Tuesday, July 13, 2010

शुक्रिया, फुटबाल! शुक्रिया फीफा!



मनोहर नायक

अब आठवां देश स्पेन! फुटबाल की एक बहुत बड़ी और भव्य दुनिया का विजेता देश। हमेशा चूकता, लेकिन इस सुंदर खेल को अपने खास दिलकश अंदाज में खेलता स्पेन अंतत: ग्यारह जुलाई 2010 को अपना हक पा गया। जोहानीसबर्ग में फाइनल गो उसने उस अंदाज में नहीं जीता जिसकी उम्मीद थी। जर्मनी की मंजी हुई शानदार टीम को जसा खेलकर उसने हराया उसकी फाइनल में एकाध दफा ही झलक दिखी। जर्मनी की टीम भी युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से लैस थी। अर्जेटीना जसे दावेदार का उसने वैसा ही मजाक बनाकर रख दिया था जसा स्पेन ने सेमीफाइनल मे उसका मजाक बना दिया था और पहली बार फाइनल में पहुंची थी। दूसरे दावेदार ब्राजील को हराने वाली नीदरलैंड भी उखड़ी हुई थी। एक गोल से पिछड़कर हाफ टाइम के बाद उसका खेल स्तब्ध करने वाला था जिसने अंतत: ब्राजील को वापस मुल्क भेज दिया था। स्पेन की कला नदारद थी तो नीदरलैंड का जोशीला जुझारूपन। उनका खेल ‘फिर भी डटे रहे डचज् मार्का ही रहा और एक सौ अठारहवें मिनट में सबस्टीट्यूट फैबरेगास के पास पर आंद्रेस इनिएस्ता ने उन्हें तीसरी बार भी हाथ मलते रहने छोड़ दिया। एक तरह से देखें तो विश्व कप के कुछेक बेहद उम्दा मैचों के बाद फाइनल फीका था। एकस्ट्रा टाइम के कारण लंबा था और उसमें उबाऊ वाले क्षण भी काफी थे। लेकिन उसका जबर्दस्त आकर्षण था कि आठवां विजेता पहली बार कौन होगा! और आक्टोपस पॉल, बनारसी श्यामा चिड़िया, सिडनी के मगरमच्छ और सिंगापुरी तोते को छोड़िये, भूलिये, जीता वही जो बेहतर था।
बेशक स्पेन बेहतरीन टीम थी। इस टूर्नामेंट की सर्वोकृष्ट। 2008 में यूरो कप जीतने के बाद से वह लगातार शानदार खेल रही थी। एक अत्यंत सुसम्बद्ध टीम। उसके छोटे-छोटे सुंदर पासों वाला खेल ब्राजील के अच्छे दिनों की याद दिलाता था। टॉरेस, इनिएस्ता, विला, पुयोलो, फैबरेगास जसे हुनरमंद और धाक रखने वाले सितारे टीम में एक अदद खिलाड़ी ही नजर आते थे। एक स्वार्थी प्रेडो थे, जो वैसे फाइनल में अपनी निजी महत्वाकांक्षा से मुक्त हो गये थे। इस टीम का लक्ष्य स्पष्ट था और उसने उसे भेद ही दिया। पॉल बाबा का क्या विधि विधान था और मीडिया से मशहूर हुए बाकी ‘ज्योतिषीज् किस कर्मकांड से विजेता तय कर रहे थे यह तो शायद ही पता चल सके लेकिन एक चीज जो खेल में हरदम सूर्यप्रकाश सी स्पष्ट होती है वह है: ‘खेलज्। इसलिये डियेगो माराडोना हों या फुटबाल के नामी और अनाम प्रेमी, ज्यादातर, सभी की पसंद स्पेन पर सिमट आयी थी।


