Sunday, November 6, 2011

कवि क्या करे?

आजकल की हिंदी कविता में सड़कों का जिक्र कम ही होता है। कुछ साल पहले तक हिंदी की कई कविताओं में कच्ची सड़क से गुजरने का जिक्र होता था। हालांकि उसे हमेशा इसी नाम से नहीं पुकारा जाता था। कुछ और नाम भी होते थे। जैसे पगडंडी। लेकिन अब न अरसे से पगडंडी का हवाला मिला है न कच्ची सड़क का।

कहने का मतलब ये कि कविता में कौन से शब्द आते हैं औऱ किनका चलन गायब हो जाता है इसे ही साहित्य का समाजशास्त्र कहते हैं। शब्दों का आना और जाना सामाजिक बदलावों के बारे में भी बताता है।

बहरहाल यहां, साहित्य के समाजशास्त्र पर बात नहीं हो रही है। बात है कि आज की कविता का सड़कों से क्या रिश्ता होना चाहिए। पहले के कवि के लिए मामला आसान था। या तो कच्ची सड़क होती थी या पक्की। लेकिन अब की सड़कों का मामला जटिल हो गया है इसलिए कवियों के लिए मुश्किल हो गई है। मिसाल के लिए कुछ सड़कें ऐसी होती हैं जो अधबनी होती हैं या जो ठीक से न कच्ची होती है न पक्की। अधबनी सड़कें भी कई तरह की होती हैं। कुछ पर छर्रिया गिंरी होती हैं लेकिन अलकतरे का लेप नहीं लगा होता, कुछ पर अलकतरे का लेप तो लग जाता है लेकिन उसमें घनत्व ज्यादा नहीं होता इसलिए बनने के बाद टूट जाती हैं, कुछ में छर्रियों और अलकतरे का अनुपात ठीक नहीं होता इसलिए अलकतरा नीचे चला जाता है और छर्रिया ऊपर आ जाती है और मार्ग अवरोधक का काम करती हैं। कुछ ऐसी भी होती हैं जिनमें छर्री और अलकतरे दोनों इतने खराब क्वालिटी के होते हैं कि सड़क पर बीच बीच में गड्ढ़े हो जाते हैं। गड्ढे भी कई तरह के होते हैं। कुछ छोटे , कुछ मझोले तो कुछ बड़े। कुछ मिलाकर भारत की सड़कों के बारे में पुराने मुहाबरे से काम नहीं चलता। और नए मुहाबरे बनाना सड़क बनाने से कहीं ज्यादा मेहनत का काम है। आखिर जिन सड़कों पर चलना कठिन है और साइकिल और रिक्से से लेकर कार और बस चलाना मुश्किल है उसके बारे में कविता लिखना कितना दुष्कर कार्य होगा इसका सहज अनुमान ही लगाया जा सकता है। कुशल से कुशल यथार्थवादी भी भारतीय सड़क का यथार्थ बयान नहीं कर सकता। इसलिए यह समझना चाहिए कि आज की कविता में कवि कच्ची या पक्की सड़क का जिक्र नहीं करता तो इसका मतलब है कि आदमी को बनानेवाले से सड़क को बनानेवाले ज्यादा मेधावी और तेजस्वी हो गए हैं। कहने और लिखने का मतलब ये कि विधाता से बड़ा सड़क के ठेकेदार और ओवरसीयर की प्रतिभा है। भारत में जितनी तरह की सड़के हैं उतने तरह के आदमी नहीं। ऐसे में कवि क्या करे?


रवींद्र त्रिपाठी

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