Sunday, May 9, 2010

पुत्रो कुपुत्रो जायते माता कुमाता न भवती

माँ बस माँ होती है. उसके जैसा कोई नहीं. कितना दुःख सहा लेकिन कुछ नहीं कहा, यहाँ प्रस्तुत है कुछ वरिष्ठ लोगों से उनकी माँ के बारे में की गई बात. आइये जाने अपनी माँ को वो कैसे याद करते हैं.

मां के निकट रहा

राजेन्द्र यादव-
मैं अपनी मां के बेहद निकट रहा हूं। बाप से दूर रहा। पिताजी उस युग के थे जिनके घर में घुसते ही बच्चों को एकदम शांत हो जाना पड़ता था।
अब जब मैं याद करता हूं तो मां कम बाप ज्यादा याद आते हैं। मां महाराष्ट्र की थीं। उनसे हमारा दोस्ताना संबंध था। 16 साल की उम्र में ही उनकी शादी हो गई थी। आगरा आने पर उन्हें भाषा की समस्या आई। पहले उन्होंने यहां की भाषा साीखी लेकिन अंत तक वह ‘आदमी को ‘अदमी बोलती थी। एक दिलचस्प वायका याद आता है, जब भी कोई गलती करता था और बाहर आ जाता था तो मां अंदर से बुलाती थी । वह देहरी से बाहर नहीं जाती थी तो मैं कहता था कि ‘पिटने के लिए आऊंज्।

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दोस्त, गाइड, आलोचक


शोभना नारायण-
मेरी मां मेरी सबसे अच्छी दोस्त थीं आज मैं जो कुछ भी हूं वह अपनी मां कि वजह से ही हूं। वह केवल मां नहीं बल्कि मेरी गाइड, मेरी आलोचक और मुङो समझने वाली भी थी। डांस सीखने के पीछे भी मां थी। जब मैं महज ढाई साल की थी तो मां से यूं ही कह दिया था कि ‘मैं क्या करूंज्? इस पर मां ने कहा था कि ‘तुम नाचो यह उनका अनायास कहना था लेकिन मैंने जिद पकड़ ली। मां मुङो समीप के नाट्य विद्यालय में ले गई। उस शिक्षिका ने मुङो देखकर मां से बोली कि ‘ये क्या आप गोद का बच्चा लेके आई हैं? लेकिन मैंने नाचना सीखा। एक वाकया याद आता है कि जब पड़ोस में एक डांस कंपटीशन था और मैं अभी छोटी थी फिर भी मैं उसमें हिस्सा लेना चाहती थी। एक दिन पहले जब मैंने रिहर्सल देखी तो मेरे तो पसीने छूट गए। मां को बताया, मां ने मना किया लेकिन अब तुम्हारा डांस करना बंद। इससे मैं निराश हो गई। लेकिन मैंने उस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और प्रथम पुरस्कार जीता। उस दिन से आज तक मां के कारण ही नाच रही हूं।

परिवार की धुरी


उदय प्रकाश-
मैंने मां के बिना परिवार को बिखरते हुए देखा है। यह मेरे लिए आत्मपरक घटना है। मेरे पास बचपन में ही मां को खो देने का अनुभव है। इस पर मेरी एक कहानी ‘नेल कटरज् भी है। परिवार समाज की प्राथमिक इकाई होती है और मां इसमें केंन्द्रीय भूमिका में होती है। वह एक ऐसी डंठल है जिससे फूल की पंखुड़ियां जुड़ी होती हैं। मां ही होती है जो बच्चे को नौ महीने अपने गर्भ में रखती है, उसके लिए स्वप्न देखती है। उसके लिए मोजे और कनटोप बुनती है। प्रसव का परम दुखदाई क्षण सहती है। पैदा होने के बाद दो साल तक बच्चे की आंख, भंवे, चेहरे को संवारती है। मां भौतिक होती है।

हमारी हिम्मत भी मां


पं बिरजू महराज-
मां मेरे लिए सब कुछ थी। जब मेरी उम्र साढ़े नौ साल की थी तभी पिता का स्वर्गवास हो गया। उसके बाद से मेरी शिक्षा, नृत्य आदि के लिए उसने निरंतर प्रोत्साहन दिया। मेरी कला में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान है। हमारे गरीबी के दिनों में भी मां ने कभी हमारी हिम्मत नहीं टूटने दी। हमने कुछ समय कानपुर में भी बिताया। वहां 25 रुपए महीने की ट्युशन भी पढ़ाई। बहनों की शादी हो गई थी तो मां हमारे साथ ही रही। उनको गुजरे लगभग 20 साल हो गए हैं। उन्होंने हमेशा हमें ईमानदारी और सच्चाई की राह पर चलना सिखाया। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वह गंगा किनारे अंतिम सांस लें और वह पूरी भी हुई। उन्होंने अंतिम सांस इलाहाबाद में ली।

जो सीखा मां से<
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किरण खेर-
अपनी मां से मैं काफी करीब से जुड़ी रही। पिछले साल उनका स्वर्गवास हुआ। आज तक जिन्दगी में जो कुछ भी सीखा उसमें मां का योगदान काफी महत्वपूर्ण था। वह एक प्रतिभाशाली स्टूडेंट,खिलाड़ी थी या यूं कहूं कि आल राउंडर थी। उनको चार बार युनिवर्सिटी में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला था। वह मेरी बहन के साथ चार साल बैटमिंटन खेली और जीता थी। वह एक अच्छी शिक्षिका भी थी। वह उर्दू की भी स्कालर थी। अक्सर मुङो डांटती थी लेकिन मेरे निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है।

जिंदगी के लिए वरदान


निदा फाजली-
मैं मां से बेहद करीब से जुड़ा था और इस संबंध में मैंने कोई 20 साल पहले लिखा था ‘मैं रोया परदेश में, भीगा मां का प्यार। दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।ज् मां एक रचनाकार है जिसका अपना रचना संसार है। मां आगे चलकर धरती हो जाती है। वह जिंदगी के लिए वरदान है। जिन्दगी के लिए उसके अलग-अलग रूप हैं। मेरी बहुत सी रचनाओं में मां रची-बसी है।

साथ गाई हंसध्वनि


बिंदू चावला-
हमारे घराने में अमीर खां साहब ने पिता जी को शिक्षा दी थी। हम सब रामकृष्ण आश्रम जाते थे। मां शारदा को हम मां मानते हैं। वह सरस्वती का रूप हैं और उन्हें भी मां के रूप में मानते हैंे। हमारे लिए वह पूज्यनीय हैं। मेरी अपनी मां किराने घराने की थी। बचपन में गाना मां के तानपुरे से ही सीखा और काफी दिनों तक बजाया। हर कलाकार के जीवन में मां की सबसे बड़ी भूमिका होती है। जब मैं गाती थी तो पिता जी अक्सर मां को चिढ़ाते थे कि जो बेटी गा रही है वह तुमसे हो पाएगा? फिर मां और हम साथ गाते थे। जब पहली बार मैंने गाया तो मां भी मेरे साथ मंच पर गाई।
हमने राग हंसध्वनि गाया। आज भी जब मैं हंसध्वनि गाती हूं तो उसका रिस्पांस सबसे अधिक मिलता है।

बहुत मीठी यादें


कैलाश वाजपेई-
मां का मतलब केवल यही नहीं है कि उसने जन्म दिया है। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि। यह संदेश है कि पहले मां फिर मातृभूमि। समय बदलने के साथ चीजें बदली। सभ्यता विकसित होती गई और संस्कृति सिकुड़ती गई। अब सांस्कृतिक शालीनता की बातें बेकार हो गई हैं। भूमंडलीकरण के दौर में मूल्य गड्मगड्ड हो गए हैं। तीर्थस्थान पर्यटनस्थल में बदल गए हैं। पारिवारिक संबंध निस्पंद हो गए हैं।
लेकिन मेरी मां की यादें बहुत मीठी हैं। कई वर्षो बाद जब मैं दिल्ली लौटा तो लखनऊ से मेरी मां मेरे भाई, पिता आदि से झगड़ कर अपने बचाए हुए पैसे और कुछ साड़ियां लेकर दिल्ली आई। वह उन लोगों से कहती थी कि मुङो ‘मान्याज् के पास जाना है लेकिन एक दिन वह बिना किसी को बताए दिल्ली आ गई। जब मैंने उन्हे अपने यहां देखा को मैं दहाड़ मारकर रोने लगा। मुङो दुख है कि जब मेरी मां का स्वर्गवास हुआ तो वह मैं रूस के जंगलों में कहीं किसानों के पास रहा हूंगा क्योंकि उसके स्वर्गवास की खबर मुङो नहीं मिली। मेरी छोटी बहन बताती है कि वह मुङो अंतिम समय में बहुत याद करती थी। मुङो लगता है कि मेरे लिए यदि सबसे अधिक कोई रोया होगा तो वो मां थी।

सुरीली, सरल और दयालु<
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साजन मिश्र-
हम इस मामले में बहुत सौभाग्यशाली हैं कि मां ने हमें अगाध प्रेम दिया। वह हम दोनों भाइयों को साथ ही सुलाती थी। मेरे घर के पास कबीर जी का मंदिर था। वहां पर सुबह पांच बजे घंटी बजते ही मां जगा देती थी। उन्होने संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी लेकिन सुन कर वह गाती थी । वह हमें राग अहीर भैरव, ललित आदि की बंदिशे सुनाती थी। वह दयालु और सहज भी थी। मां हमें खूब रियाज करवाती थी। वह ढोलक भी बजाती थी। सुरीली भी थी। हम लोग पिताजी से डरते थे। मां हमें गलतियों पर डांटती थी लेकिन कभी मारा नहीं । हम इस बारे में सौभाग्यशाली हैं कि मेरी चाची ने भी हमें मां के समतुल्य प्रेम दिया। मां और चाची देवरानी-जेठानी थी लेकिन हमेशा बहन जसी रही। इसका ही प्रभाव है कि हम दोनों भाइयों की पत्नियां बिल्कुल बहन जसी रहती हैं।


Wednesday, April 28, 2010

जरूरत है, अच्छी फिल्में

दिल्ली में असम का मशहूर कोहिनूर मोबाइल थिएटर अपनी प्रस्तुति देने आया है। फिल्म, थिएटर से जुड़े
और दूरदर्शन पर आने वाला लोकप्रिय धारावाहिक जासूस विजय में मुख्य किरदार में दर्शकों के बीच अपनी पहचान बनाने वाले आदिल हुसैन से फिल्म, नाटक और उत्तर-पूर्व में सिनेमा के हालात पर उनके की गई लंबी बातचीत के कुछ अंश-


प्रश्न- कमर्शियल फिल्में दर्शकों तक तेजी से पहुंच जा रही हैं लेकि न कला फिल्में नहीं पहुंच पा रही हैं, इसकी क्या वजह मानते हैं?
उत्तर-
दर्शकों को एजुकेट करना या उन तक एक सकारात्मक संदेश पहुंचाने का काम थिएटर कर रहा है। लेकिन फिल्मों का अंदरूनी बड़ा दोष यह है कि इसके लिए अधिक पैसे की जरुरत होती है। अब जो पैसा लगाएगा जो वह पैसा वापस भी चाहता है लेकिन पैसा लगाकर वापस पाने की चाह रखने वाले कम हैं। इसलिए भारतीय दर्शक मसाला टाइप फिल्म ही देखते हैं आएं हैं। उसे ही वे थोड़ा-बहुत अच्छा समझते हैं। लेकिन जब उन्हे अच्छी फिल्में दिखाई ही न जाएं तो उन्हे पता ही नहीं चलेगा कि अच्छी फि ल्में क्या हैं। लेकिन यह प्रोड्यूसर की जिम्मेदारी है कि वह इस कमर्शियलिज्म से हट कर फायदा देखते हुए कुछ बनाने की संभावना है तो उन्हे क रना चाहिए।
प्रश्न- एक बांग्ला फिल्म में सोहा अली के साथ काम किया और इश्कि या में विद्या बालन के साथ दोनों थिएटर से नहीं जुड़ी हैं कैसा अनुभव रहा?
उत्तर- सोहा की वो पहली फिल्म थी। वे काफी एलर्ट थी। डायरेक्टर के साथ उसका अच्छा संबंध था। मेरे साथ भी अच्छे संबंध थे। मैं जब आज भी फिल्म देखता हूं तो लगता है कि सोहा ने अच्छा काम किया है। विद्या बालन एक स्टार है। मुङो एक बार लगा कि मेरा कोई उतना बड़ा नाम नहीं है। मेरे साथ ये कैसा बर्ताव करेंगी लेकिन उन्होने बड़े सम्मान के साथ काम किया।
प्रश्न- इश्किया में नसीरुद्दीन शाह के साथ काम करना कैसा रहा?
उत्तर-
नसीरुद्दीन शाह एनएसडी में मेरे गुरु रहे हैं। 17 साल पहले उन्होने मुङो पढ़ाया था। उनके साथ काम करना बहुत अच्छा लगा। वह बड़े और गुणी कलाकार हैं। मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है।
प्रश्न- आप की फिल्म फार रियल आ रही है? इसके बारे में कुछ बताइए? किस तरह की फिल्म है यह?
उत्तर-
यह एक पांच साल के बच्चे की नजर से अपने मां-बाप को देखने की कोशिश है। एक अंदरूनी तनाव या पारिवारिक तनाव का बच्चे पर क्या असर होता है बच्चों की मानसिकता और उनके आवेग पर उसका क्या असर होता है। उनके मां-बाप उनके आदर्श होते हैं और उनके तनाव का बच्चे पर क्या असर होता है इस पर आधारित है वह फिल्म। इसे सोहा जन ने बड़ी संवेदनशीलता के साथ बनाया है। जोया हसन को सिंगापुर में बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला है काफी अच्छी कलाकार है वे।
प्रश्न-आपकी आगामी फिल्म कौन सी है?
उत्तर-
एक फिल्म आने वाली है गंगो। महाश्वेता देवी की कहानी पर आधारित है। इसमें एक फोटोग्राफर की भूमिका है मेरी, लीड रोल मे हूं। यह शायद जून-जुलाई में आ जाए।
प्रश्न- आप मूलत: असम से हैं क्या कारण है कि नार्थ ईस्ट के लोग पूरे भारत से पूरी तरह से जुड़ा हुआ नहीं मानते?
उत्तर-
मैं ऐसा नहीं मानता। इस पर मैं टिप्पणी नहीं कर पाऊंगा कि नगा और मणिपुर के लोगों को क्या लग रहा है। नागालैंड के लोग भी मुझसे ऐसा नहीं कहते लेकिन प्रशासन या मीडिया के लोग भी बहुत कम नार्थ इस्ट के लोगों पर ध्यान देते हैं। अगर बम विस्फोट में तीन लोग दिल्ली या गुजरात में मरते हैं तो बड़ी खबर बनती है लेकिन असम में ऐसा हुआ तो कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती और ऐसा मैं बचपन से देख रहा हूं।
दक्षिण भारत के साथ भी ऐसा ही है। कुछ लोगों के साथ ऐसे बर्ताव पर प्रभाव पड़ता है और इससे गलत मनोभाव पैदा होता है। इससे लोग आसानी से बंदूक उठा लेते हैं। अवसरवादी संगठन भी आम लोगों को इस्तेमाल करते हैं इसका असर असम, नगालैंड आदि में हुआ है। विदेशों में ऐसा नहीं है वहां लोग भी जागरूक हैं। विदेश में मुद्दों पर राजनीति और चुनाव होते हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि हम अपने वोट को लेकर जागरूक नहीं हैं।
प्रश्न- असमियां फिल्में अपनी पहचान खोती जा रही हैं क्या वजह है?
उत्तर-
फिल्म निर्माण के लिए पैसे की जरूरत है। पहले लोगों ने फिल्में बनाई लेकिन अब कोई पैसा नहीं लगा रहा है। एक समय असम में 120 हाल थे। अब काफी लोगों ने हाल को गोदाम बना दिया। डीवीडी और सीडी ने भी असर डाला है। लेकिन जो सचमुच सिनेमा से प्यार करते हैं काम कर रहे हैं लेकिन जो बिजनेस करना चाहते हैं वे नहीं बना रहे हैं।
कला को अगर केवल व्यापार मानते हैं तो उसका उद्देश्य अलग हो जाता है । दोनों साथ-साथ रह सकते हैं लेकिन अगर व्यापार कला को प्रभावित करता है तो वह कला नहीं एक प्रोडक्ट हो जाता है। जो आप बालीवुड में देखते हैं। यह आज की बात नहीं है बहुत पहले से हो रहा है।
प्रश्न- डायरेक्शन में आना है कि केवल एक्टिंग करेंगे?
उत्तर-
नाटक में कोई ऐसी कहानी या मुद्दा जो एकदम से छू जाए और मेरे दिल में एक ऐसी खलबली कर पैदा कर दे तो शायद ऐसा करूं। लेकिन कभी -कभी जब फिल्में देखता हूं तो लगता है कि अरे ये क्या हो रहा है।
प्रश्न- मोबाइल थिएटर से जुड़ने का अनुभव कैसा रहा?
उत्तर-
एक्टर के हैसियत से जो काम आप बार-बार कर रहे हैं तो एक ताजगी महसूस करनी चाहिए। इस तरह से जब आप काम करते हैं तो ऐसा लगेगा कि ये चीज मैं दुहरा नहीं रहा हूं। थिएटर में आप लम्बे समय के रिहर्सल के बाद 200-250 शो करते हैं तो उसमें काम को नए तरह से करने की गुंजाइश रहती है।

Wednesday, April 21, 2010

रिश्ते सुधरते हैं तो खूब हों शादियां : डॉ. फातिमा हसन

पाकिस्तान की जानी-मानी शायरा डॉ. फातिमा हसन पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय मुशायरा ‘जश्ने-बहार में शिरकत करने दिल्ली आई हुई थी। इस मौके पर उनसे शायरी और दोनों मुल्कों के रिश्तों पर किये गए कुछ सवाल-जवाब
सवाल : पाकिस्तान एक अरसे लोकतांत्रिक व्यवस्था को ठीक करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अब तक उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली है?
जवाब : लोकतांत्रित व्यवस्था सुचारु तरीके से काम करे यह प्रत्येक पाकिस्तानी चाहता है। लेकिन एक तबका है जो राज कर रहा है। ये वो लोग हैं जो संभ्रांत परिवारों से आते हैं। जब तक इनसे निजात नहीं मिलेगी तब तक लोकतंत्र सही मायने में नहीं आएगा। व्यवस्था बदलने में हो सकता है एक या दो पीढ़ी बीत जाए। व्यवस्था बदलने के लिए मध्यम वर्ग और निचले तबके के लोगों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है।
सवाल : वहां के नागरिक क्या चाहते हैं?
जवाब : पाकिस्तानी नागरिक अपने मत को लेकर जागरूक नहीं है। वह अपने जागीरदार को वोट देकर चला आता है। उसे अपने वोट का मूल्य नहीं पता।
सवाल : हिन्दुस्तान में किन शायरों को पढ़ती हैं?
जवाब : मैं यहां के तकरीबन सभी नामचीन शायरों को पढ़ती हूं। शहरयार, जावेद अख्तर, शायरा शहनाज नबी मुङो बहुत भाते हैं। जाहिदा जदी, दाराबानो वफा का इंतकाल हो गया। इनकी शायरी भी बहुत अच्छी है।
सवाल : पाकिस्तान में शायरी के क्या हालात हैं? वहां संजीदा शायरी को तरन्नुम में पढ़े जाने पर लोगों की कैसी प्रतिक्रिया है?
जवाब : भारत की कोई शायरा पाकिस्तान में जब तरन्नुम में शायरी सुनाती थी तो एक लहर पाकिस्तान में भी आई थी, लेकिन पाकिस्तानी बड़े शायरों ने उनकी कोई हौसलाअफजाई नहीं की। मैंने भी उन मुशायरों में जाने से इनकार कर दिया। अब वहां दो तरह की शायरी है। एक वह जो छप रही है, दूसरी जो मुशायरों में तरन्नुम में सुनाई जा रही है। वैसे, पाकिस्तान में जो लोग तरन्नुम में पढ़ते हैं, उन्हें अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। लेकिन भारत से कुछ दिनों पहले शहनाज नबी और तरन्नुम रियाज पाकिस्तान आईं तो उन्हें काफी सराहना मिली।
सवाल : भारत आना कितना आसान रहा?


