Saturday, February 21, 2009
इन्हे देखकर याद आया कुछ
इन्हे देखकर याद आया कुछ
‘मैं पिछले बाइस साल से यहां आती हूं। तब मेले में मजदूरी करने आई थी, लेकिन जब यहां पर लोगों की भीड़ देखी तो लगा मैं भी सामान बेंच सकती हूं और तभी से हर साल आती हूं।ज् राजस्थानी लोक कला को समृद्ध करने भंवरी देवी सूरजकुंड मेले में तब से आती हैं जब से यह मेला शुरु हुआ है। दिल्ली और आस-पास के लोगों को राजस्थानी लोक कला इतनी भाती है कि इनका कोई भी सामान बच कर वापस नहीं जाता। चाहे लड़ी हो या छल्ले, कठपुतली हो या इंडी या फिर कपड़े का बना पर्स, घोड़ा या गणेश जी इनकी हर सामान से ग्राहक मौजूद हैं।
इस काम में इनका बड़ा लड़का मदन मेघवाड़ सहयोग करता है। ये गांव की चक्की पर बाजरा पीसती हुई दर्शकों को दिखाती हैं। उनका कहना है कि शहर के लोग चक्की नहीं देखे हैं इसे चलाते हुए वह देखना चाहते हैं, खासकर बच्चे इसमें काफी रुचि लेते हैं।
भंवरी देवी ने यह काम कैसे सीखा इसके बारे में वह बताती हैं कि ‘जब मैंे दस साल की थी तभी से बकरी चराती थी और उन लोगों के पास बैठती थी जो कसीदेकारी और गोटे का काम करती थी तभी से मैं भी यह बनाने लगी।ज् इनके काम की खासियत यह है कि इसमें केवल सुई-धागा और कतरन का प्रयोग किया गया है। मात्र सोलह रुपए दिहाड़ी पर काम करने वाली भंवरी देवी मेले में अपनी रोज की आमदनी पांस सौ से दो हजार बताती हैं। लगभग बासठ वर्षीय भंवरी देवी कला श्री सम्मान से सम्मानित हो चुकी हैं। राजस्थान में नागौर जिला के भांवता गांव की रहने वाली भंवरी देवी जब अपने गांव होती हैं तो शादी या अवसरों पर गीत भी गाती हैं। मेले के बारे में वह बताती हैें कि यहां पर मिलने वाला लोगों का प्यार उन्हे इस उम्र में भी खींच लाता है।
ये एक खबर है अखबार के लिए लेकिन इसमें कई सच्चाई भी है जसे आज के युवा चक्की से अनभिज्ञ हैं। कबीर ने चक्की को पूजने की बात की थी लेकिन आज का युवा मेले में इस चक्की को देखते आता है। कितने तो वहां पर अजीब-अजीब से सवाल भी करते थे। भंवरी एक मिसाल लगी। मेहनत की। साहस की। और अपनी में से अर्जित की गई प्रतिष्ठा की।
लेकिन आखिर यह बाल मन कब तक खोजेगा, सरसों के फूल, गेंहू की बाली। ओखल-मूसल या आम की डाली। पब्लिक स्कूल का अध्यापक कबीर के दोहा पढ़ाने के बाद कैसे बता पाएगा कि चक्की कैसी होती है।
एक सवाल जो कौंधता है वह यह है कि हम वाकई अपनी जड़ों से कितना कट गए हैं।
अब एक व्यक्ति गत अनुभव बताता हूं- दिल्ली में दस रुपए गिलास गन्ने का रस पीना खल जाता है इस छोटी कमाई में और गांव का कोल्हू शायद तब बहुत याद आता है और देर तक पकते हुए गुड़ की खुशबू मदहोश कर देती है।
अभिनव उपाध्याय
6 comments:
dilchasp jaankaari hai
aisi nari ko salam
कितने लोग ऐसा कर पायेंगे..जड़ से कटना तो शायद कोई नहीं चाहता मगर जीविकोपार्जन की मजबूरी सब करवाती है.
.....चक्की का चक्का युवा देखा नही है तभी तो पीसता रहता हैं.....अच्छी प्रस्तुति है,,,,श्रीमान
nice. achha likha h. khastaur par a ki ham apni zado se katate ja rahe h.
कुछ ऐसी चीजे होती है जिनसे जुड़ना और आने वाली पीढी को बताना अच्छा लगता है ..अच्छा लगा इनके बारे में पढ़ कर
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