Sunday, February 13, 2011

बिछड़े हुए काबा के सनम

मनोहर नायक

आज के फैज अहमद फैज की जन्मशती शुरू को रही है। बंटवारे के बावजूद हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अवाम के दिल को छूने वाले इस शायर को आज दोनों मुल्कों में याद किया जा रहा है। यहां फैज की इलाहाबाद में फिराक़ गोरखपुरी से हुई मुलाकात के वृतांत के बहाने उनकी याद।



रघुपति सहाय फिराक़ तो पहले ही फरमा चुके थे कि ‘आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरो/ जब तुम कहोगे हमने फिराक़ को देखा था। ज् इलाहाबाद में अखबार में काम करते हुए फिराक़ साहब से एक मुलाकात हो चुकी थी जिसका बखान कर दूसरों को ईष्र्या में डाला जा सकता था। कहते हैं कि भरत जब राम को मनाने चित्रकूट जा रहे थे तब रास्ते में प्रयागराज में भारद्वाज आश्रम रुके। वहां भारद्वाज मुनि ने उनसे कहा था कि मेरे पूर्व जन्मों के पुण्यों का फल यह था कि मुङो राम के दर्शन हुए और राम के दर्शन के प्रताप से अब तुम्हारे दर्शन हुए। अब फिराक़ साहब से मिलने में पुण्य का कोई दांया-बांया हाथ था कि नहीं, मैं नहीं जानता पर बेशक फिराक़ से मिल पाने का पुण्य-लाभ यह जरूर मिला कि फैज अहमद फैज से मिलना नसीब हुआ। शायरी में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी थी और फैज का दिल में बड़ा मान था। मान तो फिराक़ का भी था, लेकिन उनकी छवि एक ‘उस्तादज् की रही। उन पर हजारहा किस्से थे और उनका एक आतंक भी था जिस कारण पांच साल में दो बार, वह भी उनके अंत-अंत में ही, मिलना हुआ। फैज का भी उस्तादाना कमाल बेमिसाल था। कुछ गिनने वाले तो पांच ही को उस्ताद मानते हैं, मीर अनीस, मीर तक़ी मीर, मिज़्रा ग़ालिब, अल्लामा इक़बाल और फैज अहमद फैज। असद चचा के भी अपन जबर्दस्त भक्त हैं पर अपने से फैज जसी करीबी शायद इन उस्तादों में से किसी को भी नसीब नहीं हुई। यह फैज की कविता थी जो करीब से करीबतर होती गई। उनसे जब 1982 में इकलौती बार मिला। तब उनका दर्जा दिल में ‘हीरोज् का था। इमर्जेसी के समय उनकी नमें-ग़ज़लें ऐसी लगती थीं जसे इस देश और जनता की आपबीती कह रही हों।
फैज से मिलने में फिराक़ साहब का पुण्य-प्रताप यह था कि यह मिलना उन्हीं के बैंक रोड वाले विश्वविद्यालय के आवास पर हुआ। फैज भारत आए थे और दो दिन इलाहाबाद में मुकाम था। बाकायदा जश्ने फैज कमेटी बनी थी जिसके अध्यक्ष त्रिपाठीजी देवी प्रसाद थे, जो उन दिनों विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ा रहे थे। एक दिन पहले ही उन्होंने बता दिया था कि सुबह दस बजे पहुंच जाना फैज फिराक़ से मिलने जाएंगे। बेहद उतावला मैं थोड़े पहले ही पहुंच गया और पाया कि फिराक़ साहब जोकि, कुछ समय पहले उनके जन्मदिन पर जब मैं उनसे मिला था तो बेहद उदास और शिकस्त नज़र आए थे, आज कतई चमक रहे थे। नया कुर्ता पहन रखा था और बेसब्री से फैज का इंतजार करते हुए दो-एक लोगों से बतिया रहे थे। वे बेहद खुश थे और चहक रहे थे। मसलन, लखनऊ में उर्दू के सवाल पर एक ने उनकी तकरीर की तारीफ की तो बोले, ‘अ गुड आरेटरी इज नेवर डिफीटिडज् फिर रुक कर कहा, ‘आरेटरी इज हारलेट ऑफ फाइन आर्ट्सज् (वक्तृता ललित कलाओं की हरजाई है)। तभी कुछ महिला-पुरुषों के साथ फैज नमूदार हुए।
