Sunday, September 25, 2011

श्रीलाल और अमरकांत : एक जमीन दो धाराएं



हर लेखक अपने में अद्वितीय होता है। एक लेखक की भावभूमि दूसरे ले नहीं मिलती। एक ही शहर के दो लेखक अलग अलग शैलियो और संवेदननाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए अपवादों को छोड़ दें तो सामान्यत: दो लेखकों की चर्चा एक साथ नहीं होती। इसलिए श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत की चर्चा एक साथ और एक ही समय में नहीं होती। लेकिन आजकल दोनों एक साथ चर्चा में हैं। शायद पुरस्कारो का यह भी एक काम होता है। कायदे से ज्ञानपीठ एक वक्त में एक लेखक को दिया जाता है। हालांकि इसके अपवाद भी हैं। इस बार अपवाद फिर से घटित हुआ है। शायद यह एक मौका है कि हम हिंदी के दो ऐसे वरिष्ठों को नए दृष्टिकोण से एक साथ देंखे जो एक धारा के नही माने जाते रहे।

अमरकांत हिंदी की प्रगतिशील धारा के कथाकार हैं और श्रीलाल शुक्ल किसी धारा के साथ वैचारिक या सांगनिक रूप से नहीं जुड़े रहे। आजादी के बाद हिंदी कथा साहित्य को लेकर जितने भी विमर्श चले उसमें इन दोनों की जबर्दस्त मौजूदगी रही। अमरकांत कुछ कुछ कुछ मध्यम लय में बजते संगीत की तरह जो समाज की चेतना में धीरे धीरे असर बनाता है। आकस्मिक नहीं कि नई कहानी के शोरगुल के दौरान उनकी डिप्टी कलक्टरी, जिंदगी और जोंक, दोपहर का भोजन जैसी कहानियां ठोस और मुकम्मल होने को बावजूद आलोचना के बाजार में उस तरह नहीं बिकीं जिस तरह मेरा हमदम मेरा दोस्त छाप धंधई कहानीकारों की। लेकिन जब नई कहानी का धंधा करनवालों की चमक फीकी पड़ी तो फणीश्वर नाथ रेणु, अमरकांत और शेखर जोशी जैसे कहानीकारों की आभा बढ़ने लगी। यह गौरतलब है, और अध्ययन का विषय भी कि इलाहाबाद की जिस धरती पर `परिमल के तत्वावधान में एक आयातित बौद्धिकता ने ऐसा आंतक मचाया कि उससे हिंदी साहित्य का एक बड़ा हिस्सा आज भी आक्रांत है, वहां अमरकांत एक ऐसी राह पर चले जिसपर सादगीपूर्ण गहराई थी। लेकिन तमाम चकाचौंध के बावजदू साहित्य का बाजार भी एक दिन हारता है। यह सिर्फ संयोग नही है कि सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और फिराक गोरखपुरी के बगल में अमरकांत हैं, कोई परिमलवादी साहित्यकार नहीं।

इलाहाबाद में श्रीलाल शुक्ल भी रहे। नगर निगम के प्रशासक के रूप में। लेकिन उनको इलाहाबादी नहीं कहा जा सकता। वे लखनऊ के हैं। लेकिन लखनवी मिजाज के नहीं। हालांकि लखनऊ हिंदी के बड़े उपन्यासकारों का स्थल रहा और अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा जैसे बड़े उपन्यासकार यहां की साहत्यिक विरासत के सिरमौर है। मनोहर श्याम जोशी ने उपन्यास लेखन में नागरजी को ही अपना गुरू माना। बतौर औरपन्यासिक परंपरा क लिहाज से श्रीलाल जी लखनवी हैं। लेकिन उनके `रागदरबारी

ने हिंदी गद्य को जो स्वाद और मिजाज दिया वह लखनऊ के पास वाले इलाके मोहनलाल गंज का है। रागदरबारी के गंजहे ( इसमें शिवपालगंज नाम के कस्बेनुमा गांव की कहानी है जहां के रहनेवाले अपने को गंजहा कहते हैं) मोहनलालगंज की हवा माटी से उठाए गए हैं। यह दीगर बात है कि `रागदरबारी के आने के बाद हिंदी इलाके का हर गांव शिवपालगंज की तरह लगने लगा और वहां लंगड़, सनीचर. वैद्यजी, छोटे पहलवान और बद्री पहलवान जैसे चरित्र उभरने लगे। शायद वे चरित्र पहले से वहां थे। लेकिन उनका पोर्टेट किसी कलाकार ने नहीं बनाया था। श्रीलाल जी ऐसे पोर्टेट कलाकार की तरह आए जिन्होने भारतीय गांवों और कस्बों में उभरते दयनीय और दलाल चरित्रों के ऐसे व्यक्तिचित्र बनाए जो राजनीति और विकास प्रक्रिया के विघटन से पैदा हुए थे।

