Sunday, November 19, 2017

आज के संदर्भ में और प्रासंगिक मुक्तिबोध


रवीन्द्र त्रिपाठी

`भूल गलती’ गजानन माधव मुक्तिबोध की ऐसी कविता है जिस पर कभी दुर्बोधता का आरोप नहीं लगा। उस समय भी जब उनकी कविताओं के बारे मे कहा और माना जाता था कि वे जटिल हैं, `भूल गलती’ के बारे में काव्यमर्मज्ञों से लेकर कविता के राजनैतिक पाठक तक इसे क्रांति और जनविद्रोह की आह्वानपरक कविता मानते थे और आज भी मानते हैं। यानी ये ऐसी कविता है जिसका अर्थ साफ है। ये मुक्तिबोध की लोकप्रिय कविताओं में हैं। उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में बच्चन या दिनकर की कविताएं रही हैं। उस अर्थ में कि सजग रूप से राजनैतिक बदलाव की आकांक्षा वाले वामपंथियों (इसमें हर धारा के वामपंथी शामिल रहे हैं) से लेकर राजनैतिक कविताओं के प्रेमी इसका सार्वजनिक वाचन करते थे। कुछ आज भी करते हैं। इस कविता का छंद जय शंकर प्रसाद की कविता `हिमाद्री तुंग श्रृंग से’ वाला है। यानी पंचचामर छंद। ये प्रसाद जी का प्रिय छंद था। उस पारंपरिक छंद में इसका वाचन करें तो इसके भीतर की गीतात्मकता, लयात्मकता और अर्थमयता अधिक स्पष्ट होती है। इसे एक आह्वानगीत की तरह भी गाया जा सकता है। ये वाचन और पाठ करने वाले को भी जोश से भर सकती है और सुनने वाले को भी। इस कविता में एक नाद सौंदर्य है।
इसके आस्वाद के इतिहास पर नजर डालें तो कुछ और बातों की तरफ ध्यान जाता है। मिसाल के लिए ये कि अपने आरंभिक दोर में ये कविता जवाहर लाल नेहरू (भारत के प्रथम प्रधानमंत्री) की नीतियों और व्यक्तित्व की आलोचना मानी जाती है। यानी नेहरूवाद पर तीखी टिप्पणी। इसका संभावित रचनाकाल भी वही है, (मुक्तिबोध रचनावली के अनुसार सन् 1963) जो नेहरूवाद से मोहभंग का काल माना जाता है। लेकिन नेहरू उस समय सत्तानशीं थे इसलिए इस कविता में वर्णित सुलतानी सत्ता के प्रतीक मान लिए गए। कुछ लोगों द्वारा।.ये सरलीकरण अस्वाभाविक नहीं था। राजनैतिक कही जानेवाली कविताएं अपने वक्त के राजनैतिक माहौल के मुताबिक भी व्याख्यायित होती हैं। लेकिन किसी कविता या लेखन की असली ताकत उसकी तात्कालिकता में नहीं होती है। हो सकता है कि किसी रचना को रचनाकाल के तात्कालिक प्रसंग से जोड़ा जाए और उसके अनुसार उसका विश्लेषण किया जाए। लेकिन कोई रचना तभी कालजयी होती है जब उसके अर्थ और आशय सार्वकालिकता से जुड़ते हैं। आज के समय में नेहरूयुग की विफलता को दिखानेवाली रचना का क्या महत्व है? तब जबकि हम जानते हैं कि पिछले तिरेपन वर्षो में (यानी नेहरू के निधन के बाद) भारतीय राजनीति विकट दौरों से गुजरी है और ऐसे में नेहरूयुग, अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद, स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति का स्वर्णकाल लगने लगा है। फिर मुक्तिबोध की इस कविता के ताजा और प्रासंगिक लगने का कारण क्या है? मुझे तो लगता है कि ये हिंदी की ही नहीं विश्व की भी उन सनातन कविताओं में रहेगी जो विद्रोह का आह्वान करती है। हर युग में और हर देश में। इस कविता के अलग अलग भाषाओं में अनुवाद हों तो हर भाषा के पाठक और परिवर्तनकामी इसे सराहेंगे।
लेकिन साथ ये भी जोड़ना चाहूंगा कि सिर्फ अपने राजनैतिक मंतव्यों के लिए नहीं बल्कि अपने कलात्मक सौष्ठव के लिए भी ये, मुक्तिबोध की कुछ अन्य कविताओं की तरह, चिरस्मरणीय है। इसमें `अंधेरे में’ जैसी महाकाव्यात्मकता भले न हो, परंतु वह नाटकीयता और दृश्यात्मकता है जो आधुनिक हिंदी कविता में बहुत कम हैं। मेरे लिहाज से तो मुक्तिबोध कविता में नाटक लिखनेवाले, कविता में फिल्म और पेंटिंग की रचना करनेवाले अकेले कवि हैं। और पेंटिंग भी दोनों तरह की। आकृतिमूलक और अमूर्त। मुक्तिबोध हिंदी के जितने बड़े कवि हैं, उतने ही बड़े आलोचक हैं और साथ ही कविता में अन्य कलाओं के तत्वों को लानेवाले अपनी तरह के अकेले रचनाकार हैं। उनकी कविताएं पढ़ते समय़ मुझे ये हमेशा लगता है कि मैं एक ऐसे सभागार में हूं जहां किसी कविता का वाचन हो रहा है, उसी समय एक फिल्म चल रही है और नाटक भी हो रहा है, साथ ही एक कला प्रदर्शनी भी लगी है। मुक्तिबोध का एस्थेटिक्स ( यहां मैं एस्थेटिक्स के लिए हिंदी में प्रचलित शब्द सौंदर्यशास्त्र का प्रयोग जान बूझकर नहीं कर रहा हूं क्योंकि ये मुझे अपर्याप्त लगता है।) बहुकलात्मक है। उनके जैसा बहुकलात्मकता की संभावना लिए आधुनिक हिंदी में कोई अन्य कवि नहीं है। कोई अगर सिर्फ कविता प्रेमी है तो बेशक वो मुक्तिबोध से गहरे में प्रभावित होगा? किंतु जो लोग एकाधिक कलाओं के प्रेमी हैं उनको तो लगेगा कि अरे, मुक्तिबोध के यहां तो कई कलाओं का सामूहिक आयोजन हो रहा है। ऐसे पाठकों को आस्वाद की चुनौती झेलनी होगी। मुक्तिबोध की कविताओं का आस्वाद कठिन रहा है। वह एक प्रक्रिया है जो अनवरत चलती रहती है। यही कारण है कि उनकी कविताएं बार बार पढ़ी जाने की मांग करती हैं। और जितनी बार पढ़ेंगे उससे अधिक बार पढ़ने की इच्छा बलवती होती रहेगी। आइए देखते हैं कि `भूल गलती’ में ये पक्ष किस तरह उद्घाटित होते हैं।
