Saturday, October 24, 2009

मुङो देश की युवा पीढ़ी पर भरोसा है

कथाकार संजीव गहरे सरोकारों के लेखक हैं। वे भीतर-बाहर एक जसे हैं। कोई बनावटीपन, कोई कृत्रिमता नहीं। करीब डेढ़ सौ कहानियां और उपन्यास लिखने के बाद भी उनका लेखन जारी है। यह उनके लेखन और मानवीय संवेदनाओं को उसकी संपूर्णता में पकड़ने की भूख ही है, जो उनसे बीहड़ यात्राएं कराती रहीं। प्रेमचंद की तरह अपने को गारकर उन्होंने कथा-साहित्य की जो थाती पेश की है, उसका मूल्यांकन होना अभी बाकी है। ग्रामीण और छोटे कस्बे के परिवेश से आने वाले संजीव में महानगरीय सभ्यता का प्रभाव लक्षित नहीं होता। या कहें कि यह उनके अंदर की जीवटता और खुद्दारी है जो परेशानी और बीमारी के बावजूद उन्हें तोड़ नहीं पाती। साहित्य सृजन, प्रकाशन और सम्मान की संभावनाओं वाली दिल्ली भी उन्हें रास नहीं आई। वह गांव जाने की बात करते हैं। जसे दाने की तलाश में अपने घोंसले से दूर आई चिड़िया अपने घोंसले की ओर देखती है, वैसे ही संजीव अपने गांव की ओर देखने लगे हैं। संजीव के लेखन की खासियत है कि वह अपने कथा-सूत्र, विचार और चरित्रों के विस्तार और प्रभाव के लिए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों, आकड़ों और तथ्यों की गहरी जांच-पड़ताल करते हैं। लेखक संवेदनशील होता है, वह समाज के सभी स्तरों पर होनेवाली हलचलों के प्रति सजग रहता है। संजीव अपने लेखन के प्रति खासे ईमानदार और सरोकारों को लेकर प्रतिबद्ध हैं। लेखक समाज के संदर्भो से जितने गहरे अर्थो में जुड़ा होता है, उसकी सृजनशीलता उतनी ही प्रामाणिक और असरदार होती है। गत दो दशक में उदारीकरण, भूमंडलीकरण का प्रभाव समाज पर स्पष्ट रूप से दिखता है। बाजारू संस्कृति मानवीय मूल्यों को ठंडा कर उन्हें मिटाने पर तुली है। एक पीढ़ी है जो कंप्यूटर और इंटरनेट के साथ बड़ी हुई है। उसके अपने सरोकार हैं। राजनीति स्खलित हुई है। तकनीकी विकास और संस्कृतियों के मेल ने नैतिक और अनैतिक होने का विमर्श पैदा किया है। समाज को उद्वेलित और परिचालित करने करने वाली विचारधाराओं, घटनाओं, स्थितियों पर लेखक, कवि और कथाकार की पैनी नजर रहती है। साहित्यकार अपने समय के संदर्भो, तनाव और दबाव से गुजरता है। एेसे समय में संजीव जसा संवेदनशील कथाकार का क्या सोचना है,यह साहित्य सेवियों और प्रेमियों के जानने का विषय हो सकता है। इन्हीं मुद्दों को समेटते हुए प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार संजीव से बातचीत पर आधारित यह लेख-

गत दशक में किए गए राजनीतिक फैसलों का असर इस दशक में साफ दिख रहा है। उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की है। ग्लोबल विलेज और ग्लोबल कल्चर के संपर्क में आने पर देश में एक नई संस्कृति उभरी है। सामाजिक क्षेत्र में भी बदलाव असमान्य रूप में हैं। राजनीति अधोपतन की ओर अग्रसर है। तकनीकी क्षेत्र में हुई तरक्की ने सुख और सुविधा के उपकरण देने के साथ ही मानवीय मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। रिश्तों और संबंधों को एक नए तरीके से देखने के लिए विवश किया है।