दरवाजे से ही तपाक से दोनों हाथ फिराक़ की ओर बढ़ाये वे उनके पास पहुंचे और उनके हाथों को थाम कर कहा,‘मैं तो यहां पहले भी आ चुका हूं।ज् निश्चित ही आये ही होंगे क्योंकि, 1954 में रिटायर होने के बाद भी फिराक़ ने वह क्वार्टर छोड़ा ही नहीं था। फैज़ अपनी मशहूर चुप्पी के साथ ही यहां मौजूद थे। बोल फिराक़ ही रहे थे, फैज बीच मैं एकाध वाक्य बोल देते। फिराक़ ने तुलसीदास के ‘शेर ‘घन घमंड नभ गजरत घोराज् सुनाकर कहा, चालीस साल तक यह बात समझ नहीं आयी कि सीता राम की ताक़त थीं। मैं उन्हें डरपोक वगैरा मानता रहा। फिर एक और चौपाई इस तारीफ के साथ कि, क्या उपमा दी है, सुनायी। किसी महिला ने तुलना में मीर का शेर कहा तो उसे डपट दिया कि, ‘मीर का नहीं है यारों ने लिख दिया है।ज् पर फिर कि ,‘फिराक़ साहब दीवान में तो मिलता है,ज् ‘तो क्या यारों ने डाल दिया होगा।ज् फिर कुछ उर्दू, कुछ मुल्लाओं के द्वारा उसकी शामत पर बात हुई। फैज ने कहा,‘हमें एक मौलानाजी ग़ालिब पढ़ाते। हर शेर पर कहते आगे बढ़ो बड़ा बेअदबी का शेर है।ज् फिराक ने इस पर हाथ उठाकर जोर से ‘अल्ला हो कहा। दस-पंद्रह मिनट की इस मुलाकात का समापन फिराक़ ने इस इसरार से हुआ कि फैज कुछ सुनाओ। फैज ने बेहद संकोच से कहा,‘आपको में क्या सुनाऊं। आप ही सुनाइये।ज् फिराक ने फौरन ‘अब तो अक्सर चुप चुप से रहे हैंज् ग़ज़्ाल के कुछ शेर सुनाये। फैज ने काफी वाह-वा की, पर अब उनकी बारी थी। फिराक़ ने फिर फरमाइश कर दी थी तो फैा ने ‘ए दिल मेरे मुसाफि़रज् नज़्म सुनायी। फिराक़ ने अचानक कहा,‘फैज तुम हिंदुस्तान चले आओ। फैज कुछ नहीं बोले, कुछ देर गहरी खामोशी रही, जो फिराक़ ने ही यह कहते हुए तोड़ी कि,फैज किसी अंग्रेजी क्रिटिक ने जो बात कही है वह तुम पर पूरी तरह चस्पां होती है- ‘ही रोट लाइक अ पोएट, व्हाट ही फेल्ट लाइक ए मैन।ज्
दूसरे दिन हिंदुस्तानी अकादमी में उनका सम्मान था। तबकी दुबली-पतली शुभा मुदगल ने फैज को उनकी शायरी सुनायी, फिर फैज ने अपना कलाम पढ़ा। बाहर निकलते हुए मैंने कहा कि इंटरव्यू लेना है, तो हंस दिये कि समय नहीं है। फिर शायद मुङो मायूस देखकर कहा, दो घंटे बाद होटल आ जाना, वहां तो नहीं पर कार में अगर जगह हुई तो बैठ जाना, तभी बात कर लेंगे। मैं पहुंच गया। कार में जगह नहीं थी पर इशारा पाकर मैं पिछली सीट पर ठस गया। फैज को कई जगह जाना था। ज्यादातर बात उन्हीं की अन्य साथ वालों से होती रही। कुछ बातें मैंने भी पूछीं। लिखने का कोई मौका ही नहीं था। फिर भी फिराक़ के हिंदुस्तान आ जाने वाले सवाल पर उन्होंने कहा, उनसे मैं क्या कहता। पर अखबारों में यह बात आयी है। आप लोग ये क्यों नहीं सोचते कि घर अगर जेल है तो भी है तो घर ही। उसे वहीं रहकर घर तो बनाना होगा। मैंने उनसे वही नज़्म सुनाने की फर्माइश कर दी ‘जो फिराक़ साहब को सुनायी थी।