Tuesday, May 28, 2013


गांधी को माओ की बंदूक न थमाओ
सुकमा जिले की घटना ने सलवा जुडूम के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को धो कर रख दिया है, जो उसने मानवाधिकार, राज्य के कर्त्तव्य और आदिवासियों के हक के नाम पर दिया था। आखिर जो लड़ाई आदिवासी और परोक्ष तौर पर माओवादी जीत चुके थे, उसका जश्न महेंद्र कर्मा को मारकर मनाने की क्या जरूरत थी? छत्तीसगढ़ की माओवादी हिंसा न सिर्फ निंदनीय है बल्कि क्रांति के शास्त्रीय सिद्धांतों से विचलन भी है। पं. सुदंरलाल कहते थे कि अगर माओ के हाथ में गांधी की लाठी थमा दें तो वे गांधी लगेंगे और गांधी के हाथ में बंदूक थमा दो तो वे माओ लगेंगे। जरूरत गांधी के हाथ में लाठी की ही है और हो सके तो माओ के हाथ में भी लाठी थमायी जानी चाहिए
छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने महेंद्र कर्मा को जिस तरह से मारा, उससे जाहिर होता है कि समाज में बदलाव और विजय उनका लक्ष्य नहीं है बल्कि हिंसा, प्रतिहिंसा और बदला लेने का रोमांच ही उनका असल मकसद है क्योंकि वह महज हत्या और वीरोचित हत्या नहीं थी, बल्कि मौत और क्रूरता का तांडव था। अगर यही माओवाद है तो स्पष्ट तौर पर उससे किसी नए राज्य और नए समाज की रचना नहीं होती। महेंद्र कर्मा को मारे जाने के पीछे साफ वजह सलवा जुड़ूम को बताया जा रहा है। सलवा जुड़ूम यानी शांति मार्च के नाम से उन्होंने जो नक्सल विरोधी अभियान शुरू किया था, वह शांति लाने के बजाय आपसी हिंसा का पर्याय बन गया था। वह विफल रहा और निंदनीय भी था पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि उसकी सबसे ज्यादा कड़ी और वैधानिक निंदा सुप्रीम कोर्ट ने की। नंदिनी सुंदर बनाम छत्तीसगढ़ के मुकदमे में न्यायालय ने उस अभियान को न सिर्फ मानवाधिकार का उल्लंघन बताया बल्कि राज्य सरकार को उसे तत्काल बंद करने की सख्त हिदायत भी दी थी।
 इसलिए जिन



