रेस हिंदुओं की जमात है। इसके साथ मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं है।‘’
इसका जवाब मंडली की ओर से एक बड़ी उम्र के आदमी ने दिया: `` कांग्रेस  सबकी जमात है। हिंदुओं की, सिखों की, मुसलमानों की। आप अच्छी चक ह जानते हैं महमूद साहिब, आप भी पहले हमारे साथ ही थे।
और उस वयोवृद्ध ने आगे बढ़कर रूमी टोपीवाले आदमी को बांहों में भर लिया। मंडली में से कुछ लोग हंसने लगे। रूमी टोपीवाले ने अपने को बांहों में से अलग करते हुए कहा:
``यह सब हिंदुओं की चालाकी है, बख्शीजी हम सब जानते हैं। आप चाहे जो कहें कांग्रेस हिंदुओं की जमात है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की। कांग्रेस मुसलमानों की रहनुमाई नहीं कर सकती।‘’
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वयोवृद्ध आदमी कह रहा था:
``वह देख लो , सिक्ख भी हैं. हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं। वह अजीज सामने खड़ा है, हकीम जी खड़े हैं----------‘’
``अजीज और हकीम हिंदुओं के कुत्ते हैं। हमें हिंदुओं से नफरत नहीं, इन कुत्तों से नफरत है।‘’ उसने इतने गुस्से में कहा कि कांग्रेस मंडली के दोनो मुसलमान खिसिया गए।
``मौलाना आजाद क्या हिंदू  है या मुसलमान?’’ वयोवृद्ध ने कहा। ``वह तो कांग्रेस का प्रेसिडेंट है।‘’
मौलाना आजाद हिंदुओं का सबसे बड़ा कुत्ता है।गांधी के पीछे दुम हिलाता फिरता है, जैसे ये कुत्ते आपके पीछे दुम हिलाते फिरते हैं।
इस पर वयोवृद्ध बड़े धीरज से बोले:
``आजादी सबके लिए है। सारे हिंदुस्तान के लिए है।‘’
``हिंदुस्तान की आजादी हिंदुओं के लिए होगी, आजाद पाकिस्तान में मुसलमान आजाद होंगे
आइए अब चलते हैं उपन्यास के आखिरी हिस्से की ओर जहां शहर में अमन कायम करने के लिए बैठक हो रही है। उसी समय  एक लीगी उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है-
`` ले के रहेंगे पाकिस्तान! बख्शी जी, यह फरेब आप छोड़ दें। एक बार मान जाएं कि कांग्रेस हिंदुओं की जमात है, इसके बाद मैं इन्हें गले लगा लूंगा। कांग्रेस मुसलमानों की नुमाइंदगी नहीं कर सकती।
 ये दो  प्रसंग हैं जिनके माध्यम से ये समझा जा सकता है कि भारत की आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर में, जब देश विभाजन की तरफ भी बढ़ रहा था, किस तरह की मानसकिता सक्रिय थी। भारतीयता या मनुष्यता की पहचान धूमिल हो रही थी और उनके ही समानांतर हिंदु या मुसलमान की पहचान  तीखी और आक्रामक हो रही थी। आजादी का मतलब देश के आजाद होने से है –इस स्थापना को ही खंडित किया जा रहा था और धार्मिक अस्मिता पर जोर दिया जा रहा था। यानी ब्रिटेन की गुलामी से आजाद  आम भारतीय को नहीं वरन हिंदू या मुसलमान को होना था- ऐसा माहौल बनाया जा रहा था। और ये भी कि अस्मिता की ये लड़ाई  खुद की अस्मिता को पाने  की उतनी नहीं थी बल्कि दूसरों की अस्मिता को नष्ट करने की थी। मानो जब तक आप दूसरे को खत्म नहीं करेंगे खुद नहीं बचेंगे।
