Sunday, December 13, 2009

न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में...

शारदा पाठक एक अजब शख्सियत थे। फक्कड़-फकीर। मस्तमौला कबीर। वे पत्रकार थे लेकिन रोजमर्रा की पत्रकारिता से हटकर सतत पढ़ने-लिखने वाले पत्रकार। वे गहन जिज्ञासु व्यक्ति थे और उनकी जिज्ञासा के क्षेत्र भी एक-दो नहीं अनेक थे। उसमें उनकी गहरी पकड़ थी। इतिहास से लेकर फिल्मों तक और बााार से लेकर सभ्यता-संस्कृति तक वे सहज आवाजाही करते थे। बातों का एक बड़ा बाजार वे जहां-तहां खोल के बैठ जाते। आज समाज के वे नियमित लेखक थे। अफसोस यह कि उन जसी प्रतिमा के जीवन का बड़ा हिस्सा अभावों और संकटों में गुजरा। उनको याद करते आज समाज के सीनियर एसोसिएट एडीटर मनोहर नायक
शारदा पाठक घनघोर मिलनोत्सुक जीव थे। मित्रों, परिचितों के बीच परम-प्रसन्न। बातें और बातें। मिलने की चाह उन्हें सुबह से ही सड़क पर ला देती। और फिर मिलते-जुलते बातों-बातों और बातों से दिन का जंगल काटते रहते। जबलपुर हो या दिल्ली उनके परिचित और प्रशंसक बड़ी तादाद में थे। उनका यह दायरा काफी बड़ा था। उससे बहुत-बहुत बड़ा दायरा स्मृति में बसे लोगों का था। कभी का भी कुछ पढ़ा-सुना उनके कबाड़खाने में हमेशा जीवंत रहता और बाहर निकलने को कुलबुलाता रहता। इस सबसे उनकी बातों का दायरा अत्यंत विशाल था। लेकिन अपनी इस अटूट मिलनसारिता के बावजूद वे नितांत एकाकी थे। वे एक चिर-परिचित अजनबी की तरह ही थे-एक आगंतुक! जो अचानक आता और फिर एकाएक चला जाता है। हर दिन हर किसी के साथ उनका मिलना ऐसा ही था।
आगंतुक 1991 में आई सत्यजीत राय की अंतिम फिल्म थी। इसके केन्द्रीय पात्र मनमोहन मित्रा का चरित्र पाठकजी से मेल खाता-सा था। नृतत्वशास्त्री मित्रा ज्ञानी और मूर्तिभंजक हैं। वे दिल्ली से पत्र द्वारा कोलकाता में अपनी भतीजी बेबी यानी अनिला को सूचित करते हैं कि कुछ दिन आकर उनके पास रहना चाहते हैं। ये वे चाचा हैं जिनका पैंतीस वर्ष से कोई अता-पता नहीं था। चाचा दुनियाभर घूमे हुए घुम्मकड़ व्यक्ति हैं अनिला खुश भी है और पति सुधीन्द्र की इस सोच के कारण सशंकित भी जो उन्हें फरेबी मानते हुए शक कर रहे थे कि हो सकता है कि ये पुश्तैनी जायदाद में अपना हिस्सा वसूलने की चाल हो। मित्रा साहब ने आते-आते ही अपने अद्भुत बखानों का रंगारंग पिटारा ही खोल दिया। अनिला का बेटा सत्याकि की उनसे गहरी पटने लगी, लेकिन वयस्क परिवार आशंकित ही रहा और कई भद्रलोक के महाशयों ने उनसे बात की कि भेद खुले। एक वकील दोस्त आया। लेकिन चाचा ने एक सधे वकील की तरह उससे जिरह की। गर्मागर्मी में दोस्त ने कहा ‘साफ-साफ बताओ या दफा हो जाओ। अगले दिन चाचा का कोई पता नहीं था। दरअसल राय ने इस फिल्म के जरिए अपनी चिंताओं का इजहार किया है। वे लगातार आधुनिक और अनौपचारिक होती जा रही दुनिया में मनमोहन मित्रा के जरिए मानवीयता और सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने का संदेश देते हैं। मित्रा के साथ परिवार और मित्रों का व्यवहार और उनकी सोच के पीछे हम मानवीय मन और सामाजिक अंर्तसबंधों की सूक्ष्म पड़ताल