Thursday, September 15, 2011

फिर देश की अग्नि परीक्षा न लें

अरुण कुमार त्रिपाठी

देश की राजनीति फिर वहीं जा रही है जहां कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे दोनों प्रमुख दल ले जाना चाहते हैं और जिसमें उनका फायदा है। सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक और सन 2002
में गुलबर्ग सोसायटी की हिंसा में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ एसआईटी को सबूत न मिलने पर मची जय जयकार ने वह माहौल बनाना शुरू कर दिया है। कहावत है जैसा रोगी को भावे वैसा वैद्य फरमावे। जब से देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन छिड़ा तब से कांग्रेस बेचैन थी कि देश में सांप्रदायिकता जैसा गंभीर मुद्दा है और उसे छोड़कर भ्रष्टाचार जैसा मुद्दा उठाया जा रहा है। यानी हम क्रिकेट खेलना चाहते हैं और देखो यह लोग हाकी जैसा पुराना खेल खेलने में लगे हैं।
लगभग यही भाव संसद में बहस के दौरान भी ज्यादातर सांसदों ने दिखाया। उनका साफ मतलब था कि हम जातिवाद और सांप्रदायिकता के खेल में माहिर हैं। कभी हम भी भ्रष्टाचार और ईमानदारी का खेलते थे। लेकिन वह जमाना अलग था। तब महज कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी हुआ करती थी और ज्यादातर पार्टियां विपक्ष में हुआ करती थीं। यह मानसिकता इस कदर हावी थी कि जब वे पार्टियां सत्ता में आईं तो भी कहा जाता था कि आजकल विपक्ष सत्ता में आ गया है या देखो विपक्ष की सरकार चल रही है। संसद की बहसों में राजनीतिक दलों का मूल भाव कुछ ऐसा ही था कि हम तो हाकी खेलना भूल गए हैं और अब हमारे हाथ में हाकी अच्छी भी नहीं लगती, ऐसे में यह नागरिक समाज के लोग हमें आई पीएल और वर्ल्ड कप का कमाऊ खेल छुड़वा कर एक गुजरे जमाने के खेल में शामिल करवाना चाहते हैं। अपनी विवादास्पद टिप्पणियों के मोह में गंभीर छवि गंवा चुके कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने जब अन्ना हजारे को यह कहते हुए धन्यवाद दिया कि चलो उन्होंने काली टोपी लगाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को गांधी टोपी पहनवा दी और भगवा उठान वालों को तिरंगा उठवा दिया तो वे फिर उसी मुद्दे को केंद्र में लाना चाहते थे। चलो दिग्विजय सिंह की साध पूरी होती दिख रही है और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने अपने नकाब उतार कर कट्टरता और सांप्रदायिकता के मार्ग पर रोमांस करना शुरू कर दिया है। इसे उसके दो नेताओं के बयानों से समझा जा सकता है। पहला बयान सुषमा स्वराज का है जिन्होंने कहा कि नरेंद्र भाई अग्निपरीक्षा में पास हो गए हैं। सत्यमेव जयते। दूसरा बयान उनके वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का है। उन्होंनें मोदी की तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने विकास का जो माडल गुजरात में प्रस्तुत किया है वैसा दुनिया के किसी देश ने नहीं किया है। सुषमा स्वराज और आडवाणी के यह नजरिए सामाजिक और आर्थिक कट्टरता की उन नीतियों का प्रतिनिधित्व करते है जिनके नरेंद्र मोदी प्रतीक हैं। क्या सुषमा स्वराज यह कहना चाहती हैं कि गुलबर्ग सोसायटी की अग्निपरीक्षा में एहसान जाफरी फेल हो गए थे और अब उनकी पत्नी जाकिया जाफरी फेल हो गईं और नरेंद्र भाई मोदी पास हो गए। इस सत्यमेव जयते का क्या अर्थ है जिसमें इतने भीषण कांड के अपराधियों को घटना के दस साल बाद भी सजा नहीं हो पाई और मामला फुटबाल की तरह इधर से उधर उछल रहा है। विचित्र सी स्थिति है कि सुषमा स्वराज जैसी समझदार महिला राजनेता प्रतीकों के इस्तेमाल में रत्ती भर संवेदनशीलता दिखाने को तैयार नहीं है।
राम ने सीता की जो अग्निपरीक्षा ली और उसमें पास होने के बाद भी उन्हें वनवास दिया उसके नाते उनके स्त्री विरोधी मर्यादा पुरुषोत्तम चरित्र पर तमाम सवाल उठते हैं। उसी तरह गुलबर्ग सोसायटी में एक सासंद और साठ से ऊपर लोगों को जिंदा जला कर मार दिए जाने वाली घटना की अग्निपरीक्षा में पास होने के कितने आहत करने वाले अर्थ निकलते हैं उसे समझने की जरा भी फुर्सत उन्हें नहीं थी।

