छांव
दोपहर की धूप में जब सूख जाता है गला
और चटकने लगता है तलवा
तब बहुत महसूस होती है
छांव तुम्हारे आंचल की।
मेरी...
एक फंतासी ताउम्र की
जब-जब आए सावन,
या जब रंग बिखेरे मौसम,
या छा जाए बसंत की मदमाती खुशबू,
या दिख जाए कोई जोड़ा, हंसता- खिलखिलाता
या जब पोंछता हूं माथे का पसीना
तब याद आ ही जाते हो अक्सर, जिसे लोग कहते थे
मेरी..।
दोस्त-
हां वह यही कहती थी,
जब खुश होती थी
और चहक कर पकड़ा देती थी
चाकलेट का डिब्बा,
या फिर मायूसी में रख देती थी
हथेली पर अपना माथा
और फिर गर्म आंसुओं से भीगती थी अंगुलियां देर तक,
अक्सर चाय का बिल चुकाने की जिद में
वह कर देती थी झगड़ा,
और कुछ देर बाद वह यही कहती कि वह दोस्त है मेरी।
आज भी जब कांच की गिलास सेंकती है हाथ,
वह मिल ही जाती है चाय की चुस्की में,
होंठो पर चिपकती मिठास लिए।
5 comments:
Waah ! Bhavpoorn Sundar Rachnayen..
bahut sundar..teeno ek se badh kar ek
तीनों रचनाओं में मुझे दोस्त वाली काफी पसन्द आई। बहुत सुन्दर।
तीनो कविताएं अच्छी हैं .. बहुत बढिया लगा।
jaldi se layak baniye,,,varna bach-khuchi girlfriends bhi shaadi kar lengi to bas kavitayen hi likh payenge.......vaise bhai likha beshkeemati hai,,,.................
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