पाते हैं। वकील जब मित्रा से पूछता है आपने कभी मानव मांस खाया है जोकि एक बेहद जघन्य काम है तो मित्रा कहते हैं कि मैंने खाया नहीं पर उसके खास स्वाद के बारे में सुना है। यह बर्बर है पर इससे भी सौ गुनी क्रूर और जुगुप्सापूर्ण चीजें हैं। बेघर लोगों और नशीली दवाओं से ग्रस्त लोगों को देखना और एक बटन दबाकर एक सभ्यता को नष्ट कर देना ज्यादा क्रूरता भरा कारनामा है। मित्रा साहब अंतत: मानव प्रकृति और सभ्यता पर लोगों का ज्ञान बढ़ाकर चले जाते हैं।
पाठकजी बहुतों के लिए ऐसे ही कक्काजी थे। ज्ञानी और मूर्तिभंजक। सरस, विनोदी और कई अर्थो में करिश्माई। उनकी उपस्थिति फिल्म की ही तरह शास्त्रीय शैली में मनोभावों की गरिमामय कामेडी की तरह ही थी। भतीजे उनके कई हैं पर दूरदराज और कभी-कभार वाले। एक बड़ी बहन थीं पर पहले ही नहीं रहीं। वे नितांत अकेले थे। जबलपुर विश्वविद्यालय से एनसियेन्ट हिस्ट्री एंड कल्चर व इकानामिक्स में एमए थे। राजबली पांडे के निरीक्षण में डाक्टरेट कर रहे थे पर उनकी स्थापनाएं गले नहीं उतरीं तो छोड़ दिया। व्याख्याता बनना चाहते थे पर नहीं बन पाए। अंतत: पत्रकार बने। पर तमाम योग्यताओं के बावजूद दुनियावी अर्थो में घोर असफल हुए कि फिर नौकरी नहीं की। प्रेम किया था विवाह नहीं कर पाए। पिता के अनुचित दबावों में कराहते रहे। फिर विवाह हुआ ही नहीं। बहत्तर में दिल्ली आए, यहां-वहां काम किया पर कुछ जमा नहीं। दिल्ली में उन्होंने कई साल फाकामस्ती में गुजारे। लेखों का पैसा मिला तब उधारी चुकाई वरना पूछो तो कहते कर्ज पर पैसा उठाया है। एक्सप्रेस में विज्ञापन में हजारों रुपए का काम किया पर हिसाब में मिलान न हुआ तो सब डूब गया। जबलपुर लौटे खाली हाथ और वे खाली ही रहे। न रहने को मकान न कोई करीबी। गो उनके चाहने वाले बहुत थे। एक ने उन्हें कमरा दिया तो कुछ खाने की व्यवस्था करते। लेकिन दिल्ली हो या जबलपुर उनका शोषण ही किया गया। एक्सप्रेस विल्डिंग में तो वे अर्जीनवीस ही हो गए थे। कोई अंग्रेजी में तो कोई हिन्दी में अर्जी लिखवाता रहता। वे प्रेमपूर्वक लिखते रहते। दिल्ली में मकान मालकिन की बाल मनोविज्ञान पर पूरी थीसिस लिख दी। उन्हें नौकरी में तरक्की मिली और पाठकजी को अंतत: वह मकान छोड़ना पड़ा। किसी भतीजी को इतिहास में डाक्टरेट करा दी। किसी मित्र ने लेख लिखवा लिया। किसी ने किताब ही अनुवाद करा ली। एवज में खाना खिला दिया। एक अखबार में बैठने लगे। लिखना और तमाम काम! लेकिन महीने के शुरू में संपादक जेब में दो सौ रुपए डाल देता, ‘पाठकजी चाय-पान के लिए।ज् लेकिन खाना! किसी ने बताया कि कुछ दिनों से किसी मंदिर से खिचड़ी ले आते थे। जिसके यहां रहते बच्चों को पढ़ाते। परीक्षा की तैयारी कराते और मजे-मजे में नई-नई जानकारियां देते। दूसरों की मदद का यह सिलसिला पुराना था। उनके मित्र बंसू मास्साब प्राइमरी में मास्टरी की परीक्षा देने वाले थे। उनके बदले परीक्षा पाठकजी ने दी और बंसू मास्साब हो गए। प्रसंगवश बंसू मास्साब अब्बू मास्टर और शारदा पाठक अपने युवा दिनों में गजब के पतंगबाज थे।