दूसरा बयान फिर रथ पर आरूढ़ होने को आतुर लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के विकास के बारे में मोदी को वैश्विक स्तर का नेता बताकर दिया है। क्या आडवाणी जैसे राजनेता ऐसा बयान देने से पहले यह जरा सा भी नहीं सोचते कि आज पूरी दुनिया में उदारीकरण की नीतियां पछाड़ खाकर गिर रही हैं। उसमें नरेंद्र मोदी कौन सा ऐसा माडल बनाकर उसे पूरे देश पर लागू कर देंगे और भारत को खुशहाल बना देंगे ? यह अमेरिका यूरोप से आई आर्थिक नीतियों के प्रति भारतीय जनता पार्टी का अगाध प्रेम है और उसे लागू करने वाले नरेंद्र मोदी कारपोरेट जगत के दुलारे हैं। नरेंद्र मोदी भले अर्थशास्त्री नहीं हैं लेकिन इस मामले में उनकी प्रतिबद्धता डा मनमोहन सिंह से ज्यादा है। वे उनके जोड़ के तोड़ हैं।
यह सही है कि आडवाणी की रथयात्रा और नरेंद्र मोदी की जय जयकार में आडवाणी और संघ परिवार की खींचतान को कम करने और दूसरी तरफ दूसरी कतार के नेताओं की चिंता भी छुपी हुई है। अगर भाजपा की दूसरी कतार के नेता इतना मुस्कुरा रहे हैं तो जाहिर है वे कोई ऐसा गम है जिसे छुपा रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी की दिक्कत यह है कि उसके विकास के आर्थिक और सामाजिक संबंधों के माडल भारतीय से ज्यादा यूरोपीय हैं। उसने जनता से जुड़ने के प्रयास तो किए हैं लेकिन कई बार उसकी जनता का अर्थ वही आत्मकेंद्रित मध्यवर्ग होकर रह जाता है
जो उन्मादी होने के बहाने ढूंढता रहता है। रही पार्टी की बात तो वह आजकल संघ से खींचतान और राजनीतिक संगठन के लिए एक केंद्रीय नेता की तलाश में उलझ कर रह गई है। अटल बिहारी वाजपेयी के निष्क्रिय होने के साथ ही इस पार्टी पर एक सर्वमान्य सवर्ण नेतृत्व के हावी होने का दौर चला गया है। उसने पिछड़े नेता कल्याण सिंह से भले छुट्टी पा ली लेकिन नरेंद्र मोदी उसके सिर पर चक्र की तरह मंडरा रहे हैं। पार्टी नरेंद्र भाई के लिए चाहे जितना सत्यमेव जयते करे लेकिन अपने भीतर वह अजीब तरह के खींचमेव जयते में फंसी हुई है।