जवाब : अभी पिछले छह महीने में दो बार आई हूं। अब आना आसान है। जश्न-ए-बहार में पहली दफा आई हूं।
सवाल : आपको क्या लगता है, एक-दूसरे देशों के बीच आवाजाही कितनी होनी चाहिए?
जवाब : खूब होनी चाहिए। खासकर युवाओं की। जो बुजुर्ग यहां से पाकिस्तान गए। वे बच्चों को बताते हैं कि मेरा भाई या मामू हिंदुस्तान में है। लेकिन हमारे बाद वाले बच्चों को कोई बताने वाला नहीं है। युवा यहां आएंगे तो पाएंगे कि दोनों मुल्कों में सदियों के रिश्ते हैं। तहजीब, रस्म और रिवाज एक जसे हैं, जुबान एक है, संबंधों और समस्याओं पर फिक्र एक जसी है। इसका बढ़ावा देशों के युवाओं के बीच मेल-जोल होने से और बढ़ेगा।
सवाल : अभी हाल ही में शोएब मलिक और सानिया की शादी हुई है। पाकिस्तान में इस शादी को लेकर कैसी चर्चा है?
जवाब : पाकिस्तान में लोग बहुत खुश हैं। लोग नाच रहे हैं, मिठाइयां बांट रहे हैं। टीवी चैनलों ने इस बारे में इतना दिखाया कि लोगों को शिकायत हो गई कि क्या देश में और कोई समस्या नहीं है। लेकिन एक बात है कि अगर ऐसी शादियों से रिश्ते सुधरते हैं, तो शादियां खूब होनी चाहिए।

कभी ये तैराकों कि बावली थी .....



नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के लोग जहां कभी तैराकी सीखने के लिए आते थे। और जो कभी तपती गर्मी से झुलस रहे राहगीरों के लिए कुछ पल आराम का स्थल हुआ करती थी वह अग्रसेन की बावली आज उपेक्षा का दंश ङोल रही है। 14 वीं शताब्दी में बनी यह बावली अब सूख चुकी है। दिलचस्प यह है कि दिल्ली के हृदय कनॉट प्लेस के समीप हेली रोड के हेली लेन स्थित यह बावली चारो तरफ से मकानों से घिरी है जिससे किसी बाहरी व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि यहां कोई बावली है। बावली की दीवारों से सटे मकान उस कानून की धज्जियां उड़ाते हैं जिसमें यह कहा गया है कि किसी ऐतिहासिक इमारत के दो सौ मीटर के दायरे में निर्माण कराना कानूनी अपराध है।
60 मीटर लम्बी, 15 मीटर चौड़ी और 103 सीढ़ियों वाली यह बावली तैराकी के लिए विशेष
के लिए विशेष रूप से जानी जाती थी। यहां पर विशेष रूप से उस्ताद होते थे जो लोगों को तैरना सिखाते थे। कभी यह गद्दी फैज खानदान के पास हुआ करती थी। जिसने कई तैराकी के कई शागिर्द तैयार किए। इस खानदान के अखलाक अहमद फै ज का कहना है कि इस बावली की आखिरी गद्दी उन्ही के पास थी। यह गद्दी कई पीढ़ियों से उनके खानदान के पास थी लेकिन अब जब बावली सूखी है तो वहां कोई नहीं आता।
बावली की हालत भी बदहाल है। वहां इसके संरक्षण में रखे गए युवक ने बताया कि इसके ऊपर बने मस्जिद का एक सिरा सन 78 मे बिजली गिरने से टूट गया था। इसके कुछ छज्जे भी गिर चुके हैं। यह बावली स्थानीय लोगों की घोर उपेक्षा की शिकार है। यहां पर फेंके गए कूड़े प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं। बावली के पीछे का लगभग 57 मीटर बड़ा कू आं भी सूख चुका है। लाल बलुए पत्थर से बनी बावली की वास्तु संबंधी विशेषताएं तुगलक और लोदी काल की तरफ संकेत कर रहे हैं लेकिन परंपरा के अनुसार इसे अग्रवाल समाज के पूर्वज अग्रसेन ने बनवाया था। इसलिए इसे अग्रसेन की बावली कहते हैं।
इसक संरक्षण के संबंध में भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसआई) के वरिष्ठ पुरातत्वविद ने बताया कि इसकी स्थिति पहले और भी खराब थी लेकिन एएसआई इसके संरक्षण का कार्य कर रहा है। जल्द ही इसके संरक्षण का कार्य पूरा कर लिया लाएगा।

Wednesday, April 14, 2010

पथिक को तरसती राजों कि बावली

दोस्तों, सूरज आग उगल रहा है, और हम बूँद-बूँद को तरस रहे हैं. लेकिन पहले ऐसा नहीं था. शायद आज हमारी प्यास कुछ ज्यादा बढ़ गई है. अगर आज हम दिल्ली कि बात करें तो कभी यमुना में इतना पानी हुआ करता था कि जिसे लोग केवल पीते नहीं थे बल्कि दिल कि प्यास बुझाते थे. नहाकर, तैर कर,दुबकी लगाकर. लेकिन आज कि यमुना देखकर शायद कृष्ण भी बंशी बजने में संकोच करें. दोस्तों दिल्ली में मुग़ल काल में पानी को लोंगों कि जरुरत मानकर बादशाहों और राजाओं ने बावलियों का निर्माण करवाया था, कुछ बावलियां आज भी मौजूद हैं. हमारी कोशिश है कि दिल्ली कि कुछ बावलियों कि स्थिति से हम आपको रू-ब-रू कराएँगे. उम्मीद है आपके सुझाव हमें प्रेरणा देंगे.



गुजरे जमाने की बात है जब बावलियां जीवन के लिए उतनी ही जरुरी थी जितना घर। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। दिल्ली में मुगल काल में बनी कुछ बावलियां अभी अस्तित्व में हैं। लेकिन इन्हे देख कर यह कहना मुश्किल है कि कभी यह लोगों के लिए जल के बड़े स्रोत के रूप में जानी जाती थी। दिलचस्प यह है कि आज भी भारतीय पुरातत्व विभाग के पास दिल्ली की बावलियों की स्पष्ट जानकारी नहीं है। दिल्ली की बहुत सी बावलियां अब अपना अस्तित्व खो चुकी हैं जो बची हैं वह कूड़े के ढेर में तब्दील हो चुकी हैं और जिन बावलियों में अभी पानी दिखता है वह इतना बदबूदार है कि पर्यटक क्या आम आदमी भी इनके पास फटकना पसंद नहीं करता।
दक्षिण दिल्ली में मेहरौली के पास मेहरौली आर्कियोजिकल पार्क में अधम खां गुम्बद से थोड़ी दूर चार स्तरों वाली राजों की बावली है जिसे राजों की बैन भी कहते हैं। इसके बारे में कहा जाता है संभवत: यह नाम कारीगरों द्वारा इस्तेमाल किये जाने के कारण मिला है। इसकी ऊपरी दीवार के भीतर की सीढ़ियां उसे एक मस्जिद से जोड़ती हैं जिसकी छतरी में 912 हिजरी लिखा है। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि यह सिकंदर लोदी के शासनकाल (1498-1517) में बनवाया गया था। लेकिन स्थानीय लोगों की और ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्थाओं द्वारा उपेक्षित यह बावली आज बस असामाजिक तत्वों का अड्डा बनी है। यहां खुलेआम शराब की बोतलें और अन्य चीजें बिखरी पड़ीं हैं। कूड़े करकट का ढेर भी यहां देखा जा सकता है।
इस ऐतिहासिक बावली की ऐसी उपेक्षा पर भारतीय पुरातत्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा पूछे जाने पर उनका कहना है कि मई तक इसके सौंदर्यीकरण का कार्य शुरु कर दिया जाएगा। जहां तक गंदगी की बात है, इसके लिए स्थानीय लोंगो से भी सहयोग की अपेक्षा की जाती है यदि वह जागरुक रहेंगे तो कोई असामाजिक तत्व वहां नहीं आएगा।

Monday, March 29, 2010

लोहिया, एक बहु आयामी व्यक्तित्व

कुर्बान अली


भारत में समाजवादी आंदोलन के संस्थापकों में से एक और राष्ट्रीय आंदोलन के एक प्रमुख हीरो डा. राम मनोहर लोहिया का यह जन्मशताब्दी वर्ष है। डा. लोहिया ने इस देश को आजाद कराने के अलावा स्वतंत्रता के बाद हुई राजनीति में एक अहम रोल अदा किया और देश की राजनीति को कुछ नए मंत्र दिए। डा. लोहिया ने एक बार कहा था कि इस देश के आम आदमी को देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि वो यह समझता है कि मैं उसकी बात कहता हूं।
डा. लोहिया का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह गांधीवादी समाजवादी, जन्म से विद्रोही और राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ लेखक, पत्रकार, सांसद, कानून विद् और भारतीय संस्कृति के बड़े जानकार थे। वह 57 वर्ष की कम उम्र में इतना सब कुछ कर गए जो आम हालात में संभव नहीं होता है। डा. लोहिया के जीवन काल को दो भागों में देखा जाना चाहिए। वह 23 मार्च 1910 को पैदा हुए थे और 1932 तक उन्होने अपनी शिक्षा पूरी की। इस दौरान भी वह कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े रहे। 1933 में जर्मनी से वापस आकर वह पूरी तरह राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े और कांग्रेस पार्टी के सक्रिय सदस्य बने। 1934 में जब कांग्रेस पार्टी के अंदर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया गया तो वह उसके संस्थापक सदस्य थे। 1936 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं जवाहर लाल नेहरू ने उन्हे कांग्रेस के विदेश विभाग का सचिव बनाया और डा. लोहिया ने पहली बार कांग्रेस की विदेश नीति का दस्तावेज तैयार किया। 1939 में डा. लोहिया पहली बार कलकत्ता में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार किए गए और फिर 1946 तक तो यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। 1942 के अगस्त क्रांति आंदोलन में उन्होने भूमिगत रहकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन 1944 में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हे लाहौर के किले में भीषण यातनाएं दी गई। उसी समय महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका हरिजन में एक लेख लिखा ‘ जब तक राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश जेल में बंद हैं वह खामोश नहीं बैठ सकते। क्योंकि इनसे बहादुर व्यक्ति को वह नहीं जानते।

देश आजाद हो जाने के बाद डा. लोहिया इस राय के थे कि कांग्रेस पार्टी में रहकर देश के नवनिर्माण का काम किया जाए लेकिन जब कांग्रेस पार्टी ने अपने विधान में यह संशोधन कर दिया कि अलग सदस्यता वाला संगठन पार्टी के अंदर नहीं रह सकता तो फिर वह आचार्य नरेन्द्र देव और जय प्रकाश नारायण के साथ कांग्रेस पार्टी से अलग हो गए और सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। पहले आम चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी को अपेक्षित सफलता नहंीं मिल पाई। इसलिए समाजवादियों ने 1954 में जेबी कृपलानी की कृषक मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलय कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। डा. लोहिया इस नई बनी पार्टी के महासचिव चुने गए और उन्होने ही पार्टी का नीति वक्तव्य तैयार किया और संघर्ष का एक जोरदार कार्यक्रम शुरू किया। उत्तर प्रदेश में सिंचाई की दरों में बढोतरी के खिलाफ (जिसे नहर रेट आंदोलन के रूप में भी जाना जाता है।) डा. लोहिया ने गिरफ्तारी दी और कई माह तक जेल में बंद रहे। इसी दौरान केरल की प्रजा समाजवादी सरकार ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवा दी जिसमें कई प्रदर्शनकारी मारे गए। डा. लोहिया ने इस अनैतिक काम के लिए अपनी सरकार को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया और जब मुख्यमंत्री पट्टम थानू पिल्लई ने ऐसा करने से इंकार किया तो उन्होने खुद पार्टी महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया। यही घटना एक वर्ष बाद पार्टी में विभाजन का कारण बनी और डा. लोहिया प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से निष्कासित कर दिए गए। इस निष्कासन के बाद उन्होने 1 जनवरी 1956 को अपनी सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया और देश में एक धारदार विपक्षी पार्टी का रोल निभाते हुए एक साथ कई आंदोलन शुरु किए।
डा. लोहिया ने समता मूलक समाज बनाने के अलावा जाति तोड़ो, हिमालय बचाओ, दाम बांधो, भारत पाक महासंघ बनाओ, पिछड़ों को विशेष अवसर दो और नर-नारी समानता के लिए कई ऐतिहासिक आंदोलन चलाए। अपने कार्यकर्ताओं से उनका कहना था कि वोट, जेल और फावड़ा इसके साथ समाज बदलने के लिए उन्हे तैयार रहना चाहिए। देश में रचनात्मक कार्यो के लिए उनका मंत्र था ‘एक घंटा देश को। वह चौखम्भा राज और विकेन्द्रीय करण के बड़े हिमायती थे। और चाहते थे कि गांव, जिला, राज्य और केन्द्र के बीच एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसका सबसे ज्यादा लाभ गांवों को पहुंचे।

डा. लोहिया ने स्वतंत्र भारत की राजनीति में कई प्रयोग किए। 1952,57 और 1962 के तीन आम चुनाव लगातार जीतने के बाद जब देश में यह धारणा बनी कि कांग्रेस पार्टी को सत्ता से नहीं हटाया जा सकता तो 1963 में उन्होने गैर कांग्रेस वाद की राजनीति की शुरूवात की और सभी प्रमुख विपक्षी दलों के बीच वोटों के विभाजन को रोक कर 1967 में गैर कांग्रेस वाद का एक सफल प्रयोग किया। उनकी इसी रणनीति के तहत 9 राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी.


लेखक- बीबीसी के पूर्व संवाददाता और वर्तमान में इंडिया न्यूज में कार्यरत हैं.

