Wednesday, December 31, 2008

न्याय के लिए आई हूं

न्याय के लिए आई हूं

भारतीय फिल्में, भारतीय संगीत और भारतीय संस्कृ ति से प्रभावित अफगानी लड़की साबरा अफगानिस्तान से भारत तक की यात्रा अपने पति को ढ़ूंढने के लिए की। लेकिन तलाश पूरा होने के बाद उसे अब न्याय के लिए लड़ाई लड़नी पड़ रही है।तीस नवम्बर को अपने मां के साथ भारत आई साबरा अपने पति मेजर डा.चंद्रशेखर पंत को तलाशती उसके पास पहुंच गई लेकिन उससे मिलने के बाद अपने पति की प्रतिक्रिया को देखकर वह अवाक साबरा का कहना है कि, सबसे पहले उसने मुङो देखकर यही पूछा कि ‘तुम यहां तक कैसे आ गई। अफगानिस्तान से आए उसे दो साल हो गए थे लेकिन इस बीच उसने मात्र तीन फोन किया और वह भी यह बताने के लिए वह शादीशुदा है और सारा उसे भूल जाए। 20 साल की साबिरा डा. पंत से मुलाकात के बारे में बताती हैं कि ‘मैं काबुल में आई एमएम (इंडियन मेडिकल मिशन) में एक दुभाषिया के रूप में काम कर रही थी, वहां पर मेजर पंत भी थे मैं अफगानी या पस्तो से हिन्दी में बदलती थी। इस बीच मेजर पंत ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा लेकिन उसने बिना परिवार की आज्ञा से इसे मानने से इनकार कर दिया। जब उसने हमारे पिता से बात की तो उन्होंने कहा कि हम लोग हिन्दूओं में शादी नहीं करते इस पर मेजर पंत ने निकाह के लिए इस्लाम कबूल कर मेजर हिम्मत खान बन गया और हिजरी सम्सी 19/8/1385 को उसने मुझसे निकाह किया। हमारे साथ किराए के मकान में पन्द्रह दिन गुजारने के बाद वह भारत आ गया। उसने जाते समय कहा कि वह जल्द ही लौट कर आ जाएगा। लेकिन उसने जब फोन किया तो उसका उत्तर उम्मीदों को तोड़नें वाला था। उसने कहा मैं एक शादीशुदा दो बच्चों का बाप है तुम दूसरी शादी कर लो।ज् मुङो इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी। शादी के दो साल बाद पति के लिए भारत आने के बारे में वह बताती हैं कि, जब आखिरी बार उसने एकदम मना कर दिया और हमारी बिरादरी के लोगों का लगातार दबाव हम पर बनता गया तो हमने मां के साथ भारत आने के बारे में सोचा। अधिक समय वीजा मिलने में लग गया, लेकिन इतने समय बाद भी न्याय न मिलने से वह निराश हैं।साबरा का कहना है कि यहां की सरकार और उत्तराखंड प्रशासन ने भी मेरे साथ काफी सहयोग किया है यही नहीं भारतीय महिला आयोग ने भी सकारात्मक उत्तर दिया और मेरे वीजा की अवधि बढ़ाने का आश्चासन दिया है।साबिरा का कहना है कि अब मैं भी भारतीय हूं और यहां की बहू हूं। अगर मैं दोषी हूं तो मुङो जांच करने के बाद दंड दिया जाय और नहीं हूं तो दोषी को सजा दी जाय। मैं न्याय मांगने आई हूं। साबिरा बताती हैं कि जब मेजर पंत ने पिथौरागढ़ में रहने वाली अपनी पत्नी से मिलवाया तो पहले तो उसकी पत्नी ने कहा कि मैं जानती हूं कि इसने तुमसे शादी की है लेकिन जब उसे पुलिस के सामने बयान देने को कहा गया तो उसने बयान बदल दिया और कहा मुङो इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है।साबरा अपने परिवार की हालत बयां करते हुए कहती हैं कि मेरे परिवार में चार बहन और तीन भाई हैं मैं सबसे बड़ी हूं। मेरी अपनी ही बहन जब मुझसे सवाल करती है तो मैं निरूत्तर हो जाती हूं। पड़ोस के लोग भी छींटाकसी क रते हैं। इस संबंध में आपने काई केस भी दायर किया है? यह पूछे जाने पर साबरा का कहना है कि, अभी नहीं, क्योंकि बिना केंद्रीय सरकार की अनुमति के यह संभव नहीं है अभी मैं हाल ही में गृहमंत्री से मिली हूं और उन्होंने मामले पर ध्यान देने का आश्वासन दिया है। यहां की न्याय प्रणाली के बारे में उसका कहना है कि, मुङो जब तक न्याय नहीं मिलेगा मैं लड़ती रहूंगी। साबरा का कहना है, मुङो भारत और अफगानिस्तान में कोई विशेष अंतर नहीं लगता यहां लोग काफी अच्छे हैं। बहुत भारतीय अफगानिस्तान में वर्षो से रह रहे हैं सबका आपस में बहुत भाईचारा है। किसी एक आदमी के बुरा होने से पूरा देश तो बुरा नहीं हो जाता।

यह माया की देवी है

यह माया की देवी है
उत्तर प्रदेश अपने विभिन्न प्रकार के निम्न, मध्यम, मध्यमोत्तम, उत्तम और सर्वोत्तम कार्यो के लिए जाना जाता है। यह खासकर तब और चर्चा में आ जाता है जब वहां विभिन्न तरह की लीलाएं होने लगती है। चाहे अमरमणि प्रेम प्रसंग हो या कविता चौधरी का मामला या कुछ और यहां तरह-तरह की लीलाएं जनता ने देखी। विभिन्न कलाओं में राजनेताओं ने अपनी योग्यता का प्रदर्शन करते हुए पल्टीमार युक्ति से सत्ता प्राप्त की और पुन: अपनी खोई धार्मिक, आर्थिक और नैतिक प्रतिष्ठा को प्राप्त करने में लगे रहे।
अपनी कमाई के बारे में कुछ सोचते कि आर्थिक मंदी ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया। इसके असर से परेशान मुखिया मायावती ने अपने धुरंधर कार्यकर्ताओं के ऊपर जन्म दिन की तैयारियों का भारी-भरकम बोझ डाला। सब तो बच गए लेकिन फंस गए बेचारे तिवारी बाबा। अगर चढ़ावे की व्यवस्था न करें तो देवी नाराज और व्यवस्था की तो हिरासत बढ़ गई।
तिवारी बाबा के समर्थकों को नहीं सूझ रहा है कि वह क्या करें देवी की भक्ति मनायें कि नेता जी के पकड़े जाने का शोक। उधर विपक्ष ने चंदा उगाही समिति की प्रिय नेता को ‘माफिया क्वीनज् कह डाला।
सेवक सुटुकुन जनता के बीच जाकर प्राप्त आदेश को प्रसारित कर रहा है कि, देवी दहाड़ रही है। मैं माया हूं मुङो पैसा चढ़ाओ, आर्थिक मंदी ने मेरी भूख और बढ़ा दी है। कार्यकर्ताओं को अपील जारी है। साथ में यह धमकी भी कि अगर इस बार हमारा जन्मदिन नहीं मनाया गया तो अगली बार पैसा भी लूंगी और टिकट भी नहीं दूंगीं। लखनऊ में उनकी मूर्ति में बना पर्स भी यही संकेत कर रहा है। आप लोग इशारों को समझें और राज को राज..
इस पर सभी कार्यकर्ता सकते में हैं लेकिन चिरकुट चतुर्वेदी ने जोर देकर कहा, हम औरैया के लोग गौरैया मार दें तो भी शोर होता है लेकिन दूसरे राज्य के लोग चाहे कुछ भी करें लेकिन चूं तक नहीं होती। ये तो लोकतंत्र में जबरदस्ती है भाई। हमारी बहन जी का अपमान है। हम सभी भाई इसके खिलाफ आन्दोलन करेंगे।
विचारक सुबुद्धि शास्त्री जी ने कहा आपकी बहन जी ने न जाने कितने भाई पाल रखे हैं जो आए दिन किसी न किसी को टपकाते ही रहते हैं। प्रदेश में हाहाकार मची है, अब तो सरकारी महकमें में लोगों को सांप सूंघ गया है। लोग अपने बेटे को डाक्टर, इंजीनियर बनाने के बारे में एक बार सोचेगें कि देवी का शेर आकर चढ़ावा न मांगने लगे। यह देवी साम, दाम, दंड, भेद जसी कलाओं में निपुण है इसकी लीला भी अपरंपार है। सहीराम ने कहा यह माया की देवी है ।

Friday, December 26, 2008

कला फिल्मों पर बाजार का दबाव

कला फिल्मों पर बाजार का दबाव
फिल्म अभिव्यक्ति की वह विधा है जो वर्तमान समय में शायद सबसे अधिक लोकप्रिय और प्रभावी है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से इक्सवीं सदी के पूर्वार्ध के बीच भारत ही नहीं विश्व सिनेमा ने एक पूरे सौ साल का सुनहरा दौर देखा है। मूक फिल्मों से लेकर वाचाल फिल्मों की लम्बी यात्रा तय की है। उन मानवीय संवेदनाओं को छुआ है जो मार्मिक ही नहीं जीवंत भी हैं। आलमआरा से बोलती फिल्मों की जो शुरूआत हुई वह आज चिल्ला रही है लेकिन वह चीख किसी संवेदना कि नहीं बल्कि उपभोक्तावाद की है। शायद इसी तरह के किसी वाद ने फिल्मों को दो भागों में बांट दिया, कला फिल्में और व्यावसायिक फिल्में। इसी के साथ फिल्म निर्माण की कला भी बाजार देखकर उभरने लगी। और आज विश्व में सबसे अधिक फिल्में हमारे देश में बनाए जाने लगी हैं। लेकिन वहीं एक प्रश्नचिह्न भी खड़ा हो गया कि जो फिल्में बन रही है क्या वह समाज के लिए सार्थक सिनेमा कि उपज मानी जा सकती हैं? प्राय: निर्माता निर्देशकों के बीच यह बहस का मुद्दा रहा है कि सार्थक सिनेमा क्या है? इस पर आज भी एक राय नहीं है। लेकिन कुछ फिल्में ऐसी हैं जो समाज की कसक, पीड़ा, संवेदना और कुंठा को पर्दे पर लाती हैं और दर्शक उसे देखते ही उससे आत्मसात् कर लेता है। इस तरह की फिल्में अधिकतर कला फिल्मों के दायरे में आती हैं। लेकिन वर्तमान में कला फिल्मों का निर्माण करने से निर्देशक कतरा रहे हैं या कला फिल्में बनाने वाले निर्देशक अब व्यावसायिक फिल्मों की ओर रुख करनें लगे हैं।
जब कला फिल्मों की बात आती है तो सत्यजीत रे का नाम पहले लिया जाता है। ‘पाथेर पांचालीज् को देखकर कौन प्रभावित नहीं हुआ है उसे आज भी एक कालजयी कला फिल्म का दर्जा प्राप्त है। इसी तरह विमल दा कि ‘दो आंखे बारह हाथज् हो या ‘दो बीघा जमीनज् या फिर ‘बंदिनीज् इन फिल्मों में कला फिल्मों का संपूर्ण समन्वय देखने को मिल जाएगा। यही कला गुरूदत्त की फिल्मों में भी देखने को मिल जाती है। इसके बाद तो कला फिल्मों कि एक लम्बी श्रृंखला है जो उस दौर में बहुत प्रभावी तो नहीं रही लेकिन हां उसने अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज करा दी। षिकेश मुखर्जी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, महेश भट्ट या फिर प्रकाश झा ऐसे निर्देशक आए जिन्होंने कला फिल्मों से ही अपनी शुरुआत की लेकिन समय के साथ साथ उन पर बाजार का बुखार चढ़ने लगा और देखते ही देखते वह भूमंडलीकरण के दबाव को ङोल नहीं सके।
गोविंद निहलानी ने जिस शिद्दत से आक्रोश, अर्धसत्य, गांधी या दृष्टि बनाई थी उसके बाद देव जसी कमार्शियल फिल्म का निर्माण इन फिल्मों से कमाई न होने की परिणति ही है। यही नहीं महेश भट्ट जिनकी शुरुआत ही कला फिल्म सारांश और अर्थ से हुई वह जल्द ही बाजार की समझ जान गए और आशिकी, क्रिमिनल, नाम, दिल है कि मानता नहीं जसी फिल्मों के निर्माण की फैक्ट्री ही खोल ली, जिसमें साल में कई फिल्मों का निर्माण होता है। कुछ इस तरह की बात प्रकाश झा के बारे में भी कही जा सकती है जिन्होनें दामुल, मृत्युदंड, परिणति जसी कला फिल्में तो दीं लेकिन स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया कि अब बिना पैसों के काम नहीं चलेगा और अपहरण, गंगाजल जसी फिल्मों का निर्माण किया, परन्तु श्याम बेनेगल ने जिस लगन से अंकुर, निशांत, मंथन, कलयुग या सरदारी बेगम बनाई उसी लगन से मंडी और आरोहण भी बनाया। लेकिन इक्कीसवीं सदी में हरी-भरी और जुबैदा शायद उस अनुरूप नहीं बन पाई।
आज यदि देखा जाए तो कला फिल्मों का निर्माण अब मॉस को ध्यान में रखकर किया जा रहा है न कि क्लास को। क्योंकि फिल्म का निर्माण महज एक जुनून नहीं रह गया है बल्कि यह एक विशुद्ध लाभ का व्यवसाय बन गया है जिसमें कोई निर्माता घाटा सहना नहीं चाहता। इसीलिए इन फिल्मों के प्रमोशन में भी कोई कमी नहीं की जा रही है। आज के निर्माता निर्देशक कला और कमर्शियल फिल्मों में कोई अंतर भी नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि जो फिल्में बिजनेस दें वो कमर्शियल फि ल्म हैं, फिर चाहे वो किसी गंभीर विषय पर ही क्यूं न बनी हों। चांदनी बार को ही ले लीजिए। यह परिभाषा बाजार ने दी है। फिर भी आजकल निर्देशकों की एक नई पीढ़ी आई है जिसमें सुधीर मिश्र नें चमेली, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, मैं जिंदा हूं या ये वो मंजिल नहीं जसी फिल्में दी। जो एक नई पीढ़ी की शुरुआत मानी गई। इसी तरह अनुराग बसु की फिल्में हैं जो केवल अलग पृष्ठभूमि पर ही नहीं बनी बल्कि एक सामाजिक संक्रमण को बखूबी दर्शाती हैं। इसी तरह रितुपर्णो घोष की चोखेर बाली, रेनकोट या तितली सामाजिक संरचना और मानवीय स्वभाव की अभिव्यक्ति को जिस तरह उद्घाटित किया है, उससे फिल्म जगत में एक नई संभावना देखने को मिली है। कुछ इसी तरह की उम्मीद मधुर भंडारकर से भी जागी है, जब उन्होंने चांदनी बार, पेज थ्री और सत्ता जसी फिल्में समाज और राजनीति के नए समीकरणों परिभाषित किया। नागेश कुकनूर ने जिस बारीकी से डोर का निर्माण किया है उसमे महिला सशक्तीकरण की छाप दिखाई देती है।
सवाल यह है कि ये प्रतिभाशाली निर्देशक अब लीक से हट कर फिल्में तो बना रहे हैं, लेकिन क्या वो बाजार के दबाव का मुकाबला कर पाएंगे? प्रश्न यह उठता है कि जब बाजार कला को नियंत्रित करेगा, तो क्या अभिव्यक्ति का वह रूप सामने आ पाएगा जो दर्शकों के मनोभावों तक पहुंच पाए या उनकी संवेदनाओं को झकझोर दे। या फिर कला फिल्म कही जाने वाली फिल्में भी बाजार के दबाव में मसाले की चाशनी में लग कर आएंगी।
अभिनव उपाध्याय