आडवाणी भ्रष्टाचार विरोधी रथनीति बनाते हैं तो उसके पहिए, तोरण और अश्वों के तौर पर बीएस येदियुरप्पा, जनार्दन रेड्डी और रमेश पोखरियाल निशंक आकर उपस्थित हो जाते हैं। सोमनाथ से अयोध्या
यात्रा के दौरान भले उनकी राजनीति परवान चढ़ी पर उसने देश को सांप्रदायिक हिंसा में झोंक दिया था। फिर आडवाणी की यह यात्रा अपने राज्याभिषेक के लिए हो रही है या मोदी के , कौन जाने। भारत के लोकतांत्रिक पूंजीवाद के सामने कई कठिन चुनौतियां हैं और उसे उसका मुकाबला करना है। मोदी के लिए ईश्वर महान हो सकता है और उन्हें अग्निपरीक्षा में पास फेल कर सकता है। लेकिन इस देश की बार-बार अग्निपरीक्षा लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि जिस दिन इसके आदर्श और मूल्य फेल हुए उस दिन अनर्थ हो जाएगा।

क्रांतिकारी बदलाव का संकेत है संसद और जनता के बीच का टकराव - मेधा पाटकर

मेधा पाटकर से वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी की बातचीत-

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का कैसा असर देखती हैं आप?

अभी तो हर तरफ भावनाओं से भरपूर माहौल है। विचार स्पष्ट नहीं है। सवाल भ्रष्टाचार से मुक्ति का है और उसके लिए कड़ा कानून चाहिए। पर ये लंबी प्रक्रिया है और अभी वो चलेगी। स्थाई समिति सारीचीजों को देखकर सारे प्रस्तावों पर विचार कर क्या निर्णय लेती है यह अभी देखा जाना है। इसलिए अभी कुछ नहीं कहा जा सकता कि इस आंदोलन को कितना लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा। लेकिन एकबात जरूर हुई है इस आंदोलन में बहुत सारे युवा जुड़े गरीब तबके से भी लोग आये। मीडिया के कारण मध्यवर्ग बड़े पैमाने पर जुड़ा। हमें सभी का स्वागत किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार सभी की समस्या है। इससे गरीब भी चिंतित है।

कहा जाता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन मूलत: मध्यवर्ग के इर्दगिर्द ही केंद्रित था। इसलिए यह एक तरह से भ्रष्ट होते उदारीकरण को सुधारने का प्रयास था। इसमें किसी बुनियादी बदलाव का स्वर नहीं था?

रामलीला मैदान में जमा हुए लोगों में मध्यवर्ग की संख्या 30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी। बाकी निम्न वर्गीय और गरीब तबके के लोग थे। आपका यह कहना सही है कि मध्यवर्ग उदारीकरण के भीतर ही सुधार का प्रयासकर रहा है। वह उसके दायरे से बाहर नहीं जा रहा। आज पूरे देश का कंपनीकरण हो रहा है। कंपनियां तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर रही हैं। पर मध्यवर्ग उसे भ्रष्टाचार के तौर पर नहीं देख रहा। अभी इसआंदोलन का सारा जोर सरकारी भ्रष्टाचार पर है। कारपोरेट सेक्टर जो लूट कर रहा है वह कानून के तहत कर रहा है। इसलिए वह इस भ्रष्टाचार की परिभाषा में नहीं शामिल किया जा रहा है। यह आंदोलन अभी इस बारे में नहीं चिंतित है कि एनजीओ को इतना धन कहां से मिल रहा है। या कंपनियों को इतनी पूंजी कहां से मिल रही है। अगर वह मौजूदा कानून पर खरे उतरते हैं तो उस पर आपत्ति नहीं उठ रही है। यानी सारा जोर सरकारी भ्रष्टाचार पर है।

क्या आपको लगता है कि यह आंदोलन अपने मौजूदा दायरे से निकल कर बुनियादी मुद्दों को उठाएगा और यह कहेगा कि उदारीकरण की प्रक्रिया में ही भ्रष्टाचार निहित है?