 पहचान की राजनीति या पहचान के नाम पर हत्याएं बीसवीं और इक्सीसवीं सदी की एक बहुत बड़ी परिघटना है। इसीलिए सेकुलर राष्ट्रवाद का विमर्श संकीर्ण और असहिष्णु पहचानवादी विमर्श में बदल गया है। ये सिर्फ  उस भारत में ही नहीं हुआ जो ब्रितानी हुकूमत का गुलाम था बल्कि उस तत्कालीन यूगोस्लाविया में भी हुआ जो एक लंबे समय तक मार्शल टीटो के शासनकाल में सेकूलर रहा। आज यूगोस्वालिया का नामों निशान मिट चुका है और स्लाव, क्रोट या मुस्लिम अस्मिताएं एक दूसरे को हताहत कर क्षत विक्षत हो चुकी हैं। ये पश्चिम एशिया से लेकर पाकिस्तान में हो रहा है जहां शिया बनाम सुन्नी से लेकर कई  तरह की अस्मिताओं के खिलाफ रक्तरंजित लड़ाइयां हो रही हैं। ये आज के हिंदुस्तान में हो रहा है जहां हिंदू- मुस्लिम से लेकर नगा –कूकी विवाद जारी है।
  यहां हम पूछ सकते हैं कि क्या मनुष्य की कोई एकल पहचान हो सकती है? या हम में हर कोई एक साथ कई पहचानों वाला होता है? लेकिन इन पहचानों में तालमेल बिठा कठिन होता है। क्या पहचानवादी राजनीति सिर्फ हिंदू या मुसलमान तक रूकेगी? या हिंदु पहचान की राजनीति करनेवाला धीरे धीरे जातियों की पहचान की राजनीति शुरू नहीं कर देगा या मुसलमान  पहचान की राजनीति करनेवाला क्रमश: शिया, सुन्नी, अहमदिया की राजनीति में नहीं उलझेगा । विश्वमानचित्र पर देखें तो ऐसा ही कई देशों में हो रहा है इसलिए `तमस में जिस अंधेरे को रेखांकित किया गया है वो महज एक भारतीय समस्या या सांप्रदायिकता का मसला नहीं। पहचान के नाम पर पूरी दुनिया में हत्याएं हो रही हैं।
    `तमस में जिस सांप्रदायिक हिंसा का वृतांत है वो सिर्फ दो धार्मिक समुदायों के बीच तनाव की वजह से नहीं है बल्कि उसके पीछे कई वजहे हैं। एक तो खुद उपनिवेशवाद है। उपन्यास के आरंभ में ही हम पाते हैं कि नत्थू से सुअर मरवाने की पीछे तत्कालीन प्रशासन है जो ब्रितानी हूकूमत के तहत काम कर रहा था। लीजा और रिचर्ड (लीजा रिचर्ड की पत्नी और रिचर्ड अंग्रेज अधिकारी) की बातचीत भी इस सिलसिले में मानीखेज है।  लीजा रिचर्ड से कहती है-
``बहुत चालाक नहीं बनो, रिचर्ड। मैं सब जानती हूं। देश के नाम पर ये लोग तुम्हारे साथ लड़ते हैं और धर्म के नाम तुम इनको आपस में लड़वाते हो। क्यों, ठीक है ना?’’
यानी धर्म के नाम पर लड़ाई  दो तरह के धर्मावलंबियों का आपसी मामला नहीं है। उसके पीछे और शक्तियां हैं।
  मेरे मित्र और राजनीति विज्ञानी प्रकाश उपाध्याय ने एक किताब लिखी है-`प्रिय दुश्मनों की खोज। कई बार लोग या समुदाय अपने दुश्मनों की खोज करते हैं। प्रकाश उपाध्याय ने इस पुस्तक में लिखा है- दुश्मन बनाने की इस विधि की सबसे पहली शर्त यह है कि यह जनसमूह अपने उन नेताओं का पिछलग्गू बने जो उन्हें इस बात का ज्ञान दें कि वह (यह जनसमूह) हर प्रकाऱ से एक अद्वितीय और अलग संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्र है। जैसे भारत के संदर्भ में हिंदु और मुस्लिम राष्ट्रवादियों द्वारा अपनी अलग संस्कृति और सभ्यता के नाम से सामाजिक विभाजन के जो बीज बोए थे उसी के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में मौलिक रूप से भारत और पाकिस्तान नाम के दो अलग अलग राष्ट्रों का निर्माण हुआ था। (प्रिय दुश्मनों की खोज –पृष्ठ 22)।
