Sunday, April 10, 2011

शुक्रिया अन्ना हजारे

अन्ना हजारे ने जिस तरह केंद्र सरकार को जन लोकपाल विधेयक के मसले पर रक्षात्मक तेवर अपनाने पर मजबूर कर दिया है ह उतनी बड़ी बात नहीं है। उससे बड़ी बात है कि अन्ना ने देश की जनता के दिल
में एक जज्बा पैदा कर दिया। और यह भी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नई राष्ट्रीय चेतना जगी है।
रविन्द्र त्रिपाठी की रिपोर्ट




जंतर-मंतर रोड कोई बड़ा मैदान नहीं है। अन्ना हजारे जहां बैठे और जहां लोगों का काफिला आता जाता रहा, एक छोटी सी जगह है। एक चौड़ी सड़क और उसके दोनों तरफ फुटपाथ। एक फुटपाथ पर अन्ना और उनके सहयोगी अनशनकारी बैठे और सामने सड़क पर जनता का हुजूम। दिल्ली और देश के अलग-अलग इलाकों के लोग। बच्चे भी, युवा भी। हिंदू भी, मुस्लिम भी, ईसाई भी। जंतर-मंतर नाम की यह सड़क एक ऐतिहासिक लम्हे की साक्षी बन गई। यहां से सत्ता को चुनौती दी गई। महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक छोटे से गांव रालेगन सिद्धि का एक तपस्वी सिर्फ मनमोहन सिंह की सरकार के सामने प्रश्न चिन्ह बनकर नहीं खड़ा हो गया बल्कि देश की जनता की इच्छाओं का प्रतीक भी
बन गया।
सात नंबर की जिस जंतर-मंतर की कोठी के सामने अन्ना ने आमरण अनशन किया, ह कभी सत्ता का प्रतीक भी हुआ करता था। आजादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस का दफ्तर था। 1969 में जब यह कांग्रेस का विभाजन हुआ तो यह संगठन कांग्रेस का दफ्तर बना जिसके नेता मोरारजी देसाई और निजलिंगप्पा थे। आठ साल तक एक पिक्षी पार्टी का दफ्तर रहने के दौरान इसके पेड़ों के पत्ते सूख गए। लेकिन सन् 1977 में फिर से यहां सत्ता की हरियाली लौटी, जब यह जनता पार्टी का दफ्तर बना। 1977 में संगठन कांग्रेस का जनता पार्टी में लिय हो गया। आजकल यहां इसी कोठी में जनता दल (एकीकृत) का दफ्तर है। इस नाते थोड़ी राजनैतिक पहल यहां रहती थी। पर पिछले चार दिन से यह सड़क और स्थान राष्ट्रीय जनउभार का केंद्र बन गया।
आंदोलन में कई ऐसे लोग शामिल हुए जिनको 1974 की याद होगी। जय प्रकाश नारायण के नेतृत् में जब बिहार के छात्र आंदोलन की शुरुआत हुई थी तो पटना का गांधी मैदान भरा था। उसी आंदोलन की चिनगारी ने ऐसा रूप धारण किया कि 1975 में देश में आपातकाल लगा और 1977 में इंदिरा गांधी की पराजय हुई और केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। आज की तारीख में बहुतों के मन में यह प्रश्न हैं कि क्या अन्ना के नेतत्व में इतिहास फिर दुहराने जा रहा है? उत्तर अभी नहीं मिलेगा। वह भविष्य के गर्भ में है।
इसमें तो कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि आज देश में भ्रष्टाचार 1974 से भी ज्यादा फैल चुका है। राजनैतिक भ्रष्टाचार भी बढ़ा है और नौकरशाही सरकारी दफ्तरों में भी भ्रष्टाचार कम नहीं है। यही नहीं बीस-तीस साल तक जो भ्रष्टाचार अधिकतम लाखों का होता था, अब अरबों का होने लगा है। हर राज्य में और केंद्र में भी भ्रष्टाचार के नए-नए किस्से सामने आ रहे हैं। पहले भ्रष्टाचार के आरोपों से सिर्फ कांग्रेसी सरकारें घिरी रहती थीं। आज लगभग हर पार्टी की सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आदमी अपने आप को बेबस महसूस कर रहा है। आकस्मिक नहीं कि देश के कोने-कोने में अन्ना के समर्थन में जलूस निकले, सभाएं हुई और लोग धरने पर बैठे। जंतर-मंतर गांधी मैदान की तुलना में छोटा है। लेकिन, अन्ना का संदेश जय प्रकाश नारायण आंदोलन से ज्यादा तेजी से फैला। सिर्फ चार दिन के भीतर देश के बाल, वृद्ध नारी युवा इससे जुड़े।
यह ठीक कि आज का समय 1974 से काफी अलग है। आज टी चैनलों की जह से किसी आंदोलन के प्रसार में तेजी आ जाती है। इसके अलावा फेसबुक, ट्टिर और दूसरे सोशल नेटर्किंग साइट हैं, जो संदेश को तेजी से फैलाते हैं। अन्ना के अनशन की खबर भी इस कारण अनपेक्षित तीव्रता से फैली। लेकिन इसी का दूसरा पहलू ये भी हैं कि नया मीडिया सबको उपलब्ध है, सिर्फ अन्ना के समर्थकों को नहीं। राजनैतिक पार्टियां भी नए मीडिया का भरपूर उपयोग करती हैं। अगर टेलीजिन नहीं होता तो, क्या क्रिकेट का इस तरह प्रसार-प्रचार होता? क्या टेलीजिन और मीडिया के दूसरे माध्यमों का सामाजिक दायित् नहीं है? अगर नया मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभा रहा है तो फिर इस पर सालिया निशान क्यों लगाया जा रहा है?
अब देखें कि अन्ना का संघर्ष यहीं थमता है कि आगे बढ़ता है। अगर यह आंदोलन समझौते के बाद थम जाता है तो उस जनउभार का क्या होगा, जो पूरे देश में फैला। यह सवाल अन्ना के मन में भी उठ रहा होगा।

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