Saturday, September 11, 2010

विचार तो अब भी कायम

किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले, सर्वोदय आंदोलन के साथ यह नहीं हो सका।

एसएन सुब्बाराव
विनोबा मूलत: आध्यात्मिक व्यक्ति थे और इसी रूप में वे सभी समस्याओं का समाधान तलाशते थे। नेता बनने की इच्छा उनमें नहीं थी। वे सभी को समान रूप से देखते थे और एक आध्यात्मिक जीवन बिताना चाहते थे। यह भी सच है कि वे घर से मुक्ति की तलाश में निकले थे, लेकिन गांधी से मिलने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। वे उनके विचारों से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग छोड़ दिया और सामाजिक जीवन में उतर आए। फिर आजादी के आंदोलन से लेकर एक नए समाज की रचना तक के गांधी के कार्यक्रम में वे हर जगह उनके साथ रहे। लेकिन 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या के बाद हालात बदल गए। एकाएक हुई इस वारदात ने लोगों को सकते में डाल दिया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में आ गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अब उन सपनों को कैसे पूरा किया जाएगा, जो गांधीजी ने आजाद भारत की जनता के लिए देखे थे। कैसे एक नए समाज की रचना हो, जिसमें हर व्यक्ति का कल्याण हो। ऐसे में सबको विनोबा में उम्मीद की किरण दिखी। गांधी के रूप में देश का जो नेतृत्व एकाएक खो गया, वे विनोबा के रूप में दिखा। लोग उनके निर्देश की प्रतीक्षा करने लगे। विनोबा ने भी महसूस किया कि सर्वजन के हित में जिस समाज की संकल्पना गांधी ने की थी, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। यूं हाथ पर हाथ धरे रहने से बात नहीं बनेगी। उन्होंने गांधी के सपनों को साकार करने के लिए लोगों का आह्वान किया और कहा कि देश ने आजादी तो हासिल कर ली, अब हमारा लक्ष्य एक ऐसे समाज की रचना करना होना चाहिए, जिसमें सबका कल्याण सुनिश्चित हो सके।

गांधी के सपनों को साकार करने के लिए सर्वसेवा संघ का गठन किया गया, जिसका उद्देश्य समाज में सभी की सेवा करना था। अब तक विनोबा के मन में भू-आंदोलन जसी कोई संकल्पना नहीं थी। लेकिन देशभर का भ्रमण करने के बाद उन्हें इस बात का भान हो चला था कि समाज दो भागों में बंटा है, एक भूमिहीन लोगों का तबका और एक भू-स्वामियों का वर्ग। भूमिहीन लोगों की एक बड़ी संख्या है, जबकि मुट्ठीभर लोगों के पास आवश्यकता से अधिक भूमि है।
अपनी पदयात्रा के दौरान जब वे आंध्र प्रदेश के तेलंगाना पहुंचे तो वहां जमीन के टुकड़े के लिए लोगों को लड़ते देखा। भूमिहीन भू-स्वामियों से जमीन छीनने के लिए छापामार युद्ध चला रहे थे तो उन्हें काबू में करने की जिम्मेदारी पुलिस को दी गई थी। भूमिहीनों से उन्होंने हिंसा छोड़ने की अपील की तो उन्होंने अपने लिए जमीन की मांग की। खुद विनोबा को भी उस वक्त नहीं पता था कि वे इनकी समस्याओं का समाधान कैसे करेंगे? इसी उधेड़बुन के बीच उन्होंने ग्रामीणों की सभा बुलाई और लोगों के सामने उनकी समस्याएं रखी। तब स्वयं विनोबा को भी उम्मीद नहीं थी कि कोई उनकी समस्याओं के समाधान के लिए इस तरह आगे आएगा। सभा में से एक व्यक्ति ने सौ एकड़ जमीन देने की पेशकश की। यहीं से विनोबा को मिल गया भूमिहीनों की समस्या का समाधान। देशभर में पदयात्रा कर वे और उनके अनुयायी भू-स्वामियों को भूमिहीनों के लिए जमीन का एक टुकड़ा देने के लिए प्रेरित करते रहे। स्वयं विनोबा ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद देशभर में लगभग छह हजार किलोमीटर तक पदयात्रा की। उनके प्रयास से देशभर में भू-स्वामियों द्वारा दान की गई लाखों एकड़ जमीन एकत्र की गई और इन्हें भूमिहीनों के बीच बांटा गया।


हां, यह सच है कि जमा की गई भूमि एक हिस्सा भूमिहीनों के बीच बंट नहीं पाया। लेकिन इसके लिए विनोबा और उनके अनुयायियों को दोष देना ठीक नहीं है। इसके लिए काफी हद तक सरकार भी जिम्मेदार है, जो जमीन का सही वितरण सुनिश्चित नहीं कर पाई। जहां तक सर्वोदय आंदोलन की प्रासंगिकता की बात है तो सिर्फ इस आधार पर इसे अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता कि विनोबा द्वारा चलाई गई यह मुहिम आगे चलकर विफल हो गई। किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है कि उसे समाज और व्यवस्था का साथ मिले। सर्वोदय आंदोलन के साथ ऐसा नहीं हो पाया। वरना इसके विचार और अवधारणा आज भी प्रासंगिक हैं। आवश्यकता है तो उसे सही तरीके से समझने और उस दिशा में प्रयास करने की।
आज भी देश में भूमिहीनों की एक बड़ी तादाद है। नक्सल समस्या इसकी एक बड़ी वजह है। कभी विनोबा ने कहा था कि हर बेरोजगार हाथ बंदूक पाने का हकदार है। अगर उन्हें रोजगार मिले तो वे भला बंदूक क्यों उठाएंगे? आज सरकार नक्सल समस्या से निपटने के लिए तरह-तरह की कार्य योजनाएं बना रही है और उस पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन यह समस्या ही न हो, इसके लिए कोई कार्य योजना नहीं बना रही। अगर योजना बन भी रही है तो उन्हें क्रियान्वित नहीं किया जा रहा। विकास कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण जसी समस्या का समाधान भी विनोबा के सिद्धांतों में ढूंढा जा सकता है। विशेष आर्थिक क्षेत्र या अन्य विकासात्मक कार्यो के मद्देनजर अगर किसानों को स्वेच्छा से जमीन देने के लिए प्रेरित किया जाए तो देशभर में जमीनों के अधिग्रहण के लिए हो रहा विरोध रोका जा सकता है।
(श्वेता यादव से बातचीत पर आधारित)

1 comments:

Smart Indian said...

विनोबा जैसे संतों के विचार और तौर-तरीकों की आवश्यकता समाज को सदा ही रहेगी।

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एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...