कैनवस पर आस्था


‘कैनवस पर आस्था
अभिव्यक्ति के अनेक माध्यम है लेकिन जब तूलिका अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है तो कैनवस पर उभरी आकृति कलाकार की मनोवृत्ति स्वयं स्पष्ट कर देती हैं।
डा. निशा जायसवाल एक ऐसी ही कलाकार हैं। जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम तूलिका है और उससे चित्र बनाना एक साधना।
यूं तो वह दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं लेकिन कला के प्रति उनका समर्पण देखते ही बनता है। 32 वर्ष से अध्ययन और अध्यापन से समय निकालकर कला की जो साधना वह करती हैं, वह जब लोगों के सामने आई तो कला के पारखियों ने इनकी कृतियों को उत्कृष्ट कृतियों का दर्जा दिया।
दिल्ली के इंडिया हेबिटेट सेंटर में आयोजित इनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में आए सोमनाथ चटर्जी, उस्ताद अमजद अली खां, नामवर सिंह, नफीसा अली जसे कद्रदानों ने उनकी कृतियों को देखकर काफी सराहना की। अपनी पेंटिंग्स की पहली प्रदर्शनी पर इस तरह की प्रतिक्रिया को लेकर उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। उनका कहना है कि ‘यह मेरे चित्रों की पहली प्रदर्शनी थी और लोग इसे इतना पसंद करेंगे, मुङो ऐसी उम्मीद नहीं
कला की यह यात्रा कबसे शुरू हुई? पूछने पर वह बताती हैं कि ‘मैं मूलत: पूर्वी उत्तर प्रदेश में पड़रौना के मारवाड़ी परिवार से हूं। इस परिवार की लड़कियां बहुत खूबसूरत मेंहदी अपने हथेलियों पर सजाती थीं। एक दिन उन्होंने भी झाड़ से एक सींक खींचकर अपनी हथेली को मेंहदी से सजा लिया। यह एक छोटा सा प्रयास था लेकिन जिसने भी इसे देखा उसने काफी सराहना की। यहीं से कला के प्रति प्रतिबद्धता जागी और इसके बाद बारीक आकृतियों और रेखाओं को कैनवस पर उतारने लगी। 16 वर्ष की आयु से शुरू कला की यात्रा यह अविराम जारी है।ज्
वह बताती हैं कि ग्रेजुएशन से पहले तो वह कवि बिहारी की नायिकाओं, खजुराहो की मूर्तियों, मयूर पक्षी और सौंदर्य प्रधान अनुकृतियों को अपनी रचना का केंद्र बनाती रही लेकिन ग्रेजुएशन के बाद देवी-देवताओं और मयूर पक्षी पर ही अपनी कला को केंद्रित किया। यह पूछे जाने पर कि आपने देवी-देवताओं और मयूर पर ही अपनी अनुकृतियां क्यों केंद्रित की? उनका कहना है कि ‘ईश्वर में अटूट आस्था के कारण हमने देवी-देवता को चुना। जब मैं ईश्वर की कृतियों को बनाती हूं तो ऐसा लगता है कि ईश्वर स्वयं अपने को बना रहा है। मेरा हाथ तो केवल माध्यम है। मोर पंक्षी के बारे में वह बताती हैं कि, वह उमंग का द्योतक है। वर्तमान समय में भागती-दौड़ती जिंदगी में आदमी के पास बहुत तनाव है। लेकिन एक मोर मदमस्त अपनी धुन में नाचता है और उसे देखकर मन खुश हो जाता है।ज्
डा. निशा की पेंटिंग्स में राजस्थानी लोक कला, विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र, ड्रेगन आदि के चित्र भी मोर की पेंटिंग्स में दिख जाते हैं। इसी तरह उनके ‘सूरजज् की कृति में उससे संबंधित बादल, घोड़े आदि उससे संबंधित कई चित्र दिख जाते हैं। डा. निशा ने श्रीनाथ, लक्ष्मी-गणेश और मयूर समेत कुल 19 कृतियां बना चुकी हैं।
लगभग 25 वर्षो में मात्र 19 कृतियां ही बनाए जाने पर उन्होंने बताया कि ‘इस तरह की कृतियां बनाना एक कठिन कार्य है और मैं पेशे से प्रवक्ता हूं इसलिए चित्रकारी के लिए पूरे वर्ष में मुङो मुश्किल से एक से डेढ़ महीने ही मिलते है। गर्मी की छुट्टियों में जब में पड़रौना जाती हूं तभी ये संभव हो पाता है। इसके लिए प्रतिदिन एक बार छ: से सात घंटे तक काम करती हूं। फिर भी कभी-कभी किसी चित्र को पूरा करने में दो से तीन गर्मी की छुट्टियां निकल जाती हैं।
वह बताती हैं, ‘दरअसल चित्रकारी मेरे लिए एक साधना है, एक तपस्या है, एक श्रद्धा है। कभी-कभी लगता है कि ये तनाव मुङो परोक्ष रूप से ऊर्जा देता है। जिसके फलस्वरूप एक सुंदर कृति का सृजन होता है।ज् डा. निशा के चित्र देखने के बाद लगता है कि यह आपसे संवाद करते हैं। यूं तो इन चित्रों की एक नई शैली है लेकिन इस पर लोक कला, तिब्बत की थंकाव व मधुबनी चित्रकारी का प्रभाव देखा जा सकता है। वह बताती है कि ‘मैं यामिनी राय के स्क्रेच से काफी प्रभावित हूं।ज्
इन चित्रों को किस तरह बनाती हैं? पूछने पर वह बताती हैं कि देवी-देवताओं को मैं ब्लैक एंड व्हाइट में बनाती हूं। जिसके लिए मैं ग्राफ पेन का इस्तेमाल करती हूं और मोर के लिए जल रंगों व दो नंबर के ब्रश का सहारा लेती हूं। चित्र चाहे ब्लैक एण्ड व्हाइट हो या रंगीन, दोनों को बनाना एक कठिन साधना जसा है क्योंकि कोई भी लाइन खींचने से पहले मैं सांस रोक लेती हूं, क्योंकि एक गहरी या सामान्य सी सांस भी सारी मेहनत पर पानी फेर सकती है। रंगीन चित्र बनाते समय ब्रश को चूसकर उसे नुकीला बना लेती हूं और फिर उस पर रंग लगाती हूं।ज् अपनी कृतियों के बारे में वह बताती हैं कि ‘मैंने कभी नहीं चाहा कि मेरी कृति केवल बुद्धिजीवी वर्ग की आलोचना तक सीमित रहे। शायद इसीलिए मुङो अमूर्त कला ने कभी आकर्षित नहीं किया। मेरे जीवन से जुड़ा हर व्यक्ति मेरा गुरु है। मेरा प्रशिक्षक है और मेरा समीक्षक है। इन्हीं की प्रतिक्रियाओं ने मुङो अपनी शैली को विकसित करने में सहयोग दिया है। वह कहती हैं कि मैं इस कला को घर-घर तक पहुंचाना चाहती हूं।ज्
-अभिनव उपाध्याय

Saturday, December 20, 2008

यह एफ एम ढेंचू है

यह एफ एम ढेंचू है
सहीराम के पड़ोसी गर्दभानन्द विद्वान होने के साथ- साथ समसामयिक विषयों पर चिंतन भी करते हैं। नाम को लेकर पाठक भ्रम न पालें क्योंकि जब वह बचपन में रोते थे तो गधा देखकर ही चुप होते थे। स्कूल में अध्यापक भी उन्हे प्यार से गधा ही कहते थे। उनका प्रिय पशु गधा ही था। इसलिए मां-बाप ने उनका नाम गर्दभानन्द ही रख दिया।
बहरहाल, आर्थिक मंदी ने न केवल उन्हे नौकरी से निकाला बल्कि उनके विचारों के सेन्सेक्स को भी रसातल में धकेल दिया। अब उनकी बातें सुनने वाला कोई नहीं था। उनकी कुंठा तब और बढ़ गई जब बुश को जूता लगा और वह अपनी भड़ास निकालने के लिए लोगों को खोज रहे थे लेकिन निराशा ही हाथ लगी। किसी सज्जन ने उनकी समस्या को देखकर एक उपाय बताया कि भाई गर्दभानन्द जी, मेरी मानिए तो एक एफएम चैनल खोल लीजिए। इसके कई फायदे हैं, पहला तो यह कि लोगों तक आपकी बात बहुत आसानी से पहुंच जाएगी, दूसरा लोगों का मनोरंजन होगा और तीसरा लोग आपको जानने लगेगें लाभ कि चिंता मत कीजिएगा क्योंकि चुनाव में ही सारा लागत निकल आएगी। गर्दभानंद को बात जंच गई लेकिन इस आर्थिक मंदी के दौर में यह काम इतना आसान नहीं था। किसी ने पुरानी यारी निभाई और पैसा लगा दिया। समस्या इसके नामकरण को लेकर आई। मित्र चौकड़ी राम ने समस्या का हल बता दिया, क्यों न इसका नाम ‘कुकड़ू कूज् रखा जाय। लेकिन गर्दभानंद अड़ गए उन्होंने कहा चौकड़ी वह दिन भूल गए जब तुम्हे क्लास में मुर्गा बनाया जाता था तो मैं जिद करके तुम्हे गधा बनवाता था मेरी पसंद को तुम जानते हो फिर भी..। चौकड़ी ने इस बार दूसरा नाम सुझाया ‘ढेंचूज् और यह नाम गर्दभानन्द को जंच गया। लेकिन लोग क्या कहेगें यह बात उन्हे सता रही थी चौकड़ी ने उन्हे फिर समझाया देखो जब एफएम चैनल का नाम सिटी,टाउन, मिर्ची, टमाटर, रेड, ब्ल्यू यही नहीं बिल्ली की आवाज म्याऊं हो सकता है तो ढेंचू क्यों नहीं हो सकता।
अब चैनल के उद्घाटन में सारे शहर के गधे बुलाए गए उन्होनें सस्वर गान किया और नारियल फोड़कर चैनल शुरू हो गया। उद्घोषक गर्दभानन्द ही थे उन्होनें धीरे-धीरे चैनल की बारीकियां सीखीं और अब एक दम पक्के हो गए। उन्होनें हर गाने के बार एक विज्ञापन और मैसेज करने के लिए श्रोताओं को उकसाने लगे।
उनके एफएम की बानगी देखिए, ‘यह एफएम ढेंचू है, अपने दिल की बात हमारे ढेंचू के साथ। हमारे सवालों के जवाब ढेंचू स्पेस 420 पर मैसेज करके इनाम पाएं।ज् सवाल सीधा सा है, बुश के ऊपर कितने जूते चलाए गए? इनाम है अमेरिकी राष्ट्रपति की प्रेस कांफ्रे न्स में जाने का सुनहरा मौका। पिंटू पढ़वइया ने फटाफट मोबाइल उठाकर पांच मैसेज किए लेकिन इनाम की घोषणा नहीं हुई। अलबत्ता उद्घोषक ने फोन करके उनसे पूछ जरूर लिया कि आप करते क्या हैं? उन्होंने कहा साइंस का विद्यार्थी हूं? अब आपके लिए आखिरी आसान सवाल, जो जूते बुश को मारे गए थे उसका द्रव्यमान और वेग क्या था? पिंटू ने लाख कोशिश की लेकिन नहीं बता पाए और गर्दभानन्द ने ढेंचू-ढेंचू बोलते हुए गाना चला दिया।
अभिनव उपाध्याय