Saturday, March 13, 2010

भारतीय संस्कृति की खुशबु को बिखेरने की चाहत


?कभी-कभी जब हम कुछ मन से कर रहे होते हैं और अचानक फोन आ जाए तो वह क्षण हमारे लिए बहुत सुखद नहीं होता। कुछ ऐसा ही हुआ जब मेरे मोबाइल की घंटी बजी और मैं एक महत्वपूर्ण खबर लिख रहा था। लेकिन नंबर अनजान था। उठाया तो पता चला कि फोन कीव से है। एक बारगी तो आश्चर्य भी हुआ कि मुङो कीव में कौन जानता है। लेकिन जानने वाले ने ऐसा परिचय बनाया कि एक औपचारिक परिचय अनौपचारिक परिचय में बदल गया। अब मेरे मित्र संजय राजहंस ने मुङो भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद में गान्ना स्मिर्नोआ के भरत नाट्यम की प्रस्तुति की सूचना दी। मुङो यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मैं उत्तर भारतीय नृत्यों और कलाकारों की अपेक्षा भरतनाट्य या उनके कलाकारों को कम जानता हूं और गान्ना तो मेरे लिए बिल्किुल ही नया नाम था। लेकिन मुङो 5 मार्च का इंतजार था क्योंकि उसी दिन यह प्रस्तुति होने वाली थी। मैं अपनी व्यस्तता के बावजूद कार्यक्रम में पहुंचा। अन्य अखबारों में मैंने पहले ही उनकी प्रस्तुति की सूचना पढ़ ली थी।
आईसीसीआर में जब मेरी उनसे बात हुई तो उनकी बात में दृढ़ता थी उन्होने कहा कि मेरी तमन्ना है कि मैं भारतीय संस्कृति की खुशबू को यूक्रेन सहित विश्व के अनेक देशों में फैलाऊं। यूक्रे न के लोग भारत को यहां की फिल्म इंडस्ट्री बॉलीवुड के कारण जानते हैं। मेरी कोशिश है कि भरतनाट्यम को मैं वहां प्रचारित-प्रसारित करूं। उन्हें भारतीय संस्कृति से खासा लगाव है।
निश्चित रूप से यह धारणा किसी भारतीय की लगती है। मुङो यह जानकर खुशी हुई। भरतनाट्यम की नृत्यांगना गान्ना स्मिर्नोआ यूक्रेन के कीव में श्रेवचनको विवि में अध्यापिका भी हैं।


उन्होंने लगभग एक घंटे की प्रस्तुति में उन्होंने दर्शकों को मंत्र-मुग्ध कर दिया। और मैं तो सहसा विश्वास नहीं कर पा रहा था कि गान्ना को संस्कृति के मंत्रों, ताल, गति, हाव-भाव की अच्छी जानकारी है। उन्होंने भारत में विधिवत शिक्षा ली हैं और भरतनाट्यम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता नृत्य में भरपूर दिख रही थी।
सर्वप्रथम उन्होंने राग केदारम में आदि ताल में पुष्पांजलि प्रस्तुति की। इसके बाद देवी तोड़ी मंगलम की प्रस्तुति हुई, जो राग मल्लिका और ताल मल्लिका में थी। इसके बाद वरणम की प्रस्तुति ने तो लोगों को बांध दिया। इसमें विशेष रूप से नृत्य और अभिनय का मिश्रण होता है, लेकिन अभिनय की प्रधानता होती है। इसे राग नट कुरंजी और ताल आदि में प्रस्तुत किया गया। मूलत: इसमें भक्ति श्रृंगार होता है। कार्यक्रम का समापन उन्होंने कृष्णलीला का प्रदर्शन किया। एक बातचीत में उन्होने बताया कि वह कीव में ‘नक्षत्रज् नामक एक नृत्य सिखाने का स्कूल भी चलाती हैं और विश्वविद्यालय में इंडियन ओरियंटल डांस पढ़ाती हैं। इसके अलावा वो भारतीय शास्त्रीय नृत्य में शोधरत भी हैं। वह भारतीय नृत्यशास्त्र पर एक पुस्तक भी लिख रही हैं जिसका प्रकाशन जल्द ही होने वाला है।


कार्यक्रम में इनकी प्रस्तुति में वीणा पर श्यामलतानकर ने, नटुवंगम पर इनकी गुरु जयलक्ष्मी ईश्वर ने, मृंदग पर आर केशव तथा स्वर सुधारघुरमन ने दिया था। दिलचस्प यह है कि गान्ना भारतीय मूल के कीव में प्रोफेसर संजय राजहंस की पत्नी हैं, जिन्होंने भारत में शास्त्रीय नृत्य की विधिवत शिक्षा ली है। संजय अब हमारे मित्र हैं और कीव में अंतर्राष्ट्रीय संबंध के प्रोफेसर हैं। उनके मन में यह भारतीय मानस का संकोच भी था शायद बातचीत में उन्होने कभी व्यक्त नहीं होने दिया कि गान्ना उनकी पत्नी हैं यह बात मुङो काफी बाद में पता चली। संजय कीव में होने पर भी उतने ही भारतीय है जितना एक दिल्ली में रहने वाला। संजय जी गान्ना की प्रस्तुति के लिए आप भी बधाई के पात्र हैं। साथ ही वह प्रवासी भारतीय भी जो भारतीय संस्कृति को विदेश में रहने के बावजूद भी न केवल महसूस करते हैं बल्कि उसके प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत हैं।

Tuesday, March 2, 2010

खेलत फाग बढ़त अनुराग


कथक और होली का गहरा संबंध है। होरी पर ज्ञात-अज्ञात कवियों के अति सुंदर पद हैं। कथक में उन पर भावाभिनय का चलन पुराना है। ब्रज और कृष्ण भी होली से और कथक से इस तरह घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। होली पर बहुत लिखा गया है। वैसे भी होली प्रेम का त्योहार है। त्योहार तो सभी प्रेम का संदेश देते हैं पर होली पर प्रेम ज्यादा उमड़ता है। होली और कथक पर प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना उमा शर्मा से जब मैने इस संबंध में बातचीत की तो कई बातें आई जिससे यह पता चला कि आज का युवा बहुत सी चीजों से अनभिज्ञ है। यह पोस्ट पहले भी डाली जा सकती थी लेकिन मुङो ऐसा लगता है कि इसकी प्रासंगिकता हमेशा बरकरार रहेगी।

कथक और होली का गहरा संबंध है। कथक में होरी, ठुमरी का भाव होता है। ठुमरी गायिकी में बहुत चलती है। होरी में बहुत ठुमरियां हैं। कथक में होली की गजल भी बन सकती है,क्योंकि कथक में हिन्दू-मुस्लिम दोनों की प्रथा है। कथक में ध्रुपद गायिकी के साथ भी नृत्य होता है। ध्रुपद धमार होरी पर चलता है। होरी के ऐसे पद हैं जो कथक से मिलाए जा सकते हैं जसे, ‘मैं तो खेलूंगी उनही से होरी गुइयां, लेइके अबीर गुलाल कुमकुम वो तो रंग से भरी पिचकारी गुंइयां।ज् रसखान ने लिखा है कि ‘खेलत फाग बढत अनुराग, सुहाग सनी सुख की रमकै। कर कुमकुम लैकर कंजमुखी, प्रिय के दृग लावन को झमकै।ज् ऐसे बहुत सुंदर पद कवियों ने लिखे हैं जो हमलोग करते हैं। कथक का यह चलन है जो काफी पुराना है। हालांकि अब ये चीजें बाहर जा रही हैं। कथक में गाकर भाव बताना एक कला है। मैंने अपने गुरु शंभू महाराजजी से यह कला सीखी है इसलिए अभी तक मैं इसे चला रही हूं। कविताओं में होरी का सारा माहौल उभरकर आता है। ये कथक में होता आ रहा है।
कथक में होरी कई तरह से प्रस्तुत होती है। एक तो गाकर भाव बताया जाता है। एक समूह में होली होती है। कविता पर भी होली खेली जाती है। वृंदावन की रासलीला में राधा कृष्ण गोपियां सभी फूल की भी होली खेलती हैं। गुलाल से भी होली होती है। पिचकारी से रंग डालना ये सब कथक नृत्य में भाव भंगिमा से दर्शाया जाता है। यह समूह और एकल दोनों माध्यम से होता है। मैं तो भाव बताकर होली प्रस्तुत करती हूं और यह एक परंपरागत तरीका है। मैं कविताओं को लेकर प्रस्तुति करती हूं।
अज्ञात कवियों ने बहुत से पद लिखे हैं। रसखान, विद्यापति, नजीर अकबराबादी, खुसरो आदि ने होरी के बहुत सुंदर पद लिखे हैं। एक अज्ञात कवि ने लिखा है ‘बा संग फाग खेले ब्रज माहीज्, यह एक विहरिणी नायिका है। इसके अलावा एक कवि ने यह भाव लिखा है कि पीछे आई गोपी और उसने एकदम पीछे से कृष्ण को अचानक अबीर लगाया। ऐसी बहुत सी लोकप्रिय रचनाएं हैं। अज्ञात कवि ने इतने सुंदर ढंग से श्रृंगार का वर्णन किया है होरी के माध्यम से, इसी तरह एक कविता में राधा की ईष्र्या है, इस तरह पदों में विविधता है। होरी और कथक दोनों उत्तर भारतीय हैं। वृंदावन से होरी का गहरा संबंध है। कृष्ण तो होली खेलने में प्रसिद्ध है। सबसे अधिक कृष्ण की होली, वृंदावन से कृष्ण का नटवरी नृत्य कृष्ण की छेड़छाड़ को कथक में अधिकांश रूप से लिया जाता है। उत्तर भारतीय कवियों ने होली पर बहुत लिखा है और कथक में इसका प्रयोग हो रहा है। यदि साहित्य को टटोला जाए तो ऐसे बहुत से पद हैं।
नृत्य से अलग भी होली का अपना महत्व है। एक दूसरे से मिलें तिलक लगाएं। पहले टेसू के फूल से रंग निकाल कर चंदन और केसर का तिलक लगाया जाता था। गुलाल भी बहुत अच्छा होता था। उसमें कुछ मिला नहीं होता था। सब एक-दूसरे के ऊपर रंग लगाते थे। लेकिन बीच में रसायनयुक्त रंगों के प्रयोग होने से रंगों से लोग बचने लगे। गाना बजाना, होरी ठुमरी, भाव के साथ होली मनाने का अपना आनंद है। मैं अपने संस्थान में इसी परंपरा के साथ हर साल इसका जश्न करती हूं।
होली का अपना महत्व है, यह प्रेम भाव बताता है। हमारे सभी त्योहार प्रेमभाव बताते हैं। प्रेम के भाव के साथ यदि आप किसी के साथ होली खेलते हैं तो उससे एक प्रेम उमड़ता है और वास्तव में यह प्रेम की होली है। एक-दूसरे के साथ हंसी-ठिठोली, गाना-बजाना यह सब प्रेम की बातें हैं। इससे आपस में प्रेम बांट सकते हैं। यही सब होली दर्शाती है। होली यह बताती है कि आपमें कोई मतभेद या भेदभाव नहीं है।
प्रसिद्ध नृत्यांगना उमा शर्मा से अभिनव उपाध्याय की बातचीत पर आधारित

रंग गुलाल भरी वह हंसी



निराला का जन्मदिन वसंत पंचमी था तो महोदवी का धुरेड़ी। इलाहाबाद में महिला विद्यापीठ में छात्रावास की छात्राओं के साथ वे खूब होली खेलतीं। हंसती-हंसाती-खिलखिलाती उनकी यह छवि हमेशा होली पर याद आती है। चौदह साल उनके पास रहकर पढ़ीं, उनकी एक छात्रावासी शिष्या गायत्री नायक का आत्मीय संस्मरण।

गुरुजी यानी महादेवी वर्मा की कविताओं, उनके रहन-सहन से उनकी जो छवि हमारे बीच बनी थी उसका दूसरा उलट रूप भी था। इसका अंदाज हमें पहली बार होली के दिन मिला। मैं प्रयाग महिला विद्यापीठ के छात्रावास में रहती थी। गुरुजी के पास प्रतिदिन सायंकाल उस समय के कवियों-साहित्यकारों की बैठक होती थीं। महाकवि निराला और पंतजी भी प्राय: आते थे। इन सबको चाय पिलाने का उत्तरदायित्व मेरा था - चाय बनाते और भेजते समय बैठक से आती चर्चाओं के बीच जोर-जोर से खिलखिलाने की आवाों भी आतीं। एक बार हम छात्राओं के कार्यक्रम में निरालाजी मुख्य अतिथि बनकर हम लोगों के बीच यह कहते हुए आये कि, ‘शेरों की मांद में आज आया है सियार।ज् गुरुजी ने मेरा परिचय कराते हुए कहा कि, ‘गत्ती सितार अच्छा बजाती है।ज् गुरुजी ने मुझसे सुनाने को कहा तो पहले मैंने निरालाजी का गीत ‘आज फिर संवार सितार लोज् सुनाया और फिर सितार भी बजाया।
गुरुजी अपने बंगले से बहुत कम बाहर निकलती थीं- पर जितनी गुरु- गंभीर वे दिखती थीं, उतनी थीं नहीं। हम एम.ए. हिन्दी की छात्राओं को अपने बंगले में पढ़ने को कहतीं - बीच में हमें अच्छा नाश्ता करातीं फिर कहतीं बड़े पेटू हो तुम लोग। हमारे अंग्रेजी के अध्यापक थे मि. सक्सेना। मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी पुस्तक की भूमिका में जो अपना वर्णन किया है लगभग वैसे ही वे थे। अत: हम उन्हें मि. जायसी कहते थे - गुरुजी हमारी यह शैतानी ताड़ गईं और कहा बहुत शैतान हो तुम लोग। हम छात्रावासी लड़कियों के लिये होली का दिन विशेष रहता था। पहले हमें पता नहीं था पर होली की सुबह गुरुजी हम सबको बुलातीं और तीन-चार बाल्टियों में भरे रंग से हमें सराबोर कर देतीं- कोई बच नहीं पाता था - फ्राक और कुर्ते ब्लाउज के अन्दर रंग डालतीं - चेहरों पर हरे-लाल गुलाल लगातीं और सबके चेहरे देखकर खूब हंसती। हमें बाद में पता चला कि धुरेड़ी उनका जन्मदिन था। उस रात वे हमारे साथ मेस में खाना खातीं, बाईजी को विशेष हिदायत रहती खीर-पुड़ी-हलवा बनाने की। हमारे साथ बैठ कर वे भोजन करतीं और फिर छात्रावास की एक-एक लड़की को गुलाल लगाकर गले मिलतीं। बड़वानी की मनोरमा गायकवाड़ से बहुत हल्के मिलतीं क्योंकि उनके दुबले-पतले शरीर की हड्डियां उन्हें गड़ती थीं - पर अपने नाम के अनुरूप शैल बहिनजी से बार-बार मिलतीं, उन्हें देर तक गले लगाये रखतीं, क्योंकि वे अपने नाम के अनुरूप अच्छी गुलगुली थीं। इस तरह गुरुजी के साथ उनका जन्मदिन धुरेड़ी का दिन हंसते-खिलखिलाते बीतता। दसवीं के बाद की परीक्षा देने हमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जाना होता था - तो वे बहुत उदास होकर कहतीं तुम लोगों के बिना अच्छा नहीं लगेगा। परीक्षा के बीच यदि होली पड़ती तो वे कह देतीं तुम लोग होली के लिये यहां भाग आना।
तो गुरु- गंभीर महादेवी का खिलखिलाता रूप जो मैंने देखा है- चौदह वर्ष उनके सानिध्य में रहीं हूं- आज भी मन को उनकी खिलखिलाती वह छवि अभिभूत कर देती है। उनके साथ की खेली होली अब भी याद आती है। फिर वैसी सरस रंगभरी होली नहीं खेली- विद्यापीठ छोड़े लगभग बासठ वर्ष हो गये पर विद्यापीठ का छात्रावास, मैदान का कुआं, गुरुजी का दफ्तर और विशेषकर उनका बंगला, बैठक, भक्तिन की रसोई, गुरुजी के साथ खेली होली, उनका सहज-सरल खिलखिल रूप आज भी स्मृति में जीवंत है। उनके सानिध्य में बिताये चौदह वर्ष मेरे जीवन की अनमोल निधि है: ‘कांटों में नित फूलों सा खिलने देना अपना जीवन / क्या हार बनेगा वह प्रसून सीखा न जिसने हृदय को बिंधवानाज्।
आने वाली प्रत्येक होली मेरे लिये मेरी गुरुजी की खिलखिलाती छवि लेकर आती है।

Saturday, February 27, 2010

मेरे महबूब के घर रंग है री...

होली आ गई। लेकिन महानगरी सभ्यता में रंग अपनी चमक खो चुके हैं। ताल । मजीरे । ढोल। से नहीं आती आवाज। अगर आ भी जाए। तो। सब अपनी-अपनी तरह से सुनते हैं। अब वक्त है ऐसा । कि लोग करने लगे। रंगों से परहेज। कु छ लोगों को तो इसलिए भी नहीं लगाया जा सकता कि कहीं वह बुरा न मान जाएं। लेकिन हम कभी बेहया थे। जब बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे। बिना इस परवाह के । लोगों को रंग दिया करते थे। रंग लेकर छुपे रहते थे । या चढ़ जाते थे छत पर । और बस एक ही मकसद । रंगना है। आज कई मकसद है। कई रंग है। अबीर है। लेकिन वक्त रू ठा है। इसीलिए अपनों का साथ छूटा है।
आज बहुत से कवि हैं। होली के गीत लिखने वाले फिल्मी लेखक भी। लेकिन कबीर नही है। नजीर (नजीर अकबराबादी)नहीं है। नहीं है खुसरो । नहीं है विद्यापति। जिनके पद हमें ऐसे भिगो देते थे। कि बस रंग छुड़ाना मुश्किल।
आज सूफी कवि अमीर खुसरो के कुछ पद दे रहा हूं और एक अज्ञात कवि के पद भी जिसमें होली के साथ दर्शन का भी भाव जुड़ा है। यह मेरी तरफ से होली का मुबारकबाद का तरीका। उम्मीद है पसंद आएगा।




आज रंग है ऐ माँ रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री।
अरे अल्लाह तू है हर, मेरे महबूब के घर रंग है री।

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया।
अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया।
कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया, मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया।
आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया। वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।

अरे ऐ री सखी री, वो तो जहाँ देखो मोरो (बर) संग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, आहे, आहे आहे वा।
मुँह माँगे बर संग है री, वो तो मुँह माँगे बर संग है री।

निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो, जग उजियारो जगत उजियारो।
वो तो मुँह माँगे बर संग है री। मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया।
गंज शकर मोरे संग है री। मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखयो सखी री।
मैं तो ऐसी रंग। देस-बदेस में ढूढ़ फिरी हूँ, देस-बदेस में।
आहे, आहे आहे वा, ऐ गोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।
मुँह माँगे बर संग है री।

सजन मिलावरा इस आँगन मा।
सजन, सजन तन सजन मिलावरा। इस आँगन में उस आँगन में।
अरे इस आँगन में वो तो, उस आँगन में।
अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री। आज रंग है ए माँ रंग है री।

ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन। मैं तो तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।
मुँह माँगे बर संग है री। मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी सखी री।
ऐ महबूबे इलाही मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी। देस विदेश में ढूँढ़ फिरी हूँ।
आज रंग है ऐ माँ रंग है ही। मेरे महबूब के घर रंग है री।
2-
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल, बाइस ख्वाजा मिल बन बन आयो
तामें हजरत रसूल साहब जमाल। हजरत ख्वाजा संग..।
अरब यार तेरो (तोरी) बसंत मनायो, सदा रखिए लाल गुलाल।
हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल।

3-दैया री मोहे भिजोया री शाह निजाम के रंग में।
कपरे रंगने से कुछ न होवत है
या रंग में मैंने तन को डुबोया री
पिया रंग मैंने तन को डुबोया
जाहि के रंग से शोख रंग सनगी
खूब ही मल मल के धोया री।
पीर निजाम के रंग में भिजोया री।

4-तोरी सूरत के बलिहारी, निजाम,
तोरी सूरत के बलिहारी ।
सब सखियन में चुनर मेरी मैली,
देख हसें नर नारी, निजाम...
अबके बहार चुनर मोरी रंग दे,
पिया रखले लाज हमारी, निजाम....
सदका बाबा गंज शकर का,
रख ले लाज हमारी, निजाम...
कुतब, फरीद मिल आए बराती,
खुसरो राजदुलारी, निजाम...
कौउ सास कोउ ननद से झगड़े,
हमको आस तिहारी, निजाम,
तोरी सूरत के बलिहारी, निजाम...

