Friday, December 26, 2008

कैनवस पर आस्था


‘कैनवस पर आस्था
अभिव्यक्ति के अनेक माध्यम है लेकिन जब तूलिका अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है तो कैनवस पर उभरी आकृति कलाकार की मनोवृत्ति स्वयं स्पष्ट कर देती हैं।
डा. निशा जायसवाल एक ऐसी ही कलाकार हैं। जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम तूलिका है और उससे चित्र बनाना एक साधना।
यूं तो वह दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं लेकिन कला के प्रति उनका समर्पण देखते ही बनता है। 32 वर्ष से अध्ययन और अध्यापन से समय निकालकर कला की जो साधना वह करती हैं, वह जब लोगों के सामने आई तो कला के पारखियों ने इनकी कृतियों को उत्कृष्ट कृतियों का दर्जा दिया।
दिल्ली के इंडिया हेबिटेट सेंटर में आयोजित इनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में आए सोमनाथ चटर्जी, उस्ताद अमजद अली खां, नामवर सिंह, नफीसा अली जसे कद्रदानों ने उनकी कृतियों को देखकर काफी सराहना की। अपनी पेंटिंग्स की पहली प्रदर्शनी पर इस तरह की प्रतिक्रिया को लेकर उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। उनका कहना है कि ‘यह मेरे चित्रों की पहली प्रदर्शनी थी और लोग इसे इतना पसंद करेंगे, मुङो ऐसी उम्मीद नहीं
कला की यह यात्रा कबसे शुरू हुई? पूछने पर वह बताती हैं कि ‘मैं मूलत: पूर्वी उत्तर प्रदेश में पड़रौना के मारवाड़ी परिवार से हूं। इस परिवार की लड़कियां बहुत खूबसूरत मेंहदी अपने हथेलियों पर सजाती थीं। एक दिन उन्होंने भी झाड़ से एक सींक खींचकर अपनी हथेली को मेंहदी से सजा लिया। यह एक छोटा सा प्रयास था लेकिन जिसने भी इसे देखा उसने काफी सराहना की। यहीं से कला के प्रति प्रतिबद्धता जागी और इसके बाद बारीक आकृतियों और रेखाओं को कैनवस पर उतारने लगी। 16 वर्ष की आयु से शुरू कला की यात्रा यह अविराम जारी है।ज्
वह बताती हैं कि ग्रेजुएशन से पहले तो वह कवि बिहारी की नायिकाओं, खजुराहो की मूर्तियों, मयूर पक्षी और सौंदर्य प्रधान अनुकृतियों को अपनी रचना का केंद्र बनाती रही लेकिन ग्रेजुएशन के बाद देवी-देवताओं और मयूर पक्षी पर ही अपनी कला को केंद्रित किया। यह पूछे जाने पर कि आपने देवी-देवताओं और मयूर पर ही अपनी अनुकृतियां क्यों केंद्रित की? उनका कहना है कि ‘ईश्वर में अटूट आस्था के कारण हमने देवी-देवता को चुना। जब मैं ईश्वर की कृतियों को बनाती हूं तो ऐसा लगता है कि ईश्वर स्वयं अपने को बना रहा है। मेरा हाथ तो केवल माध्यम है। मोर पंक्षी के बारे में वह बताती हैं कि, वह उमंग का द्योतक है। वर्तमान समय में भागती-दौड़ती जिंदगी में आदमी के पास बहुत तनाव है। लेकिन एक मोर मदमस्त अपनी धुन में नाचता है और उसे देखकर मन खुश हो जाता है।ज्
डा. निशा की पेंटिंग्स में राजस्थानी लोक कला, विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र, ड्रेगन आदि के चित्र भी मोर की पेंटिंग्स में दिख जाते हैं। इसी तरह उनके ‘सूरजज् की कृति में उससे संबंधित बादल, घोड़े आदि उससे संबंधित कई चित्र दिख जाते हैं। डा. निशा ने श्रीनाथ, लक्ष्मी-गणेश और मयूर समेत कुल 19 कृतियां बना चुकी हैं।
लगभग 25 वर्षो में मात्र 19 कृतियां ही बनाए जाने पर उन्होंने बताया कि ‘इस तरह की कृतियां बनाना एक कठिन कार्य है और मैं पेशे से प्रवक्ता हूं इसलिए चित्रकारी के लिए पूरे वर्ष में मुङो मुश्किल से एक से डेढ़ महीने ही मिलते है। गर्मी की छुट्टियों में जब में पड़रौना जाती हूं तभी ये संभव हो पाता है। इसके लिए प्रतिदिन एक बार छ: से सात घंटे तक काम करती हूं। फिर भी कभी-कभी किसी चित्र को पूरा करने में दो से तीन गर्मी की छुट्टियां निकल जाती हैं।
वह बताती हैं, ‘दरअसल चित्रकारी मेरे लिए एक साधना है, एक तपस्या है, एक श्रद्धा है। कभी-कभी लगता है कि ये तनाव मुङो परोक्ष रूप से ऊर्जा देता है। जिसके फलस्वरूप एक सुंदर कृति का सृजन होता है।ज् डा. निशा के चित्र देखने के बाद लगता है कि यह आपसे संवाद करते हैं। यूं तो इन चित्रों की एक नई शैली है लेकिन इस पर लोक कला, तिब्बत की थंकाव व मधुबनी चित्रकारी का प्रभाव देखा जा सकता है। वह बताती है कि ‘मैं यामिनी राय के स्क्रेच से काफी प्रभावित हूं।ज्
इन चित्रों को किस तरह बनाती हैं? पूछने पर वह बताती हैं कि देवी-देवताओं को मैं ब्लैक एंड व्हाइट में बनाती हूं। जिसके लिए मैं ग्राफ पेन का इस्तेमाल करती हूं और मोर के लिए जल रंगों व दो नंबर के ब्रश का सहारा लेती हूं। चित्र चाहे ब्लैक एण्ड व्हाइट हो या रंगीन, दोनों को बनाना एक कठिन साधना जसा है क्योंकि कोई भी लाइन खींचने से पहले मैं सांस रोक लेती हूं, क्योंकि एक गहरी या सामान्य सी सांस भी सारी मेहनत पर पानी फेर सकती है। रंगीन चित्र बनाते समय ब्रश को चूसकर उसे नुकीला बना लेती हूं और फिर उस पर रंग लगाती हूं।ज् अपनी कृतियों के बारे में वह बताती हैं कि ‘मैंने कभी नहीं चाहा कि मेरी कृति केवल बुद्धिजीवी वर्ग की आलोचना तक सीमित रहे। शायद इसीलिए मुङो अमूर्त कला ने कभी आकर्षित नहीं किया। मेरे जीवन से जुड़ा हर व्यक्ति मेरा गुरु है। मेरा प्रशिक्षक है और मेरा समीक्षक है। इन्हीं की प्रतिक्रियाओं ने मुङो अपनी शैली को विकसित करने में सहयोग दिया है। वह कहती हैं कि मैं इस कला को घर-घर तक पहुंचाना चाहती हूं।ज्
-अभिनव उपाध्याय

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