Wednesday, August 12, 2009

‘जिस लाहौर.... खूब वेख्या



सुप्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असगर वजाहत ने भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी को अपने मशहूर नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माई नई में उभारा था। इस नाटक को बेहद सराहा गया और देश-विदेश में इसके खूब मंचन हुए। हबीब तनवीर ने 1990 में इसे पहली बार दिल्ली में मंचित किया था। दो दशक बीत जाने के बाद भी इसे बराबर खेला जा रहा है। हबीब तनवीर की याद में अब इसे चौदह अगस्त को वाशिंगटन में खेला जाएगा। इस नाटक को लेकर मोहम्मद रजा ने असगर वजाहत से बातचीत की है। उसी पर आधारित यह लेख।

भारत-पाकिस्तान विभाजन को छह दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन विभाजन का दर्द आज भी दोनों देशों के लोगों के दिलों में एक नासूर बनकर जिंदा है। विभाजन के इसी दर्द को हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असग़र वजाहत ने अपने नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माइ नई में प्रस्तुत किया है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या का सबसे पहले मंचन मशहूर नाटककार स्व. हबीब तनवीर ने दिल्ली के श्रीराम सेंटर में 27 सितंबर 1990 को किया था। नाटक को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली। इसके बाद नाटक का कई देशों और भाषाओं में मंचन किया गया, जिसे लोगों ने खूब सराहा। नाटक का दिल्ली, मुंबई, वाशिंगटन, लंदन और सिडनी जसे शहरों में भी मंचन किया गया, जिससे नाटक को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी खूब ख्याति मिली। इसी कड़ी में वाशिगंटन के जॉन एफ केनेडी सेंटर में नाटककार हबीब तनवीर की याद में 14 अगस्त 2009 को नाटक का मंचन किया जा रहा है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या की विषयवस्तु का सूत्र उर्दू के पत्रकार संतोष भारती की किताब ‘लाहौरनामा की देन है। संतोष भारती 1947 में लाहौर से दिल्ली आ गए थे। इस दौरान हुए दंगों में संतोष के भाई की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी।
लेखक का संबंध उस पंजाब से नहीं है, जिसने विभाजन के दर्द को ङोला और न वे निजी रूप से उस युग के साक्षी रहे हैं, लेकिन उन्होंने विभाजन के उस युग पर कलात्मक ढंग से लिखा है। असगर वजाहत ने ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या नाटक को केवल मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं किया है, बल्कि दोनों समुदायों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया है। इस प्रयास का उद्देश्य यह बताता है कि दोनों समुदायों के बीच क्या हुआ कि सांस्कृतिक एकता, मोहल्लेदारी, प्रेम, विश्वास और भाईचारा समाप्त हो गया था। लेखक ने यह दर्शाया है कि समाजविरोधी तत्व किस तरह से धर्म का फायदा उठाते हैं। पात्रों का विकास तार्किक है तथा नाटक में पंजाब और लखनऊ की संस्कृतियों का मानवीय स्तर पर समागम अत्यंत संवेदनशील है। बुद्धिजीवियों और साधारण जनता के बीच का जो संबंध होना चाहिए, वह नाटककार ने मौलवी, कवि और जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्रों के माध्यम से दर्शाया है। नाटक का जो नया पक्ष लेखक को अन्य लेखकों से अलग करता है, वह यह है कि उसमें मौलवी को संकुचित विचारों वाला दकियानूसी नहीं चित्रित किया गया है। असगर वजाहत का मौलवी खलनायक नहीं है। वह हर तरह से मानवीय है। मस्जिद में मौलवी की हत्या एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से स्वार्थी तत्वों द्वारा धर्म तथा जीवन के महान मूल्यों को नष्ट कर देने की बात कही गई है।
नाटक में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद पैदा हुई स्थिति को बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। नाटक में दिखाया गया है कि लखनऊ से विस्थापित एक परिवार को लाहौर में 22 कमरों की एक बड़ी सी हवेली मिलती है। लेकिन उन्हें अपने घर के मुकाबले यह हवेली कुछ भी नहीं लगती। विभाजन के बाद जहां काफी सारे हिंदू पाकिस्तान से हिन्दुस्तान चले जाते हैं, वहीं एक बुढ़िया अपना घर छोड़कर नहीं जाती और फसाद के वक्त अपने घर में छिप जाती है। उसके घर को खाली समझकर कस्टोडियन वालों ने लखनऊ से विस्थापित एक परिवार सिकंदर मिर्जा को एलाट कर दी जाती है। जब इस परिवार को पता चलता है कि यह बुढ़िया इस हवेली में है तो वो उसे वहां से हटाने की काफी कोशिश करते हैं।
इसी सिलसिले में सिकंदर मिर्जा का लड़का मोहल्ले के ही एक पहलवान से उस बुढ़िया को हटाने की बात करता है। पहलवान सिकंदर मिर्जा से बुढ़िया को जान से मारने की बात कहता है, जिसे मिर्जा और उसके परिवार वाले मना कर देते हैं। धीरे-धीरे उस बुढ़िया की हमदर्दी सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ पूरे मोहल्ले में रहने वाले सभी मुस्लिम परिवार से हो जाती है। एक दिन अचानक उस बुढ़िया की मौत हो जाती है। उसकी मौत से सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ मोहल्ले वालों को बहुत दुख होता है। बुढ़िया के क्रिया-कर्म के लिए मौलवी से सलाह ली जाती है तो मौलवी कहता है कि बुढ़िया हिन्दू थी, लिहाजा उसका अंतिम संस्कार उसी के धर्म के अनुसार किया जाना चाहिए। मौलवी की ये बात पहलवान को नागवार गुजरती है और वे मस्जिद में मौलवी की हत्या कर देता है।
वर्तमान में इस जब इस वैश्विक व्यवस्था में आतंकवाद, इस्लामिक कट्टरवाद और उपनिवेशवाद के दौर में मुसलमानों की छवि खराब की जा रही है और जहां मूल्य कमजोर होते जा रहे हैं, लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं, वहां यह नाटक एक विभाजन की त्रासदी के बाद लोगों के मनोभावों को समझने और संवेदनाओं को सुरक्षित रखते हुए मूल्यों को संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। दर्शक इसे देखकर विभाजन के छह दशक बाद भी इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है।

(यह चित्र जिन्हे लाहौर नहीं वेख्या के प्रथम मंचन का है। )

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