Monday, September 6, 2010

परंपरा कमजोर पड़ी, उम्मीद नहीं

रीता-बीता दिवस
अब दिवस आाते हैं, जाते हैं। महिला दिवस, बाल दिवस, पर्यावरण दिवस। दिवसों की भरमार है। उन्हें शुरू करने के पीछे गहरे सरोकार और उद्देश्य थे। धीरे-धीरे उद्देश्य, सरोकार लुप्त होते गए और बची रह गई निरी समारोहिकता। इसके साथ ही उनको लेकर समाज में उत्साह भी क्षीण होता गया। अब सारे दिवस एक औपचारिकता में सिमट चुके हैं। पांच सितंबर को शिक्षक-दिवस होता है और अब इसकी सबसे बड़ी खबर शिक्षकों को मिलने वाले राष्ट्रपति के पदक हैं। हमारे जसे गरीब देश में बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित है और सबको शिक्षा का हमारा मंतव्य सिर्फ नारा बनकर रह गया है। वहां शिक्षा, उसका माहौल, उसकी दिशा-दशा और छात्र-शिक्षक बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए और शिक्षक दिवस उस पर आत्ममंथन का दिन होना चाहिए।


विश्वनाथ त्रिपाठी


आज का समाज पहले के समाज की तरह नहीं है। वर्तमान का दौर पहले से बदला है। लेकि न जो बदलाव है उसकी सीमारेखा 1990 के बाद खींचनी चाहिए जब पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था को हमने सुधार के नाम पर स्वीकार किया। बाजारवाद को हमने पूरी तरह से अपनाया। धन को ही हमने मूल्य मान लिया। सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को हमने तिलांजलि दे दी। आज पैसे को लेकर सिनेमा, क्रिकेट, समाचार पत्र में समाचार खत्म हो रहा है। आज कुछ बुद्धिजीवी कबीरदास के शब्दों में कहें तो ‘भरम ज्ञानीज् अर्थात जो भ्रम को ज्ञान समझते हैं वह कहते हैं कि इतिहास का अंत हो रहा है लेकिन इतिहास का अंत नहीं हो रहा है बल्कि मूल्यों का अंत हो रहा है। पंचमहाभूतों का अंत हो रहा है।
विद्वान ये नहीं सोचते कि आदमी-आदमी के बीच संबंध क्या है। ये पैसा को ही सब कुछ मानते हैं। गांधी-नेहरू का जिसने देश जो चरखा और नमक के साथ साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी अब वह नहीं है। अब ऐसे में हमें गुरु और शिष्य का संबंध भी देखना है। अब शिक्षा नहीं है। पहले भी कहा जाता था कि विद्या अर्थ का साधन है लेकिन वर्तमान में तो सरस्वती ने लक्ष्मी के आगे समर्पण कर दिया है। हमारे शास्त्रों में भी यह है कि जो अच्छा काम पैसों के लिए करता है उसे अच्छा नहीं माना जाता है। हमारे यहां एक गुरु होता है और एक उपाध्याय होता है। गुरु ज्ञान देता है जबकि ट्यूटर पैसा लेकर शिक्षा प्रदान करता है। जो गरिमा गुरु की है वह ट्यूटर की नहीं है। जो स्थान संदीपनि का है वह द्रोणाचार्य की नहीं है। अब वर्तमान स्थिति में हम देखते हैं कि परंपरा में बहुत बल होता है। मैं स्वयं अध्यापक रहा हूं और आज भी अध्यापकों का बहुत आदर है। लेकिन वर्तमान अर्थव्यवस्था में ये सम्मान की बात नहीं हो रही है। आज शिक्षा खरीदी और बेची जाती है। लेकिन ऐसे में भी कुछ गुरुओं का आदर होता है। हमारे यहां गुरु को ज्ञान देने वाला बताया गया है। ज्ञानी वही हो सकता है जो निर्भीक हो। गुरु दुनियादार नहीं होता। आज तो एड गुरु और मैनेजमेंट गुरु हो गए हैं लेकिन इनको गुरु की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। ये दुनियादारी सिखाते हैं। ये पैसा कमाना सिखाते हैं। ये जानकारी देते हैं, ज्ञान नहीं देते। ज्ञान और जानकारी में अंतर है। वह तरीके बता सकते हैं। जीवन जगत जड़ और चेतन का संबंध नहीं बताते हैं। मानव जीवन की सफलता का मतलब बताते हैं वह मानव जीवन का मूल्य नहीं बताते हैं। वे यह नहीं बताते हैं कि एक आदमी की तकलीफ से दूसरे को भी तकलीफ होनी चाहिए।
लेकिन ऐसे में शिक्षक दिवस का महत्व कम नहीं हो जाता, क्योंकि एक शिक्षक केवल विषय की जानकारी नहीं देता बल्कि वास्तविक जीवन की जानकारी देता है। अच्छा शिक्षक विषयगत जानकारी तो देता है लेकिन वह यह भी बताता है कि मानव मानव के बीच जो भावनात्मक संबंध है उसे बनाए रखना चाहिए। मनुष्य यदि मनुष्य है तो उसे समाज में रहना पड़ेगा और ऐसे में हमें एक दूसरे की चिंता करनी पड़ेगी। आधुनिक शिक्षा की बहुत बड़ी कमी यह है कि वह पूरी तरह से बाजारू हो गई है। इस पर ध्यान देना चाहिए। आज न शिक्षक के मन में छात्रों के लिए चिंता रह गई है और न छात्रों के मन में शिक्षक के लिए आदर। यह एकतरफा नहीं है। पहले विद्यार्थियों के लिए शिक्षक केवल उन्हें रोजगार का साधन नहीं मानता था बल्कि साधन से वंचित छात्रों की तरफ भी ध्यान देता था उसका छात्र सम्मान भी करते थे। लेकिन अब अध्यापकों की तनख्वाह बढ़ गई है। अब यदि शिक्षक आंदोलन करते हैं तो उनकी मांगों में कहीं भी यह नहीं होता कि छात्रों को सुविधा दी जाए, इनकी फीस कम की जाए बल्कि उन्हें अपने वेतन और सुविधा की चिंता होती है। छात्र उसे देखते हैं और उसका प्रभाव पड़ता है। इसलिए भी एक दूसरे के मूल्यों में गिरावट आई है। ऐसे में सोचना कि पहले जसा छात्र सम्मान करेंगे यह कुछ अधिक सोचना है लेकिन यह कहना कि वह पूरी तरह से सम्मान नहीं करते यह गलत है, क्योंकि यहां एक लम्बी परंपरा रही है जो क्षीण हुई है, समाप्त नहीं हुई है और मैं इसको लेकर आशावान हूं।
(लेखक प्रसिद्ध आलोचक हैं)
- अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित

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