Wednesday, January 6, 2010

भोर का तारा

कभी चांद था मेरा वो कभी रात अलबेली

भरी भीड़ में भी अक्सर कर जाता मुङो अकेली

बातें करता, रातें करता और करता गुस्ताखी।

लेकिन झट से मांग भी लेता था मुझसे वो माफी

गर हो जाए गुस्सा तो बस एक मुस्कान थी काफी।

अब जब वह सूरज बन बैठा किससे करूं गुजारिश

कोई आकर कर दे जलते अरमानों पर बारिश ।

धूप खिले या बादल छाए दाग हैं अब भी उजले

कैसे कहूं कि मिलते हैं अब वो बदले-बदले।

हम तो बस अब डूब गए थे लहरों के संग बहते

मांझी ने जब हाथ बढाया हम थे सहमे-सहमे।

मांझी का एहसास रुहानी नहीं कोई मजबूरी

फिर भी मैने रख ली है उससे थोड़ी दूरी....।

डर लगता है मुझको, फिर ऐसी कोई रात न आए

बातों-बातों में फिर उस जैसी कोई बात न आए।

दिल टूटे, ना सपने रूठे, फि र ना छोड़े अपना

शायद सच हो जाए, इस बार दिन का सपना।

लेकिन डरती हूं, फिर ना अतीत दुहराए

मैं राहों में खड़ी रहूं, और छोड़ मुङो चला जाए।

अभी बहुत कुछ कहना उससे, डरता है दिल हमारा

कहीं निकल ना जाए वो भी ‘भोर का तारा।

अभिनव उपाध्याय

1 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा रचना!

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एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...