पर सबसे पहले इस कविता का संक्षिप्त सार, ताकि जो इस कविता को न पढ़ें हों उनको भी मोटे तौर पर पता चल जाए कि इसका सिनॉप्सिस क्या है।
संक्षेप में कहें तो ये कविता ये कहती है कि चाहे कोई भी सत्ता कितनी भी ताकतवर क्यों न हो उसके खिलाफ संघर्ष होगा और किसी तरह के जिरहबख्तर या कुंडल कवच किसी आततायी सत्ता को सुरक्षित नहीं रख पाएंगे, जनज्वार हर लौह दीवार को भेद देगी। कविता में एक भूल- गलती नाम की सुल्तानी सत्ता है। वो जिरह बख्तर पहने हुए है और उसने ईमान को कैद कर लिया है। सुल्तानी निगाह तेज पत्थर की तरह हैं। सुल्तान के दरबार मे कई बड़े आलिम फाजिल यानी विद्वान हैं। सब मौन हैं। कोई ईमान की तरफदारी नहीं कर रहा है। हालांकि ईमान बेखौफ है। पूरे दरबार में सन्नाटा है। लेकिन तभी कोई कराह की तरह निकल भागता है। आगे कवि कहता है लगता है कि कोई बुर्ज की दूसरी तरफ लश्कर (सेना) का निर्माण कर रहा है और वो हमारी हार का बदला चुकाने आएगा। हमारी हार का आशय पीड़ित जनता से है। इस तरह इस बारे में संदेह नहीं रह जाता कि ये कविता जनविद्रोह की वकालत करती है। ये पीड़ित जनता के समर्थन में लिखी गई है और मार्क्सवादी रहे मुक्तिबोध की राजनैतिक पक्षधरता को दिखाती है।
अब आगे बढ़ें और इसके कलात्मक पक्ष की बातें करें।
आइए इसके नाटकीय पक्ष को देखें। ऐसा लगता है कि मानों एक मंच सज्जा है जिसमें दरबार का दृश्य है। उस दरबार में शायर सूफी, मनसबदार सब खड़े हैं। वे खामोश हैं। और तभी एक अप्रत्याशित और नाटकीय घटना घटती है। जैसा कि नाटकों होता है-


इतने में, हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरवाजे आम मे मैं भी
संभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते, 
सहमकर, रह गए
अब इसके आगे की पंक्तियां देखिए। आगे जो दृश्य है वह अतियथार्थवादी है और जिसे फिल्म में भी चित्रित करना कठिन है
दिल में अलग जबड़ा लिए, अलग दाढ़ी लिए 
दुमुंहेपन के सौ तजुर्बे की बुजुर्गी से भरे
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गए।
शब्द में कहना सरल है लेकिन जो बिंब मुक्तिबोध बनाते हैं वह किसी चित्रकार या फिल्मकार के लिए भी दिखाना एक टेढ़ी खीर है। सोचिए दिल में जबड़ा और दाढ़ी रखने का बिंब कितना मौलिक और मुक्तिबोधीय है। वे लोग जो दोमुंहापन रखते हैं और सत्ता के सामने कभी सच नहीं बोलते उनकी धूर्तता और चालाकी को रेखांकित करने का काम मुक्तिबोध ने कई कविताओं में किया है। मुक्तिबोध रचनावली में संकलित एक कवितांश में (जिसका शीर्षक नहीं दिया हुआ है) वे लिखते हैं-
समीक्षक हैं, पंडित हैं, कवि हैं
स्वयं प्रधान धारा से हटकर 
उससे कटकर
तट पर
सिद्धांतों के हस्तिदंती स्वप्नों पर
स्वयं शिल्प-मूर्ति 
रूप में स्थित हो
स्वर्गचुंबी बनते है
वे दंभी हैं।
दोमुंहे बुद्धिजीवियों को मुक्तिबोध अपनी कई कविताओं में निशाने पर लेते हैं। इस कविता में में भी जब वे अल गजाली, इब्न सिना और अलबरूनी का उल्लेख करते हए उनको सुल्तान के दरबारी के रूप मे चित्रित करते हैं तो वे चालाक बुद्धिजीवियों को ही प्रतीकात्मक रूप से पेश कर रहे होते हैं। हालांकि मैं यहां जरूर कहूंगा कि आज अगर मुक्तिबोध होते तो इन तीन नामों से दो के नाम- इब्न सिना (980-1037) और अल बरूनी (973- 1048)- अपनी कविता में नहीं रखते। कविता के रचना के समय इब्न सिना और अलबरूनी के बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम जानकारियां थीं। ये दोनों मध्य एशिया के बड़े वैज्ञानिक चेतनासंपन्न व्यक्तित्वों में थे और इनके बौद्धिक दाय के बारे में अभी भी बहुत सारी चीजें अज्ञात हैं। पर इतना तय है इन दोनों की ज्ञान-पिपासा का असर यूरोपीय पुनर्जागरण पर भी पड़ा। इब्न सिना का प्रभाव तो यूरोपीय मेडिकल साइंस पर भी है। वैसे कविता में इस तरह की आजादी ली जा सकती है जैसी `भूल गलती’ में इन दो व्यक्तित्वों के प्रतीकात्मक उल्लेख से ली गई है, लेकिन आस्वाद और विश्लेषण के समय मुक्तिबोध के काव्य-सिद्धांत `ज्ञानात्मक संवेदना’ को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। वैसे विद्वान तो अल- गजाली (1058-1111) भी था। वह सूफी भी था। लेकिन वह कठमुल्लावाद का प्रवक्ता भी बन गया था। इसलिए उसे दरबारी के रूप में प्रतीकात्मक रूप से चित्रित करने में किसी तरह का अनौचित्य नहीं है।