अब फुटबाल क्या सभी खेलों में अंधविश्वास का चलन आम है। निर्णायक क्षणों में प्रशंसक भी सिर ऊपर उठाए बुदबुदाते दिखते हैं। फुटबाल का संसार और उसके दांव और खेलों से कहीं ज्यादा विशाल और व्यापक हैं तो यहां अंधविश्वास भी वैसा ही ज्यादा है। अनंत किस्से हैं। मसलन, किसी टीम के कोच ने मैच के आसपास चिकन खाने पर रोक लगा दी थी। किसी विश्वकप के एक सेमीफाइनल में एक खिलाड़ी ने अपना नाम हटवा लिया क्योंकि उसे लगता था कि इस टीम के खिलाफ जब-जब मैं नहीं खेला तब-तब जीत हुई। खिलाड़ियों को मैदान की घास चूमते, आकाश की ओर देखते, क्रास बनाते और मैदान में घुसते ही गोल पोस्ट में किक लगाते या पोस्टों को चूमते तो हर समय देखा जा सकता है। हारने पर खिलाड़ी मातम मनाते हैं और कुछ को यह सदमा रहता है कि इसलिये हारे क्योंकि पिछली बार जीतने के बाद जर्सी विपक्षी टीम के खिलाड़ी से बदल ली थी। अब इसी बार जर्मनी के कोच जोआकिम लोव स्पेन के खिलाफ सेमीफाइनल में वही जर्सी पहने हुए थे जो उन्हें लगता था उनके लिये जीत का डंका बजा रही है। उनके खिलाड़ियों ने उन्हें उसे धोने तक नहीं दिया था। लेकिन हुआ क्या स्पेन ने अच्छी-खासी टीम की गत बना दी।
इस स्वीकारोक्ति में भला क्या हर्ज की ब्राजील के पुराने शैदायी हमें भी क्वार्टर फाइनल में नीदरलैंड के खिलाफ ब्राजीलियनों को अपनी मशहूर पीली जर्सी में न देखकर खटका हुआ था। लगा था कि जिताने के लिये इस नीली जर्सी की पीली पट्टियां ही काफी नहीं। ब्राजील हार भी गयी। बाद में पढ़ा कि दशकों से ब्राजील इस जर्सी को पहनकर हालैंड से जीतती रही है। लेकिन जर्सियां नहीं जितातीं! दस नंबर की जर्सी की क्या दुर्दशा हुई! काका-मैसी-रूनी सभी फ्लाप। टॉप स्कोरर न होते हुए भी दस नंबर की जर्सी वाला खिलाड़ी टीम की आत्मा होता है, दिल-दिमाग। पेले-प्लातीनी और बैजियो की तरह। वह तो कहिये फोरलैन और श्नाइडर ने उसकी कुछ लाज बचा ली।
ब्राजील के पूर्व कप्तान सोक्रेटीज ने स्पेन को जीतने का हकदार बताते हुए कहा भी था कि अगर मैं अंधविश्वासी होऊं तो मानूंगा कि इस टूर्नामेंट के सारे मैच जीतने वाली नीदरलैंड को ही फाइनल जीतना चाहिए। बात सही है। खेल में ऐसा नहीं होता। पहला ही मैच हारने वाली स्पेन विजेता रही और कोई भी मैच न हारने वाला नीदरलैंड सबसे महत्वपूर्ण, निर्णायक और ऐतिहासिक मैच हार गया। औरों की तरह स्पेन के कोच विसेंट डेल बोस्क को अपनी टीम पर भरोसा था, पर वे किसी मुगालते में नहीं थे। शुरू में ही एक इंटरव्यू मे उन्होंने कहा था, ‘कोई मैच आसान नहीं होता। पेपर पर कोई भी टीम बड़ी हो सकती है पर वह जीते यह शर्तियां नहीं होता।ज् यूं देखें तो वाकई सबसे तगड़ी टीम इंग्लैड की थी। अर्जेटीना और ब्राजील भी। लेकिन सब पूर्व विजेता एक-एक कर बाहर होते गए। ब्राजील की टीम का तो चाल-चलन ही बदल दिया कोच डूंगा ने। उनके लिये ‘जीतज् महत्वपूर्ण थी। जीतने के लिये तो खेला ही जाता है लेकिन जसा कि उरुग्वे के इतिहासकार एडुआडरे गैलियानो कहते हैं कि फुटबाल की यात्रा ‘ब्यूटीज् से ‘ड्यूटीज् हो जाने की है। गोल मारने के बजाय, बचाने पर जोर हो गया है। खिलाड़ी से उसकी सूझबूझ छीन ली गयी है। वह ‘जीतज् का बंदी है। सोक्रेटीज ने अपने एक कॉलम में जसे अपने ही समकालीन डूंगा को ध्यान में रखकर लिखा: ‘बहुत से कोच आजकल आज्ञाकारी और औसत खिलाड़ियों को पसंद करते हैं। ये बिना सोच-विचारे आदेशों को मानते रहते हैं और कलात्मकता की बनिस्बत भद्दे ढंग से खेलकर मैच जीतना चाहते हैं।ज् इतिहास को अपनी आगोश में लेने की कश्मकश वाले फाइनल में ‘जीतज् का यह दबाव दिखा जिसने खेल को भद्दा भी किया और दोनों टीमों का निजी कौशल भी कम किया।
इस विश्व कप ने एक नया विजेता दिया है और बताया है कि फुटबाल की दुनिया बदल रही है। दिग्गज बौने नजर आ रहे हैं। इटली स्लोवाकिया के हाथों पिटती है। सितारों की चमक धूमिल पड़ रही है। गोल्डन ग्लोव पाने वाले इकेर कैसियास हों या इनेएस्ता, जिन्हें रूनी भी सर्वश्रेष्ठ फुटबालर मानते हैं, मुलर हों या विला या फोरलैन या घाना के गोलची किंग्स्टन या जियान या होंडा। नये-नये सितारे उभरे हैं। आगे अफ्रीका और एशिया की चुनौती और तीव्र होगी। खुद फीफा बदल रहा है। चूकों के लिये वह शर्मिदा हुआ और नियम बदलने पर आमादा है। वेवेजुला की गूंजती आवाजों ने उसके कान-कपाट खोल दिये हैं। इसकी गाज तीखी आवाज वाले वेवेजुला पर भी गिरी है। 2014 के लिए उस पर पाबंदी लग गयी है।