agyat-
अरी भागो री भागो री गोरी भागो,
रंग लायो नन्द को लाल।
बाके कमर में बंसी लटक रही
और मोर मुकुटिया चमक रही
संग लायो ढेर गुलाल,
अरी भागो री भागो री गोरी भागो,
रंग लायो नन्द को लाल।
इक हाथ पकड़ लई पिचकारी
सूरत कर लै पियरी कारी
इक हाथ में अबीर गुलाल
अरी भागो री भागो री गोरी भागो,
रंग लायो नन्द को लाल।
भर भर मारैगो रंग पिचकारी
चून कारैगो अगिया कारी
गोरे गालन मलैगो गुलाल
अरी भागो री भागो री गोरी भागो,
रंग लायो नन्द को लाल।
यह पल आई मोहन टोरी
और घेर लई राधा गोरी
होरी खेलै करैं छेड़ छाड़
अरी भागो री भागो री गोरी भागो,
रंग लायो नन्द को लाल।

Wednesday, February 24, 2010

सुरों की बारिश में भीगे श्रोता



मैं कई दिनों से कोशिश कर रहा था कि गिरिजा देवी की कजरी या ठुमरी सुनने जाऊं। जब वह दिल्ली में होती तो मुङो कोई न कोई काम आ ही पड़ता। सोमवार को अचानक पता चला कि गिरिजा देवी शहर में हैं दिल्ली विश्वविद्यालय में स्पिक मैके ने उनका कार्यक्रम आयोजित किया है। बस क्या था मुखर्जी नगर में रहने वाले रसिक मित्र सुशील जी को यह सूचना दी और जसा कि मुङो उम्मीद थी वह बिना शर्त तैयार हो गए। हालांकि मेरी तबीयत कुछ नासाज थी और मानसिक रूप से भी कुछ परेशानी महसूस कर रहा था। बहरहाल निर्धारित समय के भीतर सुशील पहुंच गए थे हमने आयोजन स्थल भी ढूंढ लिया था। हम समय से लगभग 1.15 मिनट पहले आ गए थे लेकिन इंतजार खल नहीं रहा था क्योंकि सभागार में गिरिजा देवी का ही स्वर आडियो माध्यम से गूंज रहा था। इंतजार का पल खत्म हुआ और मंच पर गिरिजा देवी उपस्थित हुई। अंदाज वही ठेठ बनारसी, स्वर भी वही। हम मंच पर 81 वर्षीय जवान महिला को देख रहे थे और उनमें स्थित ऊर्जा हमें आकर्षित कर रही थी। पात्र परिचय के बाद कार्यक्रम शुरू हुआ।
उन्होने जब राग यमन में बिलंबित और ध्रुत स्वर में तुम तो करत बरजोरी, रे लला तुम से खेलत होरी। सुनाना शुरु किया तो हाल में बैठे श्रोता सुरों के रंग से सराबोर हो गए। उनके साथ संगत कर रहे तबला पर जयशंकर की अंगुलिया तराने के साथ संगीत के आनंद को चरम पर पहुंचा रही थी। संगीत की तकनीकियों से अंजान श्रोता भी एक-एक थाप को महसूस कर रहा था। देशी विदेशी श्रोताओं से भरे हाल में लोग शांत चित्त होकर संगीत का आनंद ले रहे थे। गिरिजा देवी ने बीच-बीच में युवाओं को भारतीय संगीत और सभ्यता के करीब जाने की बात कही और कहा कि भारत इससे और भी आगे बढ़ सकता है। उन्होनें इस ओर भी संकेत किया कि किस तरह संगीत के लिए उन्होने संघर्ष किया। और उनके मन की ताकत और साहस से वह आज इस मुकाम पर हैं। कार्यक्रम की एक प्रस्तुति के बाद गिरिजा देवी अगर सुरों की बारिश से श्रोता खुद ब खुद खिंचे चले आए।
आमतौर पर जहां बड़े कलाकार ऐसे कार्यक्रमों में निर्धारित समय के बाद प्रस्तुति नहीं देते लेकिन वहीं गिरिजा देवी ने श्रोताओं से पूछा और संचालक के अनुरोध पर एक कजरी सुनाई इस हिदायत के साथ कि अगर बारिश हुई तो उसकी जिम्मेदारी उनकी नहीं होगी। बारिश हुई भी लेकिन सुबह। लेकिन इस बीच जो सुरों की बारिश हुई उससे मन सराबोर हो गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक धुन पर आधारित होरी सुनाकर दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर दिया। तबले की थाप, सारंगी की तान और हारमोनियम की स्वरलहरियों के बीच गिरिजा देवी का स्वर पूरे माहौल को सुरमयी बना रहा था। अंत में दर्शकों की मांग पर गिरिजा देवी ने सिया संग झूले बगिया राम ललना सुनाया।
इस कार्यक्रम में तबले पर जयशंकर, हारमोनियम पर उमर खां, सारंगी पर मुराद अहमद खां और तानपूरे पर मौसमी ने उनका भरपूर सहयोग दिया।
चित्र- साभार गूगल

Thursday, February 18, 2010

हिंदी के साथ अंग्रेजी का इस्तेमाल पराजय सूचक

आठवें प्रवासी अंतरराष्ट्रीय हिंदी उत्सव में शिरकत करने आये विदेशी विद्वानों का मानना है कि हिंदी के साथ अंग्रेजी का इस्तेमाल पराजय सूचक है और इसे रोकना बेहद जरूरी है। ब्रिटेन से आए नरेश भारतीय ने कहा कि हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल गलत है, जिसे रोकना चाहिए और दोनों भाषाओं को अलग-अलग रखना जरूरी है। उन्होंने कहा कि भारतीय धन कमाने के लिए अंग्रजी की ओर जा रहे हैं। वैश्विक स्तर पर हिंदी को स्थापित करने के लिए संकल्पित रूप से कार्य किया जाना चाहिए।




जर्मनी के हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में हिंदी की प्राध्यापिका प्रो. तात्याना ओरांस्काइया ने कहा कि जर्मनी में हिंदी के प्रति लोगों में रुझान भारतीय संस्कृति को जानने के लिए बढ़ा है। उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि भारत से जाने वाले मंत्री एवं अन्य राजनीतिज्ञ अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जो उपनिवशकाल की भाषा है। हिनुस्तानियों को अपनी राष्ट्रीय भाषा के प्रति प्रेम विकसित करना चाहिए।



हिन्दी में सीमाओं का अतिक्रमण जिस तरह से हो रहा है, उस पर चर्चा करना आवश्यक है।
इस्राइल के तेलअबीब विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक प्रो. गेनादी श्लोम्पेर ने कहा कि हिंदी साहित्य की किताबों को छोड़ दिया जाए तो हिंदी में उपलब्ध अधिकतर किताबें अनुवाद की हुई होती हैं, जिसके कारण यह अनुवाद की भाषा बन गयी है। हिंदी को व्यवसाय की भाषा बनाने पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी में मूल रूप से काम किया जाना चाहिए और हिंदी को बाजार की भाषा के रूप में मान्यता लिये बिना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका बेहतर तरीके से प्रचार काफी मुश्किल काम होगा।



रूस निवासी हिंदी उपन्यास पर शोध कर रहीं तात्याना दुब्यांस्काया ने बताया कि भारतीय संस्कृति के प्रति विदेशियों की दिलचस्पी ने उन्हें हिंदी के प्रति आकर्षित किया है। उन्होंने बताया कि पिछले 10-15 साल में रूस में आए परिवर्तनों के कारण अधिक छात्र हिंदी की तरफ आकर्षित नहीं होते हैं और रूस में भारतीय बाजार की उपस्थिति न के बराबर है। रूस के लोगों को भारत के धर्म, नृत्य और संगीत में विशेष दिलचस्पी है।

Saturday, February 13, 2010

दिल तो बच्चा है...



बसंत में यदि घोंघाबसंत भी संत जसा व्यवहार करें तो थोड़ा आश्चर्य जरूर होता है। घुरहू पुत्र निरहू के व्यवहार में आए इस बदलाव से सभी परेशान थे। हालांकि गांव के पंडित सुखनंदन ने उसे मकर संक्रांति पर अतिशीतल जल से नहला कर उसके पिता को यह विश्वास दिला दिया था कि अब वह प्रेम ज्वर से पीड़ित नहीं होगा। लेकिन बुरा हो उस रेडियो प्रोगाम का जिसमें लव गुरु मध्य रात्रि को विरह में जल रहे प्रेम-पियासो को नायिका को रिझाने का टिप्स देता है। निरहू एक दिन शहर क्या गया उसके मित्र चंपू ने उसे रेडियो पर प्रेम गीत युक्त यह प्रोग्राम सुना दिया फि र क्या था बासमति के प्रति उसके मन की उत्कं ठा हिलोंरे मारने लगी।
पिछले साल भी फरवरी में लाख मनाने पर भी वह नहीं माना और कालेज के बाहर पुष्पराज गुलाब का गुलदस्ता लेकर खड़ा रहा। हां मास्टर मनसुख ने उसकी इतनी धुलाई की कि निरहू का तनसुख छिन गया। इसके बाद जुगानी चाचा को इससे एक कहानी मिल गई उन्होने लोगों से यह कहना शुरू कर दिया कि जबसे निरहू ने हिन्दी के मास्टर पियारेलाल की क्लास में कबीर का दोहा, प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय, सुना है तब से वह बासमति के दूसरे प्रेमी की तलाश कर रहा है। निरहू ने किसी से सुना कि बासमति को सोने की चेन से बड़ा लगाव है फिर क्या था घोर मंदी में भी उसने प्यार की गाड़ी पटरी पर लाने के लिए निरंतर बिना तेल पानी के उसे दौड़ाता रहा। लेकिन बात नहीं बनी। उसे यह राहत की बात लगी कि इस बार रामसेना या रावण सेना के लोग प्रेमी युगलों को परेशान नहीं करेंगे। शिव या पार्वती या हनुमान सेना जसे लोग भी खान के पीछे पड़े हैं उनका मन फरवरी के पवित्र प्रेम उत्सव की तरफ नहीं गया है।
निरहू का यह दुख सहीराम को देखा नहीं गया और उन्होंने उसे परामर्श दिया कि यह प्रेम टाइप आवेग निरंतन मन को विचलित करने वाला है। अब उसे दाल-रोटी की चिंता करनी चाहिए। लेकिन चंचल चितवन चंचला के प्रति उसका लगाव मंहगाई की तरह बढ़ता ही जा रहा था। और यही कारण था कि वह बसंत में भी संत बना घूम रहा था और इसका असर फागुन के महीने में भी बरकरार रहा। उसका शहरी मित्र उसे प्रेम दिवस से पूर्व के दिवसों की जानकारी निरंतर दे रहा था। वह बता रहा था कि फ्रेंड्स डे से लेकर रोज और प्रपोज टाइप डे जसे कठिन रास्तों से गुजरकर व्यक्ति वेलेंटाइन डे की मंजिल पर पहुंचता है। यह उतना ही कठिन है जसे वित्त मंत्री का संसद में मंहगाई के मुद्दे पर विपक्ष के प्रश्नों से गुजरना लेकिन विचलित होने की जरूरत नहीं। अच्छे बच्चे इस भंवर को पार कर जाते हैं। अपने पुत्र की पीड़ा से घुरहू परेशान हैं। लव गुरु टिप्स दे रहे हैं दिल तो बच्चा है .....अभी कच्चा है ..।

चित्र- साभार गूगल

Wednesday, January 27, 2010

पसंदीदा लोगों की पसंदीदा पुस्तकें


साहित्य से प्रेम मानवीय स्वभाव है और पढ़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया आइए जानते हैं विगत वर्ष विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को कौन-कौन सी पुस्तकें पसंद आई। बात तो बहुत लोगों से करनी थी लेकिन उपलब्ध इतने लोग ही हो सके-

राजेन्द्र यादव- वैसे तो इस वर्ष मैंेने कई किताबें पढ़ी हैं लेकिन हिन्दी भाषा की बात है तो लता शर्मा का उपन्यास ‘उसकी नाप के कपड़ेज् पढ़ा। इसमें एक स्वतंत्र लड़की की कहानी है जो खूबसूरत है और अपनी मेहनत से एक मशहूर अभिनेत्री बनती है। उसके पास करोड़ों रुपए आते हैं लेकिन उसे अपने ही लोगों द्वारा धोखा मिलता है। उसका अपना भाई ही उसकी प्रापर्टी बेंच देता है। वह बीमार पड़ जाती है पैसे के अभाव में उसे अस्पताल से बाहर निकाल दिया जाता है। और वह अपने गहने और कुछ सामान लेकर एक छोटा सा घर लेती है और फिल्मों में छोटे-मोटे रोल करती है और अंत में अभाव में मर जाती है। इस उपन्यास ने यह सवाल खड़ा किया है कि किस तरह पूंजीवाद स्त्रियों को स्वतंत्र करता है और फेंक देता है। यहां अब लड़कियों को इससे आगे सोचना होगा कि शरीर उनकी है और इसका इस्तेमाल वह स्वयं करती हैं। क्या वह ऐसे ही शोषित होती रहेंगी? उन्हे इसके बारे में सोचना होगा।

अनामिका- पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर आई पुस्तक बिल्कुल कबीर के अंदाज में लिखी गई है। कत्थ्य और भंगिमा में लिखी गई अच्छी पुस्तक है। यह आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई है। निधि और संवेद अनुभव में लिखी गई यह पुस्तक कोमल कोलाहल मन से शांति की बात करती है। हालांकि आलोचना की पुस्तक एकेडमिक भाषा में लिखी जाती है लेखक ने इसमें अपनी ही स्टाइल को तोड़ा है। यह ऐसे समय में आई है जब हमें कबीर की जरुरत है।

उदय प्रकाश- इस वर्ष जब मैं जर्मनी में था तो वहां जहांआरा बेगम की जीवनी पढ़ी जो उन्होंने लिखी थी उसका अंग्रेजी में अनुवाद आया है। उस किताब में मुगलकाल की स्थिति को काफी सही तरीके से दर्शाया गया है। उसमें दारा शिकोह और औरंगजेब की स्थिति को भी बताया गया है। उसमें बताया गया है कि औरंगजेब कितना क्रूर और चालबाज था। जहांआरा बेगम दाराशिकोह को ही दिल्ली की सल्तनत पर बैठा हुआ देखना चाहती थी। उनका राजस्थान के एक राजपूत से प्रेम भी करती थी। अगर दाराशिकोह सुल्तान बनता तो उनकी यह आरजू शायद पूरी हो जाती। इस जीवनी को एक बहन ने बड़ी सच्चाई के साथ लिखा है। यह उनका उस समय का व्यक्तिगत अनुभव है।

विश्वनाथ त्रिपाठी- हमने इस साल जो किताबें पढ़ी उनमें दो कि चर्चा करना चाहूंगा। पहली तो कृष्णा सोबती की पुस्तक मित्रों मरजानी कहानी है जो अब नए कलेवर में आई है। नरेन्द्र श्रीवास्तव ने इसे टाइपोग्राफिकल व्याख्या के साथ छापा है। इसमें जो टेक्स्ट दिया गया है उसके दूसरी तरफ उसके चित्र दिए गए हैं। हिन्दी में संभवत: यह पहला प्रयोग है।
दूसरी पुस्तक बिहार के लेखक राकेश रंजन का कविता संग्रह ‘चांद पर अटकी पतंग ज् है। यह कविता की बेहतरीन पुस्तक है। इसमें देशज और भदेश शब्दों से सजी एकदम नए ढंग की कविताएं हैं। इस कविता में शब्दों का जीवन सुरक्षित है और जीवन के साक्षात अनुभव हैं। लेखक में राजनीतिक और आंचलिक समझ भी है।

कैलाश वाजपेयी- इस साल कुं वर नारायण की पुस्तक पढ़ी लेकिन हिमांशु जोशी के संपादन में प्रतिनिधि अप्रवासी हिन्दी कहांनियां बहुत ही अच्छी किताब है। संग्रह बहुत ही रोचक है। इसमें भारत में न रहने वालों भारतीयों के दर्द और समस्या के साथ पारिवारिक र्दुव्‍यवस्था को भी बताया गया है। इसमें उनकी सूक्ष्म पीड़ा भी दिखाई देती है। कीर्ति चौधरी की कहानी जहांआरा, दिव्या माथुर की फिर कभी सही, नार्वे में रहने वाले अमित जोशी की वीजा कहानी विशेष रूप से अच्छी लगी। इसमें जो घुटन है वह भारत में रहकर महसूस नहीं की जा सकती। हिमांशु जोशी का चुनाव भारतीय परिवेश के बाहर का है। लेकिन यह वहां के समाज की पेंचदार सहमतियां और असहमतियां दर्शाता है। ये हिन्दी साहित्य में नए क्षितिज की कहानियां हैं।

अर्चना वर्मा- पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक कबीर पर अकथ कहानी प्रेम की एक बेहतरीन पुस्तक है। यह हिन्दी समीक्षा और मध्य कालीन समीक्षा एवं समकालीन समीक्षा के भीतरी परिवर्तन को दिखाने वाली किताब है। यह हिन्दी में उत्तर औपनिवेशिक दृष्टिकोण हिन्दी में दिखाई देता है। यह पुस्तक पश्चिमी दर्शन से लोहा लेते हुए भारतीय दर्शन को दर्शाती है कि हमें खुद की पहचान करनी चाहिए। इसमें स्पष्ट रूप से दिखता है कि लेखक ने कई पांडुलिपियां पढ़ी हैं। यह पुस्तक हिन्दी के हर पाठक के पास होनी चाहिए।

जावेद अख्तर- इस वर्ष मैंने कई किताबें पढ़ी लेकिन जो सबसे अधिक पसंद आई या जिसकी मैं चर्चा करना चाहता हूूं वह किताब, रिचर्ड डाकिं स की गॉड डिलजन। लेखक ने इतिहास, विज्ञान और अन्य तत्थ्यों से जानकारियां जुटा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि ईश्वर नहीं है जबकि बहुत सारे लोगों को यह विश्वास है कि ईश्वर है। ईश्वर इंसान का भ्रम है। यह पुस्तक भगवान की अवधारणा को खंडित करती है।

शोभना नारायण- इस बार साल के अंत में सुजाता विश्वनाथन की पुस्तक द कोकोनट वाटर पढ़ा। यह पुस्तक एक सामाजिक समस्या को दर्शाती हुई साधारण कहानी है। इसमें प्रवासी भारतीय की कहानी और एक आम परिवार में होने वाली समस्या को दर्शाया गया है जो मानव जीवन के काफी करीब है। लेकिन अंतत: एक मानव द्वारा परेशानियों से जूझते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करना अच्छा लगा। यह उपन्यास यह सीख देता है कि यदि आपने दृढ़ इच्छा शक्ति है तो आप अवश्य सफलता प्राप्त करेंगे।

मंगलेश डबराल- इस साल कविता संग्रह में वीरेन्द्र डंगवाल का कविता संग्रह स्याही ताल पढ़ा। इसे कुंवर नारायण के कविता संग्रह हाशिए का आदमी के बाद पढ़ना सुखद रहा। इसमें वीरेन्द्र एक समर्थ कवि के रूप में आते है। इसमें उनकी काव्यात्मक ऊंचाई दिखाई देती है। इस संग्रह को पढ़ते हुए लगता है कि कविता कहीं से भी शुरु हो सकती है। अनुभव का कोई टुकड़ा कविता बन सकता है। यह कविता संग्रह नए तत्थ्य और नए विन्यास के लिए जाना जाएगा। इसमें छोटे-छोटे अनुभव को बड़े यथार्थ से चीड़-फाड़ करते हुए दिखाई देते हैं।

मैनेजर पांडेय- इस साल मुङो एक लघु उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवताज् पढ़ी जिसके लेखक झारखंड के रणेन्द्र हैं। आदिवासी समुदाय पर आधारित यह पुस्तक यह बताती है कि किस तरह भारतीय समाज में सदियों से आदिवासियों का दमन, शोषण और अपमान किया जा रहा है। यह उपन्यास उसी की कहानी है। इस उपन्यास से ही मुङो मालुम हुआ कि असुर नाम की एक जनजाति भी है। असुर नाम आते ही प्राचीन भारत असुरों के संघर्ष की कथाएं सामने आने लगती हैं। भूमंडलीकरण के दौर में भी आदिवासियों के दमन का चित्रण किया गया है। यह बहुत ही संवेदनशील और प्रभावशाली उपन्यास है।
सुधीश पचौरी- इस साल नंद किशोर आचार्य का कविता संकलन ‘उड़ना संभव करता आकाशज् पढ़ी। अच्छा संकलन है। इसमें छोटी-छोटी नए ढंग से लिखी गई कविताएं हैं। जिसमें कोई चीख पुकार नहीं है जसा प्राय: आजकल की कविताओं में देखने को मिलती है। सहज अनुभवों को समेटती यह कविता संकलन अच्छा लगा। इसमें मुख्यत: स्थितियों की विद्रुपताओं और विडम्बनाओं का चित्रण है।

दिन का पता नहीं लेकिन, इस दिन झंडा खूब बिकता है ......



भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां लोक मत से चुनाव होता है। 61 वां गणतंत्र दिवस लोग धूमधाम से मना रहे हैं। यह बात भारत का बुद्धिजीवी वर्ग भले ही जानता हो लेकिन आज भी झुग्गियों में रहने वाले लोग इस दिन को नहीं जानते। संवाददाता जब इस दिन झुग्गियों के लोगों से इस संबंध में बातें करने निकला तो इस दिन का सबके लिए अलग-अलग मतलब था।
मसलन दिल्ली के दिलशाद गार्डेन के कलंदर कालोनी झुग्गी में बंदर नचाने वाला असलम खुश था। क्योंकि छुट्टी का दिन होने के कारण उसका तमाशा देखने वाले अधिक लोग थे और उसे इस बात की खुशी थी उसे गणतंत्र दिवस की कोई जानकारी नहीं थी हां लोगों को देखकर वह अपनी साइकिल में झंडा लगाना नहीं भूला था।
नंद नगरी झुग्गी के बाहर झंडो की दुकान लगाए 10 वर्षीय रसूल की खुशी ग्राहकों के आने से दुगनी हो रही थी। उससे यह पूछने पर, कि क्या उसे पता है कि लोग झंडा क्यों खरीद रहे हैं, क्या कोई विशेष दिन है? उसका कहना था कि उसे यह नहीं मालूम लेकिन इस दिन झंडा खूब बिकता है।
झुग्गी के बच्चों में इस दिन को लेकर खास उत्साह था इसकी वजह स्कूल का बंद होना भी था क्योंकि गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले ही स्कूलों में ध्वजारोहण हो चुका था।
बच्चों के अलावा युवा और बुजुर्ग भी इस मामले में पूरी तरह स्पष्ट नहीं थे कि वास्तव में यह दिन कौन सा है। क्योंकि झिलमिल कालोनी झुग्गी निवासी 65 वर्षीय रामसूरत का कहना था कि हमें दिन का पता नहीं लेकिन 26 जनवरी बचपन से मनाते आ रहे हैं पिता जी बताते थे कि इस दिन गांधी बाबा ने देश को आजाद किया था। लोगों को इस दिन का पता नहीं था लेकिन लोगों ने अपने घरों के बाहर झंडा लगा रखा था और देश भक्ति गाने बजाए जा रहे थे।

Saturday, January 23, 2010

मुश्किल है सखाराम बाइंडर से उपजे सवालों के जवाब



मुङो अपने संस्थान की तरफ से लगातार 12वां भारत रंग महोत्सव की रिपोर्टिग करने के लिए कहा गया था। जिसमें कुछ पसंदीदा नाटक देखने को मिले। इसमें एक नाटक सखाराम बाइंडर भी था जो अपने समय का विवादित नाटक था। इसमें सखाराम का किरदार उस भारतीय मानस की मनोव्यथा कहता है जो समाज की परवाह किए बगैर एक उन्मुक्तता चाहता है।
वह शराब पीता है, अय्याशी करता है, अश्लील गाली और बीड़ी हमेशा उसके मुंह में रहती है। पखावज मन से बजाता है, लेकिन वह भात नहीं खाता। गांव के और लोगों की तरह झूठ नहीं बोलता। सारे कुकर्म खुलेआम करना पसंद करता है। उसका जुमला है ‘झूठ की सजा काला पानी और पाप भी करो तो सीना ठोक करज्। यही नहीं, उसका मानना है कि वह ब्राह्मण के घर चमार पैदा हुआ है। उसे यह कहने में कोई डर नहीं कि वह अपने बाप से भी नहीं डरता तो भगवान क्या चीज है। यही नहीं, वह धर्मनिरपेक्ष भी है। दैहिक आवश्यकता पर उसकी बेबाक टिप्पणी है कि जिसने यह देह बनाई, वह इसकी खुजली भी जानता है।
नाटक अपने प्रारंभ से ही दर्शकों के लिए हास्य के साथ एक कौतूहल लेकर प्रस्तुत होता है कि नाटक का मुख्य पात्र सखाराम नायक के रूप में है कि इससे इतर भी इसका कोई चरित्र है। एक तरफ तो वह स्त्री मुक्ति की बात करता है लेकिन वहीं वह अपनी पत्नियों के प्रति काफी कठोर है। अंतत: नाटक की परिणति उसके हाथों उसकी सातवीं पत्नी की हत्या के रूप में होती है। लेकिन नाटक वहीं खत्म नहीं होता नाटक अनेकों ऐसे सवाल छोड़ जाता है जो न जाने कितनें नाटकों की पटकथा बनते हैं।
नाटक की शुरुआत ही सखाराम की छठीं औरत लक्ष्मी के आगमन के साथ होती है, जो किसी की परित्यक्ता है। वह उसे घर में रहने, कम बोलने, बाहरी लोगों से न बोलने और सारा काम बखूबी करने की सलाह देता है लेकिन साथ में यह हिदायत भी कि वह जब चाहे उसे छोड़ कर जा सकती है अपनी जरुरत का सामान भी ले जा सकती है। उसे विदा करते वक्त वह किराया देना नहीं चूकता। एक साल रहने के बाद दोनों एक दूसरे से ऊब जाते हैं और लक्ष्मी अपने भतीजे के घर चली जाती है। सखाराम अब एक हवलदार की बीवी चंपा को लाता है जो हवलदार से ऊब चुकी होती है। वह चरित्रहीन है और सखाराम की आज्ञा बिल्कुल नहीं मानती। अंतत: सखाराम की पत्नी लक्ष्मी को उसका भतीजा चोरी के आरोप में निकाल देता है और फिर एक बार सखाराम के न चाहने पर भी उसकी पत्नी चंपा लक्ष्मी को अपने यहां नौकरानी के रूप में रख लेती है, लेकिन एक आपसी झगड़े में लक्ष्मी सखाराम को चंपा के चरित्र के बारे में बता देती है और वह उसकी हत्या कर देता है। इसी के साथ नाटक खत्म हो जाता है लेकिन वह बहुत से ऐसे सवाल छोड़ जाता है, जिसका जवाब तथाकथित सभ्य समाज के लिए आसान नहीं है।
इसमें परित्यक्ता पत्नी लक्ष्मी का चींटे से बात करना, सखाराम बाइंडर द्वारा चंपा को घर से निकाल देने के नाम पर शराब पीकर उसका शरीर सौंप देना और सखाराम द्वारा सम्भ्रांत कहे जाने वाले लोगों के ऊपर कटाक्ष दर्शकों को झकझोर देते हैं। ‘सखाराम बाइंडरज् नाटक जीवन की नग्न वास्तविकता, दर्द और सामाजिक पुरुषवादी मानसिकता को चुनौती देता है। अश्लील संवाद और भरपूर गाली को लेकर दर्शकों को थोड़ी असुविधा हो सकती है, लेकिन कलाकारों का अभिनय सराहनीय है। हिमाचल सांस्कृतिक शोध फोरम एंड थिएटर रेपर्टरी के कलाकारों द्वारा मंचित यह नाटक मूलत: विजय तेंदुलकर द्वारा लिखा गया है, लेकिन नाटक का निर्देशन सखाराम की भूमिका निभा रहे सुरेन्द्र शर्मा ने की।

Thursday, January 14, 2010

निरहू देश को तुम पर नाज है

बुद्धिसागर स्नेही को प्यार से लोग सनेही जी कहते हैं। जब इनके ज्ञान का घोड़ा कुलांचें मारता है तो यह श्रमजीवी या परजीवी टाइप लोगों के बीच देखे जाते हैं और इनके ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। प्राय: यह उन्ही जगहों पर देखे जाते जहां इनको लोगों की भीड़ हो। एक खास बात यह कि किसी भी विषय पर केवल एक पान खाकर घंटों व्याख्यान दे सकते हैं। आइडियोलाजी को पीछे धकिया कभी ओसामा और कभी बुश के साथ हो सकते हैं। यही नहीं कभी सर्वहारा कभी बुर्जआ को गाली भी दे सकते हैं। उनके ऊपर पूंजीपतियों और कंगाल पतियों का दबाव भी काम नहीं करता। माजरा बस एक पान का है। राजनीति की उठापटक हो या मौसम में ठंड। बिना पंचांग और सेटेलाइट देखे यह निरंतर भविष्य बांचते रहते हैं। लेकिन भविष्यवाणी झूठ निकलने पर तकनीकि खराबी को दोष देना नहीं भूलते। और कोई जिद करता तो सीधे कहते कि मैं इन्द्र नहीं हूं कि जब मन करे बारिश भेज दूं या बहुप्रचलित राजनेताओं के उदाहरण दे देते यही नहीं लोगों की समस्या का समाधान भी बखुबी करते। इतनी खुबियों के कारण कभी लोग सायस या अनायास आ ही जाते। निरहू पुत्र घुरहू दमके दतिया दुति दामिनी लेकर सनेही जी के पास पहुंचे तो चेहरे से खुशी उछल रही थी । सनेही जी ने पूछा कि ये उमंग क्यों निरहू? निरहू ने प्रसन्न मुद्रा में कहा कि इस बार भी मैं बीए में फेल हो गया यह मेरा चौथा प्रयास था।
फेल होने पर इतना प्रसन्न चित्त? आपके चेहरे से निराशा और हया छू मंतर, सनेही जी चौंके! आशय निरहू ने स्पष्ट कर दिया कि इस बार वह क म नम्बरों से फे ल हैं। उनके चेहरे पर संतोष तैर रहा था कि अब सफलता पाने में एक या दो प्रयास और करने होंगे। बुद्धिसागर सनेही ने स्नेहपूर्वक निरहू को बैठाया काव्यात्मक मुद्रा में पूछा, निरहू देश को तुम पर नाज है, लेकिन बार-बार फेल होने का क्या राज है? क्या क्लास की सुंदरियां बन रही थी बाधा या जानबूझकर परीक्षक नम्बर कर देता था आधा? या इस मोहन की परेशानी है कोई राधा? निरहू ने कहा ऐसा नहीं है चाचा सनेही, ऐसी हरक तों पर होगी हमारी ही जवाबदेही। सच नहीं है ऐसी कोई बात, दरअसल पिता जी हर बार देते थे डांट। वह लीक से हटकर करने को कहते थे काम सो मुङो फे ल होने का काम लगा आसान। लेकिन अब माजरा बदल रहा है, मेरी नकल युवा तेजी से कर रहा है। इसलिए अब मैं थोड़ा चेंज करना चाहता हूं। और आपसे सलाह चाहता हूं। सनेही जी गंभीर मुद्रा में बोले बेटा, अब पढ़ाई छोड़ पालिटिक्स में आओ। तुम नेता बनो हमें प्रवक्ता बनाओ। इससे दोनों की रोटी चलेगी। और इसी तरह देश की गाड़ी आगे बढ़ेगी।

Sunday, January 10, 2010

मीडिया के मनोरथ नहीं

सुधीश पचौरी
(मीडिया समीक्षक)

पत्रकारिता का काम खबर लेना-देना है। डराना-धमकाना नहीं। मीडिया अगर किसी कमजोर के पक्ष में खड़ा होना चाहती है तो भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि कैसे खड़ा हुआ जाए।
मीडिया ट्रायल टीआरपी लेने के लिए एक हड़बड़ी की पत्रकारिता का ट्रायल है। यदि कोई व्यक्ति आरोपी हुआ तो उसे आरोपी नहीं कहते उसे सीधे तौर पर वहशी आदमी कहते हैं। मीडिया अपनी तरफ से सभी नकारात्मक विशेषण लगा देती है। जब तक कोर्ट द्वारा सिद्ध न हो जाए तब तक मीडिया को इतना ही कहना चाहिए जितना आरोप कहता है। उसे अपनी तरफ से विश्लेषित नहीं करना चहिए कि फलां आदमी राक्षस है। जसे निठारी में कोली और पंढ़ेर के मामले में हुआ था। इसी तरह आरुषी मामले में किया था। जसे एसपीएस राठौर के मामले में जो सीबीआई ने कहा है या न्यायालय ने कहा है उस आरोप को पढ़कर मीडिया कहता तो ठीक था अन्यथा मीडिया यह कहे कि वह राक्षस है, बेकार है आदि कहना भावनात्मक उत्तेजना पैदा करता है। मीडिया ट्रायल में पहले ही दोषी करार दे देते हैं हालांकि अभी न्यायालय का निर्णय आना बाकी होता है। कानून निष्पक्ष निर्णय देता है जबकि मीडिया को भी ऐसा करना चाहिए। मीडिया यदि आंदोलनकारी की तरह से भूमिका निभाए तो उसे एक या दो केस के बारे में भी सोचना चाहिए या हजारों केस के बारे में सोचना चाहिए। हां, यदि उसने कुछ मामलों में अच्छा किया है तो यह ठीक बात है इससे जागरूकता पैदा होगी। मीडिया कानूनों पर बहस कराए कि कैसे काम नहीं हुआ या कैसे अन्यायी को न्याय नहीं मिला या न्यायालय या पुलिस पर दबाव बनाना यह एक लोकतांत्रिक तरीका है। लेकिन यदि आप विशेषण लगा देते हैं कि यह गलत है तो आप बुनियादी पत्रकारिता के नियमों की अनदेखी करते हैं।
कई बार वह नियमों की अनदेखी करता है। हमारी भवनाएं कितनी भी भड़कें लेकिन कानून का मसला कानून में है। मीडिया मामलों को सामाजिक बना देता है। अब राठौर के मामले में जो उन्होंने किया वह गलत हो सकता है लेकिन यदि किसी के पीछे अभियान कर पीछे पड़ा जाए तो दया दोषी के प्रति होने लगती है। समाज में यदि कोई ताकतवर कमजोर को सता रहा हो तो मीडिया कमजोर के पक्ष में खड़ा हो। लेकिन कमजोर के पक्ष में भी कैसे खड़ा हो? एक सहयोगी की तरह या किसी और रूप में, क्या मीडिया के अपने मनोरथ नहीं हो सकते ।
मीडिया की हर जगह भूमिका एक जसी नहीं है। मुम्बई 26/11 वाले मामले में सनसनी वाली मीडिया थी। वहां पर भी मीडिया का गैर जिम्मेदारी वाला काम यह था कि घटनास्थल के साथ जो तमीज का संबंध बनना चाहिए वो नहीं था। वहां भी संवेदनशीलता नहीं दिखी। वहां पहले सरकार को कटघरे में खड़ा किया फिर मंत्री को खड़ा किया। कवरेज के चक्कर में मीडिया यह भूल गया कि आतंकी टीवी के जरिए भी अपने लोगों को संदेश दे सकते हैं। हमने अपनी बाइट दे देकर उसे बताया कि यहां मारो। लेकिन आदमी की जान की जहां कीमत हो वहां यह दिखाना दुश्मनों के लिए फायदेमंद है। अब यह कहना कि मीडिया होती तो बाबरी मस्जिद जसी घटना नहीं होती बिल्कुल गलत है क्योंकि मीडिया होती तो भी यह घटना होती, क्योंकि करने वाले करते हैं जसे आतंकवादी करते हैं।
मीडिया घटनाओं को रोक नहीं सकता लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष जनदबाव बना सकता है। लेकिन मीडिया जानता ही नहीं कि धर्मनिरपेक्षता कैसे पैदा किया जाए। मीडिया को पता नहीं है कि साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए क्या चीज है जो न दिखाई जाए। मीडिया ने आडवाणी की रथयात्रा को लगातार कवरेज देकर ताकत दे दी यदि वह ताकत नहीं देती तो ऐसा नहीं होता। आज मीडिया सबसे कम निवेश करके सबसे अधिक पैसा कमाना चाहती है इसलिए सेक्स, हिंसा और सिनेमा पर ज्यादा ध्यान है और महत्वपूर्ण मुद्दे छूटते जा रहे हैं। मीडिया हाउसों की कम से कम निवेश पर अधिक मुनाफे वाली बनियागिरी है।
इससे मीडिया का भविष्य बाधित नहीं होने जा रहा लेकिन शक्तिशाली लोगों के बीच में मीडिया ने अपनी एक ब्लैक मेलर की तरह अपनी कीमत बढ़ा ली है। लोग इसलिए मीडिया से डरते हैं। लेकिन मीडिया से लोग क्यों डरते हैं और पत्रकार अपने को डरावना क्यों जताना चाहता है? पत्रकार का काम खबर लेना-देना है न कि किसी को डराना। यह ठीक नहीं है, पत्रकारिता ब्लैकमेलिंग नहीं है। कुछ प्राइवेट मीडिया हाउसों ने इसके लिए आचार संहिता बनाई थी लेकिन वे लोग इसको भूल गए। ये केवल न्यूज में आचार-संहिता की बात करते हैं जिससे सरकार पर दबाव बनाया जा सके लेकिन बहुत से मामलों में इसका भी पालन नहीं करते।
-अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित

Wednesday, January 6, 2010

भोर का तारा

कभी चांद था मेरा वो कभी रात अलबेली

भरी भीड़ में भी अक्सर कर जाता मुङो अकेली

बातें करता, रातें करता और करता गुस्ताखी।

लेकिन झट से मांग भी लेता था मुझसे वो माफी

गर हो जाए गुस्सा तो बस एक मुस्कान थी काफी।

अब जब वह सूरज बन बैठा किससे करूं गुजारिश

कोई आकर कर दे जलते अरमानों पर बारिश ।

धूप खिले या बादल छाए दाग हैं अब भी उजले

कैसे कहूं कि मिलते हैं अब वो बदले-बदले।

हम तो बस अब डूब गए थे लहरों के संग बहते

मांझी ने जब हाथ बढाया हम थे सहमे-सहमे।

मांझी का एहसास रुहानी नहीं कोई मजबूरी

फिर भी मैने रख ली है उससे थोड़ी दूरी....।

डर लगता है मुझको, फिर ऐसी कोई रात न आए

बातों-बातों में फिर उस जैसी कोई बात न आए।

दिल टूटे, ना सपने रूठे, फि र ना छोड़े अपना

शायद सच हो जाए, इस बार दिन का सपना।

लेकिन डरती हूं, फिर ना अतीत दुहराए

मैं राहों में खड़ी रहूं, और छोड़ मुङो चला जाए।

अभी बहुत कुछ कहना उससे, डरता है दिल हमारा

कहीं निकल ना जाए वो भी ‘भोर का तारा।

अभिनव उपाध्याय

Tuesday, December 29, 2009

सजनी हमहूं राज कुमार

नए साल की मुबारकबाद, ईद बीत गई लेकिन मियां वह मजा नहीं आया जो छन्नू हलवाई की दुकान की सेवइंयों में आता था, मियां सेवइयां ऐसी की बस मुंह में डाला और गले के नीचे उतर गई। बनारसी दास की पान की दुकान पर गिलोरी मुंंह में डालते मियां गुमसुम बोल बड़े अंदाज में बोल रहे थे। बाबू बनारसी ने चुटकी लेते हुए कहा, मियां तब सिवइयां अठन्नी की भरपेट आती थीं, आज तो महंगाई ने सेंवइयों का स्वाद ही बिगाड़ दिया है, गुमसुम ने कहा, जनाब मिले भी कैसे अठन्नी तो बाजार से ऐसे गायब हो गई जसे गधे के सर से सींग। एक वाकया बताता हूं, मियां जुम्मन के बेटे को मरने के लिए जहर नहीं मिला तो फुन्नन के बेटे ने कहा कि अठन्नी निगल लो, उसे यह सस्ते का उपाय लगा लेकिन वह आज तक खोज रहा है न अठन्नी मिली ना ही उसकी तमन्ना पूरी हुई।
बनारसी बोले महंगाई की महिमा से तो सभी दबे हैं। मियां मनमोहन सिंह देश के ही मोहन नहीं ऐसा लगता है मंहगाई के भी मोहन हैं, मिंया की मोहब्बत जितनी गद्दी से है उतनी ही महंगाई से भी है। अब राम जाने नए साल में इन दोनों से उनकी मोहब्बत कितनी परवान चढ़ती है। वैसे साठ के बाद पढ़ाए जाना वाला पाठ लोगों को समझ कहां आता है। चढ़ती मंहगाई के कारण अब तो दुकानदार के सामने, होने वाले दूल्हे को भी लुगाई की तरह शर्माना पड़ता है।
मियां गुमसुम को अपनी शादी की याद आ गई। बोल पड़े, मियां बेगम को लाने में कुल चालीस रुपए बारह आने खर्च हुए थे। वहीं बेटे की शादी में चालीस हजार में भी जरुरत पूरी नहीं हुई। ये सब बातें युवा नेता चतुर लाल सुन रहे थे। उन्होनें बाबू बनारसी से जर्दा, चूना और कच्ची सुपारी की मांग करते हुए बोले, अब देखिए न ऊंचे ओहदों पर साठ के पार लोगों को बैठाते हैं इसीलिए मंहगाई भी ऊंचे-ऊं चे चल रही है। अब कम्युनिस्ट पार्टी में देख लीजिए देर से ही सही मांग तो उठ ही गई कि सफेद बाल वालों को बाहर कीजिए। जनाब मैं तो कहता हूं कि सफेद बाल वाले ही नहीं खिजाब लगाने वालों के बारे में भी पार्टी के आला कमान सोचना चाहिए। क्योंकि सत्तासुख लेते-लेते ये लोग जनता का दुख भूल जाते हैं। खुद तो काजू-बादाम की ख्वाहिश रखते हैं लेकिन जनता के लिए रोटी पानी की फिक्र इन्हे जरा भी नहीं है। उस युवा नेता की यह व्यथा मियां गुमसुम बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उनसे रहा नहीं गया और बोल पड़े भावी कर्णधार जी कथा तो सभी कहते हैं लेकिन व्यथा का समाधान कहां लोग करते हैं। मियां कुर्सी पर बैठने के लिए तो सभी लोग कहते हैं.. सजनी हमहूं राजकुमार। अब झारखंड में देखिए ना कोड़ा पर कोड़ा चला कि गुरु शुरु हो गए।
अभिनव उपाध्याय

Friday, December 18, 2009

पुनर्जन्म की लीला

जब आप मुस्कुराते हैं तो खुल कर नहीं मुस्कुराते, इसका भी पैसा लगता है। क्या बात है कोई संकोच है ? ये बात मियां लल्लन ने पड़ोसी फुन्नन से पूछा। इस पर फुन्नन थोड़ा और गंभीर हो गये और कहा हम सिने तारिका नहीं है जो पैसा लेकर मुस्क राएं। अगर मुस्कुराने के पैसे मिलने लगे तो मैं परिवार समेत मुस्क राऊं। लेकिन भाई मंहगाई बौराये गधे जसे दुलत्ती झाड़ रही है, दाल चावल को बिना चूल्हे पर चढ़ाए आग लगी है, हरी सब्जी के बिना बच्चों के चेहरे पीले पड़ रहे हैं और लाल टमाटर अच्छे नहीं लगते। कुछ जुगाड़ बता दो कि हमारे घर भी गीला आटा तबे पर चढ़ जाए?
लल्लन जो खुद कई दिनों से नौकरी की तलाश में घूम रहे थे बोल पड़े आजकल टीवी पर पुनर्जन्म वाला कार्यक्रम आ रहा है सुना है सब कुछ सच सच बता दे रहे हैं। मैंने 111 रुपए देकर एक बार पंडित जी से पूछा था कि पिछले जन्म में मैं क्या था वह बोले गधा था मुङो यकीन नहीं हो रहा है इसलिए सोच रहा हूं अब उस टीवी वाले से पूछ लूं क्या पता किसी रईस या नेता का बेटा निकल जाऊं तो जनता कुछ तो तरस खाएगी। क्या पता सत्ताधारी पार्टी में किसी का रिश्तेदार ही निकल जाऊं तो कोई तो रिश्तेदारी निभाएगा.. फु न्नन तुम भी चलो क्या पता किसी एक का मामला बैठ गया तो दोनों की चांदी हो जाएगी। यह बात लल्लन का बेटा सुन रहा था बोला पिता जी जब लौट कर आना तो जुगाड़ सीख कर आना, यहां पर हम लोग दूसरों के पुनर्जन्म की बात बताएंगे। मंगरू प्रधान पक्का उस जन्म में चार सौ बीस या ठग रहा होगा सब नरेगा का पैसा भकोस जाता है। इस पर लल्लन ने उसे डांट दिया। मामला फिट कर लोग मुम्बई जा पहुंचे। जितने लोगों का पुनर्जन्म के बारे में देखा गया सब ऊंचे आदमी थे या नीचे भी थे तो पक्के इमानदार। लल्लन ने सबके बारे में अटकलें लगाई कि कौन पिछले जन्म में क्या हो सकता है, फुन्नन से बोला मल्लिका जरूर उर्वशी या मेनका रही होगी, अमिताभ तो जरुर पा पा के पापा रहे होगें। फुन्नन ने सकु चाते हुए पूछा कि राखी सावंत क्या थी..इस पर लल्लन ने कहा एकदम से बकलोल ही हो, अपने बारे में नहीं सोच रहे। किसी तरह मामला फिट बैठा लेकिन पता चला कि लल्लन हलवाहा और फुन्नन जमादार थे। मुंह लटकाए लल्लन लौट आए उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब तक किसी आत्महत्या करने वाला किसान, दहेज के लिए जली बहू और भूख से मरा गरीब इस जन्म में कोई बड़ा आदमी क्यों नहीं बनता। फुन्नन बोला अब समझ में आया कि हम गरीब क्यों हैं ये ससुरी पिछले जनम से ही पीछे पड़ी है......

अभिनव उपाध्याय

Sunday, December 13, 2009

न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में...

शारदा पाठक एक अजब शख्सियत थे। फक्कड़-फकीर। मस्तमौला कबीर। वे पत्रकार थे लेकिन रोजमर्रा की पत्रकारिता से हटकर सतत पढ़ने-लिखने वाले पत्रकार। वे गहन जिज्ञासु व्यक्ति थे और उनकी जिज्ञासा के क्षेत्र भी एक-दो नहीं अनेक थे। उसमें उनकी गहरी पकड़ थी। इतिहास से लेकर फिल्मों तक और बााार से लेकर सभ्यता-संस्कृति तक वे सहज आवाजाही करते थे। बातों का एक बड़ा बाजार वे जहां-तहां खोल के बैठ जाते। आज समाज के वे नियमित लेखक थे। अफसोस यह कि उन जसी प्रतिमा के जीवन का बड़ा हिस्सा अभावों और संकटों में गुजरा। उनको याद करते आज समाज के सीनियर एसोसिएट एडीटर मनोहर नायक
शारदा पाठक घनघोर मिलनोत्सुक जीव थे। मित्रों, परिचितों के बीच परम-प्रसन्न। बातें और बातें। मिलने की चाह उन्हें सुबह से ही सड़क पर ला देती। और फिर मिलते-जुलते बातों-बातों और बातों से दिन का जंगल काटते रहते। जबलपुर हो या दिल्ली उनके परिचित और प्रशंसक बड़ी तादाद में थे। उनका यह दायरा काफी बड़ा था। उससे बहुत-बहुत बड़ा दायरा स्मृति में बसे लोगों का था। कभी का भी कुछ पढ़ा-सुना उनके कबाड़खाने में हमेशा जीवंत रहता और बाहर निकलने को कुलबुलाता रहता। इस सबसे उनकी बातों का दायरा अत्यंत विशाल था। लेकिन अपनी इस अटूट मिलनसारिता के बावजूद वे नितांत एकाकी थे। वे एक चिर-परिचित अजनबी की तरह ही थे-एक आगंतुक! जो अचानक आता और फिर एकाएक चला जाता है। हर दिन हर किसी के साथ उनका मिलना ऐसा ही था।
आगंतुक 1991 में आई सत्यजीत राय की अंतिम फिल्म थी। इसके केन्द्रीय पात्र मनमोहन मित्रा का चरित्र पाठकजी से मेल खाता-सा था। नृतत्वशास्त्री मित्रा ज्ञानी और मूर्तिभंजक हैं। वे दिल्ली से पत्र द्वारा कोलकाता में अपनी भतीजी बेबी यानी अनिला को सूचित करते हैं कि कुछ दिन आकर उनके पास रहना चाहते हैं। ये वे चाचा हैं जिनका पैंतीस वर्ष से कोई अता-पता नहीं था। चाचा दुनियाभर घूमे हुए घुम्मकड़ व्यक्ति हैं अनिला खुश भी है और पति सुधीन्द्र की इस सोच के कारण सशंकित भी जो उन्हें फरेबी मानते हुए शक कर रहे थे कि हो सकता है कि ये पुश्तैनी जायदाद में अपना हिस्सा वसूलने की चाल हो। मित्रा साहब ने आते-आते ही अपने अद्भुत बखानों का रंगारंग पिटारा ही खोल दिया। अनिला का बेटा सत्याकि की उनसे गहरी पटने लगी, लेकिन वयस्क परिवार आशंकित ही रहा और कई भद्रलोक के महाशयों ने उनसे बात की कि भेद खुले। एक वकील दोस्त आया। लेकिन चाचा ने एक सधे वकील की तरह उससे जिरह की। गर्मागर्मी में दोस्त ने कहा ‘साफ-साफ बताओ या दफा हो जाओ। अगले दिन चाचा का कोई पता नहीं था। दरअसल राय ने इस फिल्म के जरिए अपनी चिंताओं का इजहार किया है। वे लगातार आधुनिक और अनौपचारिक होती जा रही दुनिया में मनमोहन मित्रा के जरिए मानवीयता और सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने का संदेश देते हैं। मित्रा के साथ परिवार और मित्रों का व्यवहार और उनकी सोच के पीछे हम मानवीय मन और सामाजिक अंर्तसबंधों की सूक्ष्म पड़ताल पाते हैं। वकील जब मित्रा से पूछता है आपने कभी मानव मांस खाया है जोकि एक बेहद जघन्य काम है तो मित्रा कहते हैं कि मैंने खाया नहीं पर उसके खास स्वाद के बारे में सुना है। यह बर्बर है पर इससे भी सौ गुनी क्रूर और जुगुप्सापूर्ण चीजें हैं। बेघर लोगों और नशीली दवाओं से ग्रस्त लोगों को देखना और एक बटन दबाकर एक सभ्यता को नष्ट कर देना ज्यादा क्रूरता भरा कारनामा है। मित्रा साहब अंतत: मानव प्रकृति और सभ्यता पर लोगों का ज्ञान बढ़ाकर चले जाते हैं।
पाठकजी बहुतों के लिए ऐसे ही कक्काजी थे। ज्ञानी और मूर्तिभंजक। सरस, विनोदी और कई अर्थो में करिश्माई। उनकी उपस्थिति फिल्म की ही तरह शास्त्रीय शैली में मनोभावों की गरिमामय कामेडी की तरह ही थी। भतीजे उनके कई हैं पर दूरदराज और कभी-कभार वाले। एक बड़ी बहन थीं पर पहले ही नहीं रहीं। वे नितांत अकेले थे। जबलपुर विश्वविद्यालय से एनसियेन्ट हिस्ट्री एंड कल्चर व इकानामिक्स में एमए थे। राजबली पांडे के निरीक्षण में डाक्टरेट कर रहे थे पर उनकी स्थापनाएं गले नहीं उतरीं तो छोड़ दिया। व्याख्याता बनना चाहते थे पर नहीं बन पाए। अंतत: पत्रकार बने। पर तमाम योग्यताओं के बावजूद दुनियावी अर्थो में घोर असफल हुए कि फिर नौकरी नहीं की। प्रेम किया था विवाह नहीं कर पाए। पिता के अनुचित दबावों में कराहते रहे। फिर विवाह हुआ ही नहीं। बहत्तर में दिल्ली आए, यहां-वहां काम किया पर कुछ जमा नहीं। दिल्ली में उन्होंने कई साल फाकामस्ती में गुजारे। लेखों का पैसा मिला तब उधारी चुकाई वरना पूछो तो कहते कर्ज पर पैसा उठाया है। एक्सप्रेस में विज्ञापन में हजारों रुपए का काम किया पर हिसाब में मिलान न हुआ तो सब डूब गया। जबलपुर लौटे खाली हाथ और वे खाली ही रहे। न रहने को मकान न कोई करीबी। गो उनके चाहने वाले बहुत थे। एक ने उन्हें कमरा दिया तो कुछ खाने की व्यवस्था करते। लेकिन दिल्ली हो या जबलपुर उनका शोषण ही किया गया। एक्सप्रेस विल्डिंग में तो वे अर्जीनवीस ही हो गए थे। कोई अंग्रेजी में तो कोई हिन्दी में अर्जी लिखवाता रहता। वे प्रेमपूर्वक लिखते रहते। दिल्ली में मकान मालकिन की बाल मनोविज्ञान पर पूरी थीसिस लिख दी। उन्हें नौकरी में तरक्की मिली और पाठकजी को अंतत: वह मकान छोड़ना पड़ा। किसी भतीजी को इतिहास में डाक्टरेट करा दी। किसी मित्र ने लेख लिखवा लिया। किसी ने किताब ही अनुवाद करा ली। एवज में खाना खिला दिया। एक अखबार में बैठने लगे। लिखना और तमाम काम! लेकिन महीने के शुरू में संपादक जेब में दो सौ रुपए डाल देता, ‘पाठकजी चाय-पान के लिए।ज् लेकिन खाना! किसी ने बताया कि कुछ दिनों से किसी मंदिर से खिचड़ी ले आते थे। जिसके यहां रहते बच्चों को पढ़ाते। परीक्षा की तैयारी कराते और मजे-मजे में नई-नई जानकारियां देते। दूसरों की मदद का यह सिलसिला पुराना था। उनके मित्र बंसू मास्साब प्राइमरी में मास्टरी की परीक्षा देने वाले थे। उनके बदले परीक्षा पाठकजी ने दी और बंसू मास्साब हो गए। प्रसंगवश बंसू मास्साब अब्बू मास्टर और शारदा पाठक अपने युवा दिनों में गजब के पतंगबाज थे।
पाठकजी सब जानते थे। हर छल-कपट पर उनकी निगाह रहती। वे परम संकोची थे। उनका इस्तेमाल करने वाला हाल ही का परिचित हो या चालीस साल पुराना वे सहजता से काम कर देते। खाने-वाने के लिए यह सब करते थे यह कहना गलत है। उन्हें भूखे रहने का जबर्दस्त अभ्यास था। पोहा-मट्ठी मिली तो ठीक, नहीं मिली तो ठीक। कइयों से उन्हें उम्मीद थी इसलिए चक्कर लगाते पर निराश ही लौटते। सालों से वे अपने जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश करते रहे। उसी तरह जसे सालों वे घर बसाने, विवाह करने की कोशिश में लगे रहे थे। सुना है युवा दिनों में काफी फैशनेबल थे। गले में मफलर, गॉगल और लेम्ब्रेटा। वह भी भतीजे को दे दिया। दिल्ली-जबलपुर में कई संगी-साथी बड़े आदमी हो गए। ज्ञानी-ध्यानी पाठकजी हैरत करते। गुस्से में कभी-कभार तीक्ष्ण कटाक्ष। उनसे किसी की असलियत छिपी न थी। कई लेखक-पत्रकार भी थे जिनके वे प्रशंसक थे पर आज के दौर की पत्रकारिता के घोर आलोचक। उनकी शास्त्रीयता पुरातनपंथी-दकियानूस हरगिज नहीं थी। उनकी दृष्टि बेहद आधुनिक थी। सारे उतार-चढ़ावों पर पैनी नजर। उदारीकरण के साथ ही वे कहने लगे थे कि अब अखबार इश्तहार हो जाएंगे। जब हो गए तो कहते कि अब तो लेख नहीं चाहिए। शब्दों का गुटका मांगते हैं। कफन देखकर मुर्दे की मांग करते हैं। यानी अच्छी फोटो है तो थोड़ा कुछ लिख दीजिए। कुछ साल से कहते कि यार अब नंबर एक भगवान सांई बाबा हैं। गणेश-कृष्ण-हनुमान पिछड़ गए। अभी कुछ ही रोज पहले एक ऐसा ही सर्वेक्षण कहीं पढ़ा।
कक्काजी बेहद भावुक व्यक्ति थे। वे एक ठीक-ठाक जिंदगी चाहते थे। उसका शोध जीवन भर चला। वे लोगों के बीच के व्यक्ति थे। आसपास मित्र-मंडल अच्छा लगता और उसमें वे हजार जबां से नग्माजन होते। लेकिन उन्हें जसे अकेलेपन की सजा मिली थी। पूरा जीवन अकेले छोटे कमरे में गुजार दिया। वे कुछ किताबें लिखना चाहते थे। लोग कहेंगे-किसने रोका! पर खाने का जुगाड़ ही न हो। पैसा ही न हो ऐसी कोई जगह भी न हो जहां जाकर आत्मीय, भावपूर्ण परिवेश मिले तो कोई क्या कर सकता है! बाहर की दुनिया बातें सुनने को उत्सुक पर अंतत: बेपरवाह। फिर भी अपने मन के घाव कभी नहीं दिखाते। पूछो तो कहते, ‘न कुछ तेरे बस में जूली, न कुछ मेरे बस में।ज् यह जरूर है कि बेहद सख्त पसंद-नापसंद वाले थे। फिर परिश्रम से इतना ज्ञानार्जित किया कि मझौले किस्म के लोगों से तालमेल नहीं बिठा पाए। एक तरह से उन्हें उजले-साफ-सूफ, धुली-पुछी पर अंदर से पनाले ढोती दुनिया से चिढ़ हो गई थी। दुनिया की अनौपचारिकता भांप चुके थे। खान-पान-स्नान से मोहभंग का मामला था। कभी यह भी लगता है कि उनका यह मटमैलापन भी जसे पाखंडी दुनिया का सांकेतिक विरोध हो। वे आलू के शौकीन थे पर उसके छिलके से घृणा करते थे। परवल आदि के छिलके भी नागवार थे। अरहर की दाल भी नहीं। साकिब का एक शेर है : मलबूस खुशनुमा हैं मगर खोखले हैं जिस्म/ छिलके सजे हुए हैं फलों की दुकान में।ज् पाठकजी सत्व-तत्व वाले आदमी थे, छिलकों के रंगीन संसार के शत्रु। गजब यह है कि इतने साल विपदाओं से घिरे रहकर भी उन्होंने अपनी ईमानदारी, निश्छलता, संजीदगी और स्वाभिमान नहीं खोया। आराम की जिंदगी में ये सब चीजें भी अपेक्षया आसान होती हैं पर विपरीत और विलोम परिस्थितियों में निष्कलुष रहना कठिन काम है।
कक्काजी का दिमाग अजब-गजब ही था। कहां-कहां की जानकारियां, वंशावलियां, तारीखें, संख्याएं, विवरण उसमें जमा थे। पैंसठ साल पुरानी स्मृतियां उनके अंदर सजीव थीं। एक बड़ा स्मृति-आलय था उनका दिमाग। जहां शायद बड़े-बड़े कक्ष थे : इतिहास, पुरातत्व, राजनीति, भाषा, संस्कृति, वेद-पुराण, महाभारत का अलग। देशों, शहरों, स्त्रियों-पुरुषों का अलग। मंदिरों, स्थापत्य का अलग। व्यापार, शेयर बाजार का अलग। वनस्पतियों और सब्जी मंडी और विविध जायकों का अलग। भूत-प्रेत-जासूसी किस्सों, कहानियों का अलग। और एक बहुत बड़ा कक्ष फिल्मों और फिल्म संगीत का। ऐसा ही एक किताबों, अखबारों, पत्रिकाओं, विशेषांकों का। हां एक तहखाना भी था, जहां निजी जीवन की फाइलें, कुछ सत्यकथाएं और गुत्थियां थीं जिनकी सूची भूले-भटके कभी एकाध लाइन में पता चल जाए तो ठीक, वरना वहां प्रवेश निषिद्ध था। फिल्मों के तो वे चलते-फिरते कोष थे। मेरे जानने में विष्णु खरे और शरद दत्त ही वैसी फिल्मों के वैसे जानकार हैं। कभी-कभी झल्लाहट होती थी उनकी जानकारियों से कि क्या-क्या भरा पड़ा है। उन्हें शायद ही संदर्भ के लिए कुछ देखना पड़ता हो। एक बार जो पढ़ लिया वो याद हो गया। उनकी स्मृति अगाध थी।
धार्मिकता, पूजा-पाठ से वे बहुत दूर थे। धार्मिक उन्माद, पाखंड और ढकोसले के खिलाफ। छोटेपन से उन्हें चिढ़ थी। भाजपा-संघ के तो वे परम शत्रु थे और बाबरी ध्वंस के बाद जब एक दिन मेरे घर में कुछ लोग आए तो उन्हें बैठाया लेकिन जसे ही पता चला कि ये राममंदिर बनाने के समर्थन फार्म पर दस्तखत लेने आए हैं तो आग-बबूला हो गए और उन्हें तुरंत घर से बाहर होने के लिए लगभग चिल्लाने लगे। वे रघुपति राघव को आर आर राजाराम, पीपी सीताराम कहते थे। लेकिन उनके अंदर का दर्द दूसरी तरह से कभी अनजाने उभर आता था। पता नहीं किसने उन्हें बताया कि एक दिन कहने लगे कि एक बढ़िया बात यह होगी कि मृत्यु के बाद मुङो मोक्ष मिल जाएगा। यानी फिर नहीं फंसेंगे। यह एक तरह से अपने जीवन और इस दुनिया से उनके रिश्तों पर शायद सबसे दारुण टिप्पणी थी। जबलपुर में उनकी मृत्यु पर अखबारों में काफी छपा, दिल्ली में कुछेक जगहों से लेख-फोटो की मांग हुई। लेकिन सच यह है कि जीते-जी उनकी कद्र नहीं हुई। अब, ‘मर गए हम तो जमाने ने बहुत याद किया।ज् उनकी बातें, उनका बच्चों-सा निर्दोष व्यक्तित्व सब बहुत याद आता है। वे गजब के किस्सागो थे। लक्ष्मीकांत वर्मा और पाठकजी दोनों के साथ अलग-अलग तय करके रातभर बातें करने का मुङो अनुभव था। एक दिन दोनों ही साथ थे और जो लतीफ संस्मरणों और बात में से निकलती दिलचस्प बातों का सिलसिला उस रात जमा वह अविस्मरणीय है। अक्सर मेरे घर में फिल्म देखते हुए फिल्म खत्म होने पर कहते-‘चलो थींडज् हो गई। वे दि एंड को मिलाकर कहते-थींड। पाठकजी की भी अद्भुत लेकिन दुखांत कथा आखिर थींड हो गई।