आखिर में सिर्फ इतना कि मुक्तिबोध की ये कविता अपने शाब्दिक आकार में जितनी लंबी है उससे कहीं अधिक अपने प्रभाव में। उसका आयतन कई युगों तक फैलेगा और कई अन्य कलाओं के प्रिज्म से भी उसे देखा जा सकता है। जी हां. ये कविता सिर्फ पढ़ने की ही नहीं बल्कि देखने की भी है। ये कविता कई तरह की प्रतिध्वनियां पैदा करती है और हमारी ओर लौटती हुई प्रतिध्वनियां हमें उठाकर ऐसे लोक में ले जाती हैं जिसमें ईमान `बेखौफ नीली बिजलियां’ फेकता है।

Saturday, November 11, 2017

भानु भारती फिल्म ही नहीं रंगमंच का भी चितेरा

भानु भारती: किगंसाइज



रवीन्द्र त्रिपाठी


भानु भारती के लिए `किंग साइज विशेषण का प्रयोग कर रहा हूं तो मन में इस बात का संशय भी है कि पता नहीं, उनको अच्छा लगेगा या नहीं। भानुजी अच्छी अंग्रेजी जानते हैं और उनके अंग्रेजी में भाषण भी मैंने सुने हैं। लेकिन वे हिंदी प्रेमी भी हैं और बातचीत के दौरान अक्सर शुद्ध हिंदी बोलते हैं। शुद्ध हिंदी बोलने के हिमायती भी  हैं।  यदा कदा अगर मैंने बातचीत के दौरान अग्रेजी में कोई वाक्य बोला, तो वे बीच में मीठे ढंग से झिड़कते हुए कहते हैं- `अच्छा तो आप अंग्रेजी बोल रहे हैं।फिर भी अगर मैं `किंगसाइजविशेषण इस्तेमाल कर रहा हूं तो उसकी वजह है। `किंग साइज का हिंदी अनुवाद राजा समान या थोड़ा सरलीकरण करें तो राजसी मिजाज वाला होगा और इन दोनों शब्दों में सामंतवाद की गंध भी आती है।  हालांकि मूल अंग्रेजी में `किंग साइज शब्द-युग्म में भी  इसी तरह का अर्थ निकलेगा। लेकिन हम हिंदुस्तानियों के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजों के लिए। वैसे तो कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी भी अब भारतीय भाषा हो चुकी है। पर ये भी मानना पड़ेगा कि ब्रितानी या अमेरिकी समाज में कई अंग्रेजी शब्दों की जो ध्वनियां हैं वे हमारे यहां नहीं है। ये सब अनावश्यक सफाई लग सकती है और अपर्याप्त भी। फिर भी जरूरी इसलिए हैं कि गलतफहमी न रहे। न भानु जी के मन में और न पाठकों के मन में। वैसे भी मैं इस बात का पक्षधर हूं कि दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनी भाषा के मुहावरे में ढाला जा सकता है, नई अर्थवत्ता के साथ।
 हां, तो भानु जी को `किंग साइज कहने का मेरा निजी तात्पर्य ये है कि उनके  कुछ अंदाजों में मुझे यही देखने को मिला। पहला तो उनकी  मेहमानवाजी का तरीका और दूसरे नाटक करने की शैली। दोनों में ये किंगसाइजपना  (तो इस तरह `किंगसाइजपना हिंदी का हो गया न?) है। हालांकि ऐसे कुछ और वरिष्ठ रंगकर्मी हैं जो दिल से सच्चे अर्थों में मेहमानवाज हैं। चाहे राम गोपाल बजाज हों, बंसी कौल हों, प्रसन्ना हों, अनुराधा कपूर हों – ये सब दिल खोलकर मित्रों को दावत देते हैं। पर इन सबकी खातिरदारी की अपनी अपनी अदाएं हैं। इसी सिलसिले में भानु जी की अपनी खातिरशैली है। उनसे मेरा पहला परिचय तब हुआ था जब वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के रंगमंडल  लिए `यमगाथा कर रहे थे। ये कई साल पहले की बात है। `यमगाथादूधनाथ सिंह का लिखा हुआ है और जब राम गोपाल बजाज यानी बज्जू भाई राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एमएसडी) के रंगमंडल के प्रमुख थे तब ये नाटक मंचित हुआ था। रंगमंडल तब रवींद्र भवन के तीसरी मंजिल पर हुआ करता था। आज ये जगह साहित्य अकादेमी के पास है।)  बज्जू भाई ने ही मेरा परिचय भानु जी कराया।
 उस समय मैं फ्रीलांसर था और कई हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में लिखा करता था। ये याद नही कि किस अखबार या पत्रिका के लिए  मैंने भानु जी का इंटरव्यू किया था और इंटरव्यू खत्म होते ही भानु जी कहा –`चलिए लंच करते हैं। ये नहीं पूछा कि लंच किया है क्य़ा या लंच करेंगे क्या? बिना किसी औपचारिकता के सीधे लंच- प्रस्थान की बात। उस समय एनएसडी में नाट्य निर्देशन करने के लिए आए निर्देशक या तो श्रीराम सेंटर में लंच करते- कराते थे या एनएसडी की कैंटीन में। (आजकल एनएसडी की कैंटीन में बाहरी लोगों का प्रवेश प्रवेश वर्जित है।) मैंने सोचा कि इन्हीं दो जगहों में किसी एक जगह लंच होगा। भानु जी गाड़ी मंगाई और ड्राइवर से कहा  -`कनिष्क होटल चलिए। (आजकल इसका नाम शांग्रीला हो गया है।) साथ में कोई और था जो आज मुझे याद नहीं। भानुजी कनिष्क के रेस्तरां में हमें ले  गए। मुझसे पूछा- `क्या लेंगे?’ जैसा कि आम तौर पर लोग कहते हैं, मैंने कहा- `कुछ भी उनका शरारती जवाब था- `ऐसी कोई चीज यहां नहीं मिलती है। फिर, शायद मेरी झिझक को ताड़ते हुए, बेयरे को कहा- `बीयर लाइए, उसके बाद खाने का ऑर्डर देंगे।‘  एक पंच सितारा होटल में किसी को नए नए परिचित को बीयर पिलाना और खाना खिलाना आज भी महंगा है और तब भी था। पर भानुजी जो किंगसाइज हैं।
