Saturday, July 18, 2009

उदय, यह तो खुद का निषेध !

उदय, यह तो खुद का निषेध !

रामजी यादव

हाल के दिनों में साहित्य की सबसे बड़ी खबर वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश को मिला एक पुरस्कार है। उदयजी साहित्य में उस मुकाम पर हैं जहां उन्हें न केवल ढेरों पुरस्कार मिलना संभव है बल्कि वे अनेक लोगों को भी पुरस्कृत करवा सकते हैं। कथा साहित्य में उनके जसी भाषा और कथानकों को लेकर अनेक युवतम कथाकार आ रहे हैं, वे सभी उदय प्रकाश को अपना आदर्श भी मानते हैं। बेशक इसकी तह में अनेक कारण होंगे लेकिन अपनी कहानियों से उन्होंने चर्चा का जो नुस्खा तैयार किया है वह बहुतों को सुगम रास्ता लगता है। दूसरी बात यह कि जिस प्रकार उदय प्रकाश भारतीय समाज और जनता की पीड़ाओं से एक मनोगतवादी रिश्ता रखते हैं वह प्रविधि न केवल काफी रास आ रही है बल्कि उसी सीमा तक अनुचर-रचनाकारों की दृष्टि काम भी करती है। लेकिन ये सब दीगर बातें हैं। उदय प्रकाश द्वारा पुरस्कार ग्रहण करने के पीछे लोगों के मन में जो दुख उभर रहा है वह इस प्रकरण में गोरखपुर के कुख्यात भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के कारण है।
ज्ञातव्य है कि उदय प्रकाश ने गोरखपुर की जिस संस्था द्वारा पुरस्कार ग्रहण किया वह आदित्यनाथ के एक संबंधी द्वारा संचालित है और पुरस्कार समारोह में आदित्यनाथ मौजूद थे। संभवत: उदयजी के चयन में आदित्यनाथ की केन्द्रीय भूमिका रही है। यह दुख एवं शर्म का कारण इसलिए भी है क्योंकि हिन्दी का एक कथाकार जो भारत की सामासिक संस्कृति का अलंबरदार है वह हिन्दुत्व के नाम पर दंगा कराने और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के आरोपी सांसद के हाथों या संरक्षण वाली संस्था द्वारा पुरस्कार ग्रहण करता है। यह उदय प्रकाश का नैतिक पतन माना जा रहा है जो एक लंबे साहित्यिक संघर्ष के बाद साहित्य के इतिहास को एक विशिष्ट पड़ाव पर ठहरने का आधार देता है। लेकिन इतिहास कभी ठहरता नहीं। जो लोग उसकी ताकत को पहचानते हैं वे स्वयं किनारे हो जाते हैं और किसी स्तर पर अपनी जगह और स्मृतियां बचा भी लेते हैं, लेकिन जो लोग अपने स्वार्थो को उसके समानांतर ज्यादा तरजीह देते हैं वे हमेशा मलबे में बदल जाते हैं। इसीलिए इतिहास के दाएं-बाएं मौजूद वर्गो का दृश्यपटल पर आना-जाना लगा रहता है। भारतीय लोकतंत्र के एक नाजुक मोड़ पर जबकि स्वयं लेखकों का व्यक्तित्व और उनकी भूमिका लगातार बेमानी होती जा रही हो, इस प्रकार अपराधियों से पुरस्कृत-सम्मानित होना कमाई हुई मर्यादा को स्वयं नाले में बहा देना है। उदय प्रकाश अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो अपने खाते में यह बदनामी दर्ज करा रहे हों। हमारा देश जातियों में बंटा हुआ देश है और इसके बहुत कम लेखक जातिवाद की प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ पाए। यहां नौकरियां, सम्मान, सराहना, इज्जत, रुपए, पुरस्कार सब कुछ जातियों के कारण ही मिलता है और हममें से ऐसा कौन है जो कह सकता हो कि उसने जातीय विशेषाधिकार का लाभ नहीं उठाया है? कौन सच्चाई से स्वीकारेगा कि अपने देश की मेहनतकश जातियों के लोगों और रचनाकारों के लिए भी उसके मन में सहज प्यार है? लाभ-लोभ के सारे पद सवर्णो की बपौती हैं। भाजपा भी उनकी, कांग्रेस भी उनकी, सीपीएम भी उनकी और सीपीआई भी उन्हीं की। इन संस्थानों द्वारा संचालित सांस्कृतिक इकाइयां भी उन्हीं की। लेकिन यह संकीर्णता भारतीय लोकतंत्र को कहां ले गई है? अधिसंख्य रचनाकार-संस्कृतिकर्मी क्षुद्र स्वार्थो के लिए झूठ बोल रहे हैं और आज वे अपनी विश्सनीयता खो चुके हैं।
मुङो निजी रूप से उदयजी के लिए दुख है, क्योंकि यह स्वयं उदय प्रकाश द्वारा उदय प्रकाश का निषेध है। दिनेश मनोहर वाकणकर और थुकरा महराज जसे लोगों के भोलेपन और पीड़ा को समझने वाले उदय प्रकाश की कहानी और ‘अंत में प्रार्थनाज् पर आधारित नाटक और नाटककार पर भाजपानीत मध्य प्रदेश सरकार के गुण्डों ने हमला किया तब उदय प्रकाश इसके खिलाफ लड़े। लेकिन लगता है सब दिन समान नहीं होते। उनकी कहानियों की एक बड़ी विशेषता इस बात में निहित है कि उनके पात्र प्राय: दो यथार्थो के बीच की विडंबनाओं के यात्री रहे हैं। इस तरह उदय प्रकाश सत्ता के बाहर और भीतर के विचार और व्यवहार को सबसे ज्यादा ऐंद्रिकता के साथ कथा में विमर्श का केन्द्र बनाते हैं। लेकिन ध्यान से देखिए तो उदय प्रकाश के सारे पात्र एक विचारहीन मानसिकता के पुतले भर हो जाते हैं। क्या उनके रूप में उदयजी अपने भीतर की विडंबनाओं और भावुकता को ही लगातार चित्रित करते रहे हैं? क्योंकि रामसजीवन हो, वारेन हेस्टिंग्स हो, रामगोपाल सक्सेना उर्फ पाल गोमरा हो, पिता हो, मोहनदास हो, डा. वाकणकर हो या थुकरा महाराज हो सभी व्यवस्था का शिकार होते हैं, विगलित होते हैं, विचलित होते हैं लेकिन लड़ नहीं पाते। अक्सर उदय प्रकाश भी उन्हें कोई रचनात्मक सहानुभूति नहीं दे पाते और लगातार असहाय और दयनीय बनते ये पात्र अपनी रीढ़ की ताकत खो देते हैं। ‘सवा सेर गेहूंज् में ब्राह्मणवाद के जाल में फंसते शंकर की पीड़ा और सामाजिक संरचना को प्रेमचंद इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘शंकर ने सारा गांव छान मारा, मगर किसी ने रुपए न दिए इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था या किसी के पास रुपए न थे, बल्कि इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी।ज् क्रूर व्यवस्था और निरीहता का इतना विदग्ध चित्र तमाम तकलीफों के बावजूद उदय प्रकाश की कहानियों में लगभग असंभव है।
इसलिए मुङो लगता है कि विचारहीनता के रूपक उदयजी के पात्र जिस व्यवस्था द्वारा उत्पीड़ित हैं उसी व्यवस्था द्वारा सम्मान मिलने पर उसके चरणों में गिर जाएंगे। यदि यह मान लिया जाए कि लेखक के पात्र या रचनाएं उसकी नियति को तय करते हैं तो यह मानकर संतोष किया जा सकता है कि उदय प्रकाशजी इस प्रकरण की पृष्ठभूमि बरसों से तैयार कर रहे थे। नैतिकता संबंधी प्रश्नों का जवाब ढ़ूंढ़ना जनता का काम है और यह एक व्यक्ति के बूते के बाहर है लेकिन इस संदर्भ में सोच-विचार और व्यवहार में मौजूद उन विडंबनाओं पर भी ध्यान जाना चाहिए जो कम से कम नवजागरण काल से हिन्दी मानस में बनी हुई है। ब्रिटिश सत्ता के साथ भागीदारी और साम्प्रदायिक दुर्भावना के साथ शहरी मध्यवर्ग की विपन्नता की पीड़ा को ही सम्पूर्ण भारत का रूपक बना देने वाले भारतेंदु हरिश्चंद और उनके काल के साहित्यकारों को हम अपना आदर्श कैसे मान सकते हैं! जबकि इसके बरक्स देहाती जीवन का दमित-उत्पीड़ित और अकारण अकाल के मुंह में ढकेला जा रहा हिस्सा लगातार उपेक्षित किया जाता रहा है। शहरी मध्यवर्गीय विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव को जहानाबाद के बथानी के किसान-मजदूरों की हत्या से क्या लेना-देना? हिन्दी की सारी मुख्यधारा आज घरानों और जनविरोधी, यहां तक कि नए साम्राज्यवाद द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं के मालपुए उड़ा रही है। क्या उसे देश की निर्माणकारी ताकतों पर हो रहे हमलों की जानकारी नहीं है? सलवा जुडूम चलाने वालों के साथ मंच शेयर करने वाले लोग क्या उदय प्रकाश के मुकाबले अपने को साफ-शफ्फाक कह सकते हैं? कई लोग अपराधियों और भ्रष्टतम लोगों के प्रति लगातार वफादारी कायम रखे हुए हैं लेकिन मौका देखकर पुरस्कार आदि लौटा देते हैं और चर्चित हो जाना चाहते हैं। क्या वे लोग क्रांतिकारी हैं? असली फैसला तो तब होगा जिस दिन पुरानी संरचनाएं ध्वस्त होंगी और साम्प्रदायिकता और जातिवाद बीते दौर की बात होंगी। अभी तो उस सड़ांध के बाहर आने का दौर है जो बरसों से भीतर ही भीतर बजबजा रही थी।

आज समाज से साभार

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