Thursday, December 4, 2008

artical- सारा खेल टीआरपी का है

सारा खेल टीआरपी का है
चमचमाता स्टेज, शोर करते दर्शक, रंग-बिरंगे कपड़ों में प्रतियोगी, कभी गंभीर तो कभी नाजुक अंदाज में दिखते जज और सर्वगुण सम्पन्न एंकर। आमतौर से यही होता है एक रियलिटी शो में। नाज, अंदाज और नाटक से लबरेज ये रियलिटी शो वास्तव में कितने रियल है, वर्तमान में इसके ऊपर प्रश्नचिह्न लगाए जा रहे हैं। और प्रश्नचिह्न् भी क्यों न लगाए जाएं, क्या शो को हिट करने का एकमात्र साधन विवाद ही है? और विवाद को दर्शाने का माध्यम भी ऐसा कि जसे मंच पर दो प्रतियोगी नहीं, बल्कि दो महारथी युद्ध करने आ रहे हैं। कार्यक्रम के प्रायोजक एक ऐसा रोमांच पैदा करने की कोशिश करते हैं जिसको दर्शक दिल से ले बैठते हैं और फिर वही होता है जो चैनल वाले चाहते हैं। मतलब उनके कार्यक्रम की टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) में इजाफा और दर्शक प्राय: इस भ्रामक रोमांच को देखने के लिए कार्यक्रम की टीआरपी में इजाफा करते हैं।
आजकल लोकप्रिय बनने के एक नए तरीके इन कार्यक्रमों में देखे जा सकते हैं। इसके जज प्रतियोगी को पीट भी सकते हैं। अभी हाल ही में नाइन एक्स चैनल पर एकता कपूर का कार्यक्रम कौन जीतेगा बालीवुड का टिकट का कार्यक्रम चल रहा था। कार्यक्रम बस चल ही रहा था कि उसकी टीआरपी अचानक बढ़ गई वजह वही पुरानी कार्यक्रम में जज की भूमिका निभाने वाले चेतन हंसराज ने एक लड़के को पीट दिया। इसी तरह का एक और रोमांच एक बंगाली टीवी चैनल के रियलिटी शो में हुआ। यह मामला कोलकता की 16 वर्षीय दसवीं की छात्रा शिंजिनी सेनगुप्ता का था। उसे जज ने डांट लगाई और उसकी हालत बिगड़ गई। यह मामला पूरे देश में चैनलों के लिए हॉट न्यूज बन गया।
सवाल यह भी है कि प्रतियोगी को किस बात की सजा दी जा रही है? उनकी यह हालत सिर्फ इसलिए हो रही है कि वे प्रतियोगिता का हिस्सा हैं या नीरसता भरा कार्यक्र म इस तरह के ट्विस्ट से मसालेदार हो जाएगा।
इस चकाचक रियल्टी शो के जजों ने आपसी भिड़ंत क रके भी ऐसे कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ाई हैं। अधिक पीछे जाने की जरूरत नहीं है, 2007 में सा रे गा मा पा के रियल्टी शो में संगीतकार अनु मलिक और गायिका आलिशा चिनॉय के बीच ऐसी ही नोंकझोंक हुई थी वजह आलिशा के पसंदीदा प्रतियोगी को बाहर कर दिया गया था। वॉयस ऑफ इंडिया में बखेड़ा खड़ा करने के उस्ताद हिमेश रेशमिया ने अपने बड़बोलेपन से कार्यक्रम की टीआरपी बरकरार रखी। इसी तरह ललित सेन और गायक अभिजित के वाकयुद्ध ने कार्यक्रम का मसाला बरकार रखा।
इसके अलावा भी ऐसे कार्यक्रमों में रोचकता पैदा करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। सुस्ती से चल रहे कार्यक्रम में यह दिखाया जाता है कि प्रतियोगी को अपने ही बीच की किसी प्रतियोगी से प्रेम हो जाता है या मंच पर प्रतियोगी अपनी साथी महिला प्रतियोगी को प्रपोज कर देता है, इसे और हॉट बनाने के लिए वह किस भी ले सकता है। इस बात में कितनी रियलिटी होती है यह तो पता नहीं, लेकिन कार्यक्रम का एंकर इसे इस अंदाज में प्रस्तुत करता है जसे यह कार्यक्रम का आवश्यक अंग हो।
आजकल छोटे-बड़े सभी चैनल इस तरह के रियलिटी शोज को बढ़ावा दे रहे हैं। झलक दिखला जा, उस्तादों के उस्ताद, छोटे उस्ताद, लिटिल चैंप इत्यादि। यही नहीं अब कार्यक्रम मे रोमांच से भरने के लिए अक्षय कुमार जसे फि ल्म स्टार भी खतरों के खिलाड़ी कर रहे हैं। अगर इन रियलिटी शो को गौर से देखा जाए तो इनमें आने वाले जज भी लगभग वही होते हैं जो पहले के कार्यक्रमों में आए हुए होते हैं। कुछ संगीत गुरुओं के नाम इस प्रकार हैं- इस्माइल दरबार, आदेश श्रीवास्तव, ललित सेन, विशाल- शेखर, प्रीतम आदि लेकिन सबकी महागुरू आशा भोंसले।
इसके पीछे भी मामला टीआरपी का है। ऐसा लगता है कि जो गुरु जितना अधिक विवाद खड़ा करेगा उसे उतनी ही बार जज बनाया जाएगा। और जब दो महारथी संगीत के विश्व युद्ध में लड़ेंगे तो लोग देखेंगे ही।
पर्दे के पीछे की दुनिया भी वास्तविक दुनिया में चमक ला सकती है। बिग बॉस ने शिल्पा शेट्टी खास सेलेब्रेटी बना दिया। लेकिन सबकी किस्मत शिल्पा जसी नहीं है। इंडियन आइडल अभिजीत सावंत फिर किसी स्टार के रूप में नहीं दिखे। अमूमन यही हाल बाद के स्टार प्रतियोगियों का भी रहा।
अब रियलिटी शो का मतलब वाक् युद्ध, प्रतियोगियों की मोहब्बत, तिजारत, रूठना, मनाना, इश्क, मुश्क, गुरुओं का किसी प्रतियोगी पर अपार स्नेह, अनावश्यक टीका टिप्पणी। लेकिन सबकुछ प्रायोजित। चटकारा। एकदम मसालेदार। और जब इतना कुछ एक कार्यक्रम में मिलेगा तो दर्शक निहारेगा ही।
अभिनव उपाध्याय

विनाश काले विपरीत बुद्धि


विनाश काले विपरीत बुद्धि
हे लक्ष्मी मइया पधारो मेरे धाम, स्वागत है। हम आपका अपमान कतई नहीं करेंगे। बुरा हो सांसदों का आपको सबके सामने उछालते हैं और कहते हैं कि आपसे उनका कोई वास्ता नहीं है। जसे जीते लकड़ी मरते लकड़ी जरूरी है उसी तरह बिन लक्ष्मी सब सून। सुन ले माई सुन ले चवन्नी की अरज सुन ले। सहीराम गुजर रहे थे कि देखा चौधरी चवन्नी अगरबत्ती जलाकर लक्ष्मी जी की पूजा कर रहे थे। गौरतलब है कि चौधरी चवन्नी यूं तो बेइमान पार्टी के नेता हैं लेकिन राजनीति की आर्थिक दृष्टि से समीक्षा करने के लिए जाने जाते हैं।
सहीराम पूछ बैठे, चवन्नी जी सुना है सांसदों ने सरकार के पक्ष में वोट देने के लिए पैसा लिया था? चवन्नी जी मंद मुस्कान और तिरछी तकान से बोले- सहीराम जी, रह गए ना सीधे के सीधे। अरे संसद तक पहुंचने के लिए कम पापड़ बेलने पड़ते हैं और रोज-रोज थोड़े ही बिल्ली के भाग्य से छींका टूटता है। बहती गंगा में हाथ धो लेा भाई फिर ना जाने कब मौका मिलेगा।
हमें तो तरस आता है उन सांसदों पर जिन्होंने माता लक्ष्मी का अपमान किया। वो भी सनसनी फैलाने वाले चैनलों के सामने। मुंह लजाकर रह जाता है और सोचकर बुद्धि भी चकरिया जाती है कि कैसे हैं अपने भाई-बंधु। अब आप ही बताइए नेता की कोई जाति होती है अगर ऐसे होगी बिना मुद्रा के पालिटिक्स तो राजनीति का भाग्य तो रसातल में जाएगा ही। जाने कैसे टिकट पा गए मूरख जपाट। अरे, जब लक्ष्मी मेहरबान थी तो सबके सामने छाती पीटकर बताने की क्या जरूरत थी, चले थे बड़के राजा हश्चिन्द्र बनने। दबा लेते अगल-बगल कौन देख रहा है। और यह संसद है, कोई देख भी लेता तो क्या। संसद ने सबकुछ देखा, ये भी देख लेती। लेकिन नहीं, पार्टी भक्ति चरचराई थी। सरकार रोज-रोज थोड़े ही अल्पमत में आती है लेकिन क्या करें सहीराम जी विनाश काले विपरीत बुद्धि। मैंने तो बड़ी कोशिश की थी कि चुनाव जीत जाऊं लेकिन लटक गया। बस जान जाइए कलेजा कचोट कर रह जाता है ऐसे अवसर देखकर।
इस लम्बे उत्तर के बाद सहीराम ने पूछ लिया, वामपंथियों के बारे में क्या खयाल है? मैं तो उन्हे पूरे सावन भर रात्रिभोज कराऊं। इस अल्पमत वाले ड्रामे के सूत्रधार अपने करात भाई तो थे ईश्वर उनकी सत्ता पक्ष से भी दुश्मनी बरकरार रखें। काश मेरे समय तक भी सरकार एकाध बार अल्पमत में आ जाती तो खुदा कसम जितना पैसा वोट पाने में लगाता उससे कई गुना एक वोट देने में वसूल कर लेता, काश..., कहकर चौधरी चवन्नी रुक गए उनके चेहरे पर संसद तक न पहुंच पाने की निराशा थी। सहीराम अभी कुछ पूछना चाहते कि उन्होंने कहा कि उन्हे अगले चुनाव की तैयारी करनी है और उनके पास जरा भी समय नहीं है।
अभिनव उपाध्याय

पिछलग्गू लेखक

पिछलग्गू लेखक

सहितस्य भावं साहित्यं- हम तो सबके हित की बात लिखते हैं और हमेशा इस चीज का ख्याल रखते हैं कि समाज का अहित कभी न हो, चाहे सरकार गिरे या ठहर जाए, चाहे बाबा बर्फानी पिघले या जम जाएं, चाहे कश्मीर जले या बुझ जाए, चाहे सेतु समुद्रम में सुनामी आए या वह सूख जाए। हम हमेशा इसमें पब्लिक को हित देखकर किसी न किसी विषय पर लिख ही देते हैं। ये सारी बातें पिछलग्गू लेखक संघ के नवनिर्वाचित अध्यक्ष नकलचीराम सहीराम से बड़े ही गौरव की मुद्रा में कह रहे थे। दरअसल नकलची राम की रचनाएं किसी न किसी बड़े लेखक की नकल होती हैं लेकिन नकलची राम इसे पूरी तरह चौबीस कै रेट का प्योर गोल्ड मानते हैं। सहीराम ने सोचा क्यूं न आज इनसे साहित्यिक उपलब्धियों की चर्चा की जाए। पूछ लिया, इधर कोई नई किताब लिखी है? इधर-उधर क्या हम तो हर हफ्ते कोई न कोई किताब टीप ही देते हैं वो भी पूरी प्योर, हाइब्रिड एकदम नहीं। अभी पिछले दिनों मेरी एक किताब दि लॉस्ट मुगल एण्ड फर्स्ट दुग्गल चर्चा में रही। दि लॉस्ट मुगल तो सुनी हुई पुस्तक लग रही है लेकिन फर्स्ट दुग्गल कौन है? ये हमारे पैसे वाले पड़ोसी हैं जिनकी दिली ख्वाइश थी कि उनके ऊपर एक पुस्तक लिखी जाए सो मैंने उनकी आखिरी इच्छा पूरी कर दी। इस किताब की उपलब्धि ने तो मुङो अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचाया है।
अच्छा, अपनी कुछ और रचनाओं के नाम बताएंगे? बता तो दूंगा लेकिन प्लीज पलट कर सवाल मत कीजिएगा। कुछ चर्चित पुस्तकें इस प्रकार हैं- विष्णु भट्ट की आत्मकथा और चिरौंची लाल की व्यथा, कितने पाकिस्तान जितने हिन्दुस्तान, गुनाहों का देवता दैत्यों की उदारता, ए ट्रेन टू पाकिस्तान एण्ड ए प्लेन टू कब्रिस्तान और भी बहुत सी हैं बताने लगूं तो शाम हो जाएगी। वैसे आप इतना जान जाइए कि शायद ही कोई विषय हो जिस पर मेरी लेखनी ने मैराथन दौड़ न लगाई हो। सहीराम ने कहा कि नकलची राम जी आप की पुस्तकों का पहला नाम किसी न किसी बड़े लेखक की किताब के शीर्षक से मिलता है। देखिए सहीराम जी, मैंने पहले ही कह दिया था कि आप कोई सवाल नहीं करेंगे नकलची राम ने आंख तरेर कर कहा। जो चाहे वो लांछन लगा दिया, लोकतंत्र का इतना फायदा मत उठाइए। सरकार समङो हैं क्या कि जिसका मन हुआ मुंह उठाकर बड़बड़ा दिया और कोई कुछ नहीं कहेगा। सहीराम ने उनको खुश करते हुए कहा कि मुझे आपकी प्रतिभा पर शक नहीं है। अच्छा एक बात बताइए कैसे लिख पाते हैं इतना सबकुछ? यह राज की बात है प्रॉमिस करिए किसी से बताइएगा नहीं, चलो भाई प्रॉ.. है। कट-कॉपी-पेस्ट उसके बाद हमारा रेस्ट पब्लिक कहती है ये है नकलची राम का बेस्ट। वैसे सहीराम जी मैं एक नई किताब लिखना चाहता हूं सहीराम संग नकलचीराम।
अभिनव उपाध्याय