 और ऐसा पहली और आखिरी बार नहीं हुआ। पिछले वर्षो में उनके मयूर विहार फेज-2 वाले आवास या किसी सार्वजनिक जगह, जैसे एनएसडी या साहित्य अकादेमी परिसर मे मिलने की बात  छोड़ दें, तो अक्सर उनसे शाम या दोपहर वाली मुलाकातें एंबैसेडर होटल या जनपथ होटल में होती थी। कई बार सुबह फोन आता था। उनका आदेशात्मक निमंत्रण इस तरह होता था- ``दोपहर बारह बजे होटल जनपथ में मिलते हैं। होटल जनपथ का `स्वागत रेस्तरां बरसों से हम दोनों के मिलन केंद्र रहा।  उसके लॉन में कितनी भी देर बैठे रहिए, कोई पूछने नहीं आता था। हम वहां तीन-चार घंटे बैठते। बीयर पीते। खाना खाते और गपियाते।   पिछले डेढ़-दो सालं से `स्वागत  बंद हो गया है इसलिए आजकल  हमारी दोपहर वाली मुलाकातें ज्यादातर  इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में होती हैं।
 पर सिर्फ उऩकी इसी अदा के लिए उनको किंगसाइज नहीं कह रहा हूं। उनके नाटक करने का तरीका भी यही है। दूसरों को अतिशयोक्ति लग सकती है और इस खतरे को जानकर भी मैं कहूंगा कि हिंदी रंगमंच में सबसे आलीशान निर्देशक भानु भारती हैं। जैसे फिल्मों में केएस राजामौली । राजामौली हाल के बरसों में बाहुबली-श्रृंखला की दो फिल्मों के लिए काफी मशहूर हुए। सभी सिनेमाप्रेमी जानते हैं कि राजामौली भव्यता के निदेशक हैं और उनकी भव्य फिल्मों में भावनाओं को भी समुचित मिश्रण होता है।  दूसरी तरह कहें तो उनकी फिल्में देखने में बड़े महलों की तरह होती है और साथ ही दिल को भी छूती हैं। हिंदी में मेरे खयाल से भव्यता की एक ही ऐसी फिल्म बनी है- `मुगले आजम। कुछ और फिल्म निर्देशकों ने जोर आजमाया लेकिन बात वही है- `न हुआ पर न हुआ `मीर का अंदाज नसीब, `जौक, यारों ने बहुत जो गजल में मारा। के आसिफ को कोई छू न सका। हिंदी रंगमंच में वह अंदाज सिर्फ भानु भारती से हिस्से में आया। जिस बड़े कैनवास पर वे नाटक कर सकते हैं वैसा कोई और नहीं कर सकता है।
उन्होंने  दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में दो बड़े नाटकों को निर्देशित किया। सन् 1911 (15 से 19 अक्तूबर) में `अंधा युग लेखक (धर्मवीर भारती) और सन् 2012 मे (28 अक्तूबर से 4 नवंबर तक) `तुगलक( गिरीश कारनाड)। वैसे भानु जी के इन नाटकों से पहले भी इस तरह खुले में और पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में नाटक हुए थे। इब्राहीम अल्काजी द्वारा।  पर जिन लोगों ने अल्काजी द्वारा निर्देशित नाटक देखे हैं उनका भी कहना है कि भानु भारती ने जिस बड़े स्पेस में नाटक में किया वैसा अल्काजी का नहीं थी। हालांकि दोनों में तुलना नहीं होनी चाहिए क्योंकि दोनों भिन्न पीढ़ियों के निर्देशक हैं और अल्काजी भानु जी के गुरू भी रहे हैं। इसलिए विनम्रतापूर्ण निवेदन ये है कि यहां तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया जा रहा है। सिर्फ ये बताया जा रहा है कि भानु भारती की रंगशैली में एक विशालता और खुलापन है। उन्होंने इस धारणा को तोड़ा, और जो गलत धारणा थी कि, आधुनिक हिंदी रंगमंच प्रोसिनियम के भीतर कैद होके रह  गया है। पर बात सिर्फ प्रोसेनियम से बाहर आने की नहीं थी। नाटक को करने और देखने की परिपाटी बदलने की भी थी। पीटर ब्रुक ने पश्चिमी रंगमंच में यही किया। जब कोई निर्देशक नाटक को एक बड़े स्पेस में ले जाता है तो नाटक करने और देखने की दिशा भी बदलती है। ये अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि भानु जी  हिंदी रंगमंच को वहां ले गए जहां आस्वाद के धरातल बदल जाते हैं।
 जब .ये दोनों नाटक हो रहे थे, और होने जाने के बाद भी, कुछ वरिष्ठ कहे जानेवाले रंगकर्मियों ने ये भुनभुनाहट की कि आखिर इतने बड़े स्तर पर नाटक करने से क्या साबित होता है? मानो ऐसे रंगकर्मी या नाट्य निर्देशक खुद हमेशा के लिए एक छोटे से ऑडिटोरियम में ही नाटक करने को रंगमंच का परमधर्म मानते हों। पर होता यही आया है कि ऐसी भुनभुनाहटें कारुणिक रूप से हास्यास्पद हो जाती हैं। वही हुआ। भानु जी दोनों प्रस्तुतियां समकालीन हिंदी रंगमंच के लिए  मानदंड की तरह हैं। हालांकि खुले में और भी निर्देशकों ने नाटक किए हैं। पर जैसा बड़ा कैनवास- इन दोंनो का रहा है वैसा किसी और का नहीं रहा है।