Wednesday, November 11, 2009

एक उन्वान....



इंडिया गेट।
जमघट सैलानियों का।
एक उन्वान।
एक आनंद।
एक खुशी।
दस्तक गुलाबी सर्दी की।
और मौसम भी खुशनुमा।
चाह।
कैद कर लें हर पल।
क्षण।
प्रतिक्षण।
ले जाएंगे साथ।
संजोकर।
सहेजकर।
यह कोशिश।
काश!
कायम रहे।
ऐसे ही शांति।
आएं ऐसे ही सैलानी।
जो निहारे इंडिया गेट।
और उन्हे देख, सूरज भी ढलने में करे ढिठाई..

कभी लगती थी जहां महफिलें ...



एक समय उत्तर भारत की सबसे सशक्त महिला रही बेगम का नाम अब शायद कम लोग ही जानते हैं । दिल्ली के चांदनी चौक स्थिति बेगम समरू के महल में एक समय बुद्धिजीवियों, रणनीतिकारों और कुछ रियासतों के लोग विचार विमर्श करने आते थे लेकिन आज उस महल की वर्तमान हालत देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यह कभी उनकी हवेली रही होगी। दिल्ली के चांदनी चौक इलाके के अंदर तंग गलियों से होकर किसी तरह वहां पहुंच भी जाएं तो उसकी हालत देखकर यह नहीं कह सकते कि यह कभी कोई हवेली रही होगी।
यहां गंदगी के बीच खड़ा है दिल्ली पर्यटन विभाग द्वारा लगाया गया बोर्ड जो इस महल के बारे में जानकारी दे रहा है। लेकिन दिलचस्प यह है कि यह जानकारी आधी-अधूरी ही नहीं बल्कि गलत भी है। यहां दी गई जानकारी दो भाषाओं में है। हिन्दी में जहां इसे 1980 में भगीरथमल द्वारा खरीदा गया बताया गया है वहीं अंग्रेजी में उन्हीं के द्वारा 1940 में खरीदा गया बताया गया है।
समरू के बचपन का नाम जोन्ना या फरजाना भी बताया जाता है लेकिन वह बेगम समरू के नाम से ही प्रसिद्ध हुई। ‘समरूज् नाम के बारे में जहां इंडियन आर्कियालॉजिकल सर्वे (एएसआई) ने उनके फ्रेंच शौहर वाल्टर रेनहार्ड साम्ब्रे से माना है जो भारत में ब्रिटिश शासन में भाड़े का सिपाही था, वहीं स्टेट आर्कियॉलाजी ने समरू नाम का संबंध सरधना (मेरठ ) से माना है।
इस महल के कुछ हिस्से अपने समय की कला को अब भी समेटे हुए हैं। यूनानी स्तम्भों से सजे बरामदे की अपनी खूबसूरती है लेकिन वहां पर हुए अतिक्रमण के कारण इसे ठीक तरह से देखा नहीं जा सकता। एक दिलचस्प बात और है कि वर्तमान में इसका नाम भगीरथ पैलेस है लेकिन एक दुकानदार ने बताया कि दुकान के किराए की रसीद किसी रस्तोगी परिवार के नाम से कटती है। इस महल की उपेक्षा का यह आलम है कि बाहरी लोगों को छोड़िए स्थानीय लोगों को भी इसके बारे में ठीक से पता नहीं है। इस ऐतिहासिक इमारत की देखरेख और संरक्षण के बारे में प्रशासनिक अधिकारी भी कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं।
कश्मीरी मूल की बेगम समरू का जन्म 1753 में मेरठ के सरधना में माना जाता है। जो 1760 के आसपास दिल्ली में आई। बेगम समरु पर लिखी किताब ‘बेगम समरू- फेडेड पोर्टेट इन ए गिल्डेड फार्मज् में जॉन लाल ने लिखा है कि ‘45 वर्षीय वाल्टर रेनहर्ट जो यूरोपीय सेना का प्रशिक्षक था। यहां के एक कोठे पर 14 वर्षीय लड़की फरजाना को देखकर मुग्ध हो गया और उसे अपनी संगिनी बना लिया।ज्
बेगम समरू के बारे में कहा जाता है कि वह राजनीतिक व्यक्तित्व और शासन का कुशल प्रबंधन करने वाली महिला थी। शायद यही कारण था कि एक पत्र में तत्कालीन गवर्नर लार्ड बिलियम बैंटिक ने उन्हे अपना मित्र कहा और उनके कार्य की प्रशंसा की। बेगम समरू को सरधना की अकेली कैथोलिक महिला शासिका भी कहा जाता है। इस महल में 40 साल से दुकान कर रहे बुजुर्ग ने बताया कि इस महल के अंदर से सुरंग लाल किले से मिलती है जिसके रास्ते हाथी-घोड़े और सैनिक जाते थे और इस महल के चारो ओर तेरह कुंए थे। जिससे महल के समीप बागों को पानी दिया जाता था। इतिहासकारों का मानना है कि बेगम ने 18वीं और 19वीं शताब्दी में राजनीति और शक्ति संघर्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक राजनीतिक जीवन व्यतीत करने के बाद उसकी मृत्यु लगभग 90 साल की आयु में सन 1836 में हुई। लेकिन इस ऐतिहासिक इमारत में अब कई रखवारे हैं सबका अपना स्वार्थ है लेकिन महल की दुर्दशा पर स्टेट आर्कियोलाजी भी मौन है।

सब कुछ राम भरोसे

दिल्ली में डीटीसी और ब्लू लाइन का किराया बढ़ा लेकिन यात्रियों की सुरक्षा राम भरोसे। भाई ये पब्लिक है सामान से भी सस्ती। सामान लेते हैं तो गारंटी- वारंटी कुछ तो देता है, आजकल बड़ा-बड़ा बैनर जागो ग्राहक जागो का भोंपू बजा रहे हैं। महंगाई बढ़ी लेकिन सरकार ने पब्लिक कि कोई गारंटी नहीं ली। चाहे चाइना धमकाए या पाकिस्तान अंगारे छोड़े। पब्लिक तो बस राम भरोसे.. सहीराम से अपनी व्यथा चतुर चटकोर जी बता रहे थे। सहीराम ने उनकी बात सुनते-सुनते कहा कि चटकोर जी मंहगाई के दौर में गारंटी की इच्छा न करें। बात आगे बढ़ी, सुना है बैल, गधा, घोड़ा, ऊंट के ऊपर कोड़ा चलता है तो वो तेज भागने लगते हैं लेकिन कुछ दिन पहले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पुलिस से भाग रहे थे। जनता मजे से टीवी पर उनके भागने और लुकाछिपी की कमेंट्री सुन रही थी और अंत में भागते-भागते वह थक कर बीमार पड़ गए। सबसे सुरक्षित जगह अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल से लौटकर अब वह जेल में आराम फरमा रहे हैं। यहां भी कोड़ा दूसरों पर चल गया। सुना है जो तारिकाएं उनका मनोरंजन करती थीं उनको पुलिस की नाक सूंघ रही है। कहीं उनके परफ्यूम के आगे बेहोश न हो जाएं। लल्लन मास्टर के बेटे का कहना था कि तारिकाओं का नाम हिरोइन इस लिए पड़ा कि जो इनके पास जाता था उन्हें हेरोइन चटा देती थीं। मैंने सोचा हो सकता है, कोड़ा को भी कुछ चटा या सुंघा दिया हो और उसकी मति मारी गई हो। जिससे वह बेचारा बना घूम रहा है। अच्छा हुआ उसे पुलिस हवालात ले गई। कहीं उसका दिमाग बौराया जाता तो न जाने कितनों का वारा-न्यारा हो जाता। वो तो भला हो जो अब साथ-साथ बीवी रहती है। अब अफसोस के बाद चटकोर जी ने बात का ट्रैक बदला,
देश में किसी को चैन नहीं। जनता तो जनता, सरकार को भी पता नहीं क्या हो गया है कि रोज कहीं न कहीं उठापटक चलती रहती है। संसद की समस्याएं सड़क तक आ गई हैं। स़ुना है दिल्ली के भिखमंगों को सड़क से हटा दिया जाएगा। यह चिंता भिखमंगों की कालोनी में चिंता का विषय था। भिखमंगों के सरदार खजांची राम ने अपनी समिति में चिंता प्रकट करते हुए कहा कि हमने भिखमंगों को विदेशी भाषा पढ़ाने में जो निवेश किया था उस पर पानी पड़ जाएगा।
इस सूचना के बाद भिखमंगों में उदासी छा गई। लेकिन सूचना मिली है इस खबर से पुलिस भी उदास है। बस किराया के बाद कोड़ा और अंत में भिखमंगों की समस्या और उसके बाद। अंत में सहीराम ने कहा भाई यही तो लोकतंत्र है!
अभिनव उपाध्याय