पाठकजी सब जानते थे। हर छल-कपट पर उनकी निगाह रहती। वे परम संकोची थे। उनका इस्तेमाल करने वाला हाल ही का परिचित हो या चालीस साल पुराना वे सहजता से काम कर देते। खाने-वाने के लिए यह सब करते थे यह कहना गलत है। उन्हें भूखे रहने का जबर्दस्त अभ्यास था। पोहा-मट्ठी मिली तो ठीक, नहीं मिली तो ठीक। कइयों से उन्हें उम्मीद थी इसलिए चक्कर लगाते पर निराश ही लौटते। सालों से वे अपने जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश करते रहे। उसी तरह जसे सालों वे घर बसाने, विवाह करने की कोशिश में लगे रहे थे। सुना है युवा दिनों में काफी फैशनेबल थे। गले में मफलर, गॉगल और लेम्ब्रेटा। वह भी भतीजे को दे दिया। दिल्ली-जबलपुर में कई संगी-साथी बड़े आदमी हो गए। ज्ञानी-ध्यानी पाठकजी हैरत करते। गुस्से में कभी-कभार तीक्ष्ण कटाक्ष। उनसे किसी की असलियत छिपी न थी। कई लेखक-पत्रकार भी थे जिनके वे प्रशंसक थे पर आज के दौर की पत्रकारिता के घोर आलोचक। उनकी शास्त्रीयता पुरातनपंथी-दकियानूस हरगिज नहीं थी। उनकी दृष्टि बेहद आधुनिक थी। सारे उतार-चढ़ावों पर पैनी नजर। उदारीकरण के साथ ही वे कहने लगे थे कि अब अखबार इश्तहार हो जाएंगे। जब हो गए तो कहते कि अब तो लेख नहीं चाहिए। शब्दों का गुटका मांगते हैं। कफन देखकर मुर्दे की मांग करते हैं। यानी अच्छी फोटो है तो थोड़ा कुछ लिख दीजिए। कुछ साल से कहते कि यार अब नंबर एक भगवान सांई बाबा हैं। गणेश-कृष्ण-हनुमान पिछड़ गए। अभी कुछ ही रोज पहले एक ऐसा ही सर्वेक्षण कहीं पढ़ा।
कक्काजी बेहद भावुक व्यक्ति थे। वे एक ठीक-ठाक जिंदगी चाहते थे। उसका शोध जीवन भर चला। वे लोगों के बीच के व्यक्ति थे। आसपास मित्र-मंडल अच्छा लगता और उसमें वे हजार जबां से नग्माजन होते। लेकिन उन्हें जसे अकेलेपन की सजा मिली थी। पूरा जीवन अकेले छोटे कमरे में गुजार दिया। वे कुछ किताबें लिखना चाहते थे। लोग कहेंगे-किसने रोका! पर खाने का जुगाड़ ही न हो। पैसा ही न हो ऐसी कोई जगह भी न हो जहां जाकर आत्मीय, भावपूर्ण परिवेश मिले तो कोई क्या कर सकता है! बाहर की दुनिया बातें सुनने को उत्सुक पर अंतत: बेपरवाह। फिर भी अपने मन के घाव कभी नहीं दिखाते। पूछो तो कहते, ‘न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में।ज् यह जरूर है कि बेहद सख्त पसंद-नापसंद वाले थे। फिर परिश्रम से इतना ज्ञानार्जित किया कि मझौले किस्म के लोगों से तालमेल नहीं बिठा पाए। एक तरह से उन्हें उजले-साफ-सूफ, धुली-पुछी पर अंदर से पनाले ढोती दुनिया से चिढ़ हो गई थी। दुनिया की अनौपचारिकता भांप चुके थे। खान-पान-स्नान से मोहभंग का मामला था। कभी यह भी लगता है कि उनका यह मटमैलापन भी जसे पाखंडी दुनिया का सांकेतिक विरोध हो। वे आलू के शौकीन थे पर उसके छिलके से घृणा करते थे। परवल आदि के छिलके भी नागवार थे। अरहर की दाल भी नहीं। साकिब का एक शेर है : मलबूस खुशनुमा हैं मगर खोखले हैं जिस्म/ छिलके सजे हुए हैं फलों की दुकान में।ज् पाठकजी सत्व-तत्व वाले आदमी थे, छिलकों के रंगीन संसार के शत्रु। गजब यह है कि इतने साल विपदाओं से घिरे रहकर भी उन्होंने अपनी ईमानदारी, निश्छलता, संजीदगी और स्वाभिमान नहीं खोया। आराम की जिंदगी में ये सब चीजें भी अपेक्षया आसान होती हैं पर विपरीत और विलोम परिस्थितियों में निष्कलुष रहना कठिन काम है।