वजहों से महेंद्र कर्मा को मारा गया, वे वजहें तो समाप्त हो चुकी थीं और अगर माओवादियों और उनके समर्थकों को आदिवासियों के अधिकारों की चिंता है तो उसकी जीत हो चुकी थी। कम से कम उन्हें यह तो मानना ही होगा कि भारतीय राष्ट्र राज्य और उसकी न्यायपालिका में यह संभावना है कि वह न सिर्फ सलवा जुड़ूम जैसे नक्सलवाद विरोधी जन अभियान को सिरे से खारिज करता है बल्कि आदिवासियों के हक को नवउदारवाद के माध्यम से छीने जाने की कड़ी आलोचना भी करता है। यह वही सर्वोच्च न्यायालय है जो विनायक सेन को माओवादियों का जासूस बताकर सजा दिए जाने को भी नकारने का साहस दिखाता है। ध्यान देने की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय के सलवा जुड़ूम के फैसले की दक्षिणपंथी नीतिकारों ने यह कहते हुए कड़ी आलोचना की थी कि न्यायपालिका में वामपंथी बौद्धिकों का कब्जा हो गया है और वे संविधान को अपने ढंग से हांकना चाहते हैं। उनका आरोप था कि वे देश के विकास की रफ्तार को रोककर उस पर समाजवाद का भार डाले रहना चाहते हैं। पर सुकमा जिले की दरभा घाटी की घटना ने सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को धो कर रख दिया है जो उसने मानवाधिकार, राज्य के कर्त्तव्य और आदिवासियों के हक के नाम पर दिए थे। आखिर जो लड़ाई आदिवासी और परोक्ष तौर पर माओवादी जीत चुके थे, उसका जश्न महेंद्र कर्मा को मारकर मनाने की क्या जरूरत थी? यह कहीं से भी माओवाद और क्रांति का दशर्न नहीं है बल्कि हिंसा का दशर्न है जिसके आधार पर जो भी राज्य बनेगा, वह हाथ के बदले हाथ और आंख के बदले आंख के दर्शन में यकीन करेगा। इस हिंसा का असर क्या होगा, यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन इस पर क्षणिक तौर पर माओवादी जीत का अहसास करेंगे और आदिवासियों को हिंसा के नए रोमांच में ढालने की कोशिश करेंगे। संभव है, इस हिंसा से उनके शहरी समर्थक भी खुश हों, जिन्हें लगता है कि नवउदारवाद की हारी हुई लड़ाई और भारतीय राज्य की क्रूरता और अंतरराष्ट्रीय पूंजी को चुनौती देने का यही एक रास्ता है। पर यह रास्ता न तो कहीं से पूंजी का खेल रोक पा रहा है न ही आदिवासी समाज के जीवन को अपेक्षित बेहतरी दे पा रहा है। अगर बुर्जुआ राजनीति के चुनावी लोकतंत्र ने महेंद्र कर्मा जैसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता और आदिवासी समाज के एक जुझारू व्यक्ति को उठाकर अपने ही समाज का दुश्मन बना दिया तो माओवादी भी सैकड़ों आदिवासियों को हिंसक और अपराधी बना रहे हैं। उनका संघर्ष और उसके लिए संसाधनों का इंतजाम जिस तरह के स्रेतों पर निर्भर है, वह अवैध कमाई ही होती है।उनके बंद संगठन में स्त्रियों और दलितों के अधिकार कितने सुरक्षित हैं, इस बारे में भीतर से आने वाली तमाम खबरें चौंकाने वाली कहानी कहती हैं। कभी दलित सवर्णों के लिए बंदूक उठाने से मना करते हैं तो कभी स्त्रियां दैहिक शोषश की शिकायत कर विद्रोह करती हैं। भारत का यह माओवाद जहां गांधीवादी संघर्ष की विफलता से पैदा हुआ राजनीतिक प्रतिरोध है, वहीं वह माओ त्से तुंग के दशर्न से भी भटका हुआ है। जीवन के अंतिम दिनों में आलोक प्रकाश पुतुल को दिए एक इंटरव्यू में नक्सलबाड़ी आंदोलन के नायक रहे कानू सान्याल ने कहा था कि दरअसल माओवाद जैसी कोई चीज होती ही नहीं हैं। उनका मानना था कि माओ भी मार्क्‍सवाद और लेनिनवाद को मानते थे। इसलिए जन संघर्ष के इस सिद्धांत को कानू सान्याल मार्क्‍सवाद लेनिनवाद और माओ के विचार की संज्ञा देते थे। उनका कहना था कि भारतीय क्रांतिकारी पूरी दुनिया की क्रांतियों से सबक लेंगे पर भारतीय क्रांति होगी तो भारतीय तरीके से। यह बात लेनिन और माओ ने भी मानी है कि अगर उनके सामने आज की तरह संसदीय संघर्ष और चुनावी लोकतंत्र का रास्ता उपलब्ध होता तो शायद उन्हें इतनी बड़ी हिंसा का सहारा न लेना पड़ता। अमेरिका के अग्रणी मार्क्‍सवादी नेता बॉब अवेकिन माओवादी माने जाते हैं। उन्होंने साफ तौर पर सचेत किया है कि कम्युनिस्टों को अपना मकसद हासिल करने के लिए सच को विकृत नहीं करना चाहिए। क्रांति के बारे में वे साफ तौर पर कहते हैं कि-क्रांति न तो बदला लेने की कार्रवाई है और न ही मौजूदा वर्गीय ढांचे में कुछ स्थितियां बदले जाने की प्रक्रिया है, बल्कि यह संपूर्ण मानवता की मुक्ति का उपक्रम है। उनकी इसी बात को बहुत पहले भारत के महान क्रांतिकारी शहीदे आजम भगत सिंह ने भी अपने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ वाले लेख में माना था कि जनता की बड़े परिवर्तन की लड़ाई अहिंसक ही होगी। छत्तीसगढ़ की माओवादी हिंसा न सिर्फ निंदनीय है बल्कि क्रांति के शास्त्रीय सिद्धांतों से विचलन भी है। आज भले ही भारतीय रक्षामंत्री एके एंटनी कह रहे हों कि माओवादियों पर सेना का प्रयोग नहीं होगा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कानून के काम करने की बात कर रहे हैं लेकिन दरभा घाटी की यह हिंसा स्पष्ट तौर पर दो तरह से रास्ते खोलती है। एक रास्ता फिर उन्हीं कांग्रेसियों की वापसी की तरफ जाता है जिनकी नीतियों ने आदिवासियों को असुरक्षा और अस्तित्व के संकट में डाल रखा है। दूसरी तरफ यह हमला नरेंद्र मोदी जैसे दक्षिणपंथियों के आगमन का मार्ग प्रशस्त करता है और हमारा कॉरपोरेट वर्ग उसी के लिए लालायित है। इस मार्ग से निकलने का तीसरा विकल्प है गांधीवादी तरीके से शोषणविहीन और समतामूलक समाज की तलाश। भारत गांधी का देश है, माओ का नहीं। पंडित सुदंरलाल कहते थे कि अगर माओ के हाथ में गांधी की लाठी थमा दें तो वे गांधी लगेंगे और अगर गांधी के हाथ में बंदूक थमा दो तो वे माओ लगेंगे। जरूरत गांधी के हाथ में लाठी ही रखने की है और हो सके तो माओ के भी हाथ में लाठी ही थमायी जानी चाहिए।