भाईगिरी संग गांधीगिरी

भाईगिरी संग गांधीगिरी
धंधे की क म्पटीशन और आए दिन हो रहे नए लोचे से परेशान होकर अब भाई लोगों का धंधा मंदा चल रहा है। दादा लोग धंधागिरी के साथ चमचागिरी भी कर रहे हैं। आजकल सभी भाई लोग मुम्बई से लेकर दुबई तक परेशान हैं। यह बात सुलेमान भाई ने जब्बार भाई से कही। बोला, भाई ! आजकल धंधे में कोई भी डांट देता है, पुलिस ने भी हफ्ता बढ़ा दिया है। नए-नए छोरे खुद को भाई कह रहे हैं। इन मुश्किलों को ध्यान में रखते हुए सभी छोटे, बड़े, मझले भाइयों ने एक मीटिंग बुलाई है। इसमें कोई न कोई रास्ता निकाला जाएगा। मीटिंग शुरू हुई। जंगी कसाई ने कहा हमें कोई दूसरा रास्ता निकालना चाहिए जिससे पब्लिक हमें के वल भाई न समङो, कभी धंधा मंदा पड़ जाय तो हम पालिटिक्स या फिल्म टाइप लाइनों में भी हाथ आजमा सकें।
कुछ बुद्धिजीवी भाइयों ने विश्व में आई आर्थिक मंदी पर चिंता जताई और कहा कि आजकल जिस तरह पुलिस और प्रशासन ने सख्ती और वसूली बढ़ा दी है। उससे तेजी से उभरते हुए इस कारोबार पर खतरा मंडराने लगा है। हम दुर्गा पूजा, रोजा इफ्तार पार्टी से लेकर राजनीतिक पार्टियों को चंदा देते हैं लेकिन मौके पर सभी हमसे मुंह फेर लेते हैं। इस सभा में थोड़े पढ़े-लिखे लिखे इस्माइल भाई ने गले से रुमाल की गांठ खोलते हुए कहा कि भाई जान हम लोग अब गांधीगिरी करेंगे। पास में बैठे खुंखार सिंह ने कहा पागल हो गया है क्या अब पिस्तौल की जगह पिचकारी पकड़ेगा क्या? या धंधे में तेरी नीयत बदल गई है। कहीं तू पुलिस का चमचा तो नहीं, बोल नहीं तो अभी टपका दूंगा। इस्माइल ने संभलते हुए कहा खुदा कसम, भाई पहले हमारी बात सुनो चाहे बाद में खल्लास कर देना। तब खुंखार सिंह ने कहा सुनो भाई लोग अपुन लोग को इस्माइल एक आइडिया देने वाला है कुछ गांधीगिरी टाइप। सब दौड़कर सुनने आए। इस्माइल ने कहा अब हम किसी को टपकाएंगे तो उसकी मजार पर फू ल भी चढ़ाएंगे, किसी का थोबड़ा उड़ाएंगे तो उसे हास्पीटल भी ले जाएंगे। लूट का एक हिस्सा मरहम पट्टी के लिए लोगों में बांट देंगे। इससे पब्लिक में पापुलरिटी बढ़ेगी और हमारी इमेज एक लवली भाई लोगों की तरह हो जाएगी। इससे धंधा मंदा पड़ने पर भी हम लोग चुनाव वगैरह में हाथ आजमा सकते हैं। खूंखार ने पूछा ये अकल कहां से आई रे। स्माइल ने मुस्कुरा कर कहा, सरकार से। सरकार पहले बाढ़ आने को इंतजार करती है फिर राहत की घोषणा मतलब पहले मुसीबत पैदा करो बाद में समाधान। मतलब पहले भाईगिरी फिर गांधीगिरी।
अभिनव उपाध्याय

हिन्दी पखवाड़े का हिंग्लिश भाषण

हिन्दी पखवाड़े का हिंग्लिश भाषण
बैंकों, अस्पतालों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों में हिन्दी पखवाड़े की धूम देखकर हिन्दी उत्थान समिति के अध्यक्ष और स्वनाम धन्य साहित्यकार सनेही सुकुल लम्ब्रेटा ने एक ऐसा ही आयोजन कराने का मन बनाया। जब सहीराम ने उनसे पूछा कि नाम के पीछे लम्ब्रेटा क्यों लगाते हैं तो वो मुस्कु राते हुए कह देते, इससे स्मार्टनेश थोड़ी बढ़ जाती है और कोई खास बात नहीं है। लेकिन ये स्मार्टनेश उनके वक्तव्यों में भी दिखाई देती है। प्रस्तुत है हिन्दी उत्थान समिति की बैठक में उनके दिए गए भाषण के कुछ अंश-
डियर लिसनर! हमारी हिन्दी निरंतर आगे बढ़ रही है। शायद यही कारण है कि विदेशी लोग हमारी भाषा की स्मग्लिंग कर रहे हैं। हिन्दी के साथ रहना मिंस, इट विल बी ए रियल स्पिरिचुअल एक्सपिरिएंस। लेकिन हिन्दी की कंडीशन आजकल कुछ बिगड़ गई है। इसका सबसे अधिक नुकसान लिटरेचर के तिलचट्टों ने किया है। हिन्दी इंफे क्शन से ग्रस्त है उसे अंग्रेजी के एंटीबायटिक की आवश्यकता है। साहित्यकार रूपी डॉक्टर इसका एमआरआई, सीटी स्कैन, ईसीजी कराकर रोज नए इंजेक्शन लगाकर इसके साथ एक्सपेरिमेंट कर रहा है।
लेकिन एफएम चैनल वालोंे ने हिन्दी की प्रगति में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। म्यांऊ -च्यांऊ एफएम की एंकर तो प्योर इंग्लिश बोलते-बोलते आहिस्ते से सीरियस हिन्दी बोल देती है। यह फीलिंग कुछ ऐसी ही है जसे बर्गर चबाते-चबाते अचानक रसगुल्ला मुंह में आ गया हो और हिन्दी का कद फाइव गज उठ जाता है।
आइ एम रियली थैंक्स टूडेज हीरोइन्स बिकाज, ये हिन्दी फिल्मों की नायिकाएं अंग्रेजी में इंटरव्यू देते-देते जब हिन्दी में मुस्कुरा देती हैं तो एक बार में लाखों लोगों को इससे सीखने को मिलता है और हिन्दी को फोर मून (चार चांद)लग जाता है। हिन्दी फिल्मों में भी टाइटल आधा इंग्लिश में रखने का चलन है जसे दिल दोस्ती ईटीसी, जब वी मेट, किस्मत कनेक्शन, सिंह इज किंग और न जाने कितनी फिल्में अंग्रेजी नाम को पीछे और हिन्दी नाम को आगे रख रही हैं।
हमें अपने बड़ों से कुछ सीखना चाहिए। मुङो याद है वो दिन जब हमारे इंग्लिश के टीचर इंग्लिश गाली इडियट, नानसेंस, डफर कहते-कहते चोट्टा, नालायक और बेवकूफ पर आ जाते थे उनका हिन्दी प्रेम देखकर आंख भर आती है। सच ये उनका हिन्दी के साथ प्यार ही था, एकदम ट्रू लव।
साथियों! हिन्दी के डेवलपमेंट के लिए एक बात और, आप इंग्लिश की डिक्शनरी हमेशा साथ रखें, सीने से चिपका कर रखें। हिन्दी के विकास के लिए जरूरी है कि आप अपना डेली वर्क भी हिन्दी में करें। लंच, डिनर, लव, अफे यर्स, गुटुरगूं, मार-पिटाई, गाली-गलौज ऑल वर्क हिन्दी में ही हो, और हां पड़ोसी से रिक्वेस्ट करें कि प्लीज मेरी हिन्दी गाली का जबाव भी हिन्दी में ही दें। सरकार भी इस मामले में ठोस कदम उठाए जो हिन्दी में नहीं बोलेगा पर वर्ड सवा रुपए जुर्माना।
भाषण खत्म होने पर सहीराम ने पूछ लिया आप पर कितना जुर्माना लगे?
अभिनव उपाध्याय

सखी री मैं पनिया भरन नहीं जाऊं

सखी री मैं पनिया भरन नहीं जाऊं
चाहे गंगा हो या गोमती, चाहे कोसी हो या सरयू आजकल नदियों में न जाने क ौन सी दीवानगी छाई है कि बढ़ती ही जा रही हैें। लेकिन यमुना समझदार है इसे पता है कि कृ ष्ण जन्माष्टमी बीत चुकी है, चतुर, चितवन, चितचोर ने अपना चरण स्पर्श करा दिया है या कोई सरकारी आश्वासन टाइप कुछ मिल गया है कि मान जाओ हिमालय पुत्री चुनाव करीब है। हमें तुम्हारे सेहत का ख्याल है इस बार दिल्ली को थोड़ा बख्श दो, अगली सरकार बनते ही हम तुम्हारी आखिरी इच्छा पूरी कर देगें। और यमुना जी मान भी गई। थोड़ी गर्जना और थोड़ी सरकार के सुरक्षा उपायों की पोल खोल कर शांति के साथ बहने लगी।
मामला अटका है सरयूू का यूपी सरकार ने उन्हे कोई आश्वासन नहीं दिया है। सरयू जी नें भी अपनी दलील रखी कि हम राम की जन्मभूमि के पास से गुजरते हैं हमारा महत्व यमुना से कम नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने दो टूक जवाब दिया, देखो, राम और जन्मभूमि यह बीजेपी का मसला है इसका दलितों की चेतना से कोई वास्ता नहीं है प्रधान मंत्री बनने दो तब कुछ सोचूगीं फिलहाल राहत कार्य बढ़ाने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकती।
बिहार में कोसी की हालत कुछ और ही है। कोसी भी सरकार को दोषी मानकर कोस रही है। ठीकठाक बह रही थी कोसी लेकिन सरकार की दरार बांध में दिखने लगी। सरकार तो चल रही है लेकिन बांध चल बसा और कोसी की लहरें और भंवर कह रही है हमारी मांगें पूरी करो। सरकार अभी कुछ सोचती आंदोलन और तेज हो गया। अब मामला बस राहत कार्य पर आकर अटका है। कोसी कह रही है मेरी सेहत देखो, तटबंधों को चौड़ा करो, मेरी गाद निकालो। लेकिन खद्दरधारी संत ने कहा चुप रह तुम्हारी दुदर्शा को हम लोग चुनावी एजेंडा बनाएंगें, इसमें विपक्ष को भी घसीटेगें बस एक गुजारिश है तुम और फैलो 15 नहीं 150 गांवों को घेरो, चार लाख नहीं चालिस लाख लोगों को बेघर करो। अरे अच्छा मौका है जनता की सेवा का मइया थोड़ा लूटने दो। नाविक से लेकर ठेकेदार, मददगार सब लूट कर खुश हैं काहे को पेट पर लात मारती हो बढ़ो थोड़ी और बढ़ो। एक मीटर और बढ़ जाती तो मजा आ जाता। कोसी फूल रही है उफना रही है हरहरा रही है। एकदम मदमस्त होकर, घुमड़-घुमड़ कर।
उधर सहीराम के गांव में भादों की रासलीला चल रही है। कलयुगी राधा ठुमक-ठुमक कर नाच रही है और मटका लेकर सखियों के संग गा रही है- सखी री मैं पनिया भरन नहीं जाऊं , ना सूङो पनघट ना सूझे मोहन, मैं बाढ़ देखि डर जाऊं। सखी री मैं पनिया भरन नहीं जाऊं।

Monday, December 1, 2008

पप्पू वोट नहीं देता

पप्पू जीनियस भी है और समझदार भी, यही नहीं वह विभिन्न गुणों से सम्पन्न है। बड़ी मेहनत के बाद पप्पू पास भी हो गया लेकिन परेशानी यह है कि पप्पू वोट नहीं देता। यह रहस्य सबके मन में बना हुआ है कि इस बार पप्पू की मति शायद सुधर जाए और वह इस संवैधानिक अधिकार का लाभ ले ले और किसी प्रत्याशी पर अपनी कृपा दृष्टि बरसा दे, लेकिन पप्पू है कि टस से मस नहीं हुआ। टीवी, रेडियो, अखबार एक तरफ और पप्पू एक तरफ।
ऐसा नहीं कि चुनाव के पहले पप्पू को मनाने की कोशिश नहीं हुई। बड़ा वाला चाकलेट, बढ़िया कपड़ा, जूता यही नहीं प्रत्याशी के साथ उसे हाथी पर बैठाकर घुमाया गया कि शायद ऊंचाई देखकर उसका मन बदल जाए लेकिन पप्पू तो पप्पू ही है। एक दम अड़ियल सांड़ जसा चाहे कुछ भी कहो नतीजा वही...।
सारी कोशिश बेकार, चुनाव से पहले दिन भी पप्पू मजे से टीवी पर मुम्बई में धमाकों की आवाज सुन रहा था। बाबा नारंगी को पप्पू पर कुछ शक हुआ कहीं कोई भूत-प्रेत का चक्कर तो नहीं है, लेकिन ओझा बाबा ने सांप्रदायिकता के मंत्र से ऐसा झाड़ा कि पप्पू का पारा और गरम। नारंगी फिर परेशान कि अब क्या करें, उसे डाक्टर विकराल जी के पास ले जाया गया उन्होंने भी मालेगांव का आला लगाकर उसकी नब्ज टटोली लेकिन पप्पू एक दम सुन्न। यह किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर पप्पू को क्या हो गया है।
एक आखिरी उपाय बचा था कि पड़ोस के बुद्धिमान प्रोफेसर बुद्धिसागर के पास ले जाया जाए तो शायद कुछ बात बन जाए। यह भी आजमाया गया। पप्पू सिर झुकाए खड़ा हो गया। लेकिन पप्पू के पहुंचने का समय गलत था क्योंकि उस समय प्रोफेसर साहब फासीवादी पकौड़े के साथ समाजवादी चाय पी रहे थे। उन्होंने पप्पू को पुचकारा, सिर पर हाथ फेरा बोले ऐसा नहीं करते बेटा वोट देते हैं, देख नहीं रहे हो सभ्यताएं टकरा रही हैं, दुनिया तेजी से बदल रही है। पूंजी प्रवाह असंतुलित है अपने महत्व को समझो। यह लोकतंत्र का महापर्व है, नाचो, गाओ, पटाखे छोड़ो खुशियां मनाओ। इस तरह मुंह नहीं लटकाते लो पकौड़े चख लो। लेकिन पप्पू तो एकदम पप्पू था, भैंस के आगे बीन बजाए भैंस बैठ पगुराय.
अब मामला क्रिटिकल होता जा रहा था। पप्पू घूम-फिर कर फिर टीवी से चिपक गया। खबर दिलचस्प थी, ‘आडवानी नहीं गए मनमोहन के साथ मुम्बई,ज् विज्ञापन था ‘आतंक आखिर कब तकज्, फिर चंचला ऐंकर चिल्ला रही थी, ‘आतंक के साए में मुम्बईज्, विज्ञापन फिर आ गया ‘विकास को वोट दें। लेकिन पप्पू का वोट न देना राज ही रहा।
अभिनव उपाध्याय

