Sunday, December 18, 2016

आज भी उपेक्षित है हिंदी का संन्यासी फादर कामिल बुल्के



बेल्जियम में जन्मे और झारखंड से लेकर उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्से में अपनी हिंदी सेवा के लिए विख्यात रहे फादर कामिल बुल्के राजधानी में जन्मदिवस और पुण्य तिथि तो दूर हिंदी के प्रचार प्रसार की रस्म अदायगी करने के लिए आयोजित  सरकारी या गैर सरकारी कार्यक्रमों में याद नहीं किए जाते हैं।
उनकी क़ब्र कश्मीरी गेट स्थित निकल्सन क्रिश्चियन कब्रगाह में है। लेकिन कई लोगों  को पता भी नहीं है कि 17 अगस्त 1982 को एम्स में गैंग्रीन से हुई उनकी मृत्यु के बाद उनको यहीं दफनाया गया है।
वरिष्ठ साहित्यकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा.नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि फादर कामिल बुल्के और मैं
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डा.माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया। वह मेरे गुरुभाई थे। दिल्ली और इलाहाबाद में उनसे कई मुलाकातें हुई। उन्होंने हिंदी के विस्तार, वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के लिए काफी काम किया। वह हिंदी को लेकर इमानदार और साहित्य के बारे में सटीक थे।
बेल्जियम के पश्चिमी फ़्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले गांव में 1 सितंबर 1909 को जन्मे फादर कामिल बुल्के मृयुपर्यंत तक हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे।
भारतीय संदर्भ में बुल्के कहते थे 'संस्कृत महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी है।
 एक विदेशी होने के बावजूद बुल्के ने हिन्दी की सम्मान वृद्धि, इसके विकास, प्रचार-प्रसार और शोध के लिये गहन कार्य कर हिन्दीके उत्थान का जो मार्ग प्रशस्त किया और हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने की अपने स्तर पर हर संभव कोशिश की।
पिछले कुछ वर्षों से उनकी कब्र पर जाने वाले साहित्यकार और प्रकाशक गौरी नाथ बताते हैं
छब्बीस वर्ष की उम्र में वे इंजीनियरिंग करके भारत आए और यहीं के हो के रह गए। गुमला, सीतागढ़/हजारीबाग, और राँची परिक्षेत्र में वे रहे-- यूँ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय उन्होंने राँची में गुजारा। जैसे उनका हिंदी-प्रेम था, कुछ कुछ राँची-प्रेम भी। लेकिन चिर-निद्रा के लिए उन जैसे कोमल-हृदय वाले विद्वान को जगह मिली निर्मम नगर दिल्ली में जहाँ उनकी क़ब्र की तरफ़ झाँकने वाले भूले-भटके ही आते।
संस्कृत और हिंदी के प्रोफेसर बुल्के का शोध-ग्रंथ रामकथा: उत्पत्ति और विकास ख़ूब प्रसिद्ध और चर्चित रहा है और रामायण प्रसंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। प्रोफेसर बुल्के का हिंदी-अंग्रेजी लघुकोश और अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश छात्रों और अध्येताओं के बीच आज भी ख़ूब लोकप्रिय हैं। लेकिन दिल्ली के दिल में ऐसे विद्वान को चाहने और याद करने की जगह नहीं।
आज लोग राम राज्य और राम मंदिर की बात करते हैं लेकिन फादर का राम के ऊपर जो काम है वैसा काम किसी का नहीं है। उन्होंने पहली बार भारत के बाहर अन्य देशों की भाषाओं में राम के चरित्र को खोजा और इसकी व्यापकता की बात की। आज यह एक बड़ा सवाल है कि विदेश में जन्मा व्यक्ति भारत आकर यहां की संस्कृति में रच बस गया लेकिन आज वह यहीं के लोगों द्वारा उपेक्षित है।
रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में वह हिंदी और संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे और विज्ञान सहित अन्य विषयों के छात्र उनसे पढऩे आते थे। वह सच्चे अर्थों में सन्यासी और हिंदी सेवक थे। फादर की कब्र पर पत्थर रांची की ही एक संस्था के लोगों ने लगवाया है अन्यथा यह उपेक्षित ही है।
एक अन्य साहित्यकार का कहना है कि 1951 में भारत की नागरिकता प्राप्त करने के बाद स्वयं को बिहारी कहकर करते से संबोधित करते थे। 1974 में भारत सरकार ने इनको पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
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जब डा.नगेंद्र को फादर ने टोका

वरिष्ठ साहित्यकार नित्यानंद तिवारी बताते हैं कि एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय में फादर कामिल बुल्के आए औैर प्रसिद्ध साहित्यकार डा.नगेंद्र के मेज पर टाइम टेबल अंग्रेजी में देखा तो उनको टोकते हुए कहा, नगेंद्र जी ये मैं क्या देख रहा हूं आपके मेज पर शीशे के नीचे समय सारिणी अंग्रेजी में बनी है। हिंदी के प्रति इस तरह उनकी प्र्रतिबद्धता थी।

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