अरुण त्रिपाठी

Monday, April 15, 2013

दिल्ली वालों के दिलों में बसे प्राण



कौन जाए जौक दिल्ली की गलियां छोड़ कर।
दिल्ली के मशहूर शायर जौक ने कभी ये बातें दिल्ली के बारे में कही थीं, लेकिन पुरानी दिल्ली की गलियों से निकलने वाले बहुत से कलाकार कभी यहां लौटकर नहीं आए। बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता प्राण भी उनमें से एक हैं। पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान में कभी वह भी रहते थे। प्राण किशन सिकंद का जन्म 12 फरवरी, 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान में ही हुआ था। इनके पिता केवल किशन सिकंद सिविल इंजीनियर थे। यह जानकारी होने पर बल्लीमारान के लोगों को फक्र होता है, लेकिन प्राण के बल्लीमारान में बिताए हुए दिन या उनके परिवार के बारे में उन्हें खास जानकारी नहीं है। बल्लीमारान के ही रहने वाले और फिल्म जगत में अपनी किस्मत आजमा चुके शमीम अहमद बताते हैं कि प्राण को दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिलने से उन्हें खुशी है। हालांकि यहां के अधिकतर लोगों को यह नहीं पता कि प्राण बल्लीमारान में पैदा हुए थे। उन्होंने बताया कि प्राण बल्लीमारान के चरखावालान में रहते थे।
प्राण ने कनॉट प्लेस के एल दास एंड कंपनी फोटोग्राफर्स, जो वर्तमान में बस दास स्टूडियो है, से अपना करियर शुरू किया था। तब उनका नाम प्राण किशन सिकंद ही था। कनॉट प्लेस के एफ ब्लॉक की 12 नंबर की दुकान समय के साथ बदल गई है, लेकिन दुकान के वर्तमान मालिक किशन दास के दिलों में प्राण के लिए बेहद मोहब्बत है। 69 वर्षीय किशन दास बताते हैं कि प्राण ने यहीं से अपना करियर शुरू किया था ऐसी बात उनकी मां बताती हैं और प्राण ने उनकी फोटो भी खींची थी। पिता लच्छमन दास ने जब 1937 में पार्टनर हसनंद के साथ दुकान खोली, तो इसकी चार शाखाएं थीं लाहौर, शिमला, मसूरी और दिल्ली। प्राण बाद में लाहौर चले गए थे। उनकी दिली इच्छा प्राण से मिलने की है, वह अपने व्यापारिक काम से कई बार मुंबई गए, लेकिन प्राण से नहीं मिल पाने का उन्हे मलाल है। किशन दास ने बताया कि यदि प्राण साहब तीन मई को दादा साहब फाल्के अवार्ड लेने आते हैं तो उनसे जरूर मिलेंगे। यदि स्वास्थ्य खराब होने के कारण नहीं आते हैं तो मुंबई में जाकर उनसे मिलेंगे।
फिल्म पत्रकार और समीक्षक बन्नी रूबेन की पुस्तक '.. एंड प्राण ए बायोग्राफी' में प्राण ने बताया है कि उन्होंने पहली पंजाबी फिल्म 'यमला जट' पाकिस्तान में ही की थी। उसके बाद उन्होंने वहां कई फिल्में कीं।
दिल्ली के पुराने सिनेमा हॉल डिलाइट के अध्यक्ष शशांक रायजादा पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि प्राण साहब उनके यहां मनोज कुमार के साथ 'पूरब-पश्चिम' फिल्म के रिलीज के वक्त आए थे और लगभग ढाई घटे रहे उनके सरल स्वभाव और दमदार अभिनय के लोग कायल हैं।

Sunday, March 3, 2013

यादें याद आती हैं...