वेवेजुला के शोर, जुबलानी पर प्रहार की दुनिया से हम परसों देर रात एकाएक बाहर आ गए। महीने भर तक हम फुटबाल की विराट और रोमांचकारी दुनिया की प्रजा थे। शायद इस दौरान की यह सबसे बड़ी दुनिया होती है। अनेकता में जुनूनी एकता वाली। देशों, भाषाओं की सबसे विविध और रंगीन दुनिया। फीफा जिसकी सरकार होता है और जो अपना काम ‘अरबितरोज् यानी रैफिरियों के जरिये निरंकुश ढंग से चलाता है। इस दुनिया में शामिल रहना अनोखा और लाजवाब था। जसा कि विश्व कप आयोजन समिति के प्रमुख कार्यकारी डैनी जॉर्डान ने कहा कि फुटबाल का यह आयोजन हमें जोड़ता है। अपनी भाषा का एक शब्द ‘उबन्नुज् उन्होंने इस्तेमाल किया जिसका अर्थ है कि हम सब आपस में बंधे हुए हैं। फीफा की यह सरकार दखलंदाजी भी पसंद नहीं करती। फुटबाल तो करामाती है। उथल-पुथल करती है। देश, सरकार उससे डावांडोल होती हैं। पर फीफा डपटे तो नाइजीरिया और फ्रांस सब दुबक जाते हैं। लेकिन लोग, वे तो फुटबाल के जरिये बदला लेते और चुकाते हैं। सोरेज उरुग्वे में ‘हीरोज् तो जाते हैं तो समूचे अफ्रीका में ‘चीटज्। घाना ही नहीं पूरा अफ्रीका उरुग्वे के खिलाफ मैच में नीदरलैंड के समर्थन मे वेवेजुला बजाता है। फीफा ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल इस बार नस्लवाद के खिलाफ किया। और देखिये, नस्लवाद के गढ़ रहे दक्षिण अफ्रीका में और उसके खिलाफ लड़ने वाले अप्रतिम योद्धा नेल्सन मंडेला की उपस्थिति में वह नीदरलैंड हार गया, जिसने औपनिवेशिक दौर में नस्लीय नियम लागू किये थे। लोग कहते रहें, खेल-खेल है, इतिहास -इतिहास। लेकिन फुटबाल का खेल इतिहास से सामना कराता रहता है।

2 comments:

Mansoor Naqvi said...

Manohar ji ko is shaandaar prastuti ke liye badhai....

manibhushan said...

bahut sunder. adbhut. itna kasa hua lekh maine nahin padha hai. pure viswa cup football ki yeh ek samyak review hai. nayakji ne bahut hi man se likha hai is lekh ko. is bemissal lekh ke liye unhe badhai.
manibhushan patna

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एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...