कानूनन होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हमें अपनी धारणा बदलनी होगी। भ्रष्टाचार की परिभाषा भी बदलनी होगी। मुङो नहीं लगता कि यह आंदोलन अभी उस दिशा में जाएगा या जा सकता है। इस आंदोलन की शुरूआत जिन लोगों ने की थी उनका एक निश्चित लक्ष्य है। अगर इसे नया रूप देना है। तो लोगों को इसके बीच से रास्ता निकालना होगा। अभी यह आंदोलन 1988 में दी गई भ्रष्टाचार की परिभाषा को ही आधार मानकर चल रहा है। लेकिन उसके बाद हमारी अर्थव्यवस्था बहुत बदल चुकी है। समाज ने लूटने और भ्रष्टाचार करने के तमाम तरीके अपना लिये हैं। भ्रष्टाचार के कुछ काम करने से होते और कुछ करने से होते हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो कानून और सरकार की मंजूरी से होता है लेकिन वह बड़ा भ्रष्टाचार है।

जंतर मंतर से रामलीला मैदान की यात्रा में इस आंदोलन से तमाम तरह के लोग जुड़े यह छोटे से बहुत बड़ा हुआ। इसमें आपके नेतृत्व में जन आदोलनों के लोग जुड़े तो समाज के कईं तबके नहीं जुड़े। क्या आपको लगता है कि दलित आदिवासियों और अल्पसंख्यक की भागीदारी के बिना जनआंदोलन चल सकता है?

जनआंदोलनों के साथ ही जो इस संघर्ष में जुड़े उन्होंने अलग अलग भूमिकाएं निभाई। इससे पहले हम लोग जो आंदोलन करते थे। उसकी चर्चा भले राष्ट्रीय होती हो लेकिन असर स्थानीय रहता है। हम लोग शोषित पीड़ित और वंचित तबके का आंदोलन कर सरकार को धक्का तो पहुंचाते थे। लेकिन उसका असर ज्यादा नहीं होता था। इस आंदोलन में ज्यादा लोगों की भागीदारी के कारण सरकार पर जोर का धक्का लगा है और इसने सरकार को चुनौती दी है। इसका सीधा असर देखा जा सकता है।

तो क्या महज पीड़ित और शोषित तबके के आधार पर बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा हो सकता?

महज पीड़ित वर्ग के आधार पर जो आंदोलन खड़ा होता है उससे बाकी हिस्सा अछूता रह जाता है। लेकिन जैसा कि पूरी दुनिया में हो रहा है कि अगर मध्यवर्ग को जोड़ा जाता है तो आंदोलन का प्रभाव बड़ा होता है। हालांकि इस आंदोलन में भी 100 फीसदी मध्यवर्ग नहीं जुड़ा फिर भी इसका असर बना है इसलिए यह जो उभार आया है उसमें व्यापक मुद्दों को जोड़ना जरूरी है। शिक्षा क्षेत्र के भ्रष्टाचार का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है। गैर बराबरी का मसला बहुत अहम है। चुनाव सुधार का मुद्दा अहम है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को मुद्दा भी कम जरूरी नहीं है। लेकिन मीडिया हर मुद्दे पर सक्रिय नहीं होता। उसे जिस तरह से भ्रष्टाचार और सरकारी भ्रष्टाचार का मामला सनसनी खेज लगता है वैसा गैर बराबरी और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को मामला नहीं लगता। इसलिए इस आंदोलन के सामने सनसनी खेज मुद्दों को गंभीर मुद्दे से जोड़ने की चुनौती है। आंदोलन के साथियों को मंथन करना चाहिए। और उसी से युवाओं को प्ररेणा मिलेगी।

दलितों और अल्पसंख्यकों को आंदोलन से गहरी आपत्तियां रही हैं। दलितों को कहना है कि यह उनके बाबा साहब द्वारा बनाये गये संविधान और उसकी भावना को पलट कर ब्राह्मणवादी नजरिया कायम करने की कोशिश थी। इसी तरह अल्पसंख्यकों ने भी इस पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया है?