महानगर की इस भाग दौड़ में कभी-कभी लगता है कि क्या सचमुच किसी को भूला जा सकता है? क्या यादों के लिए जगह सिमटने लगी है? क्या कि सी के न रहने की जो रिक्तता है वह किसी और से भरी जा सकती है? लेकिन नहीं जब बात किसी प्रिय की हो तो अपनी या पराई लाख व्यस्ततों के बीच उसकी सुखद-दुखद यादें स्मृतियों में कौंध जाती हैं।
मुझे याद आ रही हैं कि आज ही के दिन दो साल पहले छूटे उस भाई, गुरु और सखा की, जिसके निधन की खबर सुनकर फौरन निगम बोध घाट पर जैसे-तैसे भागा था। मेरे शुभचिंतक पूजा सिंह और रंजेश शाही ने मुझे रात एक बजे से कई बार फोन किया, लेकिन मैं सो रहा था और जब फोन पर उनका मैसेज देखा तो थोड़ी देर के सन्न रह गया। तबीयत तो ज्यादा खराब थी, लेकिन इतनी जल्दी साथ छोड़ देंगे ऐसा नहीं सोचा था। मैं गोरखपुर के चर्चित पत्रकार रोहित पांडेय की बात कर रहा हूं। आज उनकी दूसरी पुण्यतिथि है।
दरअसल दो दिन पहले पूजा को फोन किया था और उससे पूछा कि रोहित भाई की पुण्यतिथि पर कुछ करने की सोच रहा हूं। उसने अपनी तरफ से समर्थन की हामी भर  दी। लेकिन अंत तक मैं असमंजस में रहा कि क्या करूं। मुझे रंजेश की बात याद आई जो उसने निगम बोध घाट पर कही थी। उसने कहा था, ‘‘अभिनव, रोहित सर हम सबके बीच एक पुल की तरह थे। वैसे तो हम दिल्ली में रहते हैं, लेकिन उनके बहाने सबसे मुलाकात हो जाती है।’’ एक बार सोचा कि क्यों न फिर हम सब मिलें और कुछ यादों को साझा करें। बहरहाल, सभी  की अपनी व्यस्तता और शायद मेरा निकम्मापन भी, मैंने किसी को कुछ नहीं कहा.
रोहित भाई ने बहुत कम समय में जिंदगी के कई उतार-चढ़ाव देखे। कभी-कभी लगता है कि गोरखपुर को उन्होंने ‘ठीक से’ समझा और शायद गोरखपुर ने उन्हें भी ‘ठीक से’ ही समझा। मृत्यु के बाद हमारे यहां ‘महान’ बना देने की परंपरा है, लेकिन मैं बिना किसी लाग-लपेट के कहूंगा कि जितना मैं जान पाया कि रोहित भाई महान की श्रेणी में नहीं थे और उनको इसकी कभी  लालसा भी  नहीं थी। जिसकी लालसा थी वह अधूरी ही रही। कुछ संयोग ऐसा रहा कि उनकी मृत्यु के दो साल पहले से उनका दिल्ली आना-जाना लगा रहा और इस बीच हम सबसे मिलना-जुलना भी। हम ठीक से उन्हें इसी बीच जान पाए। कभी  खुद फोन कर बुलाते तो कभी  हम बिना बताए पहुंच जाते। केवल मैं नहीं, पूजा तो उनकी पड़ोसन थी और रंजेश भी  प्राय: आता था। यह रोहित भाई का स्नेह ही था कि हम उनके सामने बैठकर घंटों किसी भी मुद्दे पर बिना उनकी सहमति-असहमति के बात कर सकते थे। वह बिना किसी का पक्ष लिए अपनी बात रखते। कई बार ऐसा हुआ कि मेरी और पूजा की तीखी बहस उनके सामने हुई, लेकिन बिना किसी निष्कर्ष के खत्म भी हो गई। तब तुरंत भाई की कोई अपनी राय नहीं होती थी। किसी को बढ़ावा न किसी की खिंचाई। एक संतुलित दर्शक और रह-रह कर दोनों की तरफ से हामी। दरअसल मैं, पूजा और रंजेश उनके शिष्य हैं। वह पूजा के सच्चे अर्थों में मित्र थे। और, सच कहूं तो थोड़ी देर बाद भाई के साथ रहने पर कोई भी  उनसे खुल सकता था और उससे वह उसके ‘जियरा’ का हाल-चाल पूछ सकते थे।
बेबाकी ऐसी की नापसंदगी पर गाली भी  फरार्टेदार और फिर चाय की दावत भी। उनके पढ़ाए गए लगभग सभी छात्रों को ‘भौजी’ की चाय याद है। ऐसा नहीं है कि गोरखपुर के सभी पत्रकार उनके शुभचिंतक ही थे या वह सब पर जान लुटाते थे। कुछ ऐसे लोग भी मिले जो उन्हें पीठ पीछे कुछ भी कहने से नहीं चूकते थे। वजह, विश्वविद्यालय से लेकर प्रेस क्लब की राजनीति में उनका हस्तक्षेप या वैचारिक मतभेद।
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कुछ मामलों में मैं उनका धुर विरोधी था। हमारा टकराव विचारधारा को लेकर था। अंतिम समय में उन्हें और करीब से जानने का मौका मिला। वह पूरी तरह से संघी थे और खुलकर कहते भी थे, जबकि मेरा झुकाव वाम की तरफ था (है)। वह कम्युनिज्म को अन्य संघियों की तरह आयातित विचारधारा मानते थे और मेरा मानना था कि विचारधारा कहीं की हो, यह कितनी सार्थक है, यह समझने की जरूरत है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अधिकतर लोगों की सोच अभी धर्मनिरपेक्ष नहीं है। दुनिया के नए विचारों और नई अवधारणाओं को कभी जानने, समझने की कोशिश वहां पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रबुद्ध वर्ग कभी  नहीं करता है (मैं प्रबुद्ध नहीं हूं, लेकिन  मैं भी  नहीं कर पाया)। लेकिन जब आप गोरखपुर या ऐसे किसी शहर से बाहर जाएंगे तब आपको केवल भारत नहीं, बल्कि विश्व की गतिविधियों के बारे में जानने, सोचने, समझने की जरूरत पड़ेगी। मेरे अभी  कई मित्र और विश्वविद्यालय के जानने वाले शिक्षक हैं, जो कम्प्यूटर का प्रयोग नहीं करते, ब्लाग, मेल या ई पेपर उन्हें नहीं पता। दुर्भाग्यवश उन्होंने कभी जानने की कोशिश भी  नहीं की। बहरहाल, विचारधारा के निर्माण में तकनीक का प्रयोग भी प्रभावी रूप से उभरा है।