 और इन दोनों नाट्य प्रस्तुतियों के बारे में कुछ और तथ्यात्मक बातें हैं जिनको जान लेना चाहिए। ज्यादातर प्रचारित ये हुआ कि  कि इन दोनों के बजट क्रमश: तीन करोड़  से ऊपर थे। संयोग से इन दोनों प्रस्तुतियों के बजट की सहमति के लिए दिल्ली की साहित्य कला परिषद ने जो समितियां बनाई, (दो साल) उसका एक सदस्य मैं भी था। कुछ लोगों ने तब सवाल उठाया भी कि इतने बड़ी राशि में एक नाटक? ये सवाल कुछ तो ईर्ष्या से पैदा हुआ था और कुछ इस कारण से कि रंगमंच को, रंगकर्मी भी, आज की तारीख में दरिद्रों की कला मानते हैं। उनको लगता है कि पांच-छह लाख में तो आसानी से नाटक हो सकते हैं, फिर तीन करोड़ बजट का क्या मतलब? हालांकि यही लोग होते हैं जो फिल्मी सितारों को एक शाम की महफिल के लिए एक करोड़ रूपए दिए जाने में कोई आपत्ति नहीं करते। उनके मन में ये बात घर करके बैठी कि नाटकवाला की हैसियत लाखोंवालों की ही है। करोड़ के नाटक होना और करना तो उनके लिए अकल्पनीय है। ऐसे लोगों को ये चिंता नहीं सताती कि हिंदी रंगमंच में आज भी अभिनेताओं को पैसा नहीं मिलता। एनएसडी के रंगमंडल  जैसे संस्थानों को छोड़ दें जहां अभिनेताओं को वेतन मिलता है,  बहुत कम  निर्देशक अभिनेताओं के पैसे देते हैं। देते भी हैं डेढ़ महीने के रिहर्सल और प्रस्तुति के बाद अधिक से अधिक पांच-दस हजार। वह भी उदारमना निर्देशक हुआ तो। भानु भारती ने अपने इन दो नाटकों में अभिनेताओं/ अभिनेत्रियों  को भी किस तरह अच्छा खासा मेहनताना दिलाया इसके बारे में जानकारी ली जा सकती है। मुझे इसके बारे में सिर्फ इतना पता है कि उन अभिनेताओं भी अच्छी खासी राशि मिली थी। तीन करोड़ रूपए भानुजी को नहीं मिले। उनको तो एक बिल्कुल छोटा-सा हिस्सा मिला। बतौर पारिश्रमिक। वह भी लगभग तीन महीने के रिहर्सल के बाद। बाकी पैसे या तो अभिनताओं- तकनीशियनों को मिंले .या प्रॉपर्टी पर खर्च हुए।
  और ऐसा भी नहीं था कि भानुजी के ये दोनों नाटक सिर्फ भव्य थे। वास्तविकता तो ये थी कि इन दोनों नाटकों में अर्थ और प्रभाव जो पहलू उभरे वे पहले की प्रस्तुतियों में कभी नहीं उभरे थे। मिसाल के लिए `तुगलक को लीजिए। इसे कई निर्देशकों ने खेला है। पर जहां तक मेरी जानकारी है किसी और निर्देशक ने तुगलक के उस फरमान के अमानवीय पक्ष को उस तरह नहीं उभारा जिसमें दिल्ली के बाशिंदों को दौलताबाद जाने के लिए कहा जाता है। भानु जी की प्रस्तुति में ये पक्ष बहुत सघन होकर उभरता है कि बड़ी संख्या में लोगों के घर से बेघर होना पड़ता है। अपना स्थान छोड़कर हजारों किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।  सिर्फ इसलिए कि एक बादशाह का ऐसा फितूर है। जो लोग अपने घरबार छोड़कर दिल्ली से दौलताबाद गए होंगे (और फिर दौलताबाद से दिल्ली आए होंगे) उनके जीवन में क्या क्या हुआ होगा? उनके भीतर कितनी वेदना होगी? उनके और उनके परिवार के मन में क्या घटा होगा? आज तो कई इतिहासकार और समाजशास्त्री कुछ साल पहले घटी घटनाओं/त्रासदियों की स्मृति खंगालने के लिए पीड़ितों के साक्षात्कार लेते हैं और उसे दर्ज करते हैं। पश्चिम के विश्वविद्यालयों मे तो `मेमोरी स्टडी’ (स्मृति- अध्ययन) भी शुरू हो चुका है। लेकिन कई सौ साल पहले घटी त्रासदियों का क्या करें?  उन स्मृतियों का अध्ययन कैसे हो? यही पर नाटक और दूसरी प्रदर्शनकारी कलाओं की भूमिका शुरू होती है। मेरे खयाल से भानु भारती के `तुगलक का अध्ययन और विश्लेषण इस दृष्टिकोण से भी होना चाहिए था। सिर्फ नाटक के बजट  की चर्चा से कोई रचनात्मक बात सामने नहीं आती। बहस इस पर ही नहीं होना चाहिए कि नाटक कितने खर्चे में हो सकता है। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि एक नाटक या रचना के भीतर निहित आशयों को कौन सा निर्देशक किस तरह उद्घाटित करता है।  एक  निर्देशक की मौलिकता सिर्फ अभिनय या नाट्य प्रस्तुति के अन्य पक्षों- प्रकाश, वस्त्रसज्जा या संगीत- तक ही सीमित रह जाने से नहीं उभरती, बल्कि इस बात से सामने आती है कि उसने रचना में निहित उन पहलुओं को कैसे दिखाया जिनमें मानव इतिहास के अनाम दर्द या अनुभव बसे रहते हैं। `दिल्ली से दौलताबाद का प्रसंग भानु भारती ने जिस तरह उठाया वह तुगलक की अन्य प्रस्तुतियों में नहीं उभरा। उसे उभारने के लिए वैसा ही बड़ा  स्पेस चाहिए था जो फिरोजशाह कोटला में उपलब्ध था। ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्त्व की इमारतें ऐसे में खुद जीवित हो उठती हैं और उनमें इतिहास के दर्द उभरने लगते हैं।
