उपभोगतावादी संस्कृति के कारण अपराधों की बढ़ी संख्या
नॅशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो द्वार जारी नवीनतम रिपोर्ट में विभिन्न प्रकार के अपराधों की बढ़ी हुई संख्या अनेक सामाजिक तथ्यों को उद्घाटन करती है. रिपोर्ट से प्रथमद्रष्टया यह प्रमाणित होता है की भारतीय समाज मे सबसे दुर्बल समझे जाने वाले समूहों यथा औरतों, बच्चो एवं दलितों पर अत्याचार तीव्र गति से बड़े है. साथ ही साथ पोस्को (पीओसीएसओ) जैसा क़ानून पास होने के बाद भी किशोरों द्वारा किए जाने वाले अपराधों मे बढ़ोत्तरी हुई है. दूसरी ओर भूभाग के आधार पर महानगरों में लगभग समाज की यही जनसंख्या भिन्न भिन्न प्रकार की हिंसा को शिकार हो रही है. इतना ही नही शैक्षिक, आर्थिक, लैगिक, स्वाथ्य, आदि विकासीय सूचकांको में पिछड़े राज्यो यथा- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार आदि प्रदेशो में अपराधों की संख्या में पहले की तरह भयावय बनी हुई है.
भूमंडलीकरण एवं आधुनिकता के इस दौर मे लिंग, आयु, जाति एवं भूभाग के आधार पर होने वाले अपराधों की संख्या मे अप्रत्यशित वृद्धि के मूल मे अनेक कारण हो सकते है क्योकि यह तार्किक है की किसी भी समाज में अपराधों की उत्तपत्ति का कोई एक नही होता. ग्रामीण अंचल, नगरों में, महानगरों में, एवं पिछड़े क्षेत्रों में अपराध के अलग अलग कारण हो सकते है. ऐसा अनेक समाजशत्रियों का भी यही मानना है. लेकिन समाजशास्त्रियों का यह भी मानना है कि समाज में घटित अपराधों के मूल मे उपस्थित सबसे महत्वपूर्ण कारण को चिन्हित किया जा सकता है वह भी भारत जैसे परम्परावादी समाज में जहाँ व्यक्ति संबंधो के जाल से मुक्त नही हो पता है.
भारतीय समाज के समाजशास्त्रीय अध्यन के आधार पर आसानी यह कहा जा सकता है की समाज में लैंगिक, आयु एवं जाती के आधार पर दुर्बल समूहों पर बढ़ते हुए अपराध कहीं ना कहीं भारतीय समाज मे सामाजिक संबंधों के विघटन को दर्शाते है. आधुनिकता, बढ़ी हुई साक्षरता दर एवं नागरिक अधिकार, नागरिकरण, महानगरीय जीवन, तीव्र-गति के यांत्रिक परिवर्तन, उपभोगतावादी संस्कृति मे चहूमुखी बादोत्टरी आदि के कारण व्यक्ति सामाजिक कम व्यवहारिक ज़्यादा हो गया है जिसके कारण प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सामाजिक नियंत्रण का ह्रास हुआ है.
अगर महानगरीय क्षेत्र में घटने वाले अपराधो के अध्ययन हेतु दिल्ली जैसे महानगर का उदाहरण ले ले तो हम पाएँगे की यहाँ प्रत्येक एक लाख की जनसंख्या पर 974 अपराध होते है जो भारत में किसी भी महानगर से ज़्यादा है. दिल्ली या किसी अन्य महानगर में घटने वाले अपराधों के समाजशास्त्रीय अध्ययन से यह पता चलता है की यहाँ बहुसंख्यक जनसंख्या दूसरे प्रन्तो से विभिन्न कार्ण से अपवर्जन कर यहाँ आई है. वे यहाँ या तो एकांगी परिवारों में रहते है या फिर अकेले व्यक्ति के परिवार में. ज़्यादातर व्यस्क भोर से लेकर देर रात तक अपने व्यवसाय मे व्यस्त रहता है. ऐसी स्थित में अत्यंत समीप सामाजिक संबंध वाले परिवार टूट जाता है. एवं गर्मजोशी वाले पड़ोस का उसे कोई भान नही रहता. उसके बगल वाले घर मे कौन रह रहा है, वह क्या करता और क्यों कर रहा है इससे उसे कोई मतलब नही है. ऐसी सामाजिक परिस्थित में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सामाजिक नियन्त्र्न का लोप हो जाता है. ना पड़ोस के चाचा, ना पड़ोस के भैया, ना ही पड़ोस की चाची आदि जिनके डर से लोग बीड़ी, सिगरेट, तंबाखू आदि छिपा लिया करते थे और किसी लड़की की तरफ आँख उठा कर नही देखते देखते थे. पर नगरों एवं महानगरों में यह सब ख़त्म हो गया है.
दूसरी ओर शहर की उपभोगतावादी संस्कृति में हर कोई और विशेषकर युवा वर्ग सभी प्रकार की विलासिता की वास्तु का उपभोग करना चाहता है. उसके सामने विलासिता की अनेक फंतासी एवं सन्दर्भ समूह होते है. परंतु उसमे धैर्य का नितांत आभाव है. वह जल्द से जल्द आसान रास्ते से उन विलासिता की वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है. यहाँ युवा महिलाएँ भी किसी से पीछे नही है. ऐसी परिस्थिति में वे सब अपना ही मार्ग खोजते. है. समाज में स्थापित मूल्यों- त्याग, परिश्रम, ईमानदारी, सत्यता, अहिंसा आदि को ताख पर रख कर जीवन में आगे बढ़ने की ललक उन्हे ग़लत रह पर ले जाती है और यहीं वे अपराध कर बैठते है.
धनाड्य परिवारों के युवा और युवतियों की दूसरी ही समस्या होती है. उनके अभिववकों के पास बच्चो के लिए समय ही नही है. बच्चो के पास इतना पैसा होता है की उनको पता ही नही कैसे खर्च किया जाय. इस लिए वे अवांछित आदतों के शिकार हो जाते है और जब मा बाप उसे पूरा नही करते तो वो अपराध का रास्ता अपना के ते है. परिवार के स्थान पर कोई वैकल्पिक संस्था के अभाव मे आज का समाज अकेले ही अपने नैतिकता की लड़ाई लड़ता है जो इस आधुनिक, जटिल एवं निरंतर पारतिवर्तित होते समाज अपराध रोकने के लिए पर्याप्त नही है. अगर हमे अपने सामाज में इस प्रकार के पराधों को रोकना है तो हमे अपने परिवारिक संबंधो को पुन: प्रगाढ़ करना होगा, पड़ोस हो फिर से जीवित करना होगा और प्राथमिक रिश्तों को पूना: स्थापित करना होगा. बच्चो को समी देना होगा. तब कही जा कर यह सामाजिक विघटन रुक पाएगा.
ग्रामीण आँचल मे लैंगिक एवम् जाती के आधार पर अपराध के लिए जहाँ परम्परावादी मूल्य एवं पित्र-सत्ता पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार है वही प्रगतिशील मूल्योवाली शिक्षा का आभाव भी एक महत्वपूर्ण कारण है. जाति आधारित अपराधो का एक अन्य मुख्य कारण है की हमारे परम्परावादी समाज मे बंधुत्व भाव का नितांत आभव जिसके लिए कोई क़ानून नही बनाया जा सकता. अगर हमे इस तारह के अपराध रोकने है तो तो हमे अपने राजनैतिक प्रजातंत्र को सामाजिक एवं आर्थिक प्रजातन्त्र मे भी बदलना होगा.
प्रो.विवेक कुमार ज़े.एन.यू में
समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर है.
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