रोहित भाई मेरी भी जबरदस्त आलोचना करते थे, पीठ पीछे नहीं, मुंह पर, सरेआम (यही उनकी खासियत थी)।लेकिन कई बार यदि उनकी शर्ट की तारीफ करता था तो बस मुस्कुराते हुए ये कहकर चुप कि अरे ज्यादा नहीं, बस 25 रुपये मीटर के कपड़े की है। मतलब आलोचना अपनी जगह और सम्बन्ध अपनी जगह. पैसा उनके लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा। ऐसे कई पत्रकार हैं जो खबर बेचकर मालामाल हैं, लेकिन वह अपना खर्च कर पत्रकारिता करते थे। उनका साफ कहना था, ‘‘सभी संपादकों से तुम्हारे अच्छे संबंध हो सकते हैं, बस उनसे नौकरी मत मांगो।’’

एक वाकया याद आता है। अंतिम दिनों में निराश हो गए थे और एक दिन कहा, ‘‘बाबू ऐसा लगता है कि अब बचना मुश्किल है।’’ मैंने कहा, ‘‘जो आप किसी के हाथ में नहीं है उसकी चिंता छोड़िये, कल आबिदा परवीन (पाकिस्तान की मशहूर सूफी गायिका) को सुनने चलते हैं, सूफी गाएंगी तन-मन एक हो जाएगा।’’ भइया उत्साह से चलने के लिए तैयार हो गए। मेरी छुट्टी थी, हम पहले पहुंच गए। आबिदा का गाना शुरू होने में देर थी। लम्बी बातचीत हुई। अचानक उनका मन तीन-चार गानों के बाद बेचैन हो गया।  ऐसा लगा कि वह कुछ सोच रहे हैं। घबराए से बोले, ‘‘चलो अब चला जाए। मन नहीं लग रहा है।’’ आत्मा और परमात्मा, दोनों मे रोहित भाई का दृढ़ विश्वास था और आबिदा का सूफियाना कलाम रूह तक जाता था। वह अभी रूह से कोई संवाद नहीं करना चाहते थे।  हम लौट आए।
भाई ने तीन दिन तक कोई बात नहीं की। एक दिन रात को तीन बजे उन्होंने एक कविता एसएमएस की। मैंने तुरंत उत्तर दिया, ‘अच्छी है।’ लेकिन उनकी कविता में निराशा साफ झलक रही थी। मैंने उसे नोट क्र लिया अभी बहुत खोजने के बाद भी  वह कविता नहीं मिली, फिर कभी साझा करूंगा।
कभी-कभी  मुझे लगता कि क्या उन्होंने जीने की आस सचमुच छोड़ दी थी? लेकिन अगले ही पल मुझे उनकी मूलचंद अस्पताल की हालत याद आती है। उनके बड़े भाई  ने मुझे फोन किया, ‘‘रोहित मूलचंद अस्पताल में भर्ती हैं तुम आ जाओ।’’ मैं कुवैत एम्बेसी में एक प्रेस कांफ्रेंस में था। भागा-भागा गया उनकी वह स्थिति देखी, जिसकी कल्पना नहीं कर सकता था। वह छटपटा रहे थे, बेचैन थे। ये बेचैनी दर्द की थी, जीजीविषा की थी। वहां से उन्हें फिर एम्स ले जाया गया, लेकिन वहां भी बेड की दिक्कत आ रही थी। डॉक्टर का साफ कहना था कि अब घर ले जाओ। लेकिन उनकी वह स्थिति देखकर रूह कांप गई। जब दर्द होता था तो किसी की नहीं सुनते थे। मुझसे वह स्थिति देखी नहीं जा रही थी और मैं कुछ देर रुकने के बाद चला गया।
उन्हें अभी  बहुत कुछ करना था। बहुत कुछ लिखना था, कई अधूरे ख्वाब पूरे करने थे। आखिर बच्चों के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया था, थिसिस भी  अधूरी थी। दिल्ली में पत्रकारिता का सपना बस सपना रह गया। यह भी अजीब विडंबना है कि उनके पढ़ाए हुए लोग आज अखबारों और चैनलों में विभिन्न पदों पर हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी भी अखबार ने बतौर रिपोर्टर नौकरी नहीं दी और न इतना पैसा कि वह अपने बाद अपने परिवार के बारे में सोच सकें । जब बात स्थाई करने की आई तो ऐसी स्थिति नहीं रही। लेकिन गोरखपुर के पत्रकारों का उनके प्रति स्नेह ही था कि उन लोगों ने उनकी हर तरह से मदद की।