मंहगाई की मार

अजी सुनती हो दरवाजा खोलो, कितनी देर से चिल्ला रहा हूं। मास्टर गनपत राम ने दरवाजे से आवाज लगाई, सुनकर श्रीमती कलावती ने कहा, बाजार क्या जाते हो लगता है खेत जोतकर आ रहे हो। दरवाजा खोलते ही उन्होने मास्टर की भीगी कमीज और हांफते चेहरे को देखकर कहा कि सब्जी लेने गए थे, तो हांफ क्यों रहे हो? क्या दौड़ते गए थे और दौड़ते आए हो क्या। मास्टर जी ने संभलते हुए कहा कि गया तो बस से था लेकिन आया हूं पैदल। एक तो सब्जी का भाव सुनकर गर्मी छिटक गई मोल-तोल कर रहा था तो उसने कहा कि अब बस का किराया भी बढ़ गया है। इसलिए पैदल चल पड़ा। कलावती जी ने यह सुनकर घनघोर निराशा जाहिर की ‘दूध, दही, चीनी, रसगुल्ला में तो आग लगी ही थी कि अब मुंआ किराया भी..ज्
मास्टर जी ने पानी का गिलास अभी मुंह से लगाया ही था कि ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी कि बढ़ सक ते हैं पानी के दाम.. और पानी का घूंट हलक में ही अटक गया।
सुरसा की तरह बढ़ रही मंहगाई को देखते हुए मोहल्ले में मीटिंग हुई कि सरकार चुनाव से पहले तो मस्का लगाती है और बीतने के बाद गर्म घी उड़ेल देती है। बढ़ती हुई मंहगाई के कारण किन चीजों में कटौती की जाए कि मामला बराबर हो जाए। किसी ने दूध किसी ने बिजली किसी ने फोन पर कम खर्च करने का सुझाव दिया।
किसी ने चिंता जाहिर की कि अब तो दफ्तर का बाबू का भी सुविधा शुल्क बढ़ा देगा। लेकिन किसी ने गाड़ी कम चलाने पर जोर दिया। यह उधेड़ बुन चलती रही कोई भी प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास नहीं हुआ। इसी बीच भीड़ देखकर सत्ता पक्ष के एक नेता वहां पहुंचे। उनके ऊपर सभी लोगों ने शब्द बाण छोड़े लेकिन नेता जी एक वीर योद्धा की तरह की तरह सब ङोल गए और बोले, सरकार आपकी दुश्मन नहीं है, आपकी तकलीफ हमारी तकलीफ है। आप इस मंहगाई को गलत नजरिए से देख रहे हैं। दरअसल आजकल लोगों में भाईचारा कम हो रहा है। अगर सबके घर आलू होगा तो क्या वह अपने पड़ोसी के घर जाएगा, आप अगर अपने पड़ोसी से चाय के लिए दूध मांगते हैं तो कम से कम चलकर जाते तो हैं। हम लोग सुविधाभोगी हो गए हैं। अभी भाषण चल ही रहा था कि झुग्गी से आया हुआ कुपोषित, शोषित और अस्थिपंजर लिए गंगूराम ने कहा कि किस भाईचारे की बात करते हैं। मंहगाई में भीख मांगने पर भी पेट नहीं भरता .. उसे देख नेता जी बगले झांकने लगे फिर जोर देकर कहा कि देश को भूखे नंगे लोग बदनाम कर रहे हैं। इस सभा में यह विपक्ष द्वारा प्रायोजित भिखमंगा है। जल्द ही कामनवेल्थ गेम तक इनका भी इंतजाम हो जाएगा..
अभिनव उपाध्याय

Wednesday, November 4, 2009

महफूज नहीं मेहमान परिंदे



भारत का वातावरण केवल विदेशी सैलानियों को ही आकर्षित नहीं करता बल्कि दूर देश के परिंदों को भी लुभाता है। अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में आने वाले परिंदे साइबेरियाई देश, चीन, तिब्बत, यूरोप, लद्दाख आदि से भारी संख्या में भारत में आते हैं। नवंबर के प्रथम सप्ताह में ये बड़ी संख्या में आते हैं लेकिन वह जिस संख्या में आते हैं उतने लौट नहीं पाते। इसके कई कारण हैं। प्रमुख कारण इन परिंदों का शिकार करना है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के पक्षी विशेषज्ञ डा. एम शाह हुसैन का कहना है कि विदेशी पक्षी आने-जाने के लिए मूलत: दो रास्ते अपनाते हैं, एक पूर्वी रास्ता जो चीन-तिब्बत होकर आता है, दूसरा पश्चिमी रास्ता जो ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होकर आता है। जब यह लौटते हैं तो ये अपने शरीर में लम्बी यात्रा के लिए काफी चर्बी इकट्ठा कर लेते हैं जो उनकी यात्रा के लिए ऊर्जा देने का कार्य करते हैं। लेकिन इनकी तंदरुस्ती के कारण भी लोग बड़ी संख्या में इनका शिकार करते हैं। दिल्ली के यमुना जव विविधता पार्क के वन्य जीव वैज्ञानिक फैय्याज ए खुदसर का कहना है कि जलीय और स्थलीय दोनों तरह के पक्षी दिल्ली आते हैं। इन दिनों यूरोप व साइबेरिया में ठंड बढ़ जाती है। इनको खाने के लिए काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। ऐसे समय में ये परिंदे भारत आते हैं। फरवरी के पहले-दूसरे सप्ताह में पुराने पंख गिराकर नए पंख लेकर अपने देश लौट जाते हैं। भारत के विभिन्न प्रांतों से इन पक्षियों को मारने की खबरें आती हैं लेकिन दिल्ली में ऐसा हो रहा है सुनने में नहीं आया है। ऐसा माना जाता है कि अगर 2004 के बाद साइबेरिया क्रे न भारत में नहीं आते हैं तो इसका प्रमुख कारण अफगानिस्तान युद्ध और उस समय उनका शिकार किया जाना है।

Sunday, November 1, 2009

यह इमारत तो इबादतगाह....



‘हमारे पूर्वज राव चुन्ना मल के बारे में लोग कहते थे कि आधी दिल्ली उनकी थी। उनका दिया हुआ आज भी हमारे पास बहुत कुछ है। चुन्नामल हवेली उनकी धरोहर है। वर्तमान में हवेली की देखरेख कर रहे व उनके वरिस अनिल प्रसाद बड़ी संजीदगी से ये बातें बताते हैं।
हवेली की पहचान अब ऐतिहासिक इमारतों के रूप में होती है। सैलानियों से लेकर फिल्म निर्माताओं के लिए यह पहली पसंद है। वर्तमान में इस हवेली की सुंदरता पर ग्रहण लग गया है। इसकी हालत देखकर फना कानपुरी का शेर ‘यह इमारत तो इबादतगाह..इस जगह एक मयकद़ा था क्या हुआ याद आता है। इस हवेली की कोई खास फिक्र किसी सरकारी संस्थान या गैर सरकारी संगठन को नहीं है। ऐतिहासिक महत्व की इस धरोहर के सामने बना पेशाब घर और खुलेआम वहां पर स्मैक पीते नशेड़ी देखे जा सकते हैं। हवेली के अंदर की सुंदरता को बरकरार रखने की अनिल प्रसाद ने पूरी कोशिश की है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि हॉलीवुड अभिनेत्री केट विसलेंट भी यहीं रहीं। हवेली की वास्तुकला देखने लायक है। 1842 में यह हवेली बनी। हवेली के हिस्से दर हिस्से को जोड़ते पुल अब भी देखे जा सकते हैं। वर्तमान में निचले फ्लोर पर दुकाने हैं, लेकिन 28,000 हजार वर्ग गज में फैली हवेली में तब संगमरमरी फव्वारे लगे होते थे। आज भी हवेली में प्रवेश करते ही चौड़ी सीढ़ियों पर पीतल की रेलिंग और अंतिम छोर पर शाही अंदाज दर्शाता शीशा देखा जा सकता है। यही नहीं यहां फारसी गलीचा, बड़े आइने, बोहेमियन ग्लास के झाड़ फानूस भी इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं। इस हवेली में एक स्थान पर फारसी में लिखा हुआ है कि ‘यह कमरा 1842 में बना और बैठक खाने के लिए प्रयोग में लाया जाता था।ज्
अनिल प्रसाद बताते हैं कि यह हवेली भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए लोगों की शरणस्थली भी रही। उन्होंने इसकी प्रशासनिक उपेक्षा को लेकर भी चिंता जताई। इस हवेली की देख-रेख के बारे में वह बताते हैं कि ‘इसमें औसतन सत्तर रुपए एक दुकान से किराया आता है जिसकी बदौलत इसकी देखरेख संभव नहीं है। यह हमारे पुरखों की निशानी है। इसके संरक्षण की हम पूरी कोशिश करते हैं। अनिल प्रसाद पुलिस की मनमानी से भी दुखी हैं। उनका कहना है कि पुलिस उनके रिश्तेदारों तक से यहां आने के पैसे ले लेती है।

Monday, October 26, 2009

कथक नहीं उसकी आत्मा भी दी- शोभना नारायणन

गुरु-मंत्र

शोभना नारायणन

इस बार अपने गुरु बिरजू महाराज को याद करते हुए सुप्रसिद्ध नृत्यांगना शोभना नारायण कहती हैं कि महाराजजी तो मेरे लिए देवता हैं। वे कहती हैं कि ये उनका स्नेह ही था जो उन्होंने मुङो लोगों के सामने प्रफेशनल रूप में पेश किया। इतना ही नहीं देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने मुझसे करवाई। ऐसा गुरु मिलना आज दुर्लभ है। शोभनाजी कहती हैं कि नृत्य की जो भी बारीकियां या तकनीक मुझमें हैं वे सब गुरु बिरजू महाराजजी की देन हैं। वे कहती हैं कि आज भी जब मैं उनको याद करती हूं तो कृतज्ञता से भर उठती हूं।

सीखना लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। आदमी बचपन से सीखता है। सीखने का मेरा यह क्रम आज भी जारी है। कलाओं में नृत्य एेसी कला है, जो गुरु का सान्निध्य पाकर निखरती है। शिष्य में आत्मविश्वास बढ़ता है। मेरी कथक की पहली गुरु साधना घोष रहीं। कलकत्ते में मैंने उनसे एक साल तक नृत्य की प्रारंभिक तालीम ली। बाद में पिताजी का तबादला मुंबई हो गया। वहां मुङो जयपुर घराने के कुंदन लाल ने छह साल तक नृत्य की बारीकियों से अवगत कराया। नृत्य की तरफ मेरे बढ़ते रुझान और कला की समझ को देखते हुए पिताजी ने कथक के बड़े उस्तादों से शिक्षा दिलाना जरूरी समझा। इसके लिए पिताजी कथक के नृत्य सम्राट बिरजू महाराज के पिता के पास गए। पिताजी ने बिरजू महाराज से मेरे लिए निवेदन किया और वे तैयार हो गए। मैं आज जो कुछ भी हूं, उसका सारा श्रेय बिरजू महाराज को जाता है। मैं उनकी शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मेरे जंगपुरा निवास पर नियमित रूप से सुबह-शाम आकर मुङो तालीम दी। किसी-किसी दिन तो सीखने-सीखाने का क्रम पूरे दिन चलता। बिरजू महाराज ने दस सालों में कथक के सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों और शरीर की गूढ़ मुद्राओं को मेरे भीतर उतार दिया।
नृत्य कथक की परिपूर्ण शैली है। कथक से ही कथा और कथाकार शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में श्लोक में इसका वर्णन मिलता है। इसका प्रयोग ब्राह्मी लिपि में किया गया है। बनारस में कथक का उल्लेख प्राकृत भाषा में भी मिलता है, जिससे इसकी प्राचीनता का पता चलता है। महाराजजी ने नृत्य की तकनीक को बड़ी खूबसूरती से मुङो सिखाया। उन्होंने शारीरिक संरचना और अंग की खूबसूरती को निखारा। महाराजजी ‘डांस ड्रामाज् भी बहुत ही सलीके से कंपोज करते थे। उनसे काफी चीजें सीखने को मिलीं। उन्होंने ‘अप्रोच टू कोरियोग्राफीज् के साथ मेरे अंदर कथक की आत्मा भर दी। आज मैं अपने को बिल्कुल बदला हुआ पाती हूं। महाराजजी ने जिनको भी सिखाया उसकी अपनी खासियत है, सबकी कला की अपनी खुशबू है। प्रत्येक साधक आखिरी सांस तक कला का साधक और पुजारी है। गुरु की डांट हमारे लिए प्रसाद थी। उनकी बातों से हम आज भी लाभान्वित होते हैं। मुङो याद आ रहा है कि 1968 में सप्रू हाउस में उनका कार्यक्रम हुआ था। कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने मुझसे करवाई। यही नहीं बहुत सारे अपने कार्यक्रमों में उन्होंने मंच पर आने से पहले मुङो भेजा। यह मेरे प्रति उनका स्नेह है। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने मुङो लोगों के सामने प्रफेशनल रूप में पेश किया। महाराजजी के साथ 1970 के बाद देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम किए। पेरिस, लंदन, अमेरिका के कई शहरों में मैं उनके साथ गई। मंच पर नृत्य करने के बाद अंत में सभी लोग तराना के समय एक साथ नृत्य करते थे। इस दौरान मैंने कई शानदार प्रस्तुतियां दीं।
अपने शिष्यों के प्रति महाराजजी का लगाव इतना अधिक होता था कि उनका मेकअप वह स्वयं किया करते थे। मेरा मेकअप महाराजजी ने खुद किया है। 1969 से लेकर 74 तक नृत्य की जितनी भी मेरी तस्वीरें हैं, उनमें मेरा मेकअप महाराजजी ने ही किया है। इस दौरान मैं मिरांडा हाउस की छात्रा थी। नृत्य के प्रति समर्पित होने में मेरी पढ़ाई कभी बाधा नहीं बनी। हालांकि, मैं भौतिकी की छात्रा रही हूं। और इसी विषय में पीएचडी भी की है। बचपन से पढ़ाई में अच्छी रही। सभी परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती रही। पढ़ाई में लगन और मेहनत के चलते मैं 1976 के सिविल सर्विसेज में चुनी गई। मैंने अब तक एेतिहासिक और पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर ढेर सारी प्रस्तुतियां दी हैं।
प्रत्येक शागिर्द का यह धर्म होता है कि वह अपने गुरु की परंपरा को आगे बढ़ाए। गुरु के लिए यह सबसे बड़ी खुशी है कि कथक परंपरा को उनके शिष्य मर्यादा के साथ आगे ले जा रहे हैं। हम जो करते हैं, उसका समाज पर असर पड़ता है। जो कलाकार कला में डूबा है, उसके लिए कला आत्मा है। जो एेसा नहीं करते उनके लिए कला इस्तेमाल करने की चीज या वस्तु होती है। नृत्य जब तक हृदय की अतल गहराइयों से न उपजा हो तब तक वह अपनी संपूर्णता और प्रभाव में साकार नहीं होता। महाराजजी की 70 के दशक में लाल किला, बाम्बे, सप्रू हाउस में दी गई प्रस्तुति आज भी आखों में बसी है। कथक में महाराजजी ने अलग-अलग वाद्ययंत्रों को लेकर जो कंपोजीशन किया है, वह अद्भुत होने के साथ ही बेजोड़ है। मेरे लिए बिरजू महाराजजी देवता हैं।
प्रस्तुति-अभिनव उपाध्याय

Sunday, October 25, 2009

बेगम कुदसिया के बाग का बिगड़ा साज



दिल्ली में कश्मीरी गेट के ठीक उत्तरी छोर पर मुगल काल की एक निशानी नवाब बेगम कुदसिया का बाग इस समय भी मौजूद है, लेकिन उसकी वर्तमान स्थिति को देखकर उसकी प्राचीन स्थिति का अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है। क्योंकि अब न तो बेगम का महल उस हाल में है न बाग। दिल्ली सरकार ने उसके रख-रखाव की थोड़ी जिम्मेदारी ली है लेकिन बेगम द्वारा बनवाई गई मस्जिद पर अब भी दो इमामों का कब्जा है और मस्जिद में बकायदा रोज नमाज भी अदा की जाती है।
दरअसल यह बाग मुगल काल में बेगम कुदसिया कि आराम करने की पंसदीदा जगह थी।
इतिहासकारों का मानना है कि इसका निर्माण नवाब बेगम कुदसिया ने लगभग 1748 में करवाया था। नवाब बेगम कुदसिया के बारे इंडियन आर्कियोलॉजिकल सर्वे द्वारा जारी किताब उन्हें एक प्रसिद्ध नर्तकी और मुहम्मद शाह (1719-48) की चहेती बेगम बताती है। जबकि प्रसिद्ध इतिहासकार कासिम औरंगाबादी ने ‘अहवाल-उल ख्वाकीन,(एफ 42 बी)ज् और खफी खान ने ‘मुखाब-उल लुबाब,(पेज 689)ज् में कुदसिया फख्र-उन-निशा बेगम को जहान शाह की पत्नी और मुगल शासक मोहम्मद शाह रंगीला की मां बताया है।
इतिहासकारों का मानना है कि 27 मार्च 1712 में जहांदार शाह से लाहौर में युद्ध के दौरान जहान शाह की मृत्यु के बाद नवाब कुदसिया बेगम का प्रभाव उनके बेटे अहमद शाह पर पड़ा वह किसी तरह के निर्णय लेने के पूर्व अपनी मां से परामर्श लेता था।
दिल्ली में यमुना के किनारे कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस बाग में बेगम ने महल, झरना, मस्जिद और गर्मी में हवा के लिए लॉज सहित फूलों और फलों का बागीचा भी लगाया था। कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण यह बाग इरानी चारबाग की पद्धति का बना है।
ऐसा कहा जाता है कि लाल किले में सुल्तान के हरम में रहने वाली महिलाएं यहां आती थीं। यही नहीं संगीतकारों के रियाज के लिए भी यह पसंदीदा जगह थी। गर्मी के दिनों में यह बाग शाम को ठंडक के लिए और जाड़े की दोपहर में यहां लोग गुनगुनी धूप लेने आते थे।
ऐसा कहा जाता है कि इस बगीचे के चारो तरफ दीवार थी लेकिन 1857 में गदर में यहां का कुछ हिस्सा टूट गया।
वर्तमान में एएसआई ने इसके रख-रखाव के लिए काम शुरू किया है लेकिन यहां पर हुए अधिग्रहण के बारे में अभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
उधर अधिग्रहण करने वाले इमाम शकील अहमद का कहना है कि ‘इस मस्जिद पर हमारा हक है क्योंकि इससे पहले मेरे वालिद मुहम्मद असगर 40 साल से इसमें नमाज अदा करा रहे थे और इसकी देख-रेख भी वही करते थे।ज् यही नहीं इस मस्जिद के एक हिस्से पर शकील अहमद के चाचा नसीर ने भी कब्जा जमाया हुआ है। शकील का कहना है कि ‘इस मस्जिद के संबंध में 1974 से केस चल रहा है और हम वाजिब हक के लिए केस लड़ भी रहे हैं। इसमे पहले मदरसा चलता था लेकिन 1999 में वालिद के इंतकाल के बाद अब मस्जिद की देख-रेख और साज-सज्जा मैं ही करता हूं।ज् अपनी खूबसूरती के लिए महशहूर इस बाग में आज भी दीवारों पर बच्चों की लिखावट और सरकारी उपेक्षा से यहां टूटे शिलाखंड देखे जा सकते हैं।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...