 पर ऐसा भी नहीं है कि भानु जी सिर्फ भव्यता के नाटक करते हैं। वे सिर्फ मैक्सिमलिस्ट ही नहीं बल्कि मिनिमलिस्ट भी हैं। यानी न्यूनतम का भी नाटक करते हैं। नंद किशोर आचार्य. द्वारा लिखित `बापूउन्होंने दो बार खेला है। एक बार हिंदी में और दूसरी बार अंग्रेजी में। ये नाटक सिर्फ एक अभिनेता वाला है और इसमें भी भानुजी का निर्देशकीय सामर्थ्य प्रकट होता है। इसमें प्रॉपर्टी भी नहीं के बराबर है। बस एक चरखा है और गांधी जी हैं। ये प्रस्तुति (या इसकी दोनों प्रस्तुतियां) गांधी और तात्कालिक भारतीय राजनीति की कई विडंबनाओं के सामने लाती है। उनकी एक और प्रस्तुति मेरे मन में अभी तक बैठी हुई है। वह है `आजर का ख्वाबजो जॉर्ज बर्नाड शा के नाटक `पिगमेलियन का हिंदी रूपांतर है। इसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल के लिए उन्होंने निर्देशित किया था। इसमें हिमानी शिवपुरी ने उस महिला चऱित्र का किरदार निभाय़ा था जो एक सामान्य औरत से तब्दील होकर संभ्रांत में बदल जाती है।
  भानु जी एक और बड़ा योगदान आदिवासियों को रंगमंच पर लाना है। मुझे तो लगता है कि ये अकेला ऐसा योगदान है जिसके लिए भारतीय रंगमंच उनको याद करेगा। पर इसे महसूस करने के लिए थोड़ा नृतत्वशास्त्र या समाजशास्त्र में जाना पड़ेगा।
  भारत में आदिवासियों के बारे में एक धारणा बनाई गई है कि उनके पास कोई परफार्मेंस आर्ट नहीं है। अगर उनके पास कुछ है तो सामूहिक नृत्य या संगीत। इसलिए भारतीय रंगमंच के आधुनिक इतिहास में आदिवासियों के रंगमंच की कोई बात नहीं होती है। दलित रंगमंच की चर्चा अब होने लगी है। पर आदिवासी रंगमंच अलक्षित ही रहा। उसकी कोई बड़ी उपस्थिति भी नहीं रही। रही तो आनुष्ठानिक नाटक में। हालांकि हेशम कन्हाईलाल और रतन थियम जैसे रंगकर्मियों ने अलग मिसालें कायम कीं लेकिन हिंदी भाषी इलाके में आधुनिक रंगमंच को प्रतिष्ठित करने का श्रेय अगर किसी को है तो भानु भारती को। और ये काम उन्होंने तीन नाटकों से किया- `पशुगायत्री (कावलम नारायण पणिकर के इसी नाम के नाटक का हिंदी रूपांतर है, `काल कथाऔर `अमरबीज से।  ये नाटक उन्होंने उदयपुर (राजस्थान) के भीलों के साथ किया था। भानुजी के तीनों नाटक रंगमंच में चर्चित रहे है। पर उनका वास्तविक महत्त्व रंगमंचीय से ज्यादा नृतत्वशास्त्रीय है। भीलों का रंगमंच पर आना और नाटक करना, अभिनय करना- भारतीय आधुनिकता को विस्तारित करनेवाला रहा। हालांकि इसका दूसरा पहलू भी है।
 वह ये है कि दो साल पहले भानुजी के मन में फिर से खयाल आया कि उदयपुर से भीलों के साथ एक और नाटक किया जाए। वे उदयपुर गए भी। कुछ दिन रहे भी। फिर दिल्ली आए तो बोले कि नाटक करना संभव नहीं लग रहा है। मैंने पूछा- क्यों? बोले- `अब आधुनिकता की नई आंधी से भीलों की संस्कृति भी बदल रही है। नाटक करने को लेकर उब उनमें पहले जैसा उत्साह नहीं दिख रहा है।बहरहाल अब ये अलग मुद्दा है कि अब आदिवासी गावों में क्या हो रहा है। मूल बात तो ये है कि एक समय में भानु जी ने भीलों के साथ काम करते हुए रंगमंच का जो बीजरोपण किया वह एक `अमरबीज  बन गया है और वह फिर से अंकुराएगी। कम से कम मुझे इसमे संदेह नहीं है।
   भानु जी कविता प्रेमी हैं। एक तो कबीर उनके प्रिय कवि हैं और उनके ऊपर एक नाटक करने की उनकी इच्छा बहुत पुरानी है। फिर गालिब उनके प्रिय शायर हैं। भानु भारती द्वारा लिखित और उनके ही द्वारा निर्देशित एक नाटक `तमाशा न हुआ का नाम भी गालिब की एक पंक्ति से लिया गया है। और अगर समकालीन हिंदी कविता की बात करें तो उनके प्रिय कवि हैं गिरधर राठी। राठी जी भानुजी के गहरे मित्र भी हैं। और उन दोनों के साथ मेरी कुछ शामें गुजरी हैं। एक ऐसी ही शाम को, राठी जी के चले जाने के बाद, भानु जी कहा- `हिंदी कविता में राठी जी को वो जगह नहीं मिली जिसके वे हकदार हैं। उनके पिछले संकलन की एक भी समीक्षा नहीं आई। आखिर एक महत्त्वपूर्ण कवि की इस तरह उपेक्षा क्यों?’ फिर इसी बातचीत  के क्रम में उन्होंने राठीजी के अब तक के अंतिम संग्रह `अंत के संशय़ (जो वाग्देवी प्रकाशन से 2009 में प्रकाशित हुआ था) से दो तीन कविताएं सुनाई। इस संग्रह से एक कविता, जिसके नाम पर संग्रह का नाम भी रखा गया है, `अंत के संशय का एक हिस्सा यहां पेश है-
  तो ये थे कुछेक घरेलू और विश्वसनीय संशय
आरंभ के। जाती हुई सदी इन्हें बुहार कर
डाल जाती है अंत की पटरी पर। आजी हुई सदी
बिना मोंल तोल कुछ छांट ले जाती है
वहां से अपने लिए संशय़
आरंभ से!