रोहित भाई भी  अपने शिष्यों, मित्रों और जानने वालों के लिए हमेशा खड़े रहे। अंतिम समय तक लाभ लेने वालों ने उन्हें नहीं छोड़ा। डॉक्टर के लाख मना करने के बावजूद वह उनसे बात करने वालों के फोन सुनते थे। लेकिन कभी अपने लिए किसी से कुछ नहीं कहा।
प्रभाष जोशी सहित कई ऐसे पत्रकारों,साहित्यकारों से उनका गहरा लगाव था। प्रभाष जी के निधन की खबर उन्होंने सुबह मुझे फोन पर दी थी और खराब सेहत के बावजूद उनके घर गए थे। अभी पिछले साल जब काशीनाथ सिंह को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तो मैं उनका इंटरव्यू करने गया था। जब मैंने उनसे उनकी रचना ‘रेहन पर रग्घू’ को लेकर बात की तो उन्होंने रोहित पांडेय का नाम लिया। उनका कहना था, ‘‘इस पुस्तक के परिप्रेक्ष्य में रोहित ने मेरा पहला इंटरव्यू लिया था।’’
मेरे लिए इन सब बातों को याद करना एक बार फिर उस पीड़ा से गुजरना है। बहुत कुछ है और बहुत यादें हैं, लेकिन कुछ ऐसा भी है जिसका अपराधबोध होता है, जैसे- अब हम दिल्ली में रहने वाले दोस्त आपस में नहीं मिल पाते। दिल्ली में उनके भाई के घर मार्च 2011 के बाद फिर मैं जाने की हिम्मत नही जुटा पाया। मैं एक बार भी  उनकी पत्नी और बच्चों का हाल-चाल नहीं ले पाया।
ऐसा लगता है कि हम सचमुच कंक्रीट के जंगल में संवेदनाओं को खोते जा रहे हैं। हम मशीन हो रहे हैं, जो जड़ है जिसके चलने की ध्वनि तो है, लेकिन गति नहीं है। और इसके जिम्मेदार हम खुद हैं। अब कोई ऐसा नहीं है हमारे बीच  जो फकीरी का मतलब समझाए, बताए, बुलाए और लड़ने का जज्बा पैदा करे। आज मेरे जैसे पत्रकारिता में ही नहीं बहुत से  क्षेत्रों में उनके जानने वाले लोग हैं जो उनके आत्मीय हैं जिनके पास काफी कुछ हैं उनके बारे में कहने के लिए, गिले-शिकवे भी होंगे तो स्नेह भी होगा। मेरे पास भी है बहुत कुछ लेकिन कुछ साझा कर रहा हूँ।
उनकी कमी, उनका स्नेह, उनसे मतभेद, सबका अपना स्थान है। और इसके साथ ही मैं उनको अपनी श्रद्धांजलि देता हूँ।  रोहित भाई, आपकी मौजूदगी की यादें आज आपकी गैर मौजूदगी में भी हमें रास्ता दिखाती हैं और सदा दिखाती रहेंगी।

नमन! 

Wednesday, February 20, 2013

समझ और दृष्टिकोण


सीएसडीएस के फैलो डॉक्टर हिलाल अहमद से अभिव्यक्ति की आज़ादी और उसके आयाम से सम्बन्धित मेरी बातचीत पर आधारित एक लेख आज राष्ट्रीय सहारा अख़बार के हस्तक्षेप में 'समझ और दृष्टिकोण' शीर्षक के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित है . पढ़े आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है. 


