Friday, August 19, 2011

लोकपाल क्रांति के भावी पंद्रह दिन

अरुण कुमार त्रिपाठी

अगले पंद्रह दिन भारतीय राजनीति में जनलोकपाल क्रांति के रूप में दर्ज होने जा रहे हैं। इस दौरान जनता की जागरूकता का स्तर बढ़ेगा और उसका क्रांतिकरण तेज होगा। दूसरी तरफ जनता से भयभीत जनप्रतिनिधि और उन्हें शरण देने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने भीतर बेचैनी महसूस करेंगी। उन पर बदलने या टूटने का दबाव होगा। यह हमारे लोकतांत्रिक पूंजीवाद में बदलाव और उथल पुथल का दौर है। देखना है एक गांधीवादी आंदोलन की नैतिक ताकत से देश बेहतर भविष्य की ओर जाता है या फिर उस पर कोई अशुभ दृष्टि पड़ जाती है।
अगले पंद्रह दिन भारतीय राजनीति के लिए बड़े अहम होने जा रहे हैं। इस दौरान अन्ना हजारे, उनके साथियों और उनके साथ बाकी देश ने जनलोकपाल का जो सुंदर सपना देखा है वह साकार भी हो सकता है या देश भारी राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर सकता है। इससे कोई दमनकारी व्यवस्था भी निकल सकती है। कें्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम और उनके मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने अन्ना हजारे और उनके साथियों को रामलीला मैदान में पंद्रह दिन की इजाजत देकर अपना संकट टालना चाहा है। लेकिन लगता नहीं कि वह टला है। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार के सिर पर चक्र की तरह मंडरा रहा है और या तो वह उससे अपना काम करवा लेगा या उसको जाने के लिए मजबूर कर देगा।
यह पं्रह दिन अंग्रेजी में कानूनी बातें करने के नहीं, जनता की भाषा में राजनीतिक संवाद करने के होंगे। जो करेगा वही आगे टिकेगा। कांग्रेस के लिए यह गंभीर चुनौती का दौर है। क्योंकि उसका धर्मनिरपेक्षता का एजेंडा पीछे चला गया है। राहुल गांधी का किसान आंदोलन का एजेंडा अन्ना के आंदोलन में समाहित हो गया है। रहे मनमोहन सिंह तो क्या वे युवाओं को एक सुरक्षित भविष्य का आश्वासन दे पाएंगे?
इस दौरान राजनीतिक प्रणाली पर नए सिरे से बहस खड़ी हो सकती है और अगर संसद उस बहस को सार्थक और समर्थ ढंग से नहीं उठा सकती तो उसे अपने नए स्वरूप के लिए तैयारी करनी होगी। इस दौरान जन प्रतिनिधियों और नौकरशाही के चरित्र पर भी बहस होगी और एक नए किस्म का जनमत बनेगा। वह जनमत आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र की दिशा निर्धारित करेगा। लेकिन उससे भी आगे जाकर यह पं्रह दिन भारतीय राजनीति में नए तरह का ध्रुवीकरण पैदा करने वाले हो सकते हैं। उसमें यूपीए के घटक दल कोई नया रुख ले सकते हैं और फिर किसी तीसरे मोर्चे के गठन की सुगबुगाहट हो सकती है। जाहिर सी बात है कि यह समय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के लिए सर्वाधिक अनुकूल है। लेकिन उसे संसदीय बहसों में कौशल दिखाने के बजाय जमीन पर भी निष्ठा और पारदर्शिता दिखानी होगी। उसे कई राज्यों में बैठे अपने भ्रष्ट नेताओं के भविष्य पर भी सोचना होगा। कल्पनाशील नेतृत्व पैदा करना होगा और जनता की नब्ज पर अन्ना हजारे की तरह हाथ रखना होगा? क्या वह रख पाएगी? अगर नहीं तो वह तमाशबीन बनकर रह जाएगी।
अन्ना हजारे के आंदोलन के पहले चरण की समाप्ति पर तमाम समाजवादी और वामपंथी बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता इसे सरकार और आंदोलन की सांठगांठ बता रहे थे। उनका मानना था कि यह आंदोलन सरकार ने ही आयोजित करवाया है और इसीलिए सरकार के मंत्रियों ने स्वयं अन्ना हजारे से मिलकर समझौता किया और लोकपाल मसौदा समिति का गठन कर डाला। लेकिन वह गलतफहमी जल्दी ही खत्म हो गई जब उस समिति में शामिल सदस्यों के खिलाफ फर्जी सीडी जारी होने लगी और कांग्रेस के प्रवक्ता द्वेषपूर्ण बयान देने लगे। पर इससे मिलीभगत का आरोप समाप्त हो गया। फिर भी अन्ना से चिढ़े तमाम आंदोलनकारी यह आरोप लगाते रहे कि वे तो कायर हैं। अनशन तो हर कोई कर लेगा। गिरफ्तारी करके तो दिखाएं। इस बीच भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में योग गुरु बाबा रामदेव का दुखांत प्रहसन भी उपस्थित हो गया। अन्ना हजारे ने अपनी नैतिक शक्ति से बार-बार सरकार को ललकारा और रामदेव प्रसंग से सबक भी लिया और ताकत भी।
