Tuesday, March 2, 2010

रंग गुलाल भरी वह हंसी



निराला का जन्मदिन वसंत पंचमी था तो महोदवी का धुरेड़ी। इलाहाबाद में महिला विद्यापीठ में छात्रावास की छात्राओं के साथ वे खूब होली खेलतीं। हंसती-हंसाती-खिलखिलाती उनकी यह छवि हमेशा होली पर याद आती है। चौदह साल उनके पास रहकर पढ़ीं, उनकी एक छात्रावासी शिष्या गायत्री नायक का आत्मीय संस्मरण।

गुरुजी यानी महादेवी वर्मा की कविताओं, उनके रहन-सहन से उनकी जो छवि हमारे बीच बनी थी उसका दूसरा उलट रूप भी था। इसका अंदाज हमें पहली बार होली के दिन मिला। मैं प्रयाग महिला विद्यापीठ के छात्रावास में रहती थी। गुरुजी के पास प्रतिदिन सायंकाल उस समय के कवियों-साहित्यकारों की बैठक होती थीं। महाकवि निराला और पंतजी भी प्राय: आते थे। इन सबको चाय पिलाने का उत्तरदायित्व मेरा था - चाय बनाते और भेजते समय बैठक से आती चर्चाओं के बीच जोर-जोर से खिलखिलाने की आवाों भी आतीं। एक बार हम छात्राओं के कार्यक्रम में निरालाजी मुख्य अतिथि बनकर हम लोगों के बीच यह कहते हुए आये कि, ‘शेरों की मांद में आज आया है सियार।ज् गुरुजी ने मेरा परिचय कराते हुए कहा कि, ‘गत्ती सितार अच्छा बजाती है।ज् गुरुजी ने मुझसे सुनाने को कहा तो पहले मैंने निरालाजी का गीत ‘आज फिर संवार सितार लोज् सुनाया और फिर सितार भी बजाया।
गुरुजी अपने बंगले से बहुत कम बाहर निकलती थीं- पर जितनी गुरु- गंभीर वे दिखती थीं, उतनी थीं नहीं। हम एम.ए. हिन्दी की छात्राओं को अपने बंगले में पढ़ने को कहतीं - बीच में हमें अच्छा नाश्ता करातीं फिर कहतीं बड़े पेटू हो तुम लोग। हमारे अंग्रेजी के अध्यापक थे मि. सक्सेना। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी पुस्तक की भूमिका में जो अपना वर्णन किया है लगभग वैसे ही वे थे। अत: हम उन्हें मि. जायसी कहते थे - गुरुजी हमारी यह शैतानी ताड़ गईं और कहा बहुत शैतान हो तुम लोग। हम छात्रावासी लड़कियों के लिये होली का दिन विशेष रहता था। पहले हमें पता नहीं था पर होली की सुबह गुरुजी हम सबको बुलातीं और तीन-चार बाल्टियों में भरे रंग से हमें सराबोर कर देतीं- कोई बच नहीं पाता था - फ्राक और कुर्ते ब्लाउज के अन्दर रंग डालतीं - चेहरों पर हरे-लाल गुलाल लगातीं और सबके चेहरे देखकर खूब हंसती। हमें बाद में पता चला कि धुरेड़ी उनका जन्मदिन था। उस रात वे हमारे साथ मेस में खाना खातीं, बाईजी को विशेष हिदायत रहती खीर-पुड़ी-हलवा बनाने की। हमारे साथ बैठ कर वे भोजन करतीं और फिर छात्रावास की एक-एक लड़की को गुलाल लगाकर गले मिलतीं। बड़वानी की मनोरमा गायकवाड़ से बहुत हल्के मिलतीं क्योंकि उनके दुबले-पतले शरीर की हड्डियां उन्हें गड़ती थीं - पर अपने नाम के अनुरूप शैल बहिनजी से बार-बार मिलतीं, उन्हें देर तक गले लगाये रखतीं, क्योंकि वे अपने नाम के अनुरूप अच्छी गुलगुली थीं। इस तरह गुरुजी के साथ उनका जन्मदिन धुरेड़ी का दिन हंसते-खिलखिलाते बीतता। दसवीं के बाद की परीक्षा देने हमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जाना होता था - तो वे बहुत उदास होकर कहतीं तुम लोगों के बिना अच्छा नहीं लगेगा। परीक्षा के बीच यदि होली पड़ती तो वे कह देतीं तुम लोग होली के लिये यहां भाग आना।
तो गुरु- गंभीर महादेवी का खिलखिलाता रूप जो मैंने देखा है- चौदह वर्ष उनके सानिध्य में रहीं हूं- आज भी मन को उनकी खिलखिलाती वह छवि अभिभूत कर देती है। उनके साथ की खेली होली अब भी याद आती है। फिर वैसी सरस रंगभरी होली नहीं खेली- विद्यापीठ छोड़े लगभग बासठ वर्ष हो गये पर विद्यापीठ का छात्रावास, मैदान का कुआं, गुरुजी का दफ्तर और विशेषकर उनका बंगला, बैठक, भक्तिन की रसोई, गुरुजी के साथ खेली होली, उनका सहज-सरल खिलखिल रूप आज भी स्मृति में जीवंत है। उनके सानिध्य में बिताये चौदह वर्ष मेरे जीवन की अनमोल निधि है: ‘कांटों में नित फूलों सा खिलने देना अपना जीवन / क्या हार बनेगा वह प्रसून सीखा न जिसने हृदय को बिंधवानाज्।
आने वाली प्रत्येक होली मेरे लिये मेरी गुरुजी की खिलखिलाती छवि लेकर आती है।

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