Sunday, November 30, 2008

abhinaw

abhinaw

Saturday, November 29, 2008

5-नेता जी आए हैं

5-नेता जी आए हैं
न मुण्डन है न चटावन, न मरसिया है न उठावन, न किसी का जन्मदिन है न मरणदिन, न स्वतंत्रता दिवस है न गणतंत्र दिवस, न नामकरण है न को त्योहार आखिर नेता जी कैसे आ गए। यह आश्चर्य का विषय सहीराम को तब लगा जब उनके पड़ोसी ने घर में आकर कहा की नेता जी आए हैं। सहीराम घर से बाहर निकलते ही नेता चौपटानंदन के समर्थकों ने सहीराम को घेर लिया और नेता जी के समर्थन में जोर-जोर से नारे लगे। नेता जी अपने चुनाव चिह्न् के साथ मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। नेता जी का चुनाव चिह्न सांड़ था लेकिन मौके पर उपलब्ध न होने के कारण वह भैंसे पर बैठकर आए थे। और उसके सींग में झंडों की लड़ी बंधी थी। सहीराम को पहली बार लग रहा था कि अब चुनाव आ गया है। नेता जी के समर्थक निरहू चुनाव चिह्न् वाला झंडा लेकर कर नेता जी का प्रचार कर रहे थे। माइक हाथ में लेकर वह कह रहे थे, विपक्ष के चोले को देगा फाड़, हमारा चुनाव चिह्न् हैं सांड़। भाइयों सांड़ पर मुहर लगाकर देश को भाड़ में जाने से बचाएं।
सभी समर्थक सुरा में मदमस्त होकर प्रचार में लीन थे। लोगों के दुख-सुख, खेत-खलिहान, नात-रिश्तेदार के हाल-चाल पूछे जा रहे थे। जरुरत मंदों को प्यार और गैर जरुरत मंदों पर लक्ष्मी बरसाई जा रही थी। नगाड़ों और ढोल ताशों के बीच कारवां गांव-गांव, गली मुहल्ले, नुक्क ड़, चौराहों से होकर गुजर रहा था इसी बीच उनकी मुठभेड़ विपक्षी पार्टी के नेता सुखभंजन से हो गई।
समर्थकों ने तनातनी शुरू, कट्टे से दनादन फायर, वाक युद्ध जबरदस्त और समर्थक पी कर एकदम मस्त। सुखभंजन के एक समर्थक ने जब ये देखा कि नेता चौपटानंदन चुनाव चिह्न् सांड़ होने के बावजूद भैंसा पर चढ़ कर वोट मांगने आया है, उसने तुरंत नारा दिया। सांड़ नहीं ये भैंसा है इसके पेट में जनता का पैसा है। बस अब मामला गरम हो गया। किसी तरह जब दोनों नेता गले मिले तब जाकर बीच-बचाव हुआ।
लेकिन अब मामला हाईकमान के पास जा पहुंचा था कि प्रत्याशी ने विपक्ष से सांठगांठ कर ली है। नेता जी बुलाए गए। चौपटानंदन ने अपनी बात रखी कि ये सांठगांठ नहीं भविष्य में होने वाले गठबंधन की नींव है। नोंक-झोंेक के बाद जादू की झप्पी का जादू बोला नेता जी पार्टी से पल्टी मारकर विपक्षी का चुनाव प्रचार करने लगे। पार्टी से निष्कासन के बाद भी चौपटानंदन ने चंदे का एक ढेला भी नहीं लौटाया। अब वह मस्तचित्त से सुखभंजन का प्रचार कर रहे हैं। सहीराम ने इस कारनामें का राज पूछा तो उन्होंने बताया कि चुनाव तो हम जीतने से रहे इसलिए चंदा बचाने की यह एक तरकीब थी।
अभिनव उपाध्याय

4-पाड़े कौन कुमति तोहे लागी

4-पाड़े कौन कुमति तोहे लागी
स्वामी दयानंद पांडे उर्फ अमृतानंद उर्फ सुधाक र द्विवेदी इतने नाम मीडिया वालों के लिए हैं। चेला चुरकुन के लिए तो वह केवल पाड़े बाबा हैं। चेला बाबा की हरकत से अचंभित है। वह बाबा से कहता है कि बाबा पैंसठ किलो का गठीला बदन, भभूत, रुद्राक्ष, गटरमाला एकदम चकाचक। सुबह शाम रबड़ी-मलाई, नेता, मंत्री, व्यापारी द्वारा चरणवंदना, तारिकाओं, युवा दासियों और चंद्रमुखियों द्वारा अनवरत सेवा। बैंक एकाउंट मालामाल,सुबह शाम लक्ष्मी जी का साक्षात दर्शन, सैकड़ों एकड़ में फार्म हाउस, लक्जरी गाड़ियां लेकिन पांडे कौन कुमति तोहे लागी कि कट्टा, बम, बंदूक के चक्कर में पड़ गए।
बाबा साधू-संन्यासी तो धुनी रमाते हैं, चिलम चढ़ाकर बम भोले का दर्शन करते हैं। लोगों को ज्ञान का उपदेश देते हैं। भविष्यवाणी करते हैं। बाबा घोंघानंद बताते थे साधू-संन्यासियों को बारूद सूंघने से मूक्र्षा आती है। वह तो कमंडल से प्रसाद बांटते हैं। बाबाओं कि कृपा से न जाने कितनी भक्तिनें साध्वी बन गई। फिर बाबा आपको क्या सूझी कि साध्वी को बम फोड़ने की दीक्षा दे दी। अच्छी भली नारी थी, गाड़ी वाड़ी चला लेती थी कि उसकी भी मति मार दी। अब लोग पुजारिन लड़कियों से भी कतराने लगेंगे।
बाबा किस दुश्मन ने आपको यह सलाह दे दी कि बम फोड़ने का प्रशिक्षण दो। अरे, पहले ऐसे संगठन क्या कम थे जो एक नया स्कूल खोल दिया। अब तो कहीं दूसरे लोग भी बम फोड़ेगें तो तुम भी अंगुलियां उठेगीं।

बाबा धंधा बंद करने का विचार है क्या कि फौजी जसा काम कर रहे हो। मीडिया चिल्ला रही है आठ सौ लोगों को प्रशिक्षण दिया है। सब मार-काट मचाएंगे तो प्रवचन कौन सुनेगा।
पाड़े बाबा अब तो पूरा यकीन हो गया कि तुम्हारी नीयत बदल गई है।
चेला चुरकुन परेशान है वह बाबा की करतूतों पर चौंधिया रहा है उसे समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर क्या हो रहा है। बाबा के जेल में बंद होने से धंधे पर भी असर पड़ रहा है। लोगों को सफाई देते-देते उसका गला सूख रहा है। उसके बाबा की करतूत भी एक चाल नजर आ रही है लेकिन वर्तमान स्थिति से निपटने के लिए वह परेशान है।
वह अपनी व्यथा सहीराम को भी सुना रहा है कि आजकल चुनाव का टाइम है भूले-भटके कितने नेता दर्शन को आते थे, अपनी व्यथा-कथा सुनाते थे। चढ़ावे में मुद्रा चढ़ाते थे। हम लोग भी जश्न में बुलाए जाते थे लेकिन बाबा की करतूत ने हमारी मिट्टी पलीत कर दी। कहीं ऐसा न हो कि हमारी रोजी-रोटी के लाले पड़ जाएं। अब तो ये डर है कि बाबा के चक्कर में हमारी घनचक्कर न हो जाए।
अभिनव उपाध्याय

3-न तीन में न तेरह में

3-न तीन में न तेरह में
सहीराम प्राय: देश की वर्तमान स्थिति पर चर्चा करने अपने पड़ोसी और बुद्धिश्रेष्ठ कहावती राम के पास जाया करते हैं। सहीराम अभी कहावती राम के पास पहुंचे ही थे कि उन्होंने कहा कहो सहीराम दुइज का चांद इधर कैसे। सहीराम ने मुस्कुराते हुए कहा यूं ही आपसे चर्चा करने आ गए। फिर बोले,आजकल एक साध्वी चर्चा का विषय हैं। कहावती राम ने कहा त्रिया चरित्रं दैयो न जाने। महाराष्ट्र की स्थिति कैसी है आजकल क्या हो रहा है? कहावती राम ने कहा बिहारी लोगों को तीनों लोक दिखाई दे रहा है। और वहां की सरकार क्या कर रही है? सहीराम ने पूछा। वह न तीन में है न तेरह में। कहावती राम ने कहा। फिर सहीराम ने पूछा वहां का गृहमंत्री क्या कर रहा है? कहावती राम ने अपने अंदाज में उत्तर दिया, दम नहीं बदन में और नाम जोरावर खां। सहीराम ने फिर पूछा अरे, सुना है लोगों ने राज ठाकरे को बहुत समझाया गया लेकिन.. सहीराम आप भी भला गधा नहलाने से घोड़ा बन सकता है।
सहीराम ने इस पर हुई राजनीतिक परिचर्चा की बात छेड़ दी। लालू और मुलायम ने इस विषय पर तो कुछ बोला है, हां बोला है खग जाने खगही की भाषा। लेकिन इस संबंध में और नेता लोग भी तो बोल रहे हैं सहीराम ने कहा। कहावती राम ने कहा, लोग बोल क्या करे हैं खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।
अच्छा, इस पूरे घटना में बिहारियों की क्या स्थिति है? सहीराम जी स्थिति क्या, बिहारी हो या यूपी के हों कभी घी घना, कभी मुट्ठी भर चना और कभी वह भी मना। बिहारियों की ऐसी स्थिति पर राज को दया नहीं आई? कहावती राम ने कहा दया धरम नहीं मन में मुखड़ा क्या देखेंे दरपन में।
सहीराम ने फिर कहा अरे दिल्ली में भी चुनाव आने वाला है। कहावती राम ने कहा तभी तो कौआ चला हंस की चाल। अच्छा इस बार पार्टियों में कुछ तालमेल होने की आशा है, सुना है अच्छे-अच्छे लोग पलटी मार रहे हैं। कहावती राम ने कहा भाई, धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपदाकाल परखिए चारी।
सहीराम ने फिर हिम्मत करके अमेरिका की विदेशमंत्री कोंडोलीजा राइस के बारे में पूछा कि कहावत राम जी उसके बारे में क्या कहना है? अजी कहना क्या है, न अक्ल, न शक्ल, और इनकी न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी।
एक बात बताइये कहावत राम जी आपको इन सब घटनाओं के बारे इतनी बारीक जानकारी और होने वाली घटनाओं के बारे में इतने भरोसे से कैसे कह देते हैं? उन्होने मुस्कुराते हुए कहा, भाई जान हम तो खत का मजमूं भांप लेते हैं लिफाफा देखकर।
अभिनव उपाध्याय

ये भी ना बड़े वो हैं

2-ये भी ना बड़े वो हैं
लोग अपनी बीवी, बच्चों को क्या क्या का लाकर देते हैं उनकी कोशिश होती है कि क्या खिला दूं क्या पिला दूं और एक आप हैं कि जिसे कोई फिकर ही नहीं। सच में आप भी ना बड़े वो हैं। क्रांतिकारी अखबार के वरिष्ठ पत्रकार घनघोर जी की श्रीमती हर तीसरे यह बात उनसे कहती हैं। उन्हें यह शिकायत हमेशा रहती है कि जब शिवराज पाटिल बम फटने के बाद भी तीन बार कपड़े बदल सकते हैं तो यह ससुराल जाते समय आफिस का कपड़ा पहन कर क्यों जाते हैं। एक बार सखी ने भी अपने घर पर टोक दिया कि, बहन एक बात कहूं बुरा तो नहीं मानोगी, तुम्हारे पति सनकी तो नहीं हैं, उस पर भी वह मुस्कुराकर कह देती है क्या बताऊं सनकी तो नहीं लेकिन, हां जरा वो हैं। कभी-कभी तो लिखने बैठते हैं बच्चों जसे सारे सामान फैला देते हैं। सारा दिन बस सरस्वती की पूजा, कितनी बार कहा कि जरा लक्ष्मी के बारे में सोचो लेकिन ये हैं कि इनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती बस एक धुन कलम, किताब। अरे, लोग पत्रकारिता करते-करते क्या-क्या नहीं बना लेते हैं और ये हैं कि..।
पड़ोस वाले अंकल के जब बुरे दिन थे तो उन्होंने भी एक अखबार पकड़ा था और इतना कस कर पकड़ा कि आज तक चांदी ही चांदी है। कितनी बार कहा कि मेरी नानी कहती थी कि लक्ष्मी और सरस्वती में छत्तीस का आंकड़ा चलता है। न जाने किसने कह दिया कि पत्रकार बनो। मुङो भी एक बार यह नशा चढ़ा था वो तो मामा ने कह दिया कि बेगार, बेकार और पत्रकार एक जसा ही समझो तभी से नशा उतर गया। पापा को भी जाने क्या सूझी जो..। घनघोर जी की पत्नी अपनी रौ में ये बातें कही जा रही थी कि सहेली ने उन्हे एक गिलास पानी लाकर दिया पानी क्या मिला बैट्री फिर चार्ज हो गई और शुरू हो गई, हां तो मैं कह रही थी अरे लिखना-पढ़ना कामचोरों का काम है। प्रापर्टी डीलिंग करते, कुछ तीन-पांच करते तो शायद दीवाली तक लक्ष्मी मेहरबान हो जाती लेकिन ये भी ना हरिश्चंद के चाचा बनते हैं। सहेली ने आग में घी डालते हुए कहा, इस बार दशहरे में साड़ियों की लम्बी सेल लगी थी साढ़े पांच हजार की साड़ी साढ़े तीन हजार में मिल रही थी वो भी एकदम बनारसी। अब क्या था, पत्नी भी घनघोर पर बिजली बन कर टूटी, बोली इस बार दीवाली तक एक बनारसी साड़ी आनी चाहिए। घनघोर जी को कुछ न सूझा इस बार सरकार की तरह आश्वासन दिया, केवल एक साड़ी, हम तो इस बार एक दर्जन लेने की सोच रहे थे। पत्नी को विश्वास नहीं हो रहा था उसने मुस्कुराते हुए कहा आप भी ना बड़े वो हैं।