कक्काजी का दिमाग अजब-गजब ही था। कहां-कहां की जानकारियां, वंशावलियां, तारीखें, संख्याएं, विवरण उसमें जमा थे। पैंसठ साल पुरानी स्मृतियां उनके अंदर सजीव थीं। एक बड़ा स्मृति-आलय था उनका दिमाग। जहां शायद बड़े-बड़े कक्ष थे : इतिहास, पुरातत्व, राजनीति, भाषा, संस्कृति, वेद-पुराण, महाभारत का अलग। देशों, शहरों, स्त्रियों-पुरुषों का अलग। मंदिरों, स्थापत्य का अलग। व्यापार, शेयर बाजार का अलग। वनस्पतियों और सब्जी मंडी और विविध जायकों का अलग। भूत-प्रेत-जासूसी किस्सों, कहानियों का अलग। और एक बहुत बड़ा कक्ष फिल्मों और फिल्म संगीत का। ऐसा ही एक किताबों, अखबारों, पत्रिकाओं, विशेषांकों का। हां एक तहखाना भी था, जहां निजी जीवन की फाइलें, कुछ सत्यकथाएं और गुत्थियां थीं जिनकी सूची भूले-भटके कभी एकाध लाइन में पता चल जाए तो ठीक, वरना वहां प्रवेश निषिद्ध था। फिल्मों के तो वे चलते-फिरते कोष थे। मेरे जानने में विष्णु खरे और शरद दत्त ही वैसी फिल्मों के वैसे जानकार हैं। कभी-कभी झल्लाहट होती थी उनकी जानकारियों से कि क्या-क्या भरा पड़ा है। उन्हें शायद ही संदर्भ के लिए कुछ देखना पड़ता हो। एक बार जो पढ़ लिया वो याद हो गया। उनकी स्मृति अगाध थी।
धार्मिकता, पूजा-पाठ से वे बहुत दूर थे। धार्मिक उन्माद, पाखंड और ढकोसले के खिलाफ। छोटेपन से उन्हें चिढ़ थी। भाजपा-संघ के तो वे परम शत्रु थे और बाबरी ध्वंस के बाद जब एक दिन मेरे घर में कुछ लोग आए तो उन्हें बैठाया लेकिन जसे ही पता चला कि ये राममंदिर बनाने के समर्थन फार्म पर दस्तखत लेने आए हैं तो आग-बबूला हो गए और उन्हें तुरंत घर से बाहर होने के लिए लगभग चिल्लाने लगे। वे रघुपति राघव को आर आर राजाराम, पीपी सीताराम कहते थे। लेकिन उनके अंदर का दर्द दूसरी तरह से कभी अनजाने उभर आता था। पता नहीं किसने उन्हें बताया कि एक दिन कहने लगे कि एक बढ़िया बात यह होगी कि मृत्यु के बाद मुङो मोक्ष मिल जाएगा। यानी फिर नहीं फंसेंगे। यह एक तरह से अपने जीवन और इस दुनिया से उनके रिश्तों पर शायद सबसे दारुण टिप्पणी थी। जबलपुर में उनकी मृत्यु पर अखबारों में काफी छपा, दिल्ली में कुछेक जगहों से लेख-फोटो की मांग हुई। लेकिन सच यह है कि जीते-जी उनकी कद्र नहीं हुई। अब, ‘मर गए हम तो जमाने ने बहुत याद किया।ज् उनकी बातें, उनका बच्चों-सा निर्दोष व्यक्तित्व सब बहुत याद आता है। वे गजब के किस्सागो थे। लक्ष्मीकांत वर्मा और पाठकजी दोनों के साथ अलग-अलग तय करके रातभर बातें करने का मुङो अनुभव था। एक दिन दोनों ही साथ थे और जो लतीफ संस्मरणों और बात में से निकलती दिलचस्प बातों का सिलसिला उस रात जमा वह अविस्मरणीय है। अक्सर मेरे घर में फिल्म देखते हुए फिल्म खत्म होने पर कहते-‘चलो थींडज् हो गई। वे दि एंड को मिलाकर कहते-थींड। पाठकजी की भी अद्भुत लेकिन दुखांत कथा आखिर थींड हो गई।

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