ज् उन्होंने तुरंत सुनायी। एक अटपटा सा सवाल पूछा, हालांकि किसी पाकिस्तान के आलोचक के हवाले से कि, आपके साथ इतनी चीजें जुड़ी हुई हैं, मसलन अंग्रेजी-अरबी में एम ए, प्रोफेसर, सेना में लेफ्टीनेंट कर्नल, अंग्रेजी अखबार के संपादक, रावलपिंडी केस के अभियुक्त आदि। इस प्रभामंडल के कारण आप बड़े कवि भी हो गये। फैज ने मुस्कुराकर कहा कि जिंदगी के अलग-अलग दौर में मैं यह सब था। मैंने भी पढ़ाई की, नौकरी की। फिर सोच-विचार बढ़ा, उसके हिसाब से जो सही लगा वह किया। पर मैं अंत में एक अदद शायर ही हूं। तुम भी मुझसे इसीलिये ही तो बात कर रहे हो। इस मुलाकात का समापन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुआ जहां भारी हुजूम के बीच फैज का अभिनंदन हुआ। मंच पर फिराक़, महादेवी ,अश्कजी और अमृतराय भी थे। फिराक़ ने फैज को हिंदुस्तानी तहज़्ाीब का शायर बताते हुए कहा कि उनकी शायरी क्रांति का नगाड़ा नहीं बजाती वह हमें शाइस्तगी से मुतास्सिर करती है। उनकी शायरी में एक पुराने पीपल के पेड़ के नये पत्ते जसी चमक है। उन्होंने ‘कुछ उस फज़्ाां कुछ हसरते परवाज़्ा की बातें करोज् ग़ज़ल भी सुनायी।
फैज आज निन्यानबे साल के होते। आज से उनका जन्मशती वर्ष शुरू हो रहा है। उन्हें गये भी कई बरस हो गये पर उनकी शायरी आज के कठिन और पराजित समय में हमारे और भी करीब है हमें ताक़त और भरोसा देती हुई। एक ‘अजनबी खाक से धुंधला गए निशानों कोज् उजागर करती हुई।
फैज ने शायरी की काया पलट दी। नयी भाषा में नये ख्याल लाये पर अपना नाता बहुत सोच समझकर परंपरा से भी कायम रखा। एक नयी राह ईजाद की। उनका एक शेर है, ‘ऐसे नांदा न थे जां से गुज़्ार जाने वाले/ नासेहो, पन्दगरो रहगुज़र तो देखो।ज् ‘कू-ए यार से सू-ए दारज् तक की इस राह में वे और उनकी शायरी मौहब्बत और इंक़लाब की जुस्तजू करती चलती है। उनकी शायरी में ये दोनों एहसास इस शिद्दत से घुलमिले हैं, एक-दूसरे के पर्याय की तरह। जब वे कहते हैं कि ‘एक ख़ुशबू बदलती रही पैरहन/ एक तस्वीर रात भर गाती रहीज् तो प्रेम और परिवर्तन की आकांक्षा ही कई रंग-रूपों में महकती- गाती रहती है। तमाम आशाएं और इच्छाएं इन्हीं के सबब से हैं: ‘एक उम्मीद से दिल बहलता रहा/ एक तमन्ना सताती रही रात भर। यह उनका कमाल है कि तमाम इंकलाबों के बाद भी उनके बेशुमार प्रशंसकों के दिलों में ‘उस ग़म की सरदारीज् बनी रहती है। और वह शायरी हमारे एकदम पास आकर हमें दिलासा और भरोसा देती है। अभी हमने जनता का अभिक्रम मिस्र में देखा, और वे अपनी शायरी के साथ बहुत याद आए। उस पर भी बात बनती नहीं फैज का कुछ कहे बगैर। वे हमारे सबसे करीब हैं और संकटों के इस लंबे सिलसिले में हमेशा रहेंगे।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...