Sunday, November 20, 2011

पचहत्तर पार ज्ञान

हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन की कल यानी 21 नवम्बर को 75वीं सालगिरह है। सिर्फ कथाकार ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और साहित्यिक नेतृत्व के स्तर पर भी ज्ञानरंजन की अपनी विशिष्ट छवि है। अपनी कहानियों के साथ-साथ वे ‘पहलज् पत्रिका के लिए भी हिन्दी में चर्चित और प्रतिष्ठित हुए। सक्रियता के इतने वर्ष बिताने के लिए और भविष्य में भी सक्रिय बने रहने की शुभकामनाओं और सदिच्छाओं के साथ हम उनके ऊपर यहां विशेष सामग्री दे रहे हैं।

ज्ञानरंजन एक यारबाज आदमी हैं। शायद समकालीन हिन्दी जगत में कोई ऐसा शख्स दूसरा नहीं है जिसके इतने मित्र, हितैषी और शुभचिंतक हिन्दीभाषी समाज के अलग-अलग शहरों में हों। लेकिन साथ ही उनके हर हितैषी या मित्र की एक सामान्य शिकायत रही है जो आज भी मौजूद है। और वह शिकायत है उनके कम लिखने की। ज्ञानरंजन ने बहुत कम लिखा है। शायद उनकी कहानियों की संख्या 40 से अधिक नहीं है। पर इतना कम लिखने के बावजूद वह हिन्दी के एक मेजर कहानीकार हैं। शायद वे हिन्दी के अकेले बड़े कहानीकार हैं जिन्होंने सिर्फ कहानियों के बल पर साहित्य में अपनी छाप छोड़ी है। उनकी पीढ़ी के पहले के सभी बड़े कहानीकारों ने उपन्यास लिखे। उनके समकालीन रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह और काशीनाथ सिंह ने उपन्यास भी लिखे। ज्ञानरंजन ने सिर्फ कहानियां। इसके बावजूद हिन्दी की अग्रिम पंक्ति के कथाकारों में ज्ञानरंजन का नाम रखना एक अनिवार्यता की तरह है।

ज्ञानरंजन के जीवन के दो अध्याय हैं और दोनों अपने आप में मुकम्मल। पहला अध्याय इलाहाबाद का है जहां उनकी सृजनात्मकता उत्कर्ष पर पहुंची। यह वह दौर था जब हिन्दी कविता में परिमलियों का जोर था और हिन्दी कहानी नई कहानी आंदोलन के बाद एक नई अंगड़ाई ले रही थी। इस अंगड़ाई की शैली और उसका विन्यास निर्मल वर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर की कहानियों से कुछ अलग था। हालांकि अमरकांत और कमलेश्वर भी इलाहाबाद के ही रहे। पर साठोत्तरी कहानी की जिस तिकड़ी-ज्ञानरंजन, दूधनाथ और कालिया-ने जिस नये भावबोध की कहानियां लिखीं वह बिल्कुल अनजानी भी थीं और प्रामाणिक भी। वैसे तो हर कथाकार अपने समकालीन और बदलती दुनिया को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करता है मगर साठोत्तरी पीढ़ी के इन तीनों कहानीकारों ने उस सन् 60 के भारत के उस मर्म को पकड़ा जो आजाद भारत में जवान हो रही पीढ़ी के मन में थी। आदर्श बदल चुके थे और बदमाशियां आकार लेने लगी थीं। भाषा में एक आवारापन आ चुका था। चीजें टूट-फूट रही थीं। जिन लोगों ने ज्ञानरंजन की कहानी ‘फेंस के इधर-उधरज् पढ़ी है वे समझ सकते हैं कि टूटते और नए बनते मूल्यों की कैसी सटीक पहचान इस कहानी में है। ‘घंटाज्, ‘बहिर्गमनज्, ‘पिताज् जसी कहानियां तत्कालीन जिंदगी के कई असमंजसों को दिखाती हैं। ‘पिताज् के पिता नए मूल्यों क ो नकारते हैं या पुराने से चिपके रहना चाहते हैं यह कहीं स्पष्ट नहीं होता। इसी तरह ‘अमरूद का पेड़ज् कहानी भी उसी असमंजस का बयान करती है। घर के सदस्यों को अमरूद के पेड़ से लगाव भी है लेकिन मां उसे किसी अशुभ की आशंका से कटवा भी देती है। अमरूद के पेड़ का कटना भी कोई निजात नहीं देता और घर की हवा में उसके न होने का दुख सालता रहता है।

ज्ञानरंजन की कहानियों की भाषा बेहद शरारती है। तिलस्मी और निर्मोही भी। कहीं-कहीं उद्दंड भी। और यही वह बिंदु है जहां ज्ञानरंजन अपने पूर्ववर्तियों, समकालीनों और परवर्तियों से अलग होते हैं। उनके गद्य में जो मांसलता है वह कई तरह के मनोभावों को उभारती है। उनकी कहानियों में घटनाएं कम ही घटती हैं। लेकिन मनुष्य के भीतर में जितना कुछ घटता है उसको पकड़ने और उद्घाटित करने की विलक्षण क्षमता उनकी कहानियों में है उसका कोई दूसरा सानी नहीं। ज्ञानरंजन अपनी तरह के अद्वितीय कहानीकार हैं।

दूसरा अध्याय शुरू होता है जबलपुर में। ज्ञानरंजन का लिखना लगभग स्थगित हो जाता है और वे ‘पहलज् निकालने में संलग्न हो जाते हैं। वैसे तो हिन्दी में कई लोगों ने साहित्यिक पत्रिकाएं निकालीं मगर ‘पहलज् जसी कोई और दूसरी पत्रिका आज नहीं है। हिन्दी में वामपंथी सौंदर्यबोध जिस मंच ने सबसे ज्यादा आविष्कृत किया उसका नाम ‘पहलज् है। इसे महत्व का आकलन इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब ज्ञानजी ने इसके प्रकाशन को बंद करने की घोषणा की तो उनके कई बेहद करीबी भी उनसे खफा हो गए।

वैसे 75 की उम्र वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अपनी रचनात्मकता को किसी नई दिशा में ले जाए। ज्ञानजी से भी ऐसी अपेक्षा उचित नहीं है। फिर भी वे हिन्दी के शायद अकेले बड़े लेखक हैं जिनका युवा पीढ़ी से इतना गहरा लगाव है। युवा कथाकार ही नहीं बल्कि युवा कवि और युवा आलोचक भी आज भी ज्ञानरंजन से मार्गदर्शन की उम्मीद करते हैं। अपने समय की रचनात्मकता को पहचानना और सहलाना, उसे और उर्वर बनाना-यह सब वे करते रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिये कि आगे भी करते रहेंगे। सृजनात्मकता सिर्फ लिखने में नहीं होती बल्कि वह उस माहौल को निर्मित करने में भी होती है जिसमें लोग अपने को अभिव्यक्त करने के लिए सतत् प्रयास करते रहें। ज्ञानरंजन की उपस्थिति और मौजूदगी लोगों को प्रेरित करती रही है और यह आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षो में लंबे समय तक करती रहेगी।

रवीन्द्र त्रिपाठी


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