turki-ba-turki-बिन आफर सब सून

1-बिन आफर सब सून
त्योहार क्या आया बाजार में आफरों की झड़ी लग गई। ऐसा लगता है त्योहार और आफर का चोली-दामन का साथ है। मतलब बिना आफर के त्योहारों की मर्यादा को भारी ठेस पहुंचती है। ऑफर भी ऐसे की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। कुछ सशर्त और कुछ बेशर्त। लेकिन अधिकतर कंडीशन अप्लाई। आजकल दुकान ग्राहक पर अपना सब कुछ न्यौछावर करने को आतुर हैं। कुछ ऑफर ऐसे हैं कि आप विश्वास नहीं कर सकते हैं। जसे एक दुकानदार टोपी के साथ जकेट फ्री देना चाहता है उनका पड़ोसी टाई के साथ सूट भी फ्री देने को उतावला है। उसी तरह कुर्सी के साथ डाइनिंग टेबल फ्री है। और बर्तन वाला चम्मच के साथ कढ़ाई। इन सारे विज्ञापनों के कोने में धागे जसा चिपका है शर्तें लागू।
सहीराम के फेमिली डाक्टर खुराफाती जी ने अपनी दुकान चमकाने के लिए एक बड़ा विज्ञापन दिया, आपके शहर में पहली बार मोतियाबिंद के आपरेशन के साथ किडनी का आपरेशन मुफ्त, पथरी के साथ हृदय का आपरेशन बिल्कुल फ्री। पहले इलाज कराएं फिर पैसे दें। यह विज्ञापन देखकर सब चौंक गए। अब हलवाई चिरौंजी राम ने भी इसी टाइप एक विज्ञापन दिया लड्डू के साथ काजू की बर्फी मुफ्त। कोने में फिर वही धागे जसा लिखा शर्तें लागू।
शहर में कई दिनों से अपने धंधे में मंदी की मार झेल रहे तांत्रिक बाबा खान बंगाली को भी यह आइडिया आया क्यों न एक चमत्कारिक विज्ञापन बनवाया जाय। उन्होंने अपना विज्ञापन कुछ इस तरह दिया- शक्ति का चमत्कार देखें अपनी आंखों से मात्र आठ घंटो में। लव मैरिज, मनचाहा वर, वशीकरण स्पेशलिस्ट, गृह कलेश, जादू-टोना, देश विदेश की यात्रा में रुकावट, पति-पत्नी में अनबन, सौतन और दुश्मनी से छुटकारा, दीवाली में धुंआधार धन की बारिश के साथ ए टू जेड हर तरह की समस्या के लिए पधारें। एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें आपके शहर में बावन साल के तजुर्बेकार बाबा खान बंगाली। इसके बाद मोटे अक्षरों में ट्विस्ट दीपावली के शुभ अवसर पर काम के बाद फीस। यहां भी कोने में छोटा सा, पतला सा, प्यारा सा और लगभग अदृश्य लिखा था शर्ते लागू।
इस आफर लहर का असर नेता जगत राम पर भी पड़ा उन्होने तुरंत पार्टी हाई कमान को लिखा महोदय पार्टी को सुदृढ़ बनाने के लिए कृ पया आफर योजना को प्रसारित किया जाए। महोदय मेरा सुझाव है कि इस बार पार्टी टिकट देने से पहले उम्मीदवारों को यह आफर दे कि जो भारी मतों से जीतेगा उसे अगली बार मुफ्त में टिकट दिया जाएगा। और जो हारेगा उसे भी निराश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि उसे पार्टी हाईकमान किसी न किसी विभाग का चेयरमैन बना देगी। इससे उनका मनोबल नहीं गिरेगा।
अभिनव उपाध्याय

1984 sikh riot victims-मैं ट्रांसपोर्टर बनना चाहता था

10-सुरजीत सिंह
मैं ट्रांसपोर्टर बनना चाहता था
पहले त्रिलोक पुरी में रहने वाले सुरजीत सिंह सरकार द्वारा आवंटित मकान संख्या सी-49 ए तिलक विहार में रहते हैं। पेशे से आटो चालक 36 वर्षीय सुरजीत सिंह ने दंगो में अपने पिता और सगे संबंधियों समेत कुल 18 लोगों को खो दिया।
उस समय अपनी अवस्था के बारे में बताते हुए सुरजीत कहते हैं कि ‘इस दंगे ने हमें मानसिक रूप से काफी परेशान किया एक तरह से वह हमारा बचपन था। हमने जो बचपन में देखा उसका हमारे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा। अगर ये हादसा हमारे साथ नहीं होता तो शायद मैं ट्रांसपोर्टर होता। क्योंकि मैं ट्रांसपोर्टर बनना चाहता था।ज्
उनका गुस्सा जितना दंगाइयों को लेकर है उतना प्रशासन को लेकर भी है। क्योंकि उनका कहना है कि ‘यह हादसा बिना सरकारी शह के नहीं हुआ। इस पूरे प्रकरण में पुलिस मूक दर्शक बनी रही। उन्होंने पुलिस पर आरोप लगाते हुए कहा कि पुलिस जानबूझ कर दंगाइयों को बढ़ावा दे रही थी।ज्
उनका कहना है कि अपनी आंखों के सामने अपने परिजनों का दुर्दशा देखना काफी दुखद था। वह इस समय आटो चलाते हैं उनका कहना है कि ‘अगर ऐसे हादसे नहीं होते तो आज हमारी स्थिति शायद इससे बेहतर होती। क्योंकि हमारी जिम्मेदारी हमारे पिता जी पर थी और पिता जी के न रहने पर यह मेरी मां पर आ गई । हम दो भाई और एक बहन थे। मां को सरकार ने एक अस्पताल में चपरासी की नौकरी दे रखी थी। शुरू में यह नौकरी हमारी रोजी-रोटी का साधन बना क्योंकि हम लोग छोटे थे इसलिए नौकरी नहीं कर सकते थे।ज्
उनका कहना है कि ‘जब मां की तनख्वाह कम पड़ने लगी और हमारी जरूरतें बढ़ने लगी तभी से मैं काम की तलाश करना शुरू कर दिया। चूंकि बहुत पढ़ा नहीं था इसलिए अच्छी जगह पर नौकरी नहीं मिली लेकिन हां काफी तलाश के बाद एक कंपनी में डाई फीटर का काम किया।
मां नौकरी के बाद भी प्राइवेट काम करती थी। हमने काफी मेहनत करके अपने भाई-बहन को पढ़ाया लिखाया। 1996 में मेरी भी शादी हो गई जिससे खर्च और बढ़ गया। इसलिए किराए का आटो चलाना शुरू कर दिया। अब रोज का ताजा कमाना और ताजा खाना।
उनको सरकार को लेकर नाराजगी है कि सरकार जिसे सरकारी सहायता कहती है वह एक आदमी की एक महीने की कमाई से भी कम है क्योंकि यह जितने समय बाद मिली है उससे अधिक उसका वेतन हो जाता। यही नहीं उन्होने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि ‘जिस सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर और एचकेएल भगत ने हमारा घर उजाड़ा सरकार उन्हें प्रश्रय दे रही है। यह हमारे घावों पर नमक छिड़कने जसा है।ज्
यह पूछे जाने पर कि जो सरकारी सहायता मिली उसका उपयोग आपने किस तरह किया?
उनका कहना है ‘उससे हमें काफी राहत मिली, मेरी बहन की शादी उन्ही पैसों से हुई। लेकिन वह सरकार से और सहायता की उम्मीद भी करते हैं जिससे वह अपनी आटो खरीद सकें । उन्हे यह भी अफसोस है कि अगर मैं इस हादसे से प्रभावित नहीं होता शायद एक ट्रांसपोर्टर होता।

मैं असुरक्षित नहीं हूं

9-वजीर सिंह
मैं असुरक्षित नहीं हूं
तिलक नगर में रहने वाले वजीर सिंह अब प्रापर्टी डीलिंग का काम करते हैं। 84 के दंगों को याद करते हुए वह कहते हैं कि वह एक भयानक हादसा था जिसने हम सबको हिला दिया, कुछ दिनों के लिए हम अर्श स्ेा फर्श पर आ गए थे। लेकिन अपनी मेहतन और लगन से आज हम अच्छी स्थिति में हैं।
उन दिनों को याद करते हुए 43 वर्षीय वजीर सिंह का कहना है ‘उस समय वह अपने परिवार के साथ त्रिलोक पुरी 32/15 में रहते थे। घर का खर्च चलाने के लिए बस कुछ भी कर लेते थे। अधिक शिक्षा न होने के कारण कोई बड़ी तनख्वाह का नहीं मिलती थी। 1 नवम्बर 1984 को जब दंगे की शुरुआत हुई उस समय मैं कैपको इंजीनियरिंग वर्क्‍स पटपड़गंज में इंजीनियरिंग का काम करता था। जब हम लोग ड्यूटी पर जा रहे थे उसी समय दंगाइयों ने रोका। उसके बाद दंगाइयों ने फैक्ट्रियों में आग लगाना शुरू कर दिया।
यह दौर वास्तव हमारे परिवार के काफी मुश्किल था क्योंकि डर के कारण हम सहमें हुए थे और काम पर भी नहीं जा रहे थे। लेकिन दो नवम्बर हमारे लिए तबाही लेकर आया इस दिन दंगाइयों ने हमारे परिवार को तबाह कर दिया इस दंगे में हमारे कुल 15 सगे संबंधी मारे गए। हमारे पड़ोसियों से हमें काफी सहायता मिली। उनका कहना है कि यह सच है कि दंगों में सबसे अधिक मार-काट निचली जातियों के लोगों ने किया। फिर भी वजीर सिंह का कहना है कि ‘मैं प्रकाश हरिजन का शुक्रगुजार हूं जिसने मेरी जान बचाई। जब लोगों को इसके बारे में पता चला तो लोगों ने उसे भी धमकाया। फिर हमें दूसरी जगह शरण लेनी पड़ी। मेरी बुआ ने मेरा बाल काट दिया।ज्
पहली बार दंगे में सेना के साथ तोप सड़कों पर चली। सेना के आ जाने से हमें काफी राहत हुई। उन्होंने आरोप लगाया कि ‘उस समय उनके इलाके के एमपी एचकेएल भगत थे लेकिन उन्होंने हमारी तनिक भी सहायता नहीं की। हमें मिलिट्री फर्श बाजार कैंप ले गई। जहां पर हमें खाना-पानी और सुरक्षा मुहैय्या कराई गई।ज् उन्होने उस समय के काउंसलर के ऊपर भी आरोप लगाते हुए कहा कि ‘उसने कल्याणपुरी में खड़ा होकर दंगा करवाया।ज्
यह पूछे जाने पर कि कैसे बीता यह मुश्किल भरा दौर, उनका कहना है कि ‘सब वाहे गुरू की कृ पा की है उन्होने ही हमें शक्ति दी। हमारा लगभग सब कुछ लुट गया था अब हमें फिर से एक नई शुरूआत करनी थी और हमने इस चुनौती को स्वीकार किया। सबसे पहले हमने किराए का आटो चलाया यह काम हमने सात साल किया। लेकिन इससे मिलने वाले पैसों से घर की गाड़ी मुश्किल से चल पा रही थी। फिर स्पेयर पार्ट्स की दुकान खोली। लेकिन इसमें भी कोई खास मुनाफा नहीं हो पा रहा था। इसी बीच हमारी शादी हो गई इससे जिम्मेदारी और बढ़ गई। अब हमने राजस्थान जो हमारा पैतृक गांव था वहां की जमीन बेंच दी और प्रापर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया। इसमें हमें थोक मुनाफा होने लगा। तब से यही काम करता हूं।ज्
वह आगे कहते हैं कि आज मैं अपने को असुरक्षित महसूस नहीं करता हूं क्योंकि सबसे मेरे अच्छे संबंध हैं। और हमारी कोशिश भाईचारा बनाने की रहती है।

हम अखंड भारत चाहते हैं

8-धनवंत बिंद्रा
हम अखंड भारत चाहते हैं
1984 के दंगों को याद करते हुए टी-26 मस्जिद लेन निवासी धनवंत सिंह बिंद्रा बताते हैं कि उस समय वह वेस्टन कंपनी में सर्विस मैनेजर थे। वह बताते हैं कि ‘हमें पता चल चुका था कि इंदिरा गांधी को गोली मारी जा चुकी है। उस दिन कंपनी में पहले ही छुट्टी हो गई थी। स्थिति के बारे में बस लोगों से ही सुन रहा था। घर के लोगों की चिंता सता रही थी। किसी तरह घर आया वहां पता चला कि पिता जी मेडिकल में एक रिश्तेदार को देखने गए हैं। मुङो उनकी फि क्र सताने लगी। मैं फौरन पिता जी को देखने मेडिकल की तरफ भागा। जब कोटला के पास के पास पहुंचा तो पता चला लोग सिखों को देखकर भगा दे रहे हैं। सफदर जंग चौराहे पर राष्ट्रपति ज्ञानी जल सिंह की गाड़ी पर पथराव हुआ इससे स्थिति और गंभीर हो गई पहली बार ऐसा लगा कि अब राष्ट्रपति भी असुरक्षित हैं। वहां जाने पर पता चला कि पिता जी सुरक्षित घर जा चुके हैं।ज्
31 अक्टूबर को ही स्थिति तनाव पूर्ण हो गई थी। टिंबर मार्के ट की दुकानों को लोग लूट रहे थे और जला रहे थे। बाकी दुकानों को रात में ही बंद कर दे रहे थे। हमारे जीजा जी का ट्रक दंगाइयों ने लूट लिया। यह पूछे जाने पर कि क्या दंगाइयों को वह जानते थे धनवंत सिंह ने बताया कि अधिकतर दंगाई बाहर के थे जो केवल सामान लूटते या आग लगा देते थे। हमें बस घटनाओं का पता चलता कि यहां गोली चली है।
उनको खुद जो परेशानी उठानी पड़ी उसके बारे में वह बताते हैं कि माहौल चारो तरफ अच्छा नहीं था दुकाने भी बंद थी हमरा बच्चा छोटा गोद में था उसे दूध चाहिए था और दूध की डेरी निजामुद्दीन में थी। मुङो याद है एक सज्जन ने वहां स्थिति की नजाकत देखते हुए हमें भीड़ से अलग बुलाते हुए जल्दी से दूध दिया। दंगाई वहां पास में स्थित एक टेलीविजन की पूरी फैक्ट्री लूट ले गए। अफसोस इस बात का है कि पुलिस इस सारे कारनामें को मूकदर्शक बनकर देखती रही। इसके बाद हम लोगों ने भी अपने घरों में तलवार रखना शुरू कर दिया।
हमारे यहां भी दंगाई कभी भी आ सकते थे इसलिए हमारे मुहल्ले के लोगों ने गलियों में ट्रक खड़ा कर दिया था। मुङो पिता जी की बात नहीं भूलती उन्होने कहा कि ऐसा लगता है कि 1947 का दौर फिर आ गया।
हमें राहत तब मिली जब तीसरे दिन मद्रास रेजिमेंट यहां आई। रेजिमेंट ने सबसे पहले यही कहा कि जिसके घरों से लूट का सामान बरामद होगा उन्हे सजा दी जाएगी। इसके बाद लूट की घटना लगभग बंद हो गई।
सबसे ज्यादा लूट झुग्गियों में रहने वालों ने की। और आर्मी के डर से इनमें से कुछ ने सामान बाहर भी फेंक दिया। इस पूरे प्रकरण में सरकार के सिपहसालारों की भूमिका संदिग्ध थी। अभी तक बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनको सहायता राशि नहीं मिली है।
यह पूछे जाने पर कि अब कैसा महसूस करते हैं? उनका कहना है कि ऐसी घटनाएं देश को तोड़ती हैं इससे असुरक्षा पनपती है। हम तो हर हालत में अखंड भारत चाहते हैं।