अपने देश में अभिव्यक्ति की आजादी के दो पक्ष हैं। एक पक्ष अभिव्यक्ति की आजादी को कानूनसम्मत और उदारवादी सिद्धांतों पर आधारित बताता है। उस पर कोई अंकुश नहीं लगाया जा सकता। इसके विपरीत, दूसरे पक्ष का कहना है कि धर्म-संस्कृति आस्था के संवेदनशील मसले हैं। इनके विरुद्ध जाने से किसी भावनाएं आहत हो सकती हैं। इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी आस्था से बढ़कर नहीं हो सकती। तो ये दो पक्ष हैं। उदारवादी दर्शन के दो प्रकार हैंनका रात्मक और सकारात्मक। नकारात्मक उदारवाद व्यक्ति को ही मूल मानते हुए उस पर किसी अंकुश का विरोध करता है। वहीं, सकारात्मक उदारवाद के नजरिये से व्यक्ति समाज के साथ रहता है। इसलिए उसकी बंदिश और आजादी समाज से अलग नहीं हैं। व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता तभी संभव है, जब वह उस समाज में रहे। टीएच ग्रीन, हेराल्ड जे लॉस्की जैसे ख्यातिनाम दार्शनिक इसी दूसरे सकारात्मक दृष्टिकोण के हैं। वे मानते हैं कि व्यक्ति समाज में फलता-फूलता है और उसके आदर्श इसी सामाजिक संदभरे में ही फलीभूत होते हैं। इसीलिए एक पूरी पण्राली जिसे संविधानवाद कहा जाता है; वह व्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा कुछ नियमों से तय कर देता है। चूंकि संविधान लचीला होता है और इसके निर्माता समय और जरूरतों के हिसाब से इसे बदलते रहते हैं। इसलिए व्यक्तियों और समाजों के बीच की एक गतिशीलता बनी रहती है। इस संदर्भ में, भारत में जब भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात की गई है, वह हमेशा सामाजिक संदभरे में की गई है। वह ‘एब्सल्यूट’ नहीं है। इस तरह से हम देखें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात करना अपराध हो जाएगा, जो गलत होगा। उदारवाद में ही यह बात मौजूद है कि जो एब्सल्यूट है, उसके ऊपर संविधान की व्यवस्था है। यह पहला सिद्धांत है। दूसरे, कठमुल्ला और पोंगा पंडित हैं, जिनका मानना है कि व्यक्ति नहीं, समाज सवरेपरि होता है। इस तर्क से मेरे इत्तेफाक न रखने की दो वजहें हैं। पहली, तो यह कि जिस इस्लाम, हिन्दुत्व या ईसाइयत को हम जानते हैं, वह अपने आप में एक आधुनिक रूप लिए हुए है और इसका आधुनिक रूप, जिसे हम मानते हैं, उसका मतलब एक रचा-बसा, लिखित, संविधान- सम्मत रीति-पण्राली है। यह स्वरूप आधुनिकता ने दिया है। मध्यकाल में धर्म के मामले में बहुत खुलापन है। वहां आज के जैसे धर्मातरण के झगड़े ऐसे नहीं दिखते। दरअसल, जिस धर्म को हम आज जानते हैं, वह 19वीं सदी की देन है। आधुनिकता भी उसी सदी की देन है। इससे पहले धर्म और आधुनिकता पर बहसें नहीं मिलतीं। कबीर की साखी समाज और धर्म के आंतरिक रिश्तों को लेकर है। कहने का मतलब यह कि 19वीं सदी में धर्म को जो लिखित शक्ल दिया गया, वह अलिखित रूप में पहले से मौजूद था। बहरहाल, 19वीं सदी में जो धर्म बना, उसमें धर्म का एक ऐसा स्वरूप निकल कर आया जो सीमाओं से बंधा था। इससे ही धार्मिंक आस्थाएं तय होने लगीं। आज जिन आस्थाओं का हवाला दिया जाता है, वे तमाम आधुनिक आस्थाएं हैं। इसीलिए उन पर कंफ्लिक्ट है। धर्म संरचना में एकरूपता लाने की प्रक्रिया आधुनिक प्रक्रिया है जो ब्रिटिश शासनकाल में शुरू हुई। तब यहां सभी धर्मो में सुधार आंदोलन हुए। इसे आज की ईसाइयत के रूप में व्यवस्थित तरीके से लाया गया। इसमें ही यह तय हुआ कि ये मानेंगे, वो नहीं मानेंगे। जैसे इस्लाम में चित्र पर बनाने पर पाबंदी लगी। हालांकि ईरान में ऐसे बेशुमार लोग थे, जो चित्र बनाते थे। हिंदू धर्म में गाय नहीं खाई जाती लेकिन ऐसे बहुत-से कबीले हैं, जो अपने हिंदू मानते हैं और गाय खाते हैं। इस तरह सभी धर्मो में यह तय हुआ कि किसकी अनुमति है और किसकी अनुमति नहीं है। अब सवाल है कि इनके मूल्य क्या हैं, जिनका धर्म संकट में आ जाता है। जिस तरह उदारवादी बिना लिब्रलिज्म को समझे कह देते हैं कि ‘एब्सल्यूट लिबर्टी’ होनी चाहिए। लेकिन यह एब्सल्यूट शब्द उदारवाद की तरफ नहीं निरंकुशता की तरफ जाता है। पूरे यूरोप में, अमेरिका में, थॉमस पेन से लेकर हेराल्ड लॉस्की और आज भी, इस पर र्चचा है कि सीमा थोपी नहीं जा सकती। यह उपजी होती है। वह वहां गलत हैं और जहां-जिनका धर्म संकट में आ जाता है। जैसे एमएफ हुसैन का हिंदू देवी-देवताओं का अर्धनग्न चित्र बनाना। इसके चलते धर्म संकट आने का मतलब है कि उनकी नजर के अलावा और किसी नजरिये से भगवान- पैगम्बर को देखने की कोशिश हुई तो उनकी भावनाओं के विपरीत होगी, चोट पहुंचाएगी। जो ऐसा करेगा वह दंड का भागी होगा। ये बात हिंदू और इस्लाम दोनों धर्मो के खिलाफ चली जाती है। कुरान में ऐसी कई आयतें हैं, जो कहती हैं कि ‘बख्श दो यदि बुरा करे कोई’। शरीयतें इसी तरह बनी हैं, जब सवाल उठने लगे तो इस्लाम में उन्हें नये तरीके से परिभाषित किया गया। फिर नया इस्लाम आया, नए कानून बनें। तो यह बहस है। मेरा कहना है कि अपना संशिलष्ट समाज है। अगर आप असहमत हैं फिर भी बात करना न छोड़ें। अगर आप बात नहीं करेंगे तो अभिव्यक्ति सीमित होकर रह जाएगी। अभिव्यक्ति न तो पूर्ण है, न मिश्रित।

