Wednesday, May 6, 2009

तीन कविताएं

छांव

दोपहर की धूप में जब सूख जाता है गला
और चटकने लगता है तलवा
तब बहुत महसूस होती है
छांव तुम्हारे आंचल की।

मेरी...
एक फंतासी ताउम्र की
जब-जब आए सावन,
या जब रंग बिखेरे मौसम,
या छा जाए बसंत की मदमाती खुशबू,
या दिख जाए कोई जोड़ा, हंसता- खिलखिलाता
या जब पोंछता हूं माथे का पसीना
तब याद आ ही जाते हो अक्सर, जिसे लोग कहते थे
मेरी..।



दोस्त-

हां वह यही कहती थी,
जब खुश होती थी
और चहक कर पकड़ा देती थी
चाकलेट का डिब्बा,
या फिर मायूसी में रख देती थी
हथेली पर अपना माथा
और फिर गर्म आंसुओं से भीगती थी अंगुलियां देर तक,
अक्सर चाय का बिल चुकाने की जिद में
वह कर देती थी झगड़ा,
और कुछ देर बाद वह यही कहती कि वह दोस्त है मेरी।
आज भी जब कांच की गिलास सेंकती है हाथ,
वह मिल ही जाती है चाय की चुस्की में,
होंठो पर चिपकती मिठास लिए।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...