Sunday, August 14, 2011

दुर्भाग्यपूर्ण है देश में है शिक्षा की दोहरी प्रणाली


आजादी के 64 सालों के बाद एक बार फिर लोगों के सामने मूल्यांकन का प्रश्न है। नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभरे इस देश में अभी बुनियादी जरूरतों में सुधार की गुंजाइश बाकी है। ऐसी ही बुनियादी जरूरत हमारी शिक्षा है। आजादी के बाद शिक्षा की स्थिति पर प्रसिद्ध चिंतक पुष्पेश पंत का कहना है कि भले ही आजादी को 64 साल हो गए हों लेकिन इसके बाद भी शिक्षा की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। देश में शिक्षा की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। यहां पूरी तरह से दोहरी प्रणाली है। एक अमीर आदमी के लिए शिक्षा और दूसरा गरीब आदमी के लिए शिक्षा। आम आदमी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाता है जिसकी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। कुछ साधन संपन्न लोग ही अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिला पा रहे हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि हमारे यहां कपिल सिब्बल जसे मंत्री हैं जिन्होंने विदेश में शिक्षा ग्रहण की है और उनको भारतीय शिक्षा प्रणाली की समझ ही नहीं है। मैं शिक्षा के स्तर में गिरावट के लिए आरक्षण की गलत नीतियों को भी दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं। क्योंकि हमारे यहां मेरिट और आरक्षण में बिल्कुल संतुलन नहीं है और यह किसी भी हालत में शिक्षा के लिए घातक है। जब शिक्षा की बात होती है तो हमारे यहां लोग केवल उच्च शिक्षा, आईआईटी, आईआईएम की बात करते हैं लेकिन जब तक शिक्षा में वर्ण व्यवस्था रहेगी तब तक इसमें कोई सुधार की गुंजाइश नहीं है।
साहित्यकार और प्राध्यापक सुधीश पचौरी का कहना है कि मैं आजादी के बाद शिक्षा की स्थिति को सकारात्मक रूप से देखता हूं। मेरा मानना है कि हमारा देश अभी विकासशील देश है। हमारे यहां गुणात्मक सुधार भी हो रहे हैं। आज दिल्ली विश्वविद्यालय की रैंकिंग विश्व में 300वीं है देश में यह पहले स्थान पर है। इसने जेएनयू को भी पीछे छोड़ दिया है। लेकि न प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं है क्योंकि वहां राज्यों का संरक्षण नहीं है। अब शिक्षा के नए आयाम उभर रहे हैं। पुरानी युनिवर्सिटियों का क्षय हो रहा है। एक जमाने में स्कूलों की संख्या कम थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। मैं आरक्षण की प्रणाली को भी गलत नहीं ठहराता क्योंकि वंचित वर्ग के लिए भी तो लोगों को आगे आना चाहिए। आरक्षण के उचित परिणाम आए हैं। लेकिन मैं फिर कहना चाहता हूं कि इसका एक आधार आर्थिक भी हो। राज्यों को उच्च शिक्षा पर भी ध्यान देना चाहिए। आज उच्च शिक्षा में 85 प्रतिशत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग खर्च कर रहा है और राज्य मात्र 15 प्रतिशत ऐसे में शिक्षा पर राज्य को अपने खर्च अधिक करने होंगे। मुङो लगता है कि शिक्षा का जितना नुकसान कॉरपोरेट हाउसों ने नहीं किया है उससे अधिक राजनीतिक हस्तक्षेप ने किया है। विश्वविद्यालयों को स्वायत्त किए जाने की जरूरत है।


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