हमारी तरक्की का राज है संगठन

7- दलजीत सिंह ओबेराय
हमारी तरक्की का राज है संगठन
23 मस्जिद लेन भोगल में रहने वाले दलजीत सिंह ओबेरॉय का कहना है कि हम 1984 में संगठित थे इसलिए बच गए और आज भी हम संगठित हैं इसलिए तरक्की कर रहे हैं।
विभाजन के बाद हमारे पुरखे पाकिस्तान से जान बचाते हुए आए, भारत को हम अपना देश समझते थे लेकिन एक बार फिर हमारे देश में ही हमें जान के लाले पड़ गए। रब का लाख-लाख शुक्र है कि हमारे परिवार की जान बच गई। वह बताते हैं ‘हमारे कुछ रिश्तेदार जो भोगल में नहीं रहते थे वो मारे गए। हमें उनको खोने का बेहद दुख है क्योंकि वह बेगुनाह थे और हमारे अजीज भी थे।ज्
वह आगे कहते हैं ‘भोगल में भी दंगाइयों ने कम उत्पात नहीं मचाया था। वह बस एक मौका चाहते थे हमें खत्म करने का। हमारा उनसे कोई जातिय बैर नहीं था लेकिन वे उन्मादी थे और एक भारी भीड़ हमारी दुश्मन हुई जा रही थी। एक बार फिर ऐसा लग रहा था कि यह दिल्ली मेरी अपनी नहीं बेगानी है। हमारे साथ किसी भी वक्त अनहोनी हो सकती थी। हमने अपनी गलियों के आगे अपने ट्रक खड़ा कर रखे थे जिससे दंगाइयों की पूरी भीड़ यहां न आ सके। और अगर वह एक-एक करके आते तो हम उनसे निपट सकते थे।ज्
63 वर्षीय दलजीत सिंह एक ट्रक ड्राइवर थे जब 84 का सिख दंगा हुआ था। वह उस समय की घटना को याद करते-करते खो जाते हैं। फिर काफी देर चुप होने के बाद कहते हैं कि ‘31 अक्टूबर को मैं मेहरौली में अपना ट्रक खड़ा किए हुए कमेंट्री सुन रहा था तब पता चला कि इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई। यह खबर काफी आहत करने वाली थी क्योंकि वह हमारे देश की काबिल प्रधानमंत्री थी। दूसरी खबर हमारे साथी ट्रक ड्राइवर जो मेडिकल की तरफ से आ रहे थे वे वहां पर हो रही हाथापाई के बारे में बता रहे थे। जो हमें फिक्र में डाल रही थी हमें अपने परिवार को लेकर चिंता थी। किसी तरह मैं अपने घर पहुंचा। लोग दुकानों को लूट रहे थे, उनमें आग लगा रहे थे। 1 नवम्बर को एक भारी भीड़ भोगल की तरफ बढ़ी आ रही थी लोग खून का बदला खून का नारा दे रहे थे।ज्
ये दंगा लगभग पूरे दिल्ली में फैला हुआ था। दंगाइयों ने पालम गांव में हमारे जीजा राजेंद्र सिंह ओबेरॉय और उनके बेटे को मार दिया। हम अपने रिश्तेदारों को लेकर भी चिंतित थे।
मामला धीरे-धीरे शांत हुआ। हमारे पास के गुरुद्वारे में बहुत सारे शरणार्थी आए हुए थे। हम लोगों अपने घर से उनके खाने के लिए खाने के लिए ले जाते थे। इसके अलावा उनकी मदद के लिए चंदा भी इकट्ठा करते थे।
हम आज भी लोगों की मदद करते हैं। वे चाहे हमारे समुदाय के न हो फिर भी। आज हमारा बेटा ट्रवेल एजेंसी का काम देखता है। हम पहले से बेहतर हैं आराम से रोजी रोटी चल रही है। लेकिन देश में हो रहे तरह-तरह के फसाद हमें दुखी करते हैं।

नए हौसले से की शुरुआत

6-मनिंदर सिंह
नए हौसले से की शुरुआत
मनिन्दर सिंह एक ट्रांसपोर्ट कंपनी चलाते हैं। इस समय वह अपनी मेहनत से ट्रकों की संख्या में इजाफा कर रहे हैं। ये हिम्मत, ये जज्बा, ये तरक्की उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 1984 में हुए सिख दंगों में मानो इनका पूरा व्यापार ही बिखर गया था। दंगाइयों ने इनके ट्रकों को आग लगा दी घर छोड़कर इनके परिवार को लंगर में दिन बिताना पड़ा। फिर भी एक नए हौसले के साथ इन्होंने शुरूआत की।
अपने बुरे वक्त को याद करते हुए मनिंदर कहते हैं कि वह समय हमारा सब कुछ लुटा देने वाला था। हमें यह भी पता नहीं था कब हमारे साथ क्या हो जाएगा। क्योंकि चारो ओर हाहाकार था हम तो पहले कुछ समझ नहीं पाए कि आखिर क्या हो रहा है। हमारे ढेर सारे साथी घरों में छुप गए। हम सब अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे थे।
मनिन्दर सिंह तब भी आश्रम में ही रहते थे उस वक्त भी उनका ट्रांसपोर्ट का ही काम था। 31 अक्टूबर की घटना को याद करते हुए वह बताते हैं कि उन्हे कहीं बाहर जाना था लेकिन हालात ठीक न होने की वजह से वह नहीं जा सके। आश्रम पुल के पास ही हमारा घर था। हमने घर के बाहर अपनी सारी ट्रकें लगा दी जिससे की दंगाई इधर न आ सकें। 1 नवम्बर को दंगाइयों बड़ा हुजूूम हमारे घरों की तरफ आ रहा था। उस समय पुलिस ने भी उन्हे नहीं रोका। वह बस हमें भरोसा दिला रहे थे कि हम सुरक्षित हैं लेकिन वास्तविकता यह नहीं थी। हमने भी अपने बचाव के सारे उपाय कर लिए थे। उनका कहना है कि ‘हमारे घरों की औरतों की भी बुरी स्थिति थी। इनको लेकर हम भी चिंचित थे। पुल के ऊपर पीएससी लगी थी वो हमारे घरों की तरफ कुछ ऐसा फेंकते थे जिसके आग लग जाती थी। उसी समय हमारा सारा ट्रक जल गया। हम डर के मारे बाला साहब ग़ुरुद्वारे में चले गए। जब यहां पर आर्मी आई तब जाकर हालात कुछ सुधरे। हम लोग शालीमार के मार एक कैंप में रहे क्योंकि हम पूरी तरह असुरक्षित थे। लगभग हमारा सब कुछ लुट गया था। ड़ेढ महीने तक यहां आर्मी ने फ्लैग मार्च किया। हमने डेढ़ महीने तक गुरुद्वारे का लंगर खाया। उस समय की कांग्रेस सरकार से ऐसी उम्मीद नहीं थी। उस वक्त हमारे देश का राष्ट्रपति और गृहमंत्री दोनों सिख थे हमें ऐसे हादसे की उम्मीद नहीं थी। हमारे गुरुओं ने इस देश के लिए शहादत दी है। सरकार ने हमें पूरी तरह से अपाहिज बना दिया।ज्
हम तो बिल्कुल बरबाद हो गए थे, हमारे धार्मिक नेताओं ने हमें बैंक से कर्जे दिलाए जिससे हमारी गाड़ी फिर पटरी पर आ गई। आज हम पहले से अच्छी स्थिति में हैं। अब व्यापार भी ठीक से चल रहा है। लेकिन राजनीति का कोई धर्म नहीं है। हमें सरकारों ने केवल इस्तेमाल किया है। हमे अब भी ये डर रहता है कि कहीं ऐसे हादसे फिर न हो जाएं।

हिम्मत हो तो आसान है जिंदगी

5-शमनी बाई
हिम्मत हो तो आसान है जिंदगी
देवर की आटे की चक्की है उसी के परिवार के साथ रहती हूं बेटे की तरह पाला है उसको और आज भी उसी फूर्ती के साथ कभी-कभी रोटी पका कर खिला देती हूं। ये कहना है 50 साल की शमनी बाई का जो 84 के दंगे के समय त्रिलोकपुरी में रहती थी और अब तिलक विहार में अपने पूरे परिवार के साथ रहती हैं। दंगे का दर्द इन्हे अब भी टीसता है। इसके बारे में कुछ पूछने पर वह अपने परिवार के मारे गए परिजनों के बारे में बताने लगती हैं। इनका दुख कम नहीं है। 84 का दंगा इनके परिवार पर पहाड़ बन कर टूटा। स्थिति तब कुछ बेहतर हुई जब सरकार ने इन्हे एक स्कूल में चपरासी की नौकरी दी जिससे रोटी के लाले नहीं पड़े। लेकिन उम्र गलत लिख जाने के कारण समय से पहले नौकरी भी चली गई। उनको यह अफसोस है कि उनके पति दंगे की चपेट में आ गए लेकिन जिस हिम्मत से उन्होनें अपने घर को चलाया उस पर पड़ोस वालों को भी फक्र है। उनका कहना है कि यदि हिम्मत हो तो बड़ी से बड़ी मुश्किल का सामना किया जा सकता है।
दंगे की घटना याद करते ही हिल उठती हैं। उनका कहना है कि ‘दंगाइयों ने चुन चुन कर हमारे परिवार के लोगों को मारा पहले देवर को मारा सास बचाने गई तो सास को भी मार दिया। मेरे 15 साल के बेटे मनोहर को तो मेरी आंखों के सामने मारा। चिलागांव के पास पति को मारा, जेठ, जिठानी सबको मारा। पूरी तरह बिखर गया हमारा परिवार, अपनों का कोई सहारा नहीं बचा था जो हमें ढांढस बंधाता बस एक दूसरे का मुंह देखकर जीते थे। छोटे बेटे का हमने बाल काट दिया।ज्
यह पूछे जाने पर कि क्या घरों को लूटने वाले आपके पड़ोसी थे या बाहरी? उनका कहना था कि लूटने वाले हमारे पड़ोसी नहीं थे क्योंकि पूरे मुहल्ले में अपने लोग ही बसे थे। हमें बाहरी लोगों ने लूटा जो झुग्गियों में रहते थे। उन्होने हमारा सारा सामान उठा लिया और हमारे घर को आग लगा दी।
शमनी बाई को पुलिस से भी शिकायत है कि उसने उनका साथ न देकर दंगाइयों का साथ दिया नहीं तो आज उनको यह दिन नहीं देखने पड़ते। पारिवारिक समस्या से जूझते हुए उन्होने मुआवजे के पैसों से अपनी बेटियों की शादी की। लेकिन सरकार से वह अब भी नाराज हैं उनके पास सारे सबूत हैं लेकिन उस पर किसी तरह की सुनवाई नहीं होती है। सरकार से उनकी मांग है कि वह उनके बच्चों को नौकरी दे देती तो वे बेरोजगार होकर नहीं घूमते या कुछ पैसे दे देती जिससे वह अपना व्यापार चला लेते। जिससे उनका भविष्य सुधर जाता। उन्हे इस बात का अफसोस है कि वह अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकी। फिर भी बच्चों को अपनी मां के संघर्ष से सीख मिलती है और वह अपनी मां को देखकर आगे बढ़ने को प्रेरित होते हैं।

