Thursday, September 15, 2011

निजी सपनों में खो गई एक क्रांति

अरुण कुमार त्रिपाठी

अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव ने बहन मायावती को बेचैन कर रखा है। कभी भूमि अधिग्रहण विरोधी किसान आन्दोलन कभी राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटाले और हत्याएं तो कभी दलितों पर अत्याचार की घटनाओं ने उनसे की गई उन उम्मीदों पर पानी फेर दिया है जिसके कारण वे मुलायम सिंह को हराकर सत्ता में आई थीं। बीच में सैंडल खरीदने के लिए खाली विमान मुंबई भेजने जसी खबरों से उनकी विलासिता हास्यास्पद तरीके से उजागर होती रहती है। लेकिन जाति के जिस आधार और जिस गठजोड़ ने उन्हें सत्ता में पहुंचाया था वह उनसे अभी भी विमुख नहीं हुआ है। यही वजह है कि उनके विरोधी भी न तो निश्िंचत हैं न ही चैन से बैठ पा रहे हैं। विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे के साथ हाल में हुए मायावती के विवाद ने उनके व्यक्तित्व की एक झलक दे दी है। यूरोप के कई देशों से भी बड़े उत्तर प्रदेश जसे विशाल राज्य की चार बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद वे सहज नहीं हो पाई हैं। एक तरफ वे अपने स्वभाव के कारण मनमानी भी करती रहना चाहती हैं तो दूसरी तरफ असाधारण महत्वाकांक्षा के कारण अपनी छवि की भी जेड प्लस सुरक्षा करना चाहती हैं। यही वजह है कि उन्होंने जूलियन असांजे की स्थिति को जाने बिना उन्हें पागलखाने में भेजने की बात कह डाली। हो सकता है कि बहन मायावती की टिप्पणी उनके कम जानकारी वाले मतदाताओं को काफी मजेदार लगी हो कि उन्होंने अपने एक आलोचक के लिए आगरा के पागलखाने के दरवाजे खोल दिए हैं। लेकिन जिसे भी यह पता होगा कि असांजे अपनी खोजी पत्रकारिता के लिए इंग्लैंड में नजरबंद है, उसे यह साफ लगेगा कि बहन जी को न तो अंतरराष्ट्रीय स्थितियों की जानकारी है न ही उनमें लोकतांत्रिक सहनशीलता। अगर उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्थितियों की जानकारी होती तो वे पहले उन अमेरिकी राजनयिकों और अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की आलोचना करतीं जिन्होंने इस तरह के नकारात्मक केबल भेजे थे और जिसे हिलेरी ने स्वीकार किया। इसीलिए मायावती से सहज और मजेदार टिप्पणी असांजे की थी कि , ‘‘ अगर मायावती उन्हें राजनीतिक शरण दें तो वे भारत आने को तैयार हैं और वे जो विमान भेजेंगी उनमें वे उनके लिए लंदन की अच्छी सैंडल भी लेते आएंगे। मायावती की कार्यशैली से सवर्ण समाज हतप्रभ है और वह अंग्रेजी पढ़ा लिखा वर्ग भी जिसके लिए लोकतंत्र भ्रलोक की व्यवस्था है। इसलिए मायावती जो कुछ कर रही हैं और जिस तरह से कर रही हैं उसकी व्याख्या तब तक नहीं की जा सकती जब तक दलित समाज की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और मायावती की निजी महत्वाकांक्षा को समझा नहीं जाता। दलित समाज की महत्वाकांक्षा देश की सत्ता पर उसी तरह से काबिज होना है जिस तरह से स्वाधीनता के बाद कांग्रेस के माध्यम से पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में ब्राह्मण काबिज थे। बस फर्क यह है कि इस राजनीतिक समीकरण में वे ब्राह्मणों की जगह पर दलितों को रखना चाहते हैं और दलितों की जगह पर ब्राह्मणों को। उत्तर प्रदेश में मायावती ने यह समीकरण बना लिया है और देश भर में उसे बनाया जाना है। पर यह काम इतना आसान नहीं है। अपने छोटे से सलाहकारों के समूह के साथ मायावती सोचती हैं कि यह काम उसी तरह से हो जाएगा जिस तरह से लोकतंत्र के चमत्कार ने उन्हें चौथी बार मुख्यमंत्री बनवा दिया। उन्होंने गठबंधन दौर की इस राजनीति में इं्र कुमार गुजराल, मनमोहन सिंह जसे जनाधार विहीन नेताओं और एचडी देवगौड़ा जसे क्षेत्रीय नेता को प्रधानमंत्री बनते देखा है। इसलिए सोचती हैं कि देश की आबादी में बड़ी भागीदारी रखने वाले दलितों के नेता को कभी न कभी प्रधानमंत्री बनने का मौका तो मिलेगा। अपनी इसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे चारों तरफ से संसाधन और सत्ता जुटाने में लगी हैं। इस काम में उनका जोर साधन की पवित्रता पर नहीं साधन की प्रचुरता पर है। उनके लिए साधन की पवित्रता , नैतिकता और त्याग जसे मूल्य मनुवादी और सवर्ण समाज के मूल्य हैं जिसका दलितों के भौतिकवाद से क्या लेना देना। उनका सारा जोर इस बात है कि जो कुछ किया जाए वह कानूनी हो और फिर कानून बनाना तो अपने हाथ में है। इसीलिए भ्रष्टाचार विरोध और नैतिकता का वह आग्रह उनकी समझ में नहीं आता जिसके लिए कुछ सवर्ण गांधीवादी और हिंदुत्ववादी गुहार लगाया करते हैं। इसके जवाब में या तो भ्रष्टाचारी सवणोर्ं का उदाहरण पेश कर दिया जाता है या फिर यह कहा जाता है कि यह सब मनुवादी साजिश का हिस्सा है। मायावती पर ताज कोरीडोर और आंबेडकर, छत्रपति साहूजी महराज, कांशीराम पार्क के नाम पर प्रदेश में मूर्ति स्थापना के लिए हजारों करोड़ रुपए बर्बाद करने का आरोप है और इसकी जांच भी सीबीआई कर रही है। हाल में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में हुए घोटाले और लखनऊ में पहले अस्पताल में और फिर जेल में दो बड़े डाक्टरों की हत्या ने बसपा और उसके गोरखधंधे पर काफी कुछ रोशनी डाली है। बताया जाता है कि टू-जी से भी बड़ा घोटाला है। इसी तरह हाल में यमुना एक्सप्रेस वे और गंगा एक्सप्रेस वे नाम पर जमीनों के अधिग्रहण से भी काफी विवाद उठा है। उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का नारा देकर 2007 में सत्ता में आईं मायावती ने एक तरफ इन योजनाओं के माध्यम से प्रदेश के विकास का प्रचार किया है तो दूसरी तरफ इसका विरोध करने वाले किसानों का दमन भी किया है। यही कारण था कि उनकी सरकार के खिलाफ किसानों को एकजुट करने के लिए कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने ग्रेटर नोएडा के भट्टा पारसौल से अलीगढ़ के टप्पल तक पदयात्रा भी कर डाली। इस यात्रा ने मायावती की छवि को नुकसान पहुंचाया और कांग्रेस के असर को थोड़ा बढ़ाया था। लेकिन इस बीच उठे अन्ना हजारे के आंदोलन ने जब कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाना शुरू किया तो मायावती ने राहुल गांधी से हुए नुकसान की कसर पूरी कर डाली। उन्होंने अपने प्रदेश में अन्ना हजारे के समर्थन में प्रदर्शन करने की पूरी छूट दे डाली। आमतौर पर वे आंदोलनों पर लाठीचार्ज करने और उसे कुचलने के लिए जानी जाती हैं। उनकी कोशिश उन सवर्ण मतदाताओं को खुश करने की थी जो बसपा से जुड़े हैं और अन्ना के समर्थक हो गए थे। लेकिन जब उन्होंने देखा कि अन्ना आंदोलन से उनका अपना दलित मतदाता बिदक रहा है और मोहल्लों में संविधान रक्षा समितियां बन रही हैं तो उन्होंने आंदोलनकारियों को चेतावनी भी दे डाली। यानी विकीलीक्स ने अमेरिकी राजनयिकों के माध्यम से मायावती को जितना समझा है वह नाकाफी है। मायावती भले लिखा हुआ भाषण पढ़ती हों लेकिन वे लिखी हुई बातो को छोड़कर आगे निकलने की सामथ्र्य रखती हैं। वे भले अपने विरोधियों के लिए कटु हो जाती हों, लेकिन चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के साथ उनकी राजनीति न तो पहले जसी अड़ियल है न ही उनका व्यक्तित्व। वे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए किसानों को ज्यादा मुआवजा देने का भी एलान कर डालती हैं और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी समर्थन कर डालती हैं। गौर करने लायक है कि 2008 के परमाणु करार के बाद जिस रिश्वत कांड के कारण समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के साथ भारतीय जनता पार्टी बदनामी की दाग ओढ़े हुए है उसमें बहन जी और उनकी पार्टी यूपीए के खिलाफ वामपंथी मोर्चे के साथ खड़ी थी। वाममोर्चा ने तो उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना ही दिया था। मायावती की सबसे बड़ी कमी यह है कि उनके पास किसी बड़ी राजनीतिक दृष्टि या सिद्धांत का अभाव है। लेकिन उनकी खूबी यह है कि वे सत्ता की चाभी यानी गुरुकिल्ली पाना और उसका इस्तेमाल करना जानती हैं। वे बाबा साहेब आंबेडकर का सिद्धांत रटने में लगी होतीं तो वहीं पड़ी होतीं जहां आज महाराष्ट्र और कर्नाटक के तमाम दलित पैंथर आंदोलनकारी। वे व्यावहारिक हैं और महत्वाकांक्षा के लिए सपा, भाजपा, कम्युनिस्ट और कांग्रेस किसी से भी समजौता कर सकती हैं। वे अपनी छवि के प्रति उतनी लापरवाह भी नहीं हैं जितना बताया जाता है। एक बेहतर छवि को पाने और सत्ता के शिखर तक पहुंचने के लिए वे कोई भी समझौता कर सकती हैं किसी से भी किनारा कर सकती हैं। इससे उनके और उनके मतदाताओं के किसी सिद्धांत पर आंच नहीं आती। पर यहीं पर वह नव जनवादी क्रांति खो जाती है जिसकी उम्मीद तमाम सिद्धांतकार दलितों से करते रहे हैं।

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