यह अन्याय को देखने का नजरिया है। हमें नहीं लगता कि आम दलित और सामान्य मुसलमान इस तरह से सोचता है। दोनों तबके के लोग इस आंदोलन से प्रभावित थे। और जुड़ भी रहे थे। लेकिन उन्हें उनके नेताओं ने बरगलाया है। अल्पसंख्यक समाज की दिक्कत यह थी कि रमजान का महीना चल रहा था और वह बहुत बढ़चढ़कर हिस्सा नहीं ले सकता था। फिर भी जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी की टिप्पणी का कई अल्पसंख्यक संगठनों ने जवाब दिया। दिल्ली में कईं संगठन रामलीला मैदान में आये मुंबई में भी कईं संगठनों ने आंदोलन से एकजुटता दिखाते हुए प्रदर्शन किया। लेकिन अगर कहीं समाज के किसी तबके के मन में संदेह है तो हम सबको उसके पास जाना पड़ेगा। उनसे बातचीत करनी पड़ेगी। उन्हें बताना पड़ेगा कि यह आंदोलन संविधान को चोट पहुंचाने के लिए नहीं उसे बचाने के लिए है।

लेकिन आंदोलन के मंच से जो भी बातें कही गई उनसे यही लगता था कि ये लोग सुधारवादी हैं और बीमारी के बजाय लक्षणों का इलाज करना चाहते हैं। महज आपने कुछ मुद्दे उठाए लेकिन वह भी गौण ही बने रहे। क्या आपको लगता है कि इस तरह के आंदोलनों के बाद सरकार आर्थिक सुधारों में कुछ बदलाव करेगी या उसे तेज करेगी?

देखिए इससे सरकार की जगतीकरण की नीतियों में तत्काल किसी बदलाव की संभावना नहीं दिखती। होना चाहिए था कि इतने बड़े आंदोलन के मंच पर उदारीकरण के 20 सालों के अनुभव की समीक्षा होती। यह मंथन होना जरूरी था। लेकिन नहीं हो पाया। मुङो नहीं लगता कि ऐसा किसी साजिश के तहत हुआ। दरअसल उदारीकरण के कुछ भुक्त भोगी हैं तो कुछ लाभार्थी भी आंदोलन में दोनों तरह के लोग जुड़े थे सभी को यह समझ नहीं है कि इससे देश की बरबादी हो रही है। यह बात लोगों को समझानी होगी लेकिन जब संगठित शक्ति आगे बढ़ती है तो वह मुद्दों को तलाशती है और उसमें बदलाव आता है।

आपको इस आंदोलन में कौन से क्रांतिकारी कदम दिखाई पड़े?

संसद और जनता के बीच जिस तरह का टकराव हुआ वह अपने में एक क्रांतिकारी बदलाव का संकेत था। सांसदों का घर घेरने की बात आज तक किसी आंदोलन में नहीं हुई थी। लोगों को सांसदों के घर पर ही नहीं पार्टी कार्यालयों पर भी जाना चाहिए और उनसे पूछना चाहिए कि वह मुद्दों से मुंह क्यों मोड़ रहे हैं। इससे राजनीतिक विमर्श बदलेगा और नये राजनीतिक चौखट का ढांचा बनेगा।

क्या आपको लगता है कि इस आंदोलन को एक व्यवस्थित विचार धारात्मक ढांचे और संगठन की जरूरत है?

इस पर विचार होना चाहिए कि आंदोलन खड़ा हुआ है तो इसे दूर तक ले जाने के लिए क्या किया जाए। हम पहले आंदोलन करते थे तो सोचते थे कि लोगों का उभार हो गया है और वह अपने आप रास्ता बना लेगा। लेकिन इस आंदोलन ने व्यवस्थित ढंग से कुछ काम किया है। उसे और भी व्यवस्थित करने की जरूरत है। आंदोलन की कोर कमेटी अगले हफ्ते रालेगण सिद्धि यानी अन्ना हजारे के गांव में बैठ रही है। वहां पर बहुत सारी चीजें तय होनी है।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...