सामाजिक बदलाव एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन यह प्रक्रिया अपने यहां सामान्य नहीं है। अपने यहां समाज की कई तहें और परते हैं। समाज का एक तबका उत्तर आधुनिकता में जी रहा है, तो एक वर्ग आज भी 14वीं सदी की रूढ़ और दकियानूस मान्यताओं से जकड़ा है। उदारीकरण का लाभ जो समाज के सभी वर्गो तक पहुंचना चाहिए था, वह अब तक नहीं पहुंचा है। पैसे और सुख भोगने की लपलपाती महात्वाकांक्षा ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है। कुछ लोगों के पास अथाह संपदा और पैसा है, जबकि देश में करोड़ों की संख्या में एेसे गरीब लोग हैं, जो सपने देखकर मरने के लिए अभिशप्त हैं। गरीबों को सपना दिखाने का छलावा बहुराष्ट्रीय कंपनियां कर रही हैं। जिनके पास पैसा है, वह अपने सपनों को पूरा कर ले रहा है और जिसके पास नहीं है, वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए चोरी, बेइमानी करने के सिवाय और क्या कर सकता है। कंपनियां गरीबों का सपने दिखाकर मार रही हैं। चिंता की बात है कि शहरी जीवन की तमाम बुनियादी जरूरतों को अपना खून-पसीना बहाकर पूरा करने वाले इस बड़े वर्ग की सुध न तो सरकार और न ही सभ्य समाज ले रहा है। उन्हें मात्र उतना ही दिया जा रहा है, जिससे वे अपनी दो जून की रोटी की जुगाड़ कर लें। उन्हें हाशिये पर जिंदा रखने की कोशिश की जाती है ताकि हिपोक्रेटिक समाज के जीवन में किसी तरह का अवरोध उत्पन्न न हो।
इधर, सामाजिक मूल्यों को बिगाड़ने और मानवीय संबंधों को छिन्न-भिन्न करने का काम बाजारवादी शक्तियों ने बड़ी तेजी से किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक साजिश के तहत मनुष्य को उसके सरोकारों और मूल्यों से काटने में लगी हैं। अपने फायदे के लिए ये कंपनियां भोगवादी संस्कृति का एेसा जाल बुन रही हैं, जिसमें फंसकर मनुष्य केवल उपभोक्ता बनता जा रहा है। सारे रिश्ते, नेह-छोह को तिलांजलि देकर वह आत्ममुग्धता का शिकार हो गया है। संबंधों के जिस उष्मा से जीवन परिचालित और उसमें ऊर्जा का संचार होता है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने उसी पर कुठाराघात किया है। राजनीति की गर बात करें तो सामाजिक मंच पर राजनीतिक शक्तियां क्षीण हुई हैं। मौजूदा समय की राजनीतिक शक्तियां नक्सलबाड़ी आंदोलन को एक गाली के रूप में देखती और उसे प्रचारित करती हैं। एेसी दृष्टि रखने वाली शक्तियां जनता को लूटने का ही काम करती हैं। और एेसा करने में उनकी मित्र शक्तियां कभी प्रत्यक्ष और कभी प्रच्छन्न रूप में उन्हें मदद पहुंचाती रही हैं। राजनीति राज करने की नीति है। लेकिन राजनीति में आज दल, बल और छल का बोलबाला है। झूठ बोलकर जनता को बरगलाया जा रहा है। नेताओं में ढोंग और प्रपंच इस कदर हावी है कि उनकी कथनी-करनी में कोई मेल और सामंजस्य नहीं दिखता है।
सन् 90 के शुरुआती दशक के उदारवादी ढांचे के तहत शुरू हुई बाजार की व्यवस्था और तकनीकी उन्नयन ने पहले से स्थापित सामाजिक मान्यताओं को झकझोर दिया है। इसे लेकर नैतिक और अनैतिक होने का विमर्श भी चलता रहता है। दरअसल, नैतिकता की कोई परिभाषा आज तक बन ही नहीं पाई है। मेरी मानें तो कथनी और करनी में भेद मिट जाए तो यही सबसे बड़ी नैतिकता है। हर समाज की अपनी नैतिकता होती है। दबाव में हर देश और व्यक्ति जीता है। कहीं न कहीं और किसी ओर हम सभी दबाव में जीते हैं। नैतिकता इस दबाव को मुक्त करने में है। समाज में कुछ घटनाएं एेसे सामने आ रही हैं जो क्षणिक आवेग का परिणाम हैं। पुराने निकषों पर नए प्रतिमानों को नहीं कसा जा सकता। होमोसेक्सुअलिटी, गेअटी और लेस्बियन जसे संबंध समाज के सामने हैं। उन्हें वर्षो से चले आ रहे मानदंडों को आधार बनाकर हम नहीं देख सकते। इनके लिए हमें एक नई दृष्टि विकसित करनी होगी। इन आवर्जनाओं से निपटने के लिए समाज को ही कुछ करना होगा। बिना रिश्तों के समाज की कल्पना भी संभव नहीं है। दरअसल, नैतिक और अनैतिक घोषित करने के कोई तय मानदंड नहीं हैं। इसके विरोध में वही लोग खड़े हो रहे हैं, जिनका इससे कोई लेना देना नहीं है।