भारतीय गावों के चितेरे प्रेमचंद भी रहे और रेणु भी। दोनों ने वहां की विषमताओं को चित्रित किया। लेकिन श्रीलाल शुक्ल विषमता को नहीं विद्रूपता को चित्रित करनेवाले कथाकार हैं। जो गांव उनके यहां है `अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है वाली वो निश्छल सरलता नहीं है जिस पर शुरुआती खड़ी बोली के कवि रीझते थे।

इसके अलावा श्रीलाल जी ने कथा साहित्य के गद्य का स्वाद बदल दिया। यहां भी वे प्रेमचंद, जैनेद्र कुमार, फणीश्वर नाथ रेणु के बाद चौथे ऐसे कथाकार हैं (आगे इस कड़ी में मनोहर श्याम जोशी हुए) जिसकी भाषा का तेवर अमिट छाप छोड़ गया है। हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने जिस हिंदी व्यंग्य को विस्तार दिया उसे औपन्यासिक परिकल्पना देने का काम सबसे पहले श्रीलाल शुक्ल ने ही किया। आज भी `राग दरबारी बेजोड़ है।

अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल दोनो हिंदी कथालेखन के ऐसे समकालीन हैं जिनके लेखन का स्वभाव भले थोड़ा अलग हो, लेकिन जिंदगी के बेहद करीब रहे। अमरकांत जरूर प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे लेकिन न तो वे न ही श्रीलाल शुक्ल ने अपने ऊपर किसी सैद्धांतिकी को आरोपित होने दिया। इसका अर्थ यह नही है कि सैद्धांतिकी अपने में कोई नकारात्मक चीज है। बल्कि वह कई बार साहित्यकार को वैचारिक रूप से समृद्ध करती है। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि सैद्धांतिकी के चक्कर वह चीज नजरों से ओझल हो जाती है जिसमें जीवन का गर्दो गुबार रहता है और जो लेखन को जीवनीशक्ति देता रहता है, नए नए रूप की तलाश के लिए प्रेरित करता रहता है। जिसे गालिब ने `दिले गुदाख्ता कहा है वह साहित्य के लिए बुनियादी चीज है और यह अलग से कहने की जरूरत नहीं कि आजादी के बाद के कथाकारों में अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल ने अपने लेखन से भी इसे हिंदी में पैदा किया है।

अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल निजी रूप के जिंदगी के ऐसे मोड़ पर हैं जहां अस्वस्थता ने दोनों को अपने कमरे की चारदिवारी में कैद कर दिया है। यह अफसोस किया जा सकता है कि दोनों को ही कुछ वक्त पहले ही यह पुरस्कार या सम्मान मिलता तो अच्छा रहता है। लेकिन इसी का दूसरा पहलू ये भी है कि भारतीय साहित्य के विराट उपवन में वरिष्ठ लेखकों की ऐसी कतार है जिसते चलते कई भाषाओं के कई लेखकों का पुरस्कार मिलने में देर हो जाती है। दरअसल इस तरह के अफसोस प्रकट करते हुए हिंदी के लोग यह भूल जाते हैं कि उनके अपने पुरस्कार वह सम्मान और दर्जा हासिल नहीं कर पाते जिसे मिलने पर आत्मसंतोष की एहसास हो। लेकिन साथ ही यह भी याद रखना चाहिए सिर्फ पुरस्कार से ही लेखक की अहमियत नहीं बनती। वह तो अपनी सर्जनात्कता की ताकत की वजह से लोगों का स्मृति मे रहता है। अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल- दोनों अ अपने लेखन की वजह से हिंदी साहित्य की स्थायी स्मृति में सुरक्षित रहेंगे।

रवीन्द्र त्रिपाठी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.


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