हमें अपने हाथों पर भरोसा है

4-हमें अपने हाथों पर भरोसा है
बस रोजी रोटी किसी तरह चल रही है। सरकार ने अपना काम किया और हम अपना काम कर रहे हैं। यह कहना है धर्मपुरी ख्याला निवासी बलबीर सिंह का। चौरासी के दंगे की घटना को याद करके मानो उनकी रूह ही कांप जाती है। अब उनका काम कै से चल रहा है? यह पूछे जाने पर कहते हैं बस चल ही रहा है न सरकार को जो करना था वह कर गई। हमारा सब कुछ लुट गया। हमें अपनी मेहनत पर भरोसा है और इसी के सहारे हम अपना काम चला रहे हैं। अब दो वक्त की रोटी और पानी का जुगाड़ हो जाता है। कभी आटो चला लिया कभी मजदूरी कर ली हार कर कभी नहीं बैठे। मेरा मानना है जो हार गया वो मर गया।
दंगाइयों ने मुङो मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह कहते-कहते उनकी आंखें भर आती है। फिर कु़छ देर चुप होने के बाद वह उस हादसे के बारे में बताने लगते हैं कि ‘हम राजस्थान से कमाने के लिए दिल्ली आए हुए थे। हम भाई के साथ सुल्तानपुरी पी 1 में रहते थे। 1 नवम्बर की शाम चारो तरफ धुंआ दिखाई दिया हमारे मुहल्ले के लोग घरों में घुस गए लोगों को यह डर सताने लगा कि हमारे साथ कुछ भी हो सकता है। कुछ लोग जो बाहर फंस गए थे उनके बारे में एक काफी भयानक समाचार सुनने क ो मिलते थे। हमें अपनों का भी साथ नहीं मिला हमने डर के मारे अपने हाथों से ही अपने बाल काट लिये। दंगाइयों ने हमारी बस्तियों को लोगों ने आग लगा दिया। हम डर के रिश्तेदारों के पास गए लेकिन हमारे रिश्तेदारों ने भी हमारा साथ नहीं दिया। उनको भी यह डर था कि कहीं दंगाई हमारी वजह से उनको न नुकसान पहुंचा दें। उस समय काफी ठंड पड़ रही थी दंगाइयों ने हमारा घर जला दिया था हमारे पास बिस्तर भी नहीं था।ज् यह कहते हुए उनका गला रुंध गया। उनको अपना परिवार खोने का गम है।
सरकार पर बिफरते हुए बलबीर सिंह ने कहा कि हमारे सारे कागजात जल गए थे सरकार बार-बार हमसे सबूत मांगती है हम सबूत कहां से दें। आज तक हमें एक पैसा मुआवजा भी नहीं मिला। हमें अफसोस इस बात का है कि जिस कांग्रेसी नेताओं को हमने वोट दिया था उसी ने हमारे साथ दगा किया। हमें आज तक अपना कसूर पता नहीं है। गलती किसी और ने की और सजा हम जसे बेगुनाहों को मिली। उस पर से सरकार की हर साल नौकरी देने की घोषणा लेकिन बस ख्याली पुलाव। अगर सरकार हमें नौकरी दे देती तो आज हम भी अपने बच्चों का पालन पोषण ठीक ढंग से करते हमारे बच्चे भी अच्छे स्कूलों में पढ़ते। अब हम अपनी मेहनत के बल पर जो कमाते उसी से गुजारा चलता है। हम मेहनती कौम के लोग हैं और मेहनत पर यकीन रखते हैं। लेकिन सरकारी सहायता अगर मिल जाती तो बुढ़ापे में थोड़ा आराम हो जाता।

अब पटरी पर आ गई जिंदगी

3-आत्मा सिंह लुबाना

नाम आत्मा सिंह लुबाना पिता का नाम मिरचू सिंह पुराना पता मंगोलपुरी एफ ब्लाक 825। अब तिलक विहार में रहते हैं। एक प्रश्न का इतनी बेबाकी से उत्तर देने के बाद उन्होंने पूछ लिया, लेकिन आप क्या पूछना चाहते हैं। और क्यों पूछना चाहते हैं? इसके अतिरिक्त ढेर सारे सवाल आत्मा सिंह लुबाना ने गुरुद्वारा तिलक विहार में हमसे पूछ लिया। हमने अपना परिचय देने के साथ 1984 के सिख दंगा पीड़ितों की वर्तमान स्थिति के बारे में जानने की जिज्ञासा बताई। और फिर बात शुरू हो गई।
उन्होंने बताया कि ‘इस दंगे में हमने अपने बहुत सारे रिश्तेदार और भाई चंदन सिंह को खो दिया। मां, पिता जी, भाभी ये लोग राजस्थान शादी में गए थे इसलिए बच गए। बस किसी तरह मेरी भी जान बच गईज्।
अपनी आप बीती बताते हुए आत्मा सिंह ने कहा ‘ मैं 1 नवम्बर को विष्णु गार्डेन से पहाड़गंज जाने के लिए सुबह 6 बजे निकला कि दंगाइयों ने मेरे ऊपर पथराव शुरू कर दिए। मैं भागते और छुपते हुए अपने भाई के ससुराल आ गया। और 11 बजे के बाद दंगे ने तेजी पकड़ ली। हमें बाद में पता चला कि दंगाइयों ने हमारी दुकान भी लूट ली। एक से दस तारीख तक मैं भाई की ससुराल ही रहा। इसके बाद में डर के मारे मैंने अपनी दुकान मात्र 18 हजार में बेच दी। अब हमारे तंगहाली की शुरुआत हो चुकी थी। माहौल चारो तरफ खराब हो चुका था मैं इस स्थिति को देखकर परेशान था। खाने-कमाने को कुछ नहीं बचा था अब लौटकर अपने गृह राज्य राजस्थान ही जाना उचित समझा, इसलिए 30 महीनों तक राजस्थान रहा। इसके बाद फिर दिल्ली आया और इस बार मैंने 84 के दंगों में पीड़ित हुए लोगों के साथ खड़ा हो गया। और उनके हक के लिए लड़ाई छेड़ दी। मुङो नवम्बर 1984 दंगा पीड़ित कैंप का अध्यक्ष चुना गया इसके अलावा मैं दिल्ली सिख गुरूद्वारा प्रबंध कमेटी का मेंबर भी रह चुका हूं। फिर मैंने पीड़ितों के पुनर्वास के लिए भी कोशिशें की। हम लोगो के संयुक्त प्रयास से उस समय के गृहमंत्री बूटा सिंह के ऊपर दबाव बनाया जिससे उन्होने पीड़ितो से शपथ पत्र मांगे हमने अपने हाथों से 493 लोगों के शपथपत्र लिखे लेकिन मात्र 203 लोगों के शपथ पत्र को अनदेखा कर दिया गया। लेकिन जो शपथ पत्र हमनें लिखे उस पर ही जगदीश टाइटलर और अन्य आरोपियों पर कार्रवाई हुई। इस मामले में कइयों गवाहों को अनदेखा कर दिया गया।

हमारे कई साथियों की जिंदगी इस हादसे के बाद धीरे-धीरे सुधर रही है कुछ तो अब भी न्याय की आस में भटक रहे हैं। हम भी धीरे-धीरे अपने काम को शुरू कर दिये जिससे रोजी-रोटी चल निकली बस किसी तरह अब पटरी पर आ गई है जिंदगी। अब हमारे पास एक किरोसीन ऑयल की दुकान है भाई किसी तरह अमेरिका चले गए इससे हमारी आर्थिक हालत में काफी सुधार आया। अब तो अधिकतर समय गुरुद्वारे में ही बीतता है। इसी का निर्माण कराने में लगे हैं। अगर कोई अपनी समस्या ले के आ जाता है तो जनप्रतिनिधि होने के नाते उसकी मदद भी कर देता हूं। लेकिन हम सरकार से यह मांग करते हैं कि पीड़ितो को पर्याप्त मुआवजा दिया जाए जिससे उनकी हालत में सुधार आ सके।

हमें बेगुनाही की सजा मिली

2-साजन सिंह
32/86-87 त्रिलोकपुरी यह पता है साजन सिंह के उस पुराने मकान का जहां वह बड़ी हंसी-खुशी अपने परिवार के साथ रहते थे लेकिन उनको क्या पता था कि 1 नवम्बर 1984 की रात उनके परिवार के लिए कयामत की रात बन कर आएगी।
57 वर्षीय साजन सिंह उस वक्त को याद करते हुए अब भी कांप जाते हैं। उनका कहना है कि हमें बेगुनाही की सजा मिली। इस हादसे के बारे में बताते हैं कि ‘उस समय मैं निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करता था जब पता चला कि दो सिक्खों ने प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को गोली मार दी है और वह एम्स में भर्ती हैं।
दंगाइयों से बचने के लिए मैंने अपने हाथों से ही अपना बाल काट लिय। दंगाई मुङो भी ढूंढते हुए आए लेकिन सीढ़ियों के नीचे मेरी पत्नी ने मुङो छुपा दिया और उसके ऊपर चारपाई डाल दी। तब जाकर मेरी जान बची।ज्
उन्होंने आगे बताया कि दंगाइयों ने मेरे बारे में मेरी पत्नी ठाकरी से भी पूछा, उसके नहीं बताने पर उसे डंडे मारा। आज भी उसे घाव दर्द देते हैं।
उनका कहना है कि काफी मुसीबत के बाद उनको तिलक नगर में मकान मिला जिसमें वह अपने परिवार के साथ रहने आए लेकिन खाने को कुछ भी नहीं था और हमारे सारे सामान लूट लिए गए थे। अब फिर से एक नई शुरुआत करना कठिन काम था। काफी दिनों के बाद हमने आटो चलाना फिर शुरू कर दिया। जिससे कुछ आमदनी हुई। लेकिन रोज की कमाई भी इतने परिवार के लिए कम पड़ जाती थी। इस बीच सरकार ने हमको जो मुआवजा दिया वह आगे के लिए सहारा बना।
उनका कहना है कि ‘उस समय उनको 10 हजार रुपए की दो किस्तें मिलीं। जिससे काफी मदद मिली क्योंकि सब कु़छ लुट जाने के बाद कुछ पैसा मिल जाने से हमें थोड़ा साहस मिला। इसके बाद सरकार ने हमें सात लाख रुपए दिए जिससे हमनें अपनी बेटियों की शादी की। तीन बेटियों की शादी हमने मुआवजे के पैसों से की। लेकिन घर का खर्च चलाने के लिए मुङो फिर से मेहनत करनी पड़ी।ज्
अपनी वर्तमान स्थिति के बारे साजन सिंह बताते हैं कि ‘अब भी तीन लड़कियों की शादी करनी है और दो लड़के हैं जो पढ़ाई पूरी करके काम की तलाश में हैं। एक बेटा आटो चलाता है जिससे कु़छ आमदनी हो जाती है।ज्
साजन सिंह का कहना है कि उनकी गुरुनानक में बड़ी आस्था है इसलिए वह वक्त निकालकर गुरुद्वारे की सेवा करने जरूर जाते हैं। अपनी इस नई शुरुआत से वह खुश हैं लेकिन अपने परिजनों के खोने का दुख उन्हे अब भी है। उनको सरकार से भी शिकायत है कि 84 के पीड़ितों के लिए जो मुआवजा निर्धारित किया गया था वह उन्हें नहीं मिला। सरकार भी उनके साथ छलावा करती है। आज तक मेडिकल क्लेम भी उनके परिवार को नहीं मिला। यही नहीं उनका कहना है कि उनके पिता की मृत्यु का मुआवजा उन्हे 2006 में मिला।
इसके बाद भी वह कहते हैं कि अब सब कुछ ठीक है लेकिन बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। सरकार अगर उन्हे रोजगार दे देती तो उनकी जिंदगी भी संवर जाती।

हमें अपनी मेहनत पर नाज है

1-महेंद्र सिंह
वीरेन्द्र नगर निवासी महेन्द्र सिंह उर्फ गोल्डी जब भी 84 के दंगे को याद करते हैं यही कहते हैं कि हम उसे एक बुरा सपना समझकर भूल जाना चाहते हैं। वह बड़ी बेबाकी से कहते हैं कि ‘इस दंगे को कांग्रेस ने भड़ाकाया लेकिन और दलों की भूमिका भी बुहुत अच्छी नहीं थी। बहरहाल वह दिन बीत गया। उसे हम फिर याद भी नहीं करना चाहते क्योंकि ऐसा लगता है कि नियति में यही लिखा था।ज्


यह पूछे जाने पर कि हादसे के बाद किस तरह संभले महेन्द्र सिंह का कहना है कि हम चार भाई थे पिता जी सेना में काम करते थे तब तनख्वाह बहुत अधिक नहीं हुआ करती थी। बस किसी तरह खर्च चल जाया करता था। तंगी की हालत में पिता जी जो पैसा भेजते थे उसी से घर का खर्च चलता था लेकिन वह पैसा पर्याप्त नहीं हो पाता था। हमारे बुजुर्गों ने इस हालात के बाद फुटपाथ पर ब्रेड तक बेंचा है।

अब हम भाइयों ने भी उस हालत में अखबार बेंचना शुरू कर दिया था। फिर भी पैसे इतने नहीं मिलते थे कि एक अच्छा जीवन बसर कर लिया जाए। कभी ब्रेड चाय के साथ खा लिया तो कभी नमक रोटी के साथ। इसी तरह आधे पेट खाकर गुजारा होता था। इसके बाद भाई ने कूलर बनाने का काम शुरू कर दिया। इससे कुछ पैसे अधिक मिल जाते थे।


हमने फिर रहने के लिए एक मकान लिया। अब धीरे-धीरे गाड़ी पटरी पर आने लगी थी। लेकिन हमारे आमदनी का जरिया अब भी बहुत अधिक नहीं था। फिर हमने गाड़ी बेचने और खरीदने का काम शुरू कर दिया। इसके अलावा लोगों को मकान किराए पर दिलवाना, अखबार के डीलर को एक नया ग्राहक देना जसे काम भी किए।


वह मुस्कुराते हुए बताते हैं कि एक हिन्दी अखबार का ग्राहक दिलाने पर 15 रुपए और एक अंग्रेजी अखबार का ग्राहक दिलाने पर 20 रुपए मिलते थे। इससे धीरे-धीरे हमारे पास कुछ पैसे इकट्ठे हो गए। अब हमने अपना खुद का कारोबार करने का सोचा। वाहे गुरू की कृपा से हमारी मेहनत रंग लाने लगी। हमें जसे-जसे फायदा होता था हम दुगनी मेहनत से काम करते थे।


धीरे-धीरे भाइयों की भी अब शादी हो गई और सबने अपना-अपना घर बसा लिया। हमारी भी शादी हो गई। हमने अपना एक छोटा सा अखबार खोल लिया। जिसमें लोगों की समस्यायों को हम प्रमुखता से उठाते हैं। हमारे अखबार का सर्कुलेशन बहुत अधिक नहीं है फिर भी आजीविका चल जाती है।


इस दंगे में हमें हिला कर रख दिया लेकिन फिर हम अपनी मेहनत के साथ आज जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। हर एक मुश्किल हमें नई सीख देती है और मुश्किलें हमें काम करने की प्रेरणा देती है। हम अपने परिवार के शुक्रगुजार हैं कि इस मुश्किल भरे दिन में हमारे परिवार ने हमारा भरपूर साथ दिया।

Saturday, November 15, 2008

अभिनव

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...