लेकिन अन्ना और उनके साथियों ने सबसे ज्यादा राजनीतिक परिपक्वता का परिचय स्वतंत्रता दिवस और 16 अगस्त को दिया। स्वतंत्रता दिवस पर अन्ना हजारे का संबोधन लाल किले से दिए गए प्रधानमंत्री के संबोधन पर भारी पड़ा। लेकिन उससे भी बड़ी उम्मीद जब दिखी जब अन्ना हजारे ने 16 अगस्त को दिल्ली में पूरे शांत भाव से गिरफ्तारी दी और बाद में तिहाड़ जेल पहुंच कर अपने उन तमाम आलोचकों को खामोश कर दिया जो उन्हें कायर बताते हुए ललकार रहे थे कि वे गिरफ्तारी देकर तो दिखाएं।
दरअसल अन्ना हजारे ने अपनी गिरफ्तारी और बाद में छोड़े जाने के बावजूद तिहाड़ से बाहर निकलने से मना कर एक तरफ सरकार को यह बता दिया कि उन्हें जेल से डर नहीं लगता, दूसरी तरफ अपने समर्थकों के बीच साहस का संचार कर दिया। यही वजह है कि पुलिस की तरफ से छोड़े जाने के बावजूद उनके साथी छत्रसाल स्टेडियम छोड़ने को तैयार नहीं हुए। उधर लोग बढ़-बढ़ कर गिरफ्तारी देते रहे और तिहाड़ जेल के बाहर जमे रहे। एक बार फिर युवाओं में राजनीतिक आंदोलनों का औचित्य सिद्ध हुआ है और वे सत्तर और अस्सी के दशक की तरह सत्ता के भय से मुक्त हो रहे हैं और लोहिया व जेपी की यादें ताजा हो रही हैं।
अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे उनके साथियों की तैयारी भी है और बहुत कुछ स्वत:स्फूर्त भी। तैयारी इसलिए कि विधिवत योजना के साथ काम करने वाली संगठित सरकारी व्यवस्था को कोई सोच समझ कर काम करने वाली टीम ही कदम कदम पर मात दे सकती है। अभी तक एेसा ही रहा है। अन्ना ने संयम नहीं खोया है और रामलीला मैदान में बैठने से पहले उन्होंने पुलिस को विधिवत यह हलफनामा दिया है कि अगर कोई भी गड़बड़ी होती है या कानून का उल्लंघन होता है वे उसके लिए जिम्मेदार होंगे।
अब सवाल उठता है कि लोकपाल क्रांति के लिए खड़ा हुआ अन्ना हजारे का यह राष्ट्रव्यापी आंदोलन क्या महज एक विधेयक पास करवा कर शांत हो जाएगा? क्या इतने बड़े राष्ट्रीय जन उभार को परिवर्तनकारी एेसे ही व्यर्थ जाने देंगे? क्या वे इससे परिवर्तन का कोई बड़ा कार्यक्रम तय नहीं करेंगे? अव्वल में तो इतनी जल्दी उम्मीद नहीं है, लेकिन अगर सरकार प्रधानमंत्री को उसके दायरे में लाने को तैयार हो गई तो यह उनकी बड़ी जीत होगी, पर क्या इतनी जीत से वे संतुष्ट हो जाएंगे? हो भी सकते हैं और नहीं भी। अन्ना हजारे के आंदोलन में जिस तरह के लोग हैं और जिस तरह के लोग जुड़ रहे हैं वे उसके स्वरूप को लगातार व्यापक बना सकते हैं। मेधा पाटकर का आना आदिवासी और विस्थापन के सवाल को गंभीरता के साथ इस आंदोलन से जोड़ेगा। मेधा आएंगी तो उनके साथ जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय भी सक्रिय होगा। जाहिर सी बात है कि इस आंदोलन में गांधीवादी, संघ से जुड़े राष्ट्रवादी, रेडिकल वामपंथी और आदिवासी और किसान भी जुड़ रहे हैं और वे इसके दायरे को व्यापक बना सकते हैं। शांति भूषण, प्रशांत भूषण और मेधा पाटकर इसके एजेंडे में जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का कार्यक्रम भी शामिल करवाना चाहते हैं। वे जनोन्मुखी भूमि अधिग्रहण नीतियों तक ही सीमित नहीं रहेंगे बल्कि जल, जंगल, जमीन के बारे में कुछ ठोस नीतियों की भी मांग करेंगे।
लेकिन इस आंदोलन से जिस तरह से विभिन्न राज्यों, गावों और शहरों के युवा और हर उम्र के नागरिक जुड़ रहे हैं उससे साफ है कि इसमें राष्ट्रीय ही नहीं स्थानीय एजेंडा भी रहेगा। स्थानीय एजेंडे के मद्देनजर ही जनलोकपाल बिल के साथ ही लोकायुक्त की संस्था बनाने की मांग चल रही है। यह आंदोलन दिल्ली की भ्रष्ट केन्द्रीय सरकार पर तो भारी पड़ ही सकता है राज्य की भ्रष्ट सरकारों के लिए भी दिक्कत खड़ी कर सकता है। इस आंदोलन के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसे अहिंसक बनाए रखने की है। दूसरी बड़ी चुनौती इसे जाति और धर्म के आधार पर विभाजित होने से रोकने की है। अगले पंद्रह दिन विघ्नसंतोषी शक्तियां सक्रिय हो सकती हैं। अगर प्रतिक्रांति की ताकतों को रोका जा सका तो निश्चित तौर पर यह कारवां क्रांति की ओर जा रहा है।

