Monday, September 6, 2010

हमारी आकांक्षाओं से बेमेल शिक्षा

गोपेश्वर सिंह
वर्तमान शिक्षा पद्धति अंग्रेजी राज के साथ आई। अंग्रेजों की ये बुनियादी धारणा थी कि भारत में कोई शिक्षा पद्धति थी ही नहीं। उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति भारत में लागू की और शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को बनाया और पूरे भारत में उसी शिक्षा नीति का प्रचार-प्रसार हुआ। लार्ड मैकाले की देख-रेख में भारतीय ब्रिटिश सरकार ने जो शिक्षा नीति और भाषा नीति तैयार की उसका मूल उद्देश्य ब्रिटिश उपनिवेश को मजबूती देना था। यह शिक्षा मूल रूप से मनुष्य का अपनी जमीन, अपनी भाषा और अपने लोगों से सरोकार खत्म करने वाली थी। यह समाज के प्रति उत्तरदायित्वहीन व्यक्ति पैदा करने वाली शिक्षा थी। इस शिक्षा के जरिए आत्मकेन्द्रित शिक्षित मध्यवर्ग पैदा करने की शुरुआत हुई। वहां से चलकर और अब तक इसी शिक्षा व्यवस्था का प्रसार हुआ है। गांधीजी इस शिक्षा नीति के विरोधी थे। वे चाहते थे कि हमारी शिक्षा प्रारंभिक रूप में मातृभाषा में हो। इसी के साथ वे यह भी चाहते थे कि शिक्षा रोजगारपरक हो। आजादी के बाद आधे-अधूरे मन से भारत सरकार ने कुछ बुनियादी विद्यालयों की नींव रखी। यहां छात्रों के लिए किताबी शिक्षा प्राप्त करने का प्रावधान था। वहां शिक्षा और शारीरिक काम के बीच तालमेल की गुंजाइश थी, लेकिन चूंकि आधे-अधूरे मन से वह योजना शुरू हुई थी, इसीलिए उसकी परिणति विफलता के रूप में हुई और उसे विफल होना ही था।
असल में प्रारंभ से ही इस देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था चलती रही हैं। एक निजी क्षेत्र में चलने वाले अंग्रेजी माध्यम के हाई-फाई स्कूल, दूसरी तरफ देशी भाषा माध्यम के स्कूल। चूंकि शासन और सफलता की कुंजी अंग्रेजी भाषा के पास है इसलिए अंग्रेजी माध्यम के ही स्कूल फलते-फूलते रहे हैं। उनका विस्तार होता रहा है। उन शिक्षण संस्थानों से निकले लोग ही सरकार और समाज चलाने वाली मशीनरी के अंग होते रहे हैं इसलिए देशी भाषा माध्यम के स्कूल मजबूरी का नाम भर है। यह दोहरी शिक्षा व्यवस्था ब्रिटिश राज की स्थापना से लेकर अब तक जारी है और फल-फूल रही है। ब्रिटिश काल में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई का स्तर ठीक था और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की संख्या कम थी इसलिए पहले बहुत सारे समर्थ लोग सरकारी शिक्षा व्यवस्था में भी जाते थे लेकिन आजादी के बाद सरकारी शिक्षा व्यवस्था लचर होती गई और अंग्रेजी माध्यम से चलने वाली निजी शिक्षा व्यवस्था फलती-फूलती रही और उसका द्रुत गति से विस्तार होता रहा। इस तरह की दोहरी शिक्षा पद्धति का होना हमारी लोकतांत्रिक और समतावादी आकांक्षा के विपरीत है। यह समाज में वर्ग भेद पैदा करने वाली शिक्षा नीति है। यह शासक और शासित लोगों का फर्क पैदा करती है। यह एक तरह की नई वर्ण व्यवस्था पैदा करने वाली शिक्षा है। वर्तमान शिक्षा पद्धति श्रम भेद पर आधारित है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को पूर्ण व्यक्तित्व देना है, साथ ही उसे जीवन और जगत के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण भी बनाना है।
जहां तक शिक्षकों की बात है तो आज के शिक्षकों में वह प्रतिबद्धता और आदर्श नहीं है जो पहले के शिक्षकों में होता था। पहले शिक्षक और छात्र का संबंध व्यावसायिक नहीं था। अब शिक्षा का व्यावसायिकरण हो रहा है और शिक्षकों का भी। नई आर्थिक नीति जब से आई है तब से शिक्षा के अनेक निजी संस्थान भी खुलते जा रहे हैं। उनका उद्देश्य व्यवसाय करना है और उसका असर पूरे शिक्षा जगत और शिक्षक समुदाय पर पड़ा है। शिक्षण और प्रशिक्षण के नए-नए संस्थान रोज खुल रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां अपना परिसर खोलने की सुविधा दी जा रही है, जो पहले के विश्वविद्यालय हैं वहां ज्यादा जोर नौकरी देनेवाले विषयों पर है। ऐसे में मानविकी ओर समाज विज्ञान के विषयों की उपेक्षा हो रही है और शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है। शिक्षा का मतलब नौकरी दिलाने वाले विषय का अध्ययन हो गया है। ऐसी स्थिति में शिक्षक वही सफल माना जाता है जो छात्रों को नौकरी दिलाने में मदद करे। शिक्षा का उद्देश्य जब शुद्ध रूप से अर्थकरी होगा तो शिक्षकों से पुराने आदर्श की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में भी अभी भी थोड़े शिक्षक ऐसे हैं जो मानते हैं कि शिक्षा से रोजगार तो मिले लेकिन सबसे पहले एक अच्छा नागरिक और मनुष्य पैदा हो।
(लेखक प्रसिद्ध आलोचक हैं)
- पंकज चौधरी से बातचीत पर आधारित

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