 तमस में दुश्मनों की खोज की गई है। हिंदूवादी ताकतें अपने मुससमान को प्रिय दुश्मन मानती हैं और मुस्मिल लीग वाले हिंदुओं को। बिना इस बात का अहसास किए कि वे सदियों से एक साथ रह रही हैं वे एक दूसरे को अपना दुश्मन मानती है और एक दूसरे को नष्ट करने के लिए गोला बारूद इकट्ठा करती हैं और एक दूसरे की हत्याएं भी करती हैं। रणबीर नाम के एक युवक के कहने पर इंद्र नाम का नौजवान एक मुसलमान इत्रफरोश की हत्या करता है, यह जानते हुए कि वो (यानी इत्रफरोश) एक बूढ़ा है और सांप्रदायिक तनाव के माहौल में अपने घर से इसलिए निकला है चंद पैसे कमा सके। रणबीर या इंद्र कोई कट्टर हिंदुवादी भी नहीं है। वे अंदर के कुछ कुछ डरपोक भी हैं। लेकिन वे उस कट्टर उन्माद के दबाव में हैं जो दुश्मन की खोज करती है ताकि अपने को, अपनी पहचान को जबरिया दूसरे पर थोप सके।
   `तमस में अंधेरा नहीं उजाला भी है। लेकिन बहुत कम। उजाला हम तहां देखते हैं जब वृद्ध हरनाम सिंह अपनी पत्नी के साथ डर की वजह से अपने घर से भागता है और पनाह लेता है एक मुसलमान के यहां। जो औरत उसे पनाह देती है उसे नहीं मालूम को उसका पति और उसका बेटा हरनाम सिंह के घर से लूटपाट करके ही वापस लौंटेंगे। ये उपन्यास का बेहद मार्मिक दृश्य है जिसमें मुसलमान औरत राजो पहले  हरनाम सिंह को पनाह देती है और फिर अपने पति की नाराजगी की आशंका से उससे कहती है कि बाहर जाओ। पर फिर उसे जाने से रोकती भी है। जब राजो का बेटा वापस लौटकर हरनाम सिंह को मारना चाहता है तो भीतर से कमजोर पड़ जाता है और अपना  इरादा बदल  देता है । और जब आधी रात को राजो हरनाम सिंह और उसकी पत्नी राजो के घर से विदा लेते हैं तो वो (यानी राजो) सरदार जी को गहने की वो पोटली भी सौंपती है जिसे उसका पति और बेटा लूटपाट के बाद लाए थे।

पर ये उजाला बहुत मद्धिम है और अंधेरा घना होता जा रहा है। पहचान की राजनीति और पहचान के नाम पर हत्याएं जारी हैं। इस संदर्भ में सांप्रदायिकता एक अपर्याप्त अवधारणा है। भीष्म जी का लेखन हमें इस अहसास की तऱफ ले जाता है कि मनुष्यता की आत्मा को ही लहूलूहान किया जा रहा है। पहचान की राजनीति करनेवाले और उपनिवेशवादी ताकतें (आज के संदर्भ में हम जिनको नवसाम्राज्यवादी ताकतें कह सकते हैं) इस दुरभिसंधि में शामिल हैं और हमें किसी `दूसरे के नहीं बल्कि खुद के खिलाफ खड़ा कर रही हैं। क्या `दूसरे को  नेस्तनाबूद करने की आकांक्षा हमें अंदर से विकृत नहीं कर देती?   आखिर कौन सी वजह है कि `अमृतसार आ गया है कहानी में  बाबू नाम का एक चरित्र ट्रेन पर चढ़ रहे एक मुसलमान वृद्ध की  हत्या कर देता है? क्या इसका सिर्फ फौरी कारण था या उसके भीतर कोई घृणा लगातार संगठित हो रही थी और इसका कोई वैचारिक आधार था? क्या इस घृणा की वजह सिर्फ सांप्रदायिकता है या हमें, यानी हम सबको और मात्र हिंदु या मुसलमान को ही नहीं, अपने भीतर जाकर ये देखना होगा कि कहीं  हम जिसे दुश्मन मान कर हत्या कर रहे हैं वो हम खुद तो नहीं हैं। अर्थात कहीं  हम खुद का शिकार तो नहीं कर रहे हैं?  `अमृतसर आ गया हैकहानी में वृद्ध की करनेवाले बाबू की मुस्कान  अंत में वीभत्स क्यों हो जाती है?

साभार-साहित्य अकादमी 

(लेखक, समीक्षक और स्तंभकार रवीन्द्र त्रिपाठी द्वारा भीष्म साहनी की जन्म शतवार्षिकी पर साहित्य अकादमी में पढ़ा गया लेख।)



एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...