Sunday, August 14, 2011

दुर्भाग्यपूर्ण है देश में है शिक्षा की दोहरी प्रणाली


आजादी के 64 सालों के बाद एक बार फिर लोगों के सामने मूल्यांकन का प्रश्न है। नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभरे इस देश में अभी बुनियादी जरूरतों में सुधार की गुंजाइश बाकी है। ऐसी ही बुनियादी जरूरत हमारी शिक्षा है। आजादी के बाद शिक्षा की स्थिति पर प्रसिद्ध चिंतक पुष्पेश पंत का कहना है कि भले ही आजादी को 64 साल हो गए हों लेकिन इसके बाद भी शिक्षा की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। देश में शिक्षा की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। यहां पूरी तरह से दोहरी प्रणाली है। एक अमीर आदमी के लिए शिक्षा और दूसरा गरीब आदमी के लिए शिक्षा। आम आदमी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाता है जिसकी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। कुछ साधन संपन्न लोग ही अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिला पा रहे हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि हमारे यहां कपिल सिब्बल जसे मंत्री हैं जिन्होंने विदेश में शिक्षा ग्रहण की है और उनको भारतीय शिक्षा प्रणाली की समझ ही नहीं है। मैं शिक्षा के स्तर में गिरावट के लिए आरक्षण की गलत नीतियों को भी दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं। क्योंकि हमारे यहां मेरिट और आरक्षण में बिल्कुल संतुलन नहीं है और यह किसी भी हालत में शिक्षा के लिए घातक है। जब शिक्षा की बात होती है तो हमारे यहां लोग केवल उच्च शिक्षा, आईआईटी, आईआईएम की बात करते हैं लेकिन जब तक शिक्षा में वर्ण व्यवस्था रहेगी तब तक इसमें कोई सुधार की गुंजाइश नहीं है।
साहित्यकार और प्राध्यापक सुधीश पचौरी का कहना है कि मैं आजादी के बाद शिक्षा की स्थिति को सकारात्मक रूप से देखता हूं। मेरा मानना है कि हमारा देश अभी विकासशील देश है। हमारे यहां गुणात्मक सुधार भी हो रहे हैं। आज दिल्ली विश्वविद्यालय की रैंकिंग विश्व में 300वीं है देश में यह पहले स्थान पर है। इसने जेएनयू को भी पीछे छोड़ दिया है। लेकि न प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं है क्योंकि वहां राज्यों का संरक्षण नहीं है। अब शिक्षा के नए आयाम उभर रहे हैं। पुरानी युनिवर्सिटियों का क्षय हो रहा है। एक जमाने में स्कूलों की संख्या कम थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। मैं आरक्षण की प्रणाली को भी गलत नहीं ठहराता क्योंकि वंचित वर्ग के लिए भी तो लोगों को आगे आना चाहिए। आरक्षण के उचित परिणाम आए हैं। लेकिन मैं फिर कहना चाहता हूं कि इसका एक आधार आर्थिक भी हो। राज्यों को उच्च शिक्षा पर भी ध्यान देना चाहिए। आज उच्च शिक्षा में 85 प्रतिशत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग खर्च कर रहा है और राज्य मात्र 15 प्रतिशत ऐसे में शिक्षा पर राज्य को अपने खर्च अधिक करने होंगे। मुङो लगता है कि शिक्षा का जितना नुकसान कॉरपोरेट हाउसों ने नहीं किया है उससे अधिक राजनीतिक हस्तक्षेप ने किया है। विश्वविद्यालयों को स्वायत्त किए जाने की जरूरत है।


