वर्तमान में बहस के कुछ चर्चित मुद्दों में माओवादियों का मुद्दा प्रमुख है। लेकिन जनमानस का एक बड़ा तबका माओवादियों, नक्सलियों और आदिवासियों की समस्याओं को लेकर भ्रमित है। यही नहीं दिलचस्प तो यह है कि जब भी नक्सलियों की तरफ से कोई कार्रवाई होती है वह संचार माध्यमों के लिए एक बड़ी खबर है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण की दौड़ में जहां मुनाफा संबधों को तौलता है वहां भी इनकी खबरों के पाठक बहुत हैं। सवाल यही है आखिर जिसे मीडिया से लेकर सरकार तक लगभग आतंकवादी बताते फिर रहे हैं उन्हे बुद्धिजीवियों का इतना समर्थन क्यों मिल रहा है? निश्चित रूप से सभी बुद्धिजीवी देशद्रोही नहीं हो सकते। माओवादियों, आदिवासियों और नक्सलियों को जानने, समझने और उनके बारे में लोगों की राय से इतर अपनी व्यक्तिगत राय बनाने के लिए वाणी प्रकाशन की त्रैमासिक पत्रिका वर्तिका के अक्टूबर से दिसम्बर 2010 का अंक एक उपयोगी सामग्री साबित हो सकती है। महाश्वेता देवी और अरुण कुमार त्रिपाठी के संपादन में निकलने वाली यह पत्रिका नए विमर्श के साथ मोआवादियों के इतिहास को भी समझने का मौका देता है। पत्रिका संपादकीय ‘माओ गांधी के देश में गांधी और माओत्से तुंग के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन मात्र नहीं है बल्कि एक वर्तमान परिवेश में उसकी प्रासंगिकता को लेकर भी एक सवाल खड़ा करता है। संपादक अरुण कुमार त्रिपाठी लिखते हैं कि ‘नव उदारवाद के खिलाफ लड़ रहे माओवादियों और गांधीवादियों की चिंता तो एक जसी है। पर उनके बीच हिंसा की गहरी खाई है। माओवादी हिंसा छोड़ने को तैयार नहीं हैं और गांधीवादी हिंसा का किसी भी तरह से समर्थन कर नहीं सकते।
महाश्वेता देवी का लेख ‘लाल गढ़ के लिए सरकार जिम्मेदारज् आम जन की आवाज की बुद्धिजीवी द्वारा सही होने का ठप्पा है। इस लेख में लेखिका ने वह सब कह दिया है जो जनता की आवाज थी और चुनाव के बाद परिणाम ने अब वहां कुछ कहने के लिए छोड़ा नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार इरा झा का ‘बस्तर का दर्द तो समझोज् पढ़ कर ऐसा लगता है कि आदिवासियों के जंगल,जमीन और जल को हड़पकर सरकार किस तरह उन्हें बेघर कर रही है। लेखिका यह लेख व्यक्तिगत अनुभवों के कारण और प्रामाणिक और प्रासंगिक हो गया है। आज बस्तर ही नहीं बल्कि और इलाकों के आदिवासी भी अपनी जमीन होने के बावजूद दोयम दर्जे की जिंदगी जी रहे हैं। दंतेवाड़ा पर अरुंधती राय के लेख को केंद्र में रखकर सुनील का लिखा गया लेख न केवल वहां की आंतरिक समस्याओं से अवगत कराता है अपितु उसके समाधान की तरफ भी अग्रसित करता है। पत्रिका में बीडी शर्मा का साक्षात्कार कई मुद्दों पर एक साथ प्रहार करता है और यह बताने की कोशिश करता है कि वास्तव में हम एक तरफा शांति की बात नहीं कर सकते। इस पत्रिका का हर लेख जानकारी परक है लेकिन मैं खास दो लोगों की विशेष बात करना चाहूंगा, पहला अनिल चमड़िया के लेख ‘दर्द बढ़ता ही गया और चारु मजूमदार के पुत्र अभिजीत मजूमदार के एक साक्षात्कार का। अनिल चमड़िया बड़ी बेबाकी से इस बात को प्रस्तुत करते हैं कि सरकार किस तरह दबाव में है कि व्यक्ति जब एक अर्थशास्त्री होता है तो उसे नक्सलवाद एक समस्या दिखती है जो असंतोष और अधिकारों के न मिलने के कारण है जबकि वही व्यक्ति जब प्रधानमंत्री बनता है तो उसे नक्सलवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा लगने लगता है। अनिल चमड़िया लिखते हैं ‘नक्सलवादियों को जिन इलाकों में सरकार सबसे सक्रिय बताती है वे कौन से इलाके हैं! जहां देश की आखिरी पंक्ति में खड़ी जमात रहती है। जहां वह रहती है उसके घर के नीचे खनिज संपदा है। प्राकृ तिक संसाधनों से वह भरपूर है। जंगह है। पानी है। लोगों को जीने के अधिकार से वंचित रखा गया है। सरकार उन्हे बंदूकधारी बता रही है।ज् अभिजीत मजूमदार ने आलोक प्रकाश पुतुल से बातचीत में स्वीकार किया है कि ‘..आदिवासियों को हिम्मत दिलाने की जरूरत है उनके लिए लड़ने की जरूरत है और इस दिशा में माओवादी काम कर रहे हैं। लेकिन आज के हिन्दुस्तान में भुखमरी है, बेकारी है। अगर आप इसको मुद्दा नहीं बनाएंगे, आप एक बड़ी आबादी के केवल एक हिस्से को ध्यान में रखेंगे, केवल आदिवासी की बात करेंगे तो आपका आंदोलन ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा। यह स्वीकारोक्ति यह बयां करती है कि अब मुद्दा बंदूक के बल पर रोटी छीनने का नहीं है।इस पत्रिका में डा. प्रेम सिंह, सच्चिदानंद सिंहा,डा. अरविंद पांडेय, प्रियदर्शन सहित अन्य लोगों के लेख बेहद सधे हुए और ज्ञानवर्धक है । कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है।
अभिनव उपाध्याय
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