तकनीकी विकास ने असंभव सी लगने वाली चीजों को संभव बना दिया है। विज्ञान, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क की दशा में सुधार हुआ है। फिर भी इसका लाभ सुदूर गांवों तक नहीं पहुंचा है। शिक्षा, रोजगार, सामाजिक न्याय और सुरक्षा प्रत्येक नागरिक का बुनियादी अधिकार है। व्यवहार के स्तर पर न जाने कितने कालाहाड़ी सरकारी दावों को मुंह बिराते नजर आते हैं। जरूरत गरीबी की दंश और अपनी अस्मिता के लिए जद्दोजहद कर रहे लोगों को बचाने की है। ये लोग समाज की मुख्यधारा की जरूरतों को पूरा करने के बाद भी नारकीय जीवन जीन के लिए बेबस हैं। हालांकि, केंद्र सरकार की ओर से कानून बनाकर सभी के लिए शिक्षा अनिवार्य करने का प्रयास सराहनीय है। बहुत सारे प्रांतों की सरकारें शिक्षा के लिए रियायतें दे रही हैं। लेकिन इनमें व्यावहारिक स्तर पर बहुत सारी खामियां हैं। सुधार के लिए उठाए गए ज्यादातर कदम कागजी साबित हुए हैं। इसके अलावा विधवा पेंशन, वृद्धा पेंशन, काम के बदले अनाज, नरेगा जसे कार्यक्रमों से उम्मीद बंधती है।
इस दशक में मीडिया काफी शक्तिशाली होकर उभरा है। लेकिन मनोरंजन चैनलों पर रियल्टी शो में दिखाए जाने वाले भौडेंपन को देखकर कुफ्र होता है। ‘सच का सामनाज् करने वाले खेतों, खलिहानों और जंगलों में मर रहे हैं। विडंबना है कि सच के नाम पर झूठ और फरेब का व्यवसाय करने वाले करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं। ग्लैमर और पैसे के इस खेल में यथार्थ को झुठलाया जा रहा है। देश की हकीकत के बारे में दिखाने और बताने से मीडिया परहेज करने लगा है। वहां भी ग्लैमर और पैसे की तूती बोलती है। इस दशक में महिलाओं की स्थिति पहले से कहीं ज्यादा बदली है। वे प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती पेश कर रही हैं। उनका जीने, रहने और सोचने का ढंग और दायरा बदला है। लेकिन इतना कुछ बदलने के बाद भी पुरुषों का उनके प्रति नजरिया मध्ययुगीन वाला ही है। थोड़ा सा खुरचने पर मनुष्य का मध्यकालीन वहशीपन सामने आ जाता है। हरियाणा की कल्पना चावला स्त्रियों की उपलब्धता की सबसे बड़े प्रतीक के रूप में देखी जा सकती हैं, लेकिन उसी हरियाणा में महिलाओं पर खाप पंचायतों का फरमान कथित सभ्य मनुष्यता पर कलंक लगा देता है।
देश के सामने चुनौतियां और समस्याएं अनेक हैं, लेकिन समाज के विकास में सबसे बड़ा अवरोध जाति व्यवस्था है। इसे समाप्त करने की जरूरत है। यदि एेसा चलता रहा तो देश एक बार फिर से दासता की जंजीरों में जकड़ जाएगा।
राजनीतिक शक्तियां आत्ममुग्धता की शिकार हैं, उनमें बिखराव है। जनता सीपीआईएमएल और अन्य राजनीतिक पार्टियां जुगनुओं की तरह हैं, उनसे अंधेरा नहीं मिट सकता। सवाल है कि यदि सत्ता पाने के लिए धुर विरोधी पार्टियां एक हो सकती हैं, तो वे जनता के लिए क्यों एक नहीं हो सकतीं। राजनीतिक शक्तियां जनता के हित के बारे में बात तो करती हैं, लेकिन वास्तव में वे अपना हित साधने में ही लगी हैं। वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक अधोपतन के बारे में शहीद भगत सिंह ने पहले ही कह दिया था कि यदि समाज की वर्जनाओं को रोका नहीं गया तो वे अधोपतन की ओर ले जाएंगी। फिर भी इतनी चिंताएं होने के बावजूद मैं निराश नहीं हूं। मुङो देश की युवा पीढ़ी पर भरोसा है। बुरा समय आने पर युवा आगे आते हैं और वे देश और समाज को एक नई दिशा देते हैं।
आलोक कुमार से बातचीत पर आधारित

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...