अपनी पुरानी शान में दिखेगा राय पिथोरा

भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा एक बार फिर दिल्ली को उसकी पुराने रौनक में लाने के लिए वह विभिन्न ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण कर रहा है। पुरातत्व विभाग राय पिथौरा के किले संरक्षित करके पुन: उसकी शान वापस दिलाने की कोशिश कर रहा है। 1150 में इस किले को चौहानों ने तोमरों को हराकर इस पर कब्जा कर लिया था लेकिन ऐसा कहा जाता है कि कुतुबु्ीन ऐबक चौहानों को हराकर 1192 में ‘किला राय पिथौरा पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। कभी इसा किले के 13 द्वार थे, जिसमें बरका,हौजरानी,और बायूं द्वार अब भी मौजू हैं। पुरातत्व विभाग इसकी साफ सफाई और खुदाई कर इसकी रौनक वापस लाने का भरपूर प्रयास कर रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के दिल्ली सर्किल के अधीक्षण पुरातत्वविद मोहम्मद केके ने बताया कि इस किले का अपना ऐतिहासिक महत्व है। हालांकि दीवारों के अलावा इसका अन्य अवशेष दिखाई नहीं दे रहा है। यह दीवार लगभग 2 किमी लम्बी है। इसके संरक्षण का काम 2008 से चल रहा था हालांकि अब भी इसमें काफी काम करना बाकी है। इसके संरक्षण में लगभग एक करोड़ की लागत आई है।
इसके ऐतिहासिक महत्व के बारे में भारतीय पुरात् र्सेक्षण के शेिषज्ञोई डी शर्मा के अनुसार, बारहीं सी में शाकंभरी के चौहान शासक ग्रिहराज चतुर्थ ने तोमरों से ल्लिी छीन ली और उसके पौत्र पृथ्ीराज तृतीय ने लालकोट का स्तिार किया। यह स्तिारित नगर ही ‘किला राय पिथौराज् के रूप में लोकप्रिय हुआ, जो ल्लिी के सात नगरों में से एक है। इसे पृथ्ीराज राय पिथौरा के नाम से भी जाना जाता था। भारतीय पुरातत्व विभाग के एक अधिकारी से प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्खनन में पता चलता है कि प्रारंभिक किला योजनानुसार आयताकार था और पश्चिम की तरफ पत्थर से बनी इसकी ऊंचीीारें थी। प्राचीरों के बाहर खाई थी, जो अब कुछ ही जगह शेष है। पत्थरों से बनीीारें ढाई से तीन मीटर तक मोटी है।