यह आम बहस की बात है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा होनी चाहिए कि नहीं? इस पर आम बहस होनी चाहिए। अब प्रगाश ग्रुप की बात करें तो मुफ्ती साहब ने एक बयान जारी कर कहा कि यह फतवा नहीं था। उनका कहना था कि औरतों को गाना नहीं गाना चाहिए और इस्लाम में संगीत मना है। ये दोनों बातें इस्लाम के दृष्टिकोण से गलत हैं। इस्लाम में संगीत की एक लम्बी परंपरा है। बहुत-सी कश्मीरी औरतें गणतंत्र दिवस की परेड में अपने पारंपरिक गीत- संगीत का प्रदर्शन करती हैं। मतलब यह कि एतराज इस्लामिक दृष्टिकोण से ही यह दुरु स्त नहीं है। कमल हासन की विश्वरूपम का हर जगह अलग-अलग तरीके से विरोध हुआ। इसके पीछे केवल मुस्लिम विरोध ही नहीं था। बहुत-से लोगों ने कहा कि इस फिल्म में विवादित कुछ भी नहीं था। आज मुसलमान तो ऐसा सिंबल है कि उसे यदि उछाल दो तो उसे अंतरराष्ट्रीय पब्लिसिटी मिल जाती है। आज दुनिया बनाम इस्लाम का विमर्श है। ऐसे में प्रचार आसान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में हमें दो-तीन मुद्दों पर बात करनी पड़ेगी, एक बात लीगल फेमवर्क की है। इसका मतलब यह नहीं है कि इसको बैन कर दो या उठा लो। इसके तीन स्तर हैं। पहला स्तर संविधान का है। इसका मतलब है कि यह हमारा बेसिक ढांचा है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में इसको देखिए। फिर हमारे पास व्यवस्थित कानून हैं; जैसे इंडियन पीनल कोड, सेंसर बोर्ड आदि। ये मुद्दे पर बने कानून हैं। तीसरा, इन पर अमल करने/कराने वाली संस्थाएं हैं। इसके आगे मसले पर व्यापक परिर्चचा होनी चाहिए। इसके तीन रूप हैं-व्यापक जन संवाद, मीडिया और पॉलिसी। सरकार को एक पॉलिसी फ्रेमवर्क बनाना चाहिए जिसमें मीडिया सहित दूसरे लोगों को जोड़ा जाए। सरकार और राजनीति को इससे अलग नहीं रख सकते। हम कम राजनीतिक हैं, तभी यह विवाद है। लिहाजा, हमें ज्यादा राजनीतिक होना पड़ेगा। जब एक व्यापक प्रक्रिया शुरू हो जो मूलभूत सवालों को उठाए और इसके तीन तरीके मैंने बताए हैं। पहला, कानून जिसमें तीन स्तर हैं-संविधान, दूसरे कानून और पॉलिसी। दूसरा स्तर है, संस्थाओं का प्रतिनिधित्व। और आखिर है, लोगों के विचारों को बांटने का। हमें और लोकतांत्रिक और ज्यादा राजनीतिक होना पड़ेगा। अभी हम थोड़ी-सी राजनीति और थोड़ी-सी नीति लेकर चल रहे हैं, ऐसा आगे ठीक नहीं होगा।

अभिनव उपाध्याय की बातचीत पर आधारित

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