Friday, December 8, 2017

आभासी दुनिया से उपजे अवसाद अपराध का कारण

प्रो.आनंद प्रकाश


देश में बढ़ रहे अपराध के कई कारण हैं। अपराध का होना कानून, समाज के बिखरते मानदंडों का मामला भी है। जब समाज में परिवर्तन की गति तीव्र होती है और सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन भी गतिशील होता है तब समाज के मानदंड जो लोगों के ऊपर नियंत्रण स्थापित करते हैं उनमें भी संक्रमण आता है और उनकी पकड़ लोगों पर ढीली पडऩे लगती है। बदलते समय में आज व्यक्ति आभासी दुनिया के माध्यम एक दूसरे जुड़े हैं उसी माध्यम से लोगों को जान रहे हैं उसमें भौतिक दृश्यता नहीं होती है। इसके परिणाम स्वरूप जो सामाजिक दबाव मानकों को लागू करने के लिए होता है वह दबाव धीरे धीरे समाप्त होने लगता है। यह आभासी दुनिया भी अवसाद से उपजे अपराध में अपनी प्रमुख भूमिका निभाता है। 
एक बहुत बडा बदलाव सिंगल लाइफ सिस्टम का है। आज का युवा इसी जीवन में सब जी लेना चाहता है। भूमंडलीकरण के बाद जन्मा बालक जो अब युवा हो चुका है और आजकल उसके उपयोग की बात की जा रही है, वह युवा सब कुछ जीना और पा लेना चाहता है। उनके जीवन का बदलता हुआ दर्शन सब कुछ भोग लेने का है। उससे आदमी का धैर्य है और सहिष्णुता है उसके ऊपर भी बहुत असर पड़ता है। वह किसी चीज की प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं है। उसे जो चाहिए अभी चाहिए और येन केन प्रकारणेन चाहिए। सामाजिक मानक उसके लिए मायने नहीं रखता है। वह कानून व्यवस्था और अन्य मानकों से नहीं डरता है और वह उसे अपराध की तरफ ले जाता है। 
अपराध के मनोविज्ञान को समझे तो अधिकांश अपराध के कारण आवेशी हैं। युवा धैर्यविहीन होता जा रहा है। एक उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि यदि फेसबुक पर आप कुछ लिखे और उस पर लाइक या कमेंट न आए तो आप उदास हो जाते हैं। यह छवि निमार्ण का जो काम चल रहा है वह अवसाद भी पैदा कर रहा है। वह दूषित भी कर रहा है। लोगों को तत्काल किये का फल का चाहिए लेकिन फल तो दूसरे को देना है। लेकिन उसके प्रति जो आवेश है वह अपराध का कारण है। 
एक अपराध योजनाबद्ध होता है। दूसरा जीने की जल्दी में किया गया अपराध है जिसमें आप सबकुछ किसी तरह हासिल करना चाहते हैं और तात्कालिकता में भी जीवन आ गया है जो अपराध का कारण है। 
व्यक्ति पैसा बचाकर अब कुछ खरीद नहीं रहा है बल्कि बैंक से कर्ज लेकर उधार मांग कर खरीद रहा है। ये चीजें बता रही हैं समय का असर अलग तरीके से हमारे ऊपर पड़ रहा है। इसे संभालने के लिए सामाजिक सांस्कृतिक जो व्यवस्था होती है वह कमजोर पड़ गई है। इसीलिए मानकों का उल्लंघन करने में लोगों को परहेज नहीं हो रहा है। सड़क पर रेड लाइट है लेकिन यदि पुलिस वाला नहीं है तो लोग उसे लांघ जाते हैं कई बार उसकी मौजूदगी में भी लोग पार कर जाते हैं। 
कानून व्यवस्था का भी लोगों में कोई भय नहीं है। क्योंकि दंड का बहुत कम ऐसा उदाहरण है जो अपराध होने पर दिया गया है। समाज भी दंड विधान का उदाहरण प्रस्तुत करता है लेकिन वर्तमान में लोगों को पता है कि जो अपराध वह कर रहे हैं उसके दंड की प्रक्रिया जटिल है, निर्णय में बहुत समय लगेगा। छोटे छोटे मामलों में भी 20 साल तक सुनवाई होती है। तात्कालिकता ने लोगों को ओवरटेक कर रखा है। 
अपराध रोकने के लिए पहली चीज सार्वजनिक स्थलों पर लोगों की सुविधा असुविधा का ख्याल करना है। लोग अपनी आत्मछवि से मुग्ध हंै। उसकी छवि और समाज का माहौल इसमें सहायक है। हमारी कानून व्यवस्था को संचालित करने वाली एजेंसियों पर भी बहुत भार है। त्वरित कानून की प्रक्रिया और दंड के बेहतर प्रावधान भी लोगों को अपराध करने से रोकने में सहायक हो सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट है कि मानसिक अवसाद कैंसर के बाद सबसे अधिक मृत्यु का कारण है और ऐसा माना जा रहा है 2025 में मानसिक अवसाद से मरने वालों की संख्या कैंसर से मरने वालों की संख्या से अधिक हो जाएगी। व्यक्तिवादिता बढने से हम सिर्फ एक व्यक्ति रह गए हैं और सामाजिक व्यवस्था एक व्यक्ति की जरूरत पूरा करने का माध्यम भर रह गई और उसके प्रति हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं रह गई है। इस सोच से लोगों में अकेलापन बढ रहा है। इससे लोग तनाव, मानसिक अवसाद और अकेलापन बढेगा। ये तीनों व्यक्ति को उस दुनिया में ले जाते हैं जिसमें समाज के स्थापित मानक अपना अर्थ खो देता है और व्यक्ति के समक्ष उसके लिए कोई मकसद नहीं रहता है। 


अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित

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