कुंजुम, एक अनूठा अंजुमन



रवीन्द्र त्रिपाठी


दिल्ली का हौ़ज खास विलेज अब गांव नहीं है। दिल्ली के कई दूसरे विलेज की तरह एक बेहद आधुनिक , बल्कि उत्तर-आधुनिक जगह हैं जहां के पार्क में आप शाम को प्रवचन के रूप में राम कथा भी सुन सकते हैं और अत्याधुनिक फैशन और कला के दर्शन भी कर सकते हैं। इसी हौज खास विलेज में कुंजुम कैफे है जो अपने तरह की अनोखी जगह है। यहां आप दिन भर बैठे रह सकते हैं और कोई आपसे कहने नहीं आएगा कि बहुत हो गया, अब उठ जाइए।
यहां आप कॉफी पी सकते हैं और कोई आपसे पैसा मांगने नहीं आएगा। और काफी भी पुराने कॉफी हाफस वाली बेस्वाद नहीं। बेहद स्वादिस्ट ब्लैक कॉफी बिस्कुट के साथ। हां बाहर निकलते समय़ एक पेटी में आप अपनी श्रद्धा के मुताबिक जितना पैसा डालना चाहे डाल सकते हैं।
आप दिल्ली के बियाबान में अकेले हैं तो यहां बैठे किसी शख्स से दोस्ती भी गांठ सकते हैं। या अपने दोस्तों के साथ यहां दिन भर बैठकर किसी मसले पर बात भी कर सकते हैं, पेंटिग या स्केचिंग भी।
शनिवार के लगभग साढे बारह बजे हैं और मैं कुजुम कैफे में प्रवेश करती हूं। चार पांच लोग ही हैं। मैं कुजुंम कैफे की शुरुआत करनेवाले अजय जैन से मिलना चाहता हू। मालूम होता है वो विदेश में हैं और कई दिनों के बाद आएंगे। लेकिन उनकी एक सहयोगी श्रुति से मुलाकात होती है। वे कुंजुम कैफ के बारे में थोड़ा सा बताती हैं और कुछ जानकारियां ईमेल करने के कहती हैं। मैं एक मोढे पर बैठ जाता हूं और किताबें पलटने लगता हूं। लकड़ी के कुछ रैक बने हैं जिनपर कुछ किताबें और पुरानी पत्रिकाएं पड़ी हैं। ज्यादातर किताबें और पत्रिकाएं यात्रा से संबंधित हैं। अजय जैन खुद भी एक यात्रा-लेखक हैं। जून 2010 में उन्होंने कुंजुम कैफे शुरू किया था। एक औपचारिक कैफे की परिकल्कना उनके मन में थी जहां किसी तरह का दबाव और तनाव न हो। जहां यात्राओं में रुचि रखने वाले लोग आपस में बतिया सकें और जानकारियां ले-दे सकें।
बहरहाल मोढ़े पर बैठे बैठे मैं फोटोग्राफी की एक किताब उठा लेता हूं। ये होमाई व्यारवाला नाम की महिला फोटोग्राफर पर आधारित है। होमाई भारत की पहली महिला फोटोग्राफर हैं जिनको बाजाप्ता सरकारी मान्यता मिली हुई थी। भारत की आजादी की लड़ाई और आजाद भारत के कई ऐसे फोटोग्राफ उनके लिए हैं जो अब लोकस्मृति के हिस्सा बन गए है।. खासकक पंडित जवाहर लाल नेहरू ऐसे फोटो उन्होंने लिए जो इतने आम फहम हो गए हैं कि किसी को याद नही कि वे किसके लिए हुए हैं। किताब पर हल्की नजर मारते हुए पाता हूं कि उनको इसका बात का गहरा दुख रहा कि 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला मंदिर में मौजूद होते हुए भी वे उनकी हत्या की तस्वीर नहीं ले पाईं जबकि उस दौरान वे हर रोज बापू के फोटो खींचतीं थीं। लेकिन 30 जनवरी 1948 को उनका मूड ऐसा हुआ कि वे फोटो नही ले सकीं। होमाई पारसी समुदाय से ताल्लुक रखती थीं और गुजरात के नवसारी मै पैदा हुई थीं। हेनरी कार्तिए ब्रेसों और मार्गरेट बोर्के ह्वाइट की तरह होमाई भी फोटोग्राफी को कलात्मक बुलंदी तक ले गईं।