इस विंदु में जो गड़बड़ है अब वह
साफ नजर आती है:
जिसे अंत कहा जाता है वह तो
किसी एक किस्म के अंत का
कोई एक किस्म का आरंभ भर होता है..


जैसे, लंका में रावण फिर सरयू में राम के विलोपन के बाद
कहा गया अंत हो गया रामलीला का
लेकिन वह अंत का आरंभ भर निकला!...
स्वर्गारोहण वगैरह तमाम अंतों के बाद भी
कहां अंत हुआ महाभारत का!...
कब जाकरे थमेगी वह गोली जो
प्रार्थना सभा में छोड़ी गई दनाक!...
इत्यादि इत्यादि इत्यादि....



राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भानु भारती और नसीरुद्दीन शाह सहपाठी थे।   उस दौरान उन दोनों के बीच झगड़ा हुआ था। इस झगड़े को लेकर कई किस्से हैं। समझ लीजिए कि ये एक किंवदंती की तरह बन चुका है। जैसा कि होता है किंवदंती कई तरह के संपादित रूपों में बदलती रहती है। इसलिए अलग अलग लोगों की जुबान में ढलकर इसमें कई तरह के मिर्च मसाले मिलते रहे हैं और लोग इसके मजे भी लेते रहे हैं। भानु जी से इसके बारे में साहित्य कला परिषद के एक कार्यक्रम में एक सवाल भी पूछा गया कि उस झगड़े की वजह क्या थी तो उन्होंने जो कहा  उसका लब्बोलुबाब ये है कि बात उस समय एनएसडी के परिसर में मौजूद अंग्रेजी बनाम हिंदी का सांस्कृतिक टकराव था। कुछ अंग्रेजी दां विद्यार्थी थे और कुछ हिंदी दां या वैसे जिनको अंग्रेजी पर भरपूर अधिकार नहीं था। दोनों तरह के विद्यार्थियों में तनाव होता रहता था। इसलिए भानुजी के नसीर से झगड़े की कोई निजी वजह नहीं थी। मामला परिवेश में मौजूद अंग्रेजी अभिजात और देसी मिजाज के टकराने का था। पर जैसा कि होता है कि सांस्कृतिक टकरावों के अच्छे नतीजे भी निकलते हैं। सो वह भी निकला। यानी नसीर-भानु टकराव का एक दूसरा अध्याय भी है।
 दूसरे अध्याय की कथा इस तरह है।

  वह ये है कि जब भानु जी को एनएसडी के आखिरी साल में अपना डिप्लोमा प्रॉडक्शन करना था (वहां जो छात्र निर्देशन में विशेषज्ञता करते हैं उनको आखिरी साल के अंत में एक नाटक निर्देशित करना पड़ता है, इसे ही डिप्लोमा प्रॉडक्शन कहते हैं) तो उन्होंने जिस नाटक का चयन किया वह था यूजीन आयोनेस्कों का `द लेशन। (आयोनेस्को को एबसर्ड थियटर का नाटककार कहा जाता है, हालांकि ये विशेषण उनको पसंद नहीं था। मेरे लिहाज से उनकी आपत्ति सही भी थी क्योंकि आयोनेस्को अपने समय के ऐसे प्रखर नाटककार रहे जिन्होने जबर्दस्त राजनैतिक चेतना थी।  चूंकि  वे नाजीवाद के साथ साथ स्तालिनवाद के भी कट्टर आलोचक थे इसलिए आरंभिक पश्चिमी कम्यूनिस्ट आलोचक उनको बहुत पंसद नहीं करते थे। एबसर्ड थियटर का तमगा उनको अवमूल्यित करने के लिए दिया गया था। इस वैचारिक अवमूल्यन के बाद भी आयनेस्को के नाटक प्रासंगिक बन रहे और आज भी हैं। )
`द लेशन एक ऐसे प्राध्यापक के बारे में है जो अपनी  सेविका के माध्यम से एक लड़की को विवश करता है वह अपने को मार डाले। प्राध्यापक की भूमिका इसमें केंद्रीय है इसके लिए भानुजी जिस अभिनेता का चयन किया वे थे नसीरुद्दीन शाह। इब्राहीम अल्काजी उस समय एनएसडी के निर्दशक थे। रिवाज ये था कि छात्र-निर्देशक कौन सा नाटक करेगा इसके लिए एनएसडी के निदेशक की सहमति जरूरी थी। भानु भारती जब अल्काजी के पास अपने चयन के बारे में बताने गए तो उनके बीच अंग्रेजी में जो संवाद हुआ उसे हिंदी में इस तरह से कह सकते हैं-
अल्काजी- अच्छा तुम आयनेस्को करोगे?
भानु भारती- हां.
अल्काजी- आर यू श्योर?
भानु भारती- येस, आई एम श्योर
अल्काजी- ठीक है, पर प्रोफेसर का किरदार कौन निभाएगा?
भानु भारती- नसीर।
अल्काजी- क्या? (चेहरे पर आश्चर्य के भाव भी थे।)
भानु भारती- जी हां।
अल्काजी- क्या वो तैयार है?
भानु भारती- जी हां,
अल्काजी – (चुप्पी.. कुछ देर की) ओके।
   तो इस तरह अल्काजी ने सहमति दे दी और`द लेशन हुआ और शानदार हुआ। इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि भाऩु जी अपनी बैच के गोल्ड मेडलिस्ट बने, जिसे हिंदी में स्वर्णपदक प्राप्त कहते हैं।अब तो हम उस समय में रह रहे हैं जिसमें पश्चिमी साहित्य और नाटक से आम भारतीय का परिचय गाढ़ा हो गया है और पश्चिम हम भारतीयों के लए  अब अपरिचित या अल्प परिचित नहीं रहा, पर  उस समय तक पश्चिमी नाटक करना एक चुनौती मानी जाती थी। ये भी समझा जाता था कि एबसर्ड नाटक करना भारत में बहुत आसान नहीं है क्योंकि यहां उस तरह की परिस्थितियां नहीं है जो यूरोप में रहीं और  जिनमें इस तरह के नाटक लिखे गए। इस तरह की बातों से समय इस विंदु को भुला दिया जाता है कि   महान कला  सिर्फ देशकाल बद्ध नहीं होती। वह देशकालातीत होती है। भानु भारती ने उस वक्त `द लेशनकरके इसे भी रेखांकित किया।  
  हिंदी नाटककारों में भानु जी के एक प्रिय भुवनेश्वर भी हैं। भुवनेश्वर भी किंवदंती पुरुष हैं और उनके नाटकों को भी एबसर्ड कहा जाता  रहा है। ये भी दिखाता है कि भुवनेश्वर के लिए अभी तक हम को सहज और भारतीय विशेषण नहीं तलाश पर पाए हैं। अपने समय के औघड़ साहित्यकार भुवनेश्वर ने कविताएं भी लिखीं और कहानियां भी। उनकी  एकांकियां हिंदी साहित्य में समादृत हैं। भानु जी ने उनके `तांबे के कीड़े का मंचन तब किया था जब मंच पर भुवनेश्वर बहुत कम खेले गए थे। (इलाहाबाद में सत्यव्रत सिन्हा ने भुवनेश्वर की एकांकियां खेली थीं।) जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकलने के बाद ही कुछ दिनों के लिए वे लखनऊ गए थे तो वहां कृष्ण नारायण कक्कड़ से मुलाकात हुई। कक्कड़  हिंदी के सम्मानित आलोचक थे और लखनऊ के उन बैठकबाजों में थे जिनकी सोबबत में  वहां के साहित्यकार महफिलें सजाते थे। कभी कॉफी हाउस में तो कहीं और। तब लखनऊ के बड़े लेखक, कवि, कथाकार और आलोचक रंगमंच में खास दिलचस्पी रखते थे। चाहे वे अमृतलाल नागर हों, श्रीलाल शुक्ल हों या कक्कड़ साहब हों। एक दिन महफिल में कक्कड़ साहब ने भानुजी को कहा – `आप भुवनेश्वर क्यों नहीं करते?’  भानुजी ने कहा- `पहले पढ़ता हूं फिर कहूंगा। कक्कड़ साहब ने ही उन्हें भुवनेश्वर के नाटक उपलब्ध कराए और जब भानुजी ने उनमें से `तांबे के कीड़ेकिया तो लखनऊ और हिंदी रंगमंच में उसकी दुंदुभि बज गई।  भुवनेश्वर का सम्मान तो पहले से  ही था। पर वे एक तरह से भूमिगत यानी अंडरग्राउंड की दुनिया के लेखक माने जाते थे। हालांकि प्रेमचंद उनको बहुत मानते थे। पर सूर्यकांत त्रिपाठी  `निराला उनको पसंद नहीं करते थे। बहरहाल, ये बहुत पहले की बात है। जब लखनऊ में भानु भारती के निर्देशन में `तांबे के कीड़े का सफलता के साथ मंचन हुआ और लखनऊ की लेखक बिरादरी से अलावा वहां के दर्शकों और रंगमंच प्रेमियों ने उसे सराहा तो भुवनेश्वर की कीर्ति पताका जोर शोर से फहराने लगी। अब तो उनकी कहानियां भी मंचित होने लगी हैं और लगातार हो रही हैं।
 भानु भारती को लेकर मेरी और भी बहुत सारी यादें है। सब इस वक्त यहां इसलिए भी नहीं लिखी जा सकती हैं कि हर लेख की एक शब्दसीमा होती है। इसलिए इस स्मृतिप्रसंग का दूसरा हिस्सा भी जल्द ही कहीं लिखा जाएगा। वैसे अपनी रंगमंचीय यात्रा का एक बड़ा हिस्सा भानु जी ने `तद्भव में  कई अंकों में लिखा भी है। उनके जापान प्रवास के बारे में मुझसे कभी लंबी बात भी नहीं हुई जहां वे एक फेलोशिप के तहत गए थे। वे सारे प्रसंग फिर कभी। फिर अभी तो उनको कई नाटक करने हैं और कई तरह के प्रयोग भी।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...