Thursday, September 15, 2011

क्रांतिकारी बदलाव का संकेत है संसद और जनता के बीच का टकराव - मेधा पाटकर

मेधा पाटकर से वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी की बातचीत-

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का कैसा असर देखती हैं आप?

अभी तो हर तरफ भावनाओं से भरपूर माहौल है। विचार स्पष्ट नहीं है। सवाल भ्रष्टाचार से मुक्ति का है और उसके लिए कड़ा कानून चाहिए। पर ये लंबी प्रक्रिया है और अभी वो चलेगी। स्थाई समिति सारीचीजों को देखकर सारे प्रस्तावों पर विचार कर क्या निर्णय लेती है यह अभी देखा जाना है। इसलिए अभी कुछ नहीं कहा जा सकता कि इस आंदोलन को कितना लंबा रास्ता तय करना पड़ेगा। लेकिन एकबात जरूर हुई है इस आंदोलन में बहुत सारे युवा जुड़े गरीब तबके से भी लोग आये। मीडिया के कारण मध्यवर्ग बड़े पैमाने पर जुड़ा। हमें सभी का स्वागत किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार सभी की समस्या है। इससे गरीब भी चिंतित है।

कहा जाता है कि अन्ना हजारे का आंदोलन मूलत: मध्यवर्ग के इर्दगिर्द ही केंद्रित था। इसलिए यह एक तरह से भ्रष्ट होते उदारीकरण को सुधारने का प्रयास था। इसमें किसी बुनियादी बदलाव का स्वर नहीं था?

रामलीला मैदान में जमा हुए लोगों में मध्यवर्ग की संख्या 30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी। बाकी निम्न वर्गीय और गरीब तबके के लोग थे। आपका यह कहना सही है कि मध्यवर्ग उदारीकरण के भीतर ही सुधार का प्रयासकर रहा है। वह उसके दायरे से बाहर नहीं जा रहा। आज पूरे देश का कंपनीकरण हो रहा है। कंपनियां तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर रही हैं। पर मध्यवर्ग उसे भ्रष्टाचार के तौर पर नहीं देख रहा। अभी इसआंदोलन का सारा जोर सरकारी भ्रष्टाचार पर है। कारपोरेट सेक्टर जो लूट कर रहा है वह कानून के तहत कर रहा है। इसलिए वह इस भ्रष्टाचार की परिभाषा में नहीं शामिल किया जा रहा है। यह आंदोलन अभी इस बारे में नहीं चिंतित है कि एनजीओ को इतना धन कहां से मिल रहा है। या कंपनियों को इतनी पूंजी कहां से मिल रही है। अगर वह मौजूदा कानून पर खरे उतरते हैं तो उस पर आपत्ति नहीं उठ रही है। यानी सारा जोर सरकारी भ्रष्टाचार पर है।

क्या आपको लगता है कि यह आंदोलन अपने मौजूदा दायरे से निकल कर बुनियादी मुद्दों को उठाएगा और यह कहेगा कि उदारीकरण की प्रक्रिया में ही भ्रष्टाचार निहित है?

कानूनन होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हमें अपनी धारणा बदलनी होगी। भ्रष्टाचार की परिभाषा भी बदलनी होगी। मुङो नहीं लगता कि यह आंदोलन अभी उस दिशा में जाएगा या जा सकता है। इस आंदोलन की शुरूआत जिन लोगों ने की थी उनका एक निश्चित लक्ष्य है। अगर इसे नया रूप देना है। तो लोगों को इसके बीच से रास्ता निकालना होगा। अभी यह आंदोलन 1988 में दी गई भ्रष्टाचार की परिभाषा को ही आधार मानकर चल रहा है। लेकिन उसके बाद हमारी अर्थव्यवस्था बहुत बदल चुकी है। समाज ने लूटने और भ्रष्टाचार करने के तमाम तरीके अपना लिये हैं। भ्रष्टाचार के कुछ काम करने से होते और कुछ करने से होते हैं। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो कानून और सरकार की मंजूरी से होता है लेकिन वह बड़ा भ्रष्टाचार है।

जंतर मंतर से रामलीला मैदान की यात्रा में इस आंदोलन से तमाम तरह के लोग जुड़े यह छोटे से बहुत बड़ा हुआ। इसमें आपके नेतृत्व में जन आदोलनों के लोग जुड़े तो समाज के कईं तबके नहीं जुड़े। क्या आपको लगता है कि दलित आदिवासियों और अल्पसंख्यक की भागीदारी के बिना जनआंदोलन चल सकता है?

जनआंदोलनों के साथ ही जो इस संघर्ष में जुड़े उन्होंने अलग अलग भूमिकाएं निभाई। इससे पहले हम लोग जो आंदोलन करते थे। उसकी चर्चा भले राष्ट्रीय होती हो लेकिन असर स्थानीय रहता है। हम लोग शोषित पीड़ित और वंचित तबके का आंदोलन कर सरकार को धक्का तो पहुंचाते थे। लेकिन उसका असर ज्यादा नहीं होता था। इस आंदोलन में ज्यादा लोगों की भागीदारी के कारण सरकार पर जोर का धक्का लगा है और इसने सरकार को चुनौती दी है। इसका सीधा असर देखा जा सकता है।

तो क्या महज पीड़ित और शोषित तबके के आधार पर बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा हो सकता?

महज पीड़ित वर्ग के आधार पर जो आंदोलन खड़ा होता है उससे बाकी हिस्सा अछूता रह जाता है। लेकिन जैसा कि पूरी दुनिया में हो रहा है कि अगर मध्यवर्ग को जोड़ा जाता है तो आंदोलन का प्रभाव बड़ा होता है। हालांकि इस आंदोलन में भी 100 फीसदी मध्यवर्ग नहीं जुड़ा फिर भी इसका असर बना है इसलिए यह जो उभार आया है उसमें व्यापक मुद्दों को जोड़ना जरूरी है। शिक्षा क्षेत्र के भ्रष्टाचार का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है। गैर बराबरी का मसला बहुत अहम है। चुनाव सुधार का मुद्दा अहम है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को मुद्दा भी कम जरूरी नहीं है। लेकिन मीडिया हर मुद्दे पर सक्रिय नहीं होता। उसे जिस तरह से भ्रष्टाचार और सरकारी भ्रष्टाचार का मामला सनसनी खेज लगता है वैसा गैर बराबरी और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को मामला नहीं लगता। इसलिए इस आंदोलन के सामने सनसनी खेज मुद्दों को गंभीर मुद्दे से जोड़ने की चुनौती है। आंदोलन के साथियों को मंथन करना चाहिए। और उसी से युवाओं को प्ररेणा मिलेगी।

दलितों और अल्पसंख्यकों को आंदोलन से गहरी आपत्तियां रही हैं। दलितों को कहना है कि यह उनके बाबा साहब द्वारा बनाये गये संविधान और उसकी भावना को पलट कर ब्राह्मणवादी नजरिया कायम करने की कोशिश थी। इसी तरह अल्पसंख्यकों ने भी इस पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया है?

यह अन्याय को देखने का नजरिया है। हमें नहीं लगता कि आम दलित और सामान्य मुसलमान इस तरह से सोचता है। दोनों तबके के लोग इस आंदोलन से प्रभावित थे। और जुड़ भी रहे थे। लेकिन उन्हें उनके नेताओं ने बरगलाया है। अल्पसंख्यक समाज की दिक्कत यह थी कि रमजान का महीना चल रहा था और वह बहुत बढ़चढ़कर हिस्सा नहीं ले सकता था। फिर भी जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी की टिप्पणी का कई अल्पसंख्यक संगठनों ने जवाब दिया। दिल्ली में कईं संगठन रामलीला मैदान में आये मुंबई में भी कईं संगठनों ने आंदोलन से एकजुटता दिखाते हुए प्रदर्शन किया। लेकिन अगर कहीं समाज के किसी तबके के मन में संदेह है तो हम सबको उसके पास जाना पड़ेगा। उनसे बातचीत करनी पड़ेगी। उन्हें बताना पड़ेगा कि यह आंदोलन संविधान को चोट पहुंचाने के लिए नहीं उसे बचाने के लिए है।

लेकिन आंदोलन के मंच से जो भी बातें कही गई उनसे यही लगता था कि ये लोग सुधारवादी हैं और बीमारी के बजाय लक्षणों का इलाज करना चाहते हैं। महज आपने कुछ मुद्दे उठाए लेकिन वह भी गौण ही बने रहे। क्या आपको लगता है कि इस तरह के आंदोलनों के बाद सरकार आर्थिक सुधारों में कुछ बदलाव करेगी या उसे तेज करेगी?

देखिए इससे सरकार की जगतीकरण की नीतियों में तत्काल किसी बदलाव की संभावना नहीं दिखती। होना चाहिए था कि इतने बड़े आंदोलन के मंच पर उदारीकरण के 20 सालों के अनुभव की समीक्षा होती। यह मंथन होना जरूरी था। लेकिन नहीं हो पाया। मुङो नहीं लगता कि ऐसा किसी साजिश के तहत हुआ। दरअसल उदारीकरण के कुछ भुक्त भोगी हैं तो कुछ लाभार्थी भी आंदोलन में दोनों तरह के लोग जुड़े थे सभी को यह समझ नहीं है कि इससे देश की बरबादी हो रही है। यह बात लोगों को समझानी होगी लेकिन जब संगठित शक्ति आगे बढ़ती है तो वह मुद्दों को तलाशती है और उसमें बदलाव आता है।

आपको इस आंदोलन में कौन से क्रांतिकारी कदम दिखाई पड़े?

संसद और जनता के बीच जिस तरह का टकराव हुआ वह अपने में एक क्रांतिकारी बदलाव का संकेत था। सांसदों का घर घेरने की बात आज तक किसी आंदोलन में नहीं हुई थी। लोगों को सांसदों के घर पर ही नहीं पार्टी कार्यालयों पर भी जाना चाहिए और उनसे पूछना चाहिए कि वह मुद्दों से मुंह क्यों मोड़ रहे हैं। इससे राजनीतिक विमर्श बदलेगा और नये राजनीतिक चौखट का ढांचा बनेगा।

क्या आपको लगता है कि इस आंदोलन को एक व्यवस्थित विचार धारात्मक ढांचे और संगठन की जरूरत है?

इस पर विचार होना चाहिए कि आंदोलन खड़ा हुआ है तो इसे दूर तक ले जाने के लिए क्या किया जाए। हम पहले आंदोलन करते थे तो सोचते थे कि लोगों का उभार हो गया है और वह अपने आप रास्ता बना लेगा। लेकिन इस आंदोलन ने व्यवस्थित ढंग से कुछ काम किया है। उसे और भी व्यवस्थित करने की जरूरत है। आंदोलन की कोर कमेटी अगले हफ्ते रालेगण सिद्धि यानी अन्ना हजारे के गांव में बैठ रही है। वहां पर बहुत सारी चीजें तय होनी है।

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