संयोग से मार्गरेट भी महिला फोटोग्राफर ही थीं। होनाई की जीवन की कहानी बड़ी रोमांचक है। अपने आखिरी वर्षो में वे दिल्ली छोड़कर चली गईं और गुमनाम सी रहीं।
कुजुंम कैफे की दीवारों को बड़े अच्छे फोटोटोग्राफ लगे हैं। बाघ और हाथी के नेचर फोटोग्राफ्स के साथ साथ आम जिंदगी के कई लम्हें यहां कैद हैं। आप इन्हें खरीद भी सकते हैं। शायद उनकी कमाई का एक यही जरिया है। हालांकि यह अनुमान ही है। श्रुति से यह बात मैं पूछता नहीं हूं। अजय जैन होते तो पूछता। फिलहाल जानकारी के लिए बता दिया जाए कि अगर आपकी फोटोग्राफी में रुचि हैं तो कुंजुम कैफे की तरफ आपको ऐसे मेंटर मिल सकते हैं जो आपको बेहतर फोटोग्राफर बनने के गुर दे सकें। हां, इसकी फीस होती है। यही नहीं अगर आप लेखक बनना चाहते तो भी कुजुंम कैफे की सेवाएं आपके लिए हैं। सिर्फ लिखने के लिए नहीं बल्कि अपनी किताब प्रकाशित करने के लिए भी। अजय जैन ने खुद भी अपनी एक यात्रा किताब लिखी और प्रकाशित की है। नाम है- `पीप पीप डोंट स्लीप’
कुंजुंम कैफे में अकेले बैठे लोग अक्सर अपने लैपटॉप पर काम करते दिखते हैं। यहां वाई फाई की सुविधा भी है। एक बीस-बाईस साल के एक नौजवान को मैं अपने लैपट़ॉप पर काम करते देखता हूं। मैं नौजवान के करीब जाता हूं और नाम पूछता हैं। पता चला वे गौरव चौहान हैं और पीतमपुरा में रहते हैं। यानी हॉजखास विलेज से लगभग बीस-पचीस किलोमीटर दूर से यहां आए हैं। वे महीने में एक दिन यहां जरूर आते हैं। गौरव भी यात्रा में काफी रुचि रखते हैं। वे खुद यात्रा का व्यवसाय शुरु करना चाहते हैं। गौरव बताते हैं कि इस समय भारत में यात्रा का व्यवसाय हर साल दस फीसदी के हिसाब से बढ़ रहा है लेकिन एडवेंचर स्पोर्ट्स का व्यवसाय पचीस फीसदी के हिसाब से बढ़ रहा है। स्कूबा डाइविंग और ट्रैकिंग जैसे ए़डवेंचर स्पोर्ट्स युवकों में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। कई ट्रैवल एजेंसी इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। गौरव अपना ब्लॉग शुरू करने जा रहे हैं जिसमें एडवेंचर स्पोर्ट्स के बारे में जानकारियां दी जाएंगी।
अब आप पूछेंगे कि कुंजुम कैफे नाम कैसे पड़ा। तो आपको बता दें कि हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्फीति वाले इलाके में कुंजुम नाम की एक घाटी है। उसी से यह नाम लिया गया है। वहां से चलते हुए मैं `पीप पीप डोंट स्लीप’ की एक प्रति खरीदता हूं।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

Tuesday, August 9, 2011

नहीं रहा ध्रूपद का धुरंधर


अभिनव उपाध्याय
अद्भुत आलाप की शक्ति, सहजता एंv पारंपरिक बंदिशों से शास्त्रीय गायक उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। गुरुवार 27 जुलाई को उनका देहावसान हो गया। संगीत मर्मज्ञों का मानना है कि उनकी मृत्यु से शास्त्रीय संगीत जगत को गहरी क्षति पहुंची है।
अलर, राजस्थान में 1927 में जन्में उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर ध्रुपद संगीतज्ञों के प्रतिष्ठित घराने से ताल्लुक रखते थे। संगीत में उनकी प्रारंभिक दीक्षा अपने प्रसिद्घ पिता उस्ताद अल्लाबंदे रहीमुद्दीन खान डागर से हुई, आगे चलकर उस्ताद नसीरूद्दीन डागर, इमामुद्दीन डागर एं हुसैनुद्दीन डागर के संरक्षण में प्रशिक्षित हुए थे। उन्होंने जियाउद्दीन खान डागर से र्रूीणा मे प्रशिक्षण भी प्राप्त किया था।
ध्रुपद के महान गुरूओं के बीच उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर अपने आलाप की शक्ति, सहजता एं पारंपरिक बंदिशों के समृद्घ संग्रहण के कारण जाने गए, जिनमे से कुछ बारहीं एं तेरहीं शताब्दियों की हैं। संगीत साधना के सुदीर्घ जीन में े अपने राग-स्तिार एं लय-ताल पर प्रीणता उनमें अदभुत थी।
आल इंडिया रेडियो एं दूरदर्शन के नैत्यिक कलाकार रहें उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर ने देश के अलावा विदेशी आयोजनों में भी अपनी अमिट छाप छोड़ देने वाली प्रस्तुतियां दीं।
एक प्राध्यापक के रूप में उस्ताद जी ने रीन््र भारती श्ििद्यालय, कोलकाता में अध्यापन भी किया। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन््र ने उनकी कला पर शिष्ट प्रलेखन भी तैयार किया। उनके बारे में शास्त्रीय संगीत के बनारस घराने के प्रसिद्ध गायक पंडित राजन मिश्र का कहना है कि उनका न रहने से शास्त्रीय संगीत जगत में एक परंपरा का अवसान हो गया है। मैं इसे अपनी व्यक्तिगत क्षति भी मानता हूं। हमसे उनका बहुत प्रेम था हमने कई बार साथ-साथ अपनी प्रस्तुतियां दी। सही मायने में ध्रुपद का अंदाज उनके पास था। उनका निधन ध्रुपद के एक महान स्तंभ का समाप्त हो जाना है। अब उनके सिखाए गए लोगों की यह जिम्मेदारी है कि वह उनकी परंपरा को आगे बढ़ाएं।
अपनी उत्कृष्ट संगीतज्ञता के लिए उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर र्ष 1993 में संगीत नाटक अकादेमी सम्मान, र्ष 1996 में साहित्य कला परिषद् सम्मान, र्ष 2002 में बिहार ध्रुपद रत्न सम्मान, र्ष 2003 में राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी सम्मान एं र्ष 2008 में पद्म भूषण से सम्मानित किये गये। हिन्दुस्तानी संगीत में उल्लेखनीय योगदान के लिए इस र्ष उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर को संगीत नाटक अकादेमी का रत्न सदस्य चुना गया। संगीत नाटक अकादेमी की उपाध्यक्ष शांता सरबजीत ¨सह का मानना है कि डागर साहब ने ध्रुपद की अनगिनत पीढ़ियों की परंपरा को न केवल जीवित रखा बल्कि बतौर एक धरोहर उन्होने हमें सौंपा। उनके निधन से भारतीय शास्त्रीय गायकी को गहरी क्षति पहुंची है।
प्रसिद्ध संतूर वादक पं भजन सोपोरी उनसे आत्मिय लगाव था उनका कहना है कि संतूर वादक पं भजन सोपोरी का कहना है कि डागर साहब में जो लगन 50-60 के दशक में थी उसी लगन,तालीम के साथ उसी सिद्धता को उन्होने बरकरार रखा। उन्होने एक शैली के साथ राग की ऐतिहासिकता पर काम किया। वह एक ही थे जो ध्रुपद के महान फनकार थे। मुङो याद है पिछले वर्ष नवंबर में हमारा उनके साथ बनारस में अंतिम कंसर्ट था। उनका न होना एक बड़ी क्षति है।
लेखक संगीतज्ञ पं विजय शंकर मिश्र का कहना है कि उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर ने न केवल अपनी परंपरा के सर्वाधिक विद्वान व श्रेष्ठ कलाकार थे। ध्रूपद के वह सबसे महत्वपूर्ण कलाकार थे। वह स्वामी हरिदास की परंपरा से जोड़ते थे और अपने नाम के साथ डागर लिखते थे। मुसलमान होते हुए भी उन्हे संस्कृत सहित अन्य भाषाओं का ज्ञान था वह धारा प्रवाह संस्कृत के श्लोक बोलते थे। गंगा जमुनी तहजीब के भी वह जबरदस्त हिमायती थे। उनका शुरूआती जीवन संघर्षमय रहा लेकिन कभी भारत छोड़कर विदेश जाना पसंद नहीं किए